लौट आओ दीपशिखा / भाग 14 / संतोष श्रीवास्तव

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नीलकांत ने फीकी हँसी हँसते हुए कहा-"चलो, तुम्हें ड्रॉप करते हुए मैं घर चला जाऊँगा।"

लेकिन सुबह दीपशिखा ने गौतम को फोन लगाया-"बताओ गौतम मैं क्या करूँ?"

"अंतरआत्मा कि आवाज़ सुनो दीपशिखा। वहीसच है।"

"अगर अंतरआत्मा कहे कि गौतम को प्यार करो तो क्या मान जाऊँ ये बात?"

"हाँ... क्यों नहीं? हम अंतरआत्मा कि आवाज़ को नकार नहीं सकते। मेरी अंतरआत्मा ने तुम्हें प्यार करने की इजाज़त दे दी है।"

दीपशिखा चौंक पड़ी-"क्या कहा तुमने? गौतम तुम होश में तो हो?"

उसने फोन पटक दिया-"ईडियट कहीं का? मेरे और नील के रिश्ते को जानता है फिर भी।"

आज रात की फ़्लाइट है नीलकांत की। पहलेदिल्ली, फिर दिल्ली से सिलीगुड़ी। तैयार होकर वह नीलकांत के स्टूडियो आ गई। दिन भर व्यस्तता... काम... तैयारी... दीपशिखा हाथ बँटाती रही। जैसे तैसे फुरसतहोकर शाम को दोनों वहीं बांद्रा वाले स्टूडियो में चले गये।

"नहीं मना पाईं न खुद को दीप?" नीलकांत ने दीपशिखा के बालों को सहलाते हुए कहा-"नाहक ही तुम्हारेसामने प्रपोज़ल रखा। तुम चित्रकार, ब्रश और हाथों की सधी दुनिया है तुम्हारी। हम लोग तो कैमरा, एक्शन, टेक, रीटेक, कट, ओ.के. में ही उम्र तबाह कर लेते हैं और फिर दुनिया से पैकअप हो जाता है हमारा।"

"ऐसा क्यों कह रहे हो नील?" दीपशिखा ने उसके होठों पर हथेली रख दी फिर उसके सीने में चेहरा छुपाते हुए वह लरज गई-"कलाकार ऐसे ही होते हैं नील, हम भी तो ऐसे ही हैं। लम्बे समय के लिये जा रहे हो... उस बीच मैं एक प्रदर्शनी लायक चित्र तो बना ही लूँगी।"

तभी नीलकांत के सेक्रेटरी ने बेल बजाई-"सर, एयरपोर्ट के लिये निकलने का वक्त हो गया। हम जायें?"

"हाँ, ठीक है... कहीं कोई डाउट हो तो फोन कर लेना।"

सेक्रेटरी के जाते ही दीपशिखा ने पूछा-"और तुम?"

"मेरी फ़्लाइट तीन घंटे बाद की है। पहले तुम्हें ड्रॉप करूँगा फिर सीधे एयरपोर्ट चला जाऊँगा।"

इतने दिनों की दूरियों को सोच दोनों बहुत भावुक हो रहे थे। पर समय का तक़ाज़ा था। कई बातों को लेकर समझौता करना पड़ता है। नीलकांत के विदा होते ही बेचैन हो गई दीपशिखा... रात ठीक से नींद भी नहीं आई। सुबह-सुबह झपकी लगी तो दस बजे तक सोती रही। न जाने क्यों बेचैनी दिन भर रही। शाम चार बजे के क़रीब वह अकेली ही अपने स्टूडियो आई। तुषार का क्लीनिक नज़दीक ही था लेकिन इन दिनों बंद था। तुषार और शेफ़ाली हनीमून के लिये डलहौज़ी गये थे।

इतने दिनों से बंद पड़े स्टूडियो को खोलते हुए सैयद चचा निहाल थे-"अब रौनक लौटेगी यहाँ। इतने महीनों से ऐसा लगता था जैसे खण्डहरोंमें भटक रहे हैं हम।"

सैयद चचा भावुक हो उठे थे।

"अरे चचा... कलाकार तो मूडी होते ही हैं। कल से सब आने लगेंगे, आपके सामने ही सबको फोन लगाती हूँ।"

"चाय लाऊँ?" सैयद चचा कि बाँछें खिली पड़ रही थीं।

"हाँ चचा... लेकिन पहले स्टूडियो साफ़ कर दो, इतने दिन से बंद रहा।"

"एकनज़र देख तो लो, फिर कहना।" हथेली पर हथेली मार कर हँसे चचा-"रोज़ सफ़ाई करता हूँ। हर चीज़ साफ़ सुथरी, ज्यों की त्यों रखता हूँ।"

सचमुच स्टूडियो खूब साफ़ सुथरा था। क़रीने से हर चीज़ लगी-"वाह चचा, अब चाय तो पिलाओ।" कहते हुए दीपशिखा ने सभी दोस्तों को फोन लगाया। अपने स्टूडियो में लौट आने और काम पर लग जाने की बात बताई। फिर जाने क्यों गौतम को भीलगा दिया-"सॉरी गौतम, बुरा लगा होगा न तुम्हें। कल सुबह मैंने बीच में ही फोन काट दिया था।"

"नहीं दीपशिखा... मैं इन सब चीज़ों से परे हूँ... और फिर हर एक व्यक्ति प्यार और नफ़रत करने के लिये आज़ाद है। टेक इट ईज़ी... माई डियर।"

"आ सकते हो?"

"कहाँ?"

"मेरे स्टूडियो, एड्रेस एसएमएस कर रही हूँ।"

"ओ.के."

कितना सहज सरल है गौतम। कभी किसी बात का बुरा नहीं मानता। डायरेक्टर्स की जैसी डिमांड वैसी कहानी लिखकर फुरसत। सोचते हुए दीपशिखा कैनवास पर रेखाएँ खींचने लगी। आज उसे चटख़ रंग और तीखी आकृतियों का चित्र बनाना है। मन को मथ डालना है और निकले हुए सार तत्त्व को पकड़ लेना है। लद्दाख़ में जो प्राकृतिक दृश्य विधाता ने रचे हैं उन्हें वैसे ही चित्रित करना होता था, स्टूडियो में कल्पना से खेलने का ज़्यादा मौका मिलता है। सबसे ज़्यादा मज़ा तो तब आता हैजब देखे हुए दृश्यों को कल्पना में खींचकर चित्रित करना होता है। तब चित्रकार और दर्शक के बीच एक भावनात्मक रिश्ता बनने लगता है। नीलकांत से रिश्ते की वजह भी तो उसके बनाए चित्र ही थे।

सैयद चचा तश्तरी में डालकर चाय सुड़क रहे थे तभी गौतम के क़दमों की आहट ने दस्तक दी।

"आओ गौतम, देखो मेरी दुनिया, मिलो सैयद चचा से।"

सैयद चचा ने खींसे निपोरीं और दौड़े चाय लेने। गौतम अभिभूत था। दीफिखा बेहतरीन चित्रकार है इसकी गवाही उसके चित्र दे रहे थे।

"तुमसचमुच महान चित्रकार हो।"

दीपशिखा ने झुककर सलाम किया।

"कल से मेरे साथी चित्रकार भी आने लगेंगे और हम नई योजना पर विचार करेंगे। कला जुनून होती है न गौतम?"

"अब तक नई हीरोइन को साइन करके नीलकांत सिलीगुड़ी पहुँच गये होंगे, ये जुनून ही तो है।"

"शूटिंग पंद्रह दिन बाद शुरू होगी। यूनिट तो जा चुकी है लोकेशन वगैरह के लिए लेकिन नीलकांत सर अभी पनवेल में हैं।" कहते हुए गौतम दीवारों पर लगे चित्रों को बारीकी से देखने लगा।

"पनवेल, क्यों?"

गौतम ने मुड़कर दीपशिखा कि ओर देखा और मुस्कुरा दिया। ख़ामोशी रहस्य बुनने लगी।

"बताओगौतम... छोड़ो, मैं ही फोन करके पूछ लेती हूँ। अभी कल शाम तक तो मेरे साथ थे। कल रात की उनकी फ्लाइटथी। हद है... पनवेल में हैं और बतायातक नहीं।"

वह जल्दी-जल्दी फोन मिलाने लगी।

"नहीं, फोन मत करो दीपशिखा... चलो प्रियदर्शिनी पार्क चलते हैं। अभीऔर कुछ मत पूछना प्लीज।" गौतम के लहज़े में गहरा दर्द था।

पार्क में अँधेरा उतर आया था और समंदर की लहरें बेताबी से किनारों को छूतीं फिर लौट जातीं। कितना साम्य लगता है कभी-कभी प्रकृति और मन के भावों में? गौतम ने मूँगफलियाँ ख़रीदीं और दोनों टहलते हुए खाने लगे। जाने कहाँ से ढेर सारे सफेद पंखों वाले परिंदे सागर पर मँडराने लगे। वे जल की सतह को पंजों से छूते और पंख फड़फड़ाने लगते।

"सह पाओगी?" गौतम ने अचानक कहा।

"कहो न... मेरे लिए कुछ भी सह लेना कठिन नहीं है।" दीपशिखा ने बहुत विश्वास से कहा लेकिन सारा विश्वास तब भरभरा कर ढह गया जब गौतम ने बताया-"पनवेल में नीलकांत की रखैल मंदाकिनी रहती है, उसी के पास गये हैं सर।"

हाथ से छूटकर मूँगफली की पुड़िया रेत पर बिखर गई औरकिर्च-किर्च बिखर गई दीपशिखा। उसकी आँखें गुस्से, नफ़रत और आँसू की परत से लाल हो गई थीं। हवाएँ उसके रेशमी बालों को उड़ाकर चेहरे पर बार-बारबिखरा देतीं।

"धोखा... इतना बड़ा धोखा... आई विल किल हिम... मार डालूँगी..."

गौतम वहीं दीपशिखा के सामने बैठकर उसके हाथों को थाम कर जैसे पुचकारने-सा लगा।

"हौसला रखो दीपशिखा! फ़िल्मी हस्तियाँ ऐसी ही होती हैं। उनकी कामयाबी, प्रसिद्धि उन्हें खुली छूट देती है यह सब करने की। लेकिन वे यह नहीं जानते कि हर चढ़ाई उतराई की ओर जाती है।"

दीपशिखा को इस वक़्त उपदेश की नहीं सहानुभूति की ज़रुरत थी।

"गौतम तुम सच कह रहे हो?"

"पनवेल, चलकर देखना चाहती हो? आज की पूरी रात सर मंदाकिनी के साथ हैं। उनकी फ्लाइट कल की है।"

"अच्छा, इसलिए कल उसका सेक्रेटरी अकेले ही एयरपोर्ट गया था।"

गौतम की बातों इमं सच्चाई झलक रही थी। लेकिन एक बार वह सब कुछ अपनी आँखों से देखना चाहती थी। आख़िर विश्वास करे भी तो कैसे? इतना प्यार करने वाला नीलकांत ऐसा कैसे हो सकता है? "

"अगर हम अभी चल दें तो लौटने में कितना वक़्त लग जायेगा?"

"रात के दो तो बजेंगे।"

"चलेगा। गाड़ी तो मैंने वापिस भेज दी है। ड्राइवरभी घर चला गया होगा। टैक्सीही लेनी पड़ेगी। मैं दाई माँ को फोन करके बता देती हूँ कि लौटने में देर होगी। तुम्हें घर तो पता होगा।"

"हाँ... कितनी बार तो सर ने मुझे वहाँ बुलाकर कहानी लिखवाई है।"

टैक्सीमें बैठते ही दीपशिखा का रहा सहा धैर्य ख़तम हो गया। वह हाथों में चेहरा छुपाकर रो पड़ी। उसके होठ कुछ कहने को उतावलेथे पर गौतम ने उसका सिरसहलाते हुए तसल्ली दी-"नहीं, कुछ मत कहो।"

टैक्सी ड्राइवर ने गाने लगा दिये थे और रास्ता बड़े आराम से कट जाना चाहिए था पर टूट चुके दिल की चुभन तक़लीफ़ दे रही थी। दीपशिखा काफ़ी सम्हल चुकी थी।

डोरबेल बजाते हुए गौतम आगे आ गया। दीपशिखा थोड़ा हटकर खड़ी हो गई ताकि दरवाज़ा खोलने वाले को तुरन्त दिखाई न दे। दरवाज़ा नौकर ने खोला-"अरे, गौतम भैया... आइये, आइये।"

गौतम के पीछे-पीछे दीपशिखा भी हॉल में आ गई। थोड़ी देर में नीलकांत मंदाकिनी के साथ बाहर आया-"कहो गौतम, अचानक क्या काम ऽऽऽ"

लेकिन उसका वाक्य अधूरा रह गया। उसके काटो तो खून नहीं... सामने दीपशिखा... ये क्या कर डाला गौतम ने?

"दीपशिखा... तुम! इस वक़्त यहाँ ऽऽ!"

"यही तो मैं पूछना चाहती हूँ मिस्टर नीलकांत... जहाँ तक मुझे जानकारी है इस वक़्त आपको सिलीगुड़ी में होना चाहिए था।"

दीपशिखा को गौतम ने घंटों पहले ये हक़ीक़त बताकर मज़बूत कर दिया था। उसका एक-एक शब्द नीलकांत को भारी पड़ रहा था। वह उसके नज़दीक आकर बाँह पकड़ने लगा-"बैठोतो।"

"डोंट टच मी... तुम इस लायक नहीं। यू आर अ बिग चीटर... धोखेबाज़... लायर... और आप..." दीपशिखा ने उसके नज़दीक ही खड़ी मंदाकिनी से कहा-"आप जिस व्यक्ति पर भरोसा कर रही हैं ये मुझे प्यार करने का दावा करता रहा। मुझे भ्रम में रखकर मेरे साथ दगाबाज़ी की। आप भी सम्हल जाइये। चलो गौतम।"

नौकर चाय की ट्रे लिये हक्का-बक्का खड़ा था। मंदाकिनी सिर पकड़कर सोफ़े पर बैठ गई लेकिन नीलकांत को होश कहाँ था? एक साथ सब कुछ हाथ से फिसलता नज़र आ रहा था। उसने दीपशिखा को रोकना चाहा-"दीपशिखा, प्लीज़इस तरह मत जाओ।"

दीपशिखा ने उसके सामने ही गौतम का हाथ पकड़ा और दरवाज़े से बाहर निकल गई।