लौट आओ दीपशिखा / भाग 13 / संतोष श्रीवास्तव

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"कल ही पंडित को बुलाकर सगाई और शादी की तारीख़ें निकलवाती हूँ।" तुषार की माँ ने कहा और शेफ़ाली को गले से लगा लिया।

गाड़ी में बैठते ही दीदी ने शेफ़ाली का माथा चूम लिया-"बधाई शेफ़ाली, आज मैं बेहद खुश हूँ मैं इस खुशी को सेलिब्रेट करना चाहती हूँ। चलो मूवी चलते हैं।"

"हाँ शेफ़ाली, आज का दिन बेहद खुशी का है। सब कुछ जल्दबाज़ी में हुआ परनिभाने वाले जल्दी और देर में यकीन नहीं करते। मूवी के बाद डिनर मेरी ओर से।"

"दीपू और दीदी... ये डबल दी... मुझे खुश होने, सोचने का मौका ही नहीं देना चाहतीं। चल भाई शेफ़ाली... ज़िन्दग़ी के धूपछाँही रास्तों से होकर गुज़र जा। इस अहम फैसले के लिये देखा जाये तो तेरा कोई रोल ही नहीं था। सब कुछ पहले से फिक्स्ड था।"

"शेफ़ाली ऽऽऽ" दीदी ने आँखें तरेरीं और तीनों खिलखिला कर हँस पड़ीं। हँसी के इन फूलों ने थियेटर तक उनका पीछा किया। मूवी शुरू हो चुकी थी। तीनों अँधेरे में टटोलते हुए अपनी सीटों पर आकर बैठ गये।

दीपशिखाघर लौटी तो देखा दाई माँ बाल्कनी में दरीबिछाए लेटी हैं और काका उनका माथा सहला रहे हैं-"क्याहुआ काका?"

"कुछ नहीं बिटिया, गैस चढ़ रही है इन्हें।"

"हाँ तो पुदीन हरा पिला दो न। आप भी काका, सब मालूम है, न जाने क्यों भूलजातेहो?"

वह अपने कमरे में आकर सोफ़े परबैठी ही थी कि मोबाइल पर नीलकांत कॉलिंग... उसने खुश होकर बताया-"आजशेफ़ाली और तुषार का शगुन हो गया। मैंबहुत खुश हूँनील,"

"तो एक खुशखबरी मेरी ओर से भी। अक्टूबरदस तारीख़ से यानी चार माह बाद तुम्हारी फ़िल्म की शूटिंग शुरू हो जाएगी। सिलीगुड़ी के जंगलों में शुरुआत के दृश्य फ़िल्माये जायेंगे।"

"तो तुम मुझे अभिनेत्री बनाकर ही छोड़ोगे। लोग क्या कहेंगे रंग ब्रश की दुनिया से सीधे कैमरे का सामना?"

"यह भी तो कला है। तुम ब्रश और रंगों से भावों को चित्रित करती हो। अभिनय भी तो भावों को ही चित्रित करने, जताने का एक ज़रिया है।"

दीपशिखा इस तर्क पर लाजवाब थी। लेकिन यह ख़बर सुनकर शेफ़ाली विचलित हो गई-"नहीं दीपू, ये दुनिया हमारी नहीं है... भोले-भाले भावुक लोगों के लिए तो फ़िल्मी दुनिया क़तई नहीं है। जब से हम फ्रांस से लौटे हैं कितना समय दिया तुम्हेंनीलकांत ने? अपनी ही फ़िल्म के जगह-जगह प्रदर्शन में जुटा रहा। फर्स्ट वीकेंड में ही करोड़ों कमा लिए और चार महीने नहीं बीते कि दूसरी फ़िल्म? इस बीच तूने क्या किया... बता, कितने चित्र बनाए?"

"तेरेलफ़ड़ेसे फुरसत मिले तो बनाऊँ। इसीमहीने तेरी शादी है। सारी तैयारी करनी है।"

"बस... बस दादी अम्मा... बात को टाल मत। मेरी राय में तुझे फ़िल्म नहीं लेनी चाहिए। फ्लॉप हो गई तो बदनामी अलग।"

शेफ़ाली की बात ने दीपशिखा को सोचने पर मजबूर कर दिया। सच तो है, उसे हो क्या गया है? पेरिस मेंप्रदर्शनी के बाद क्या उसकी कला चूक गई है? बचपन से रंग, ब्रश, रेखाएँ और कैनवास में रमने वाला मन भटक क्यों रहा है? क्योंवहनीलकांत के कहने पर फ़िल्म साइन कर रही है? वह तो आज़ाद विचारों की है। किसी के बताये रास्ते पर चलना उसे पसंद नहीं। उसकी दुनिया तो पर्वत, जंगल, धरती, आसमान को गहराई से देखने, समझने और चित्रित करने में ही है। उसके रंगों के चुनाव अक़्सर दर्शकों को चौंका देतेहैं। सीधी और घुमावदार रेखाओं के बीच ऐसी जुगलबंदी चलती है कि उसके चित्रों में सुर भी रेखाओं में बदलते जाते हैं। उसके चित्रों की सबसे बड़ी खूबी उसकी गहराई ही तो है। वह बैंगनी और सिलेटी रंगों से बाजीगरकी तरह खेलती है। वह हफ़्तों से बंद पड़े रंगों को खोलने लगी। अचानक उसने ब्रश थामा और देखते ही एखते कैनवास पर एक पराऐतिहासिक स्त्री का चेहरा उभर आया। क्या यह चेहरा उसका है? वह आग जो उसमें अनवरत सुलगती रहती है और जिसे आज ही शेफ़ाली ने हवा दी है... वह आग जो जंगल के जंगल फैलकर उससे चित्र बनवाती है... वह सर्जन की आग... कहाँ हो इसमें नील तुम? तुम जो शो मैन हो, सपनों के सौदागर... और मैं पराऐतिहासिकसब कुछ सहकर, उस आँच में पककर, सिंक कर, कभी न टूटने वाली मिट्टी से बनी मूरत...

नीलकांत ने फोन पर सूचना दी-"गाड़ी भेज रहा हूँ। बांद्राके मेरे स्टूडियो में तुम्हें गौतम राजहंस मिलेगा... तुम्हारी फ़िल्म का कहानी लेखक। कहानी सुन लेना उससे, मैं थोड़ा बिज़ी हूँ।"

"नील तुम..." पर फोन कट गया था। वह फिर से उसका नंबर मिलाने लगी पर हाथ रुक गये। कहानी सुनने में क्या बुराई है।

"दाई माँ, एक कप कॉफ़ी मिलेगी?" उसने तैयार होते हुए कहा।

"कहीं जा रही हो बिटिया?"

"हाँ... जल्दी लौट आऊँगी। पालक की खिचड़ी बना लेना और कुछ खाने का मूड नहीं है।"

गाड़ी आ गई थी। साथ ही नीलकांत का फोन भी-"गाड़ी पहुँची कि नहीं?"

"पहुँचगई बाबा, कितना टेंशन लेते हो नील।"

गौतम राजहंस दीपशिखा से निश्चय ही तीन-चार साल छोटा ही रहा होगा। कामके प्रति जूनून था उसमें। सपनीली आँखों में बहुत कुछ ऐसा बयाँ था जो दीपशिखा को चकित किये था। दोनों के बीच कॉफ़ी के प्याले थे, बर्फ़ीली ठंडक वाले नीम अँधेरे स्टूडियो में दरवाज़े खिड़कियों पर लगे नीले रेशमी परदे सम्मोहित कर रहे थे।

"वाह, बहुत अच्छा लिखा है आपने। फ़िल्मी नब्ज़ आपने पकड़ ली है।" दीपशिखा ने कहानी सुनकर अपनी राय दी।

"इसके पहले भी मैं नीलकांत सर की दो फ़िल्मों पर काम कर चुका हूँ। एक फ़िल्म खूब पसंद की दर्शकों ने, फ़िल्म फेयर अवार्ड भी मिला उसे..."

"और दूसरी?"

"डिब्बेमें बंद है।"

"क्यों? एनी रीज़न?"

"तब सर बहुत डिस्टर्ब थे, तलाकहो चुका था उनका।"

"ओह... आय' म सॉरी।"

दीपशिखा ने ऐसा जताया मानो वह कुछ जानती ही नहीं और ऐसा करना ज़रूरी भी था। वॉचमेन ने गौतम और दीपशिखा के बाहर निकलते ही स्टूडियो बंद कर दिया और नीलकांत को फोन पर इत्तिला दे दी।

"तो मैं चलूँ दीपशिखा जी?"

"क्यों? मेरे साथ नहीं चलेंगे? मेरा घर देख लीजिए। रास्ते में बातें भी हो जायेंगी।"

गौतम इंकार नहीं कर सका। गाड़ी गेट के बाहर जब निकली, सूरज डूब चुका था और उसकी लालिमा के संग अँधेरे का कँट्रास्ट बेहद खूबसूरत नज़र आ रहा था। गौतम बहुत शालीन लगा दीपशिखा को। उसकाव्यक्तित्व भी रोमन मूर्तियों जैसा था। एक-एक अंग साँचे में ढला... क़द्दावर, मनमोहक।

"आपने फ़िल्मी लेखन को प्रोफ़ेशन के रूप में क्यों अपनाया?" दीपशिखा ने जानना चाहा।

"नहींजानता क्यों? शायदमेरीअन्तरआत्मा कि आवाज़ हो जिसकी बिना पर हर कलाकार अपनी विधा चुन लेता है। अब आप भी तो चित्रकला से अभिनय कला कि ओर मुड़ी हैं। क्या ये आपकी अंतरआत्मा कि आवाज़ नहीं है?"

"नहीं।"

सुनकर चौंक पड़ा गौतम-"फिर?"

"ये प्रेम की दीवानगी है जहाँ इंसान सोचना समझना बंद कर देता है।"

गौतम एकटक दीपशिखा को देखता ही रह गया। घर के गेट पर गाड़ी रुक चुकी थी-"अंदर नहीं आयेंगे।"

गौतम मुस्कुराया-"फ़िल्मी हूँ, मुहूरत निकालकर आऊँगा।"

दीपशिखा भी मुस्कुराई-"हम इंतज़ार करेंगे।"

गाड़ी के ओझल होते तक वह गौतम को हाथ हिलाती रही।

शेफ़ाली की माँ तुषार को देखना चाहती थीं लेकिन शेफ़ाली तुषार के अकेले उनके पास जाने से हिचकिचारही थी। पता नहीं भैया भाभी का क्या रवैय्या रहे उसके साथ, वैसे भी वे दोनों बहनों से कोई मतलब नहीं रखना चाहते थे। क्या पता शादी में आयेंगे भी या नहीं। वे माँ की ज़िम्मेवारी निभाते हुए जैसे दोनों बहनों पर क़र्ज़-सा लाद रहे थे। जब से दीदी और शेफ़ाली मालाड में फ्लैट लेकर शिफ़्ट हुई हैं तब से वे यही चाह रहे हैं कि माँ को मुम्बई भेज दें। दीदी थोड़ा और सैटिल होते ही माँ को ले आयेंगी ये तय है।

तुषार का परिवार शादी मुम्बई से ही करना चाहता है यह शेफ़ाली के लिये अच्छी ख़बर है। उसनेदीदी को तुषार के साथ माँ के पास जाने के लिये यह कहकर मना लिया कि वह शादी से पहले जहाँगीर आर्ट गैलरी में होने वाली विभिन्न प्रांतों से आये चित्रकारों के चित्रों की प्रदर्शनी 'दफैंटेसी वर्ल्ड' में हिस्सा ले रही है साथ ही तुषार को सरप्राइज़ भी देना चाहती थी।

"तुषार को सरप्राइज़ चित्रों को बनाकर भला कैसे? बतायेगी तू?" दीपशिखा ने पूछा।

"बताती हूँ... दीदी और तुषार को एयरपोर्ट पहुँचाकर सीधे तेरे घर आई हूँ... तो चाय... अरे दाई माँ चाय भी बना ली?"

"नहीं, तेरे ऑर्डर का इंतज़ार कर रहे थे।"

शेफ़ाली ने दाई माँ के हाथ से प्याला लेकर घूँट भरी-" तुझे तो पता है तुषार मनोचिकित्सक है। तो मैं भी 'माइंडस्केप' नाम से एक चित्र शृंखला बना रही हूँ। पहले चित्र में अरब सागर के किनारे का एक ऐसा दृश्य है जो सागर की तरंगों की तरह ब्रेन में उठने वाली तरंगों का आभास कराता है। दूसरे चित्र में इन तरंगों की कई-कई परतें हैं। अनेकस्तरों पर इनका अस्तित्व मन के अलग-अलग भावों का प्रतीक है। 'माइंडस्केप' की यह शृंखला यथार्थ को ऐब्स्ट्रेक्टऔर फिर ऐब्स्ट्रेक्टको यथार्थ में ले जाने वाली है। एैक्रेलिक रंगोंसे बने इन चित्रों में स्थूल लैंडस्केप और सूक्ष्म भाव पिरोये हैं मैंने।

"वाह... कमाल का सरप्राइज़ है तेरा... अब तू पिया के रंग में रंग गई। मैं तो ठहरी पड़ी हूँ।"

"तू पहले ही रंग चुकी है नीलकांत से गंधर्व विवाह करके।"

"तेरी बात में वज़न तो है।"

"चल फिर... कल शॉपिंग निपटा लेते हैं।"

"यही ठीक रहेगा... दीदी सोमवार को लौटेंगी न? और दस तारीख़ को मेंहदी और फिर तुषार की माँ का आदेश है कि मेंहदी के बाद नो शॉपिंग।"

दीपशिखा ने बड़ी बूढ़ियों के अंदाज़ में कहा और दोनों ही खिलखिला पड़ीं। समंदरकी ओर खुलने वाली खिड़की से हवा के संग कुछ बूँदें भी कमरे में दाख़िल हो गईं।

"लगता है बारिश हो रही है। चलो, गर्मी कुछ कम होगी। इस साल मौसम विभाग की सूचना है कि मॉनसून जल्दी आयेगा।"

"सो तो आ गया... हम तो सराबोर हैं।"

शेफ़ाली की शरारत पर देर तक हँसी के ठहाके गूँजते रहे।

शेफ़ाली के जाने के बाद दीपशिखा उसकी 'माइंडस्केप' शृंखला के बारे में सोचती रही। उसे पिकासो याद आये जिन्होंने कहा है कि एैब्स्ट्रेक्ट जैसी कोई चीज़ नहीं होती, किसी न किसी यथार्थ से ही शुरुआत करनी होती है। उसी को रचते-रचते रचना में से असली यथार्थ को हटाकर उसमें कुछ कल्पना को मिला देना ही कला है।

फिरयथार्थ क्या है? सोचती रही दीपशिखा। उसके आगे खुले इन नये-नये रास्तों में से न जाने कौन-सा रास्ता उसे मंज़िल तक ले जायेगा। बड़ी अनिश्चय की स्थिति है... क्या गौतम से सलाह ले जो अब उसका क़रीबी दोस्त बन गया है। नीलकांत तो उसे ग्लैमर की दुनिया में घसीट रहा है जो उसकी दुनिया है ही नहीं।

बहुत सादगी से भरी शैड के बाद अब शेफ़ाली तुषार के माता पिता के नेपियन-सी रोड वाले विशाल बंगले में आ गई है। दीपशिखा संतुष्ट है कि शेफ़ाली कोउसकीमंज़िल मिल गई। तुषारका भी भूलाभाई देसाई रोड पर क्लीनिक खुल गया है जहाँ वह चार डॉक्टर्स की टीम के साथ काम कर रहा है। खुश है शेफ़ाली-"तुषार इज़ परफ़ेक्ट लाइफ़ पार्टनर... जैसा मैं चाहती थी बिल्कुल वैसा ही" दीपशिखा को ये बताते हुए शेफ़ाली की सवालिया नज़रें उसकी ओर उठी थीं। दीपशिखा ताड़ गई थी कि शेफ़ाली क्या पूछना चाह रही है-"प्लीज़ शेफ़ाली... अभी मेरे पास तेरे सवाल का जवाब नहीं है।" वैसे भी जवाब नहीं था उसके पास। नीलकांत की ज़िद्द पर मुम्बई के स्टूडियो मने फ़िल्म का मुहूर्त तो हुआ पर न वह शूटिंग के लिए सिलीगुड़ी गई और न ही इस बार नीलकांत ने ज़िद्द की।

"तुम जो बेहतर समझती हो करो। तुम फ़िल्म करो वह मेरी बात थी... गोली मारो मेरी बात को।" कहते हुए नीलकांत ने जो लगभग दो घंटे से बैठा शराब पी रहा था उसे आलिंगन में भरकर लाड़ से दुलारा-"अब तो खुश हो।"

"हाँ, इस वक़्त मैं खुश हूँ क्योंकि फैसला तुमने मेरे ऊपर छोड़ दिया है। हो सकता है सुबह तक मैं तुम्हें फोन पर फ़िल्म के लिये हाँ कह दूँ और सिलीगुड़ी चलूँ तुम्हारे साथ।"