लौट आओ दीपशिखा / भाग 12 / संतोष श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शेफ़ालीतो रॉक पेंटिंग में ही माहिर थी हालाँकि वह मेक्सिको की बहुचर्चित चित्रकार फ्रेडा केड्लो से बहुत प्रभावित रही। आत्मचित्रों के लिए प्रसिद्ध फ्रेडा अमेरिका कि सबसे प्रसिद्ध सेल्फ़ पोर्ट्रेट चित्रकार रही है। भारत में आत्मचित्रों की परम्परा अमृता शेरगिल से आरंभ हुई थी। पेरिस में शेफ़ाली ने आत्मचित्रों को ही अपनी पेंटिंग के रूप में प्रस्तुत किया था और फ्रेडा और अमृता शेरगिल के साथ स्वयं को उपस्थित किया था जो अपने आप में एक अभिनव प्रयोग था। तुषार के शेफ़ाली की तरफ़ आकर्षित होने की एक वजह उसके बनाए आत्मचित्र भी थे जिनके भावों और मोहक रंगों ने तुषार को गहरे छू लिया था।

दूर दूर तक फैले समुद्रतट पर चहलक़दमी करते हुए उसने शेफ़ाली से पूछा-"क्याप फ्लोरेंस, वेनिस देखे बिना भारत लौट जाएँगी? फ्रांस और इटली की दूरियाँ पर्यटक महसूस नहीं करते इतने क़रीब हैं दोनों देश।"

"आप चलेंगे?" शेफ़ली ने सहज हो पूछा।

"औरआपकी सखी?"

"दीपशिखा? शायद... पूछ लेती हूँ सबसे आज डिनर के वक़्त।"

लेकिन शेफ़ाली के इस प्रस्ताव पर सना को छोड़कर बाकी के लोग तैयार नहीं थे। एक तो ख़र्च की समस्या, दूसरे भारत लौटने की जल्दी। इसप्रदर्शनी के बाद सभी को अच्छा काम मिलने की उम्मीद थी। नीस के होटल के कमरे के एकांत में दीपशिखा ने शेफ़ाली का मन टटोलने की गरज से पूछा-"शेफ़ाली... एक बात पूछूँ? तुषार के बारे में तू क्या सोचती है? आई थिंक..."

शेफ़ाली ने गहरी साँस ली-"कुछ नहीं छिपाऊँगी तुमसे। मैं भी उसे लेकर डिस्टर्ब हूँ... जैसे सहज बहते जीवन को छेड़ दिया गया हो। शाम को जब हम नीस के समुद्रतट पर टहल रहे थे... धीरे-धीरे रात गहराने लगी थी और सितारे टिमटिमाने लगे थे... उसवक्त सफ़ेद बालू तट पर उभरी चट्टानोंमें दो चेहरे नज़र आ रहे थे... मनो वक़्त ने भी हमें स्वीकार कर लिया हो..."

"तेरे आत्मचित्रोंका कमाल था जो..."

"नहीं, तुषार से मिलना नियति ने इसी तरह तय कर रखा था शायद। मैं उसे महसूस करने लगी हूँ, वह मेरे दिल में गहरे उतर गया है।"

शेफ़ाली ने आँखें बंद कर लीं। वह एक दूसरी ही दुनिया थी जहाँ बस धड़कनें थीं और एहसास थे... प्रेम की आँच में धीरे-धीरे गर्म होता ठंडा निस्सार जीवन था। दस्तकें शेफ़ाली के दिल के दरवाज़े ढूँढ रही थी।

सब भारत लौट गये। दीपशिखा नीलकांत के पास पेरिस चली गई और तुषार, शेफ़ाली और सना फ्लोरेंस रवाना हो गये।

तुषार की विश्वास भरी आँखें दृढ़ व्यक्तित्व के साथ संकोची किन्तु प्लावित कर देने वाली कोमलता ने शेफ़ाली के चारों ओर अदृश्य जाल बुन दियाऔर वह उसमें सिमटती चली गई। तुषार कोमल, भावुक न होता तो कला के प्रति उसका रुझान नहीं होता। कलाकार और कला के शौक़ीन ऐसे ही होते हैं।

फ्लोरेंस में तीनों जिस बाग़ में घूम रहे थे वह हरा-भरा, रंगबिरंगे फूलों और इन्द्रधनुषी फ़व्वारे वाला था। लेकिन उसकी ख़ासियत थी कि चिड़ियों के लिये दाने ख़रीदकर जब अपनी हथेलियों पर फैलाओ तो चिड़ियाँ टहनियों से उतर आती थीं और हथेली पर बैठकर दाना चुगने लगती थीं। इस खेल में जो रोमांच था वोकैमरों में क़ैद नहीं किया जा सकता था। रात को जब सना फ्रेश होने के लिए बाथरूम गई शेफ़ाली ने दीपशिखा को फोन लगाया-"कैसी है तू?"

"तूबता... कैसा लग रहा है फ्लोरेंस में तुषार का साथ।"

"दोनोंहीबहुत उम्दा लग रहे हैं। दो दिन यहाँ रूककर वेनिस जायेंगे।"

"पानी पर बसा शहर? नहरों की सड़ाँध के लिए मन को तैयार कर लेना। औरयाद रखना हम शनिवार को मुम्बई लौट रहे हैं। तेरी और सना कि टिकट मेरे साथ ही है। टाइम पर पहुँच जाना। तुषार कब लौटेगा?"

"हमारे साथ ही, उसी दिन... शायद फ़्लाइटदूसरी हो। मुझे ठीक से पता नहीं है।"

"तो पता कर न... प्रपोज़ क्यों नहीं कर डालती, मनचाहा साथी मुश्किल से मिलता है।"

शेफ़ाली की आँखों में सितारे झिलमिलाने लगे... शायद मन ही मन वह भी ऐसा ही चाह रही थी पर अपनी तरफ़ से कहे कैसे? यह उतना आसान नहीं है।

वेनिस में रुकना सचमुच कठिन था... घूमते हुए तमामइमारतें, दर्शनीयस्थल देखे तो पर दीपशिखा कि कही बात बार-बार नहरों के ठहरे हुए पानी की ओर ही ध्यान खींच लेती थी। हवाओं में एक तरह की बिसांध थीजो अक़्सर रुके हुए पानी से आती है। लेकिन इसी जल नगर में सेंट मार्क्स स्क्वायर में ढेरों कबूतरों के बीच खड़ी सना से नज़रें बचाकर तुषार ने आख़िर हिम्मत कर ही ली-"शेफ़ाली, क्या हम अपनी ज़िन्दग़ी साथ-साथ गुज़ार सकते हैं? मेरे पेरेंट्स पिछले तीन साल से इस कोशिश में हैं कि मैं शादी करलूँ पर कोई जँचता ही नहीं।"

शेफ़ाली को उम्मीद से बढ़कर लगा सब कुछ... लेकिन तुरन्त हाँ भी कैसे करे, पता नहीं तुषार उसके बारे में क्या राय कायम कर ले।

"मुझे थोड़ा वक़्त दो तुषार।"

उसने अपनी झपकती पलकें तुषार के चेहरे पर एक पल को यूँ झपकाईं जैसे वहाँ कुछ ऐसा है जिसे वह समेट लेनाचाहती है... सम्पूर्ण हो जाना चाहती है।

तुषार का चेहरा कुम्हला गया। उसने गहरी साँस भरी-"ओ.के. टेक योर ओन टाइम... और किसी भी तरह का प्रेशर भी नहीं समझना इसे। आज हम पेरिस के लिए रवाना हो जाएँगे। पेरिस में मुझे अपने रिसर्च पेपर्स और जनरल्सकलेक्ट करना है। हम सीधे एयरपोर्ट पर ही मिलेंगे।"

उसने सना को आवाज़ दी-"चलोसना, अभी हमें मुरानोग्लासफैक्टरी भी जाना है।"

सना दौड़ती हुई आई-"तुषार, मुझे कॉफ़ी पीनी है।"

कॉफ़ी शॉप सामने ही थी। सत्रहवीं सदी में जब नेपोलियन वेनिस आया था तो यहाँ एक भी कॉफ़ी शॉप नहीं थी। ये कॉफ़ी शॉप उसी ने बनवाई थी। कॉफ़ी पीकर तीनों मुरानोग्लास फैक्टरी आये जहाँ बड़ी-सी दहकती भट्टी में शीशा पिघलाकर उसे आटे की तरह मुलायम कर लिया जाता है। एक कारीगर शीशे के लौंदे से घोड़ा बनाने में तल्लीन था। फैक्टरीमें ही शो रूम है। शेफ़ाली ने दीपशिखा और अपनी दीदी के लिए ख़रीदारी की।

पेरिस पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई। तुषार रास्ते में उतर गया। उसका चेहरा अभी भी उदास दिख रहा था। कहीं उसने तुषार का दिल तो नहीं दुखा दिया? कहीं उसकी मायूसीइंकारी की वजह न बन जाये। कई सवालों को लिए वह दीपशिखा के सामने थी।

"बेवकूफ़ है तू... टाइम चाहिए... प्यार करने की उम्र में प्यार किया नहीं और अब टाइम चाहिए।"

"तो क्या करती? उतावलीदिखाकर हमेशा के लिये उसकी नज़रों से खुद को गिरा देती?"

"तो क्या तू उसे पसंद नहीं करने लगी है?"

"करती हूँ पसंद... पर।"

"अभी फोन लगा। वरना तेरी बेरुखी में बेचारा ज़रूरी पेपर्स ले जाना न भूल जाए। दिल का अच्छा है तुषार। जिसके साथ बैठकर खुशी महसूस हो, पॉज़िटिवसोच हो जाए, पूरीकायनातबग़ैरबुराईयों के नज़र आने लगे तो मिल गये न मन के तार। हवाएँ तक तो पहुँचा देती हैं मन की बातें अपने चाहने वाले तक वरना कोई किसी को ऐसे ही नहीं पसंद करने लगता।"

"मदाम... लैक्चरर कब से हो गई?"

"तू तो होने वाली है न। चित्रकलाको स्कूलों में सिखाने का तेरा सपना... ऐसा ही कुछ सोचा है न तूने।"

शेफ़ालीकंबल में दुबक गई-"सपनातो है पर हर सपना हक़ीक़त बने ये मुमकिन नहीं है।"

भारत लौटने के बाद सब अपने-अपने कामों में व्यस्त हो गये। एक बड़ा मिशन पूरा होने की खुशी वेफोन पर एक दूसरे से बातें करते हुए, स्टूडियो में गाहे-बगाहे मिलते हुए बाँटते रहे। शेफ़ाली भी स्कूल कॉलेजमें नौकरी की अर्ज़ियाँ देने के काम में जुट गई। अब उसे अपनी कला को भी विद्यार्थियों तक पहुँचाना है, उन्हें पारंगत करना है। वह सना को भी यही सलाह देने लगी जबकि सना कि अध्यापिका बनने में ज़रा भी रूचि नहीं थी लेकिन तुषार तक पहुँचने के लिए उसे अच्छी तरह समझने के लिए सना के नज़दीक आना ज़रूरी था। दीपशिखा पूरे आराम के मूड में थी। वह कुछ दिनों के लिए पीपलवाली कोठी चली गई। नीलकांत अपनी फ़िल्म को प्रमोट करने की कोशिश में जुट गया। जितना तनाव शूटिंग के दौरान उसे रहता है उससे भी ज़्यादा फ़िल्म को बॉक्स ऑफ़िसमें सफलता दिलाने का रहता है। क्या-क्या हथकंडे अपनाए जाते हैं। टी. वी. के रियल्टी शोज़ में, सीरियल्स में, महाएपिसोड फ़िल्म की पब्लिसिटी करना ज़रुरत बन गई है। नीलकांत को दम मारने की फुरसत नहीं मिलती। रिया, दिया कि भी वीकेंड की फ़रमाइशें पूरी नहीं कर पाता। एक बार फ़िल्म परदे पर चल पड़े तो तसल्ली मिले।

"तुम तो फोन तक नहीं करते नील।" दीपशिखा ने फोन पर शिकायत की।

"बस, करनेही वाला था कि तुम्हारा फोन आ गया। कैसी हो दीप?"

"मोटी हो रही हूँ... माँ लाड़ में खूब तली भुनी चीज़ें खिला रही हैं। दिन भर पढ़ती हूँ और थोड़ा बहुत बगीचे में काम। न वॉक, न एक्सरसाइज़।"

"अरे... तब तो वज़न बढ़ेगा ही। मैं तो उलटे वज़न घटाने की बात करने वाला था। अगली फ़िल्म में तुम्हें लीड रोल दे रहा हूँ।"

"हमसे पूछे बिना ही तय कर लिया... दिज़ इज़ नॉट फ़ेयर नील। बहरहाल तो फ़िल्मों मेंजाने का इरादा नहीं है और अगर गई तो बेहतरीन स्टोरी पहली शर्त होगी।"

"ओ.के... क़ुबूलहै। आजकल तुम्हारी शेफ़ाली और तुषार अक़्सर जुहू बीच पर या इनॉरबिट में पाये जाते हैं।"

"तुम उधर क्या करने जाते हो?"

नीलकांत हँसा-"दो-दो गर्लफ्रेंड हैं मेरी तुम्हारे अलावा। उनकी फ़रमाइशें पूरी करनी होती हैं।"

"अच्छा ऽऽ... आती हूँ, बताती हूँ।"

नीलकांत फिर हँसने लगा-" अरे यार... निकलीं न बाबा आदम के ज़माने की सोच वाली! रिलैक्स... मैं रिया दिया कि बात कर रहा था।

"मुझे पता है। अच्छा फोन रखो, किसी का फोन आ रहा है।"

नीलकांत का नंबर कट होते ही शेफ़ाली बरस पड़ी-"कितना बिज़ी रखती हो फोन..."

"नीलकांत था... हाँ बता, क्यों परेशान है?"

"दीपू, तू कब तक लौटेगी। इधर तुषार शादी की हड़बड़ी में है। कहता है मम्मी, पापा कि ओर से प्रेशर है। उसकी दादी अपने पोते की बहू देखना चाहती हैं। वे कई महीनों से बीमार हैं लेकिन मैं खुद को अभी तैयार नहीं पा रही हूँ। तुषार बेहद अच्छा है पर शुरू में तो सभी अच्छे होते हैं।"

"तू इतना शक करेगी तो जीना दूभर हो जाएगा। ऐसा मान के क्यों नहीं चलती कि सब कुछ पहले से तय रहता है... हम चाहकर भी वह नहीं पा सकते जो क़िस्मत में नहीं है। मेरे ख़याल से तुम्हें मान जाना चाहिए।"

दोनों देर तक इस विषय पर बात करती रहीं। माली काका दीपशिखा कि फरमाइश पर पीले गुलाब की कलमें ले आये थे जिन्हें वह अपने हाथों से लॉन के बीचोंबीच क्यारीमें रोपने वाली थी, सुलोचना खमण ढोकला लिए नाश्ते की टेबिल पर उसका इंतज़ार कर रही थीं। दोनों ही इंतज़ार करते-करते थक गये पर बात ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी। अंत में दीपशिखा ने शेफ़ाली को मना ही लिया। अब उसे जल्दी लौटना होगा क्योंकि इसवक़्त शेफ़ाली को उसकी ज़रुरत है। शेफ़ाली ने खुद को रिज़र्व रखा था। कभी किसी को नज़दीक नहीं आने दिया। अब उसके जीवन में प्यार ने अँगड़ाई ली है। अब उन रुकी हुई बहारों को वह शेफ़ाली के जीवन में प्रवेश करते देखना चाहती है। सहसा वह हड़बड़ा गई-"माँ, मुझे जाना होगा, कल ही मुम्बई।"

"अरे, अचानक क्या हुआ?"

"बस यूँ समझो... बेहद-बेहद ज़रुरत है मेरी शेफ़ाली को।"

सुलोचना दीपशिखा के ऐसे चौंकाने वाले अंदाज़ से परिचित थीं। वे जानती हैंउनकी बेटी असाधारण है। आम लोगों जैसे व्यवहार की उम्मीद वे करें भी तो कैसे? दीपशिखा का मुम्बई से पीपलवाली कोठी आना और लौटना अब उनकी दिनचर्या में शामिल है। वे अभ्यस्त हो गई हैं। उन्होंने दीपशिखा के सिर पर हाथ फेरा और अपने कमरे में चली गईं।

मुम्बई में सना के घर पर मिलना तय हुआ। तुषार के माँ बाप यानी सना के मामा मामी... पहली ही नज़र में दीपशिखा मामा के रूआबदार व्यक्तित्व और नवाबी शानबान को ताड़ गई थी। बातें होंगी वज़नदार, उन्हें सतर्क रहना है। शेफ़ाली की तरफ़ से दीदी और दीपशिखा। पहली बात तो यही उठी कि दीदी ने शादी क्यों नहीं की?

"इस निजी सवाल को रिश्ते के बीच में लाया ही क्यों जाए आप शेफ़ाली और तुषार के बारे में ही बात करें तो बेहतर है।" दीदी के दो टूक जवाब ने उन पर असर किया। तुरन्त पहलू बदलकर बोले-देखिए, यहरिश्तानन-फ़ानन में तय करना पड़ रहा है। असलमें हमारी अम्मा कि बहुत इच्छा है अपने पोते की दुल्हन देखने की। आप तो जानते हैं, खानदानी मसला है। अम्मा ज़मींदारों के घराने से इकलौती बेटी हैं और हमारा तुषार... जुनूनी है... अब क्या बताएँ आपको। "

बिल्कुल नवाबी अंदाज़ में तुषार के पिता कह रहे थे। शेफ़ालीऔर दीदी दोनों समझ रही थीं कि मसला ज़मीन जायदाद को लेकर है पर जहाँ तक शेफ़ाली तुषार को समझ पाई थी तुषार अपनी मेहनत की कमाई ही चाहता है। उसे अधिकार की, हक़ की लड़ाई बिल्कुल पसंद नहीं।

"भैया, शेफ़ाली की तरफ़ से तो हाँ है। इसकी मैं गारंटी देती हूँ।" सना कि मम्मी ने चाय नाश्ते की ट्रे टेबिल पर रखते हुए कहा। दीदी और दीपशिखा ने भी उनका साथ दिया क्योंकि न की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। बहरहाल चाय नाश्ते के पहले शगुन हुआ। दीदी ने तुषार का तिलक किया और तुषार की माँ ने शेफ़ाली की गोदमेवों और रुपियों से भरी। सभी ने तुषार और शेफ़ाली को बधाई दी।