लौट आओ दीपशिखा / भाग 3 / संतोष श्रीवास्तव

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सुबहयूसुफ़ ख़ान के आते ही दाई माँ, महेश काका बड़े व्यस्त नज़र आने लगे। दीपशिखा तो उनके इंतज़ार में सुबह से तैयार होकर बैठी थी।

"तुमवहीं क्यों स्टूडियो लेना चाहती हो?" यूसुफ़ ख़ान ने दीपशिखा के इरादे को भाँपते हुए कहा।

"पापा, वहाँ सभी चित्रकारों के अपने स्टूडियो हैं। सभी मिलजुल कर कला को परख कर काम करते हैं। अपनेपन का माहौल है। स्पर्धा नहीं है बस काम करने की लगन है जो एक दूसरे को प्रेरित करती है... इसीलिए पापा।"

"ठीक है, शेफ़ाली भी अगले महीने आ जाएगी तब तुम शायद होमसिक नहीं होगी। सुलोचनाटेंशन में आ जाती हैं-तुम्हारे अकेलेपन को सोचकर।"

दाई माँ ने नाश्ता मेज पर लगा दिया था-"पापा... माँ की लाड़ली बिटिया हूँ न...इसीलिए। वैसे यहाँ मेरे सभी दोस्त बहुत मददगार हैं... मुकेश तो घर तक छोड़ने आता है।"

कह तो दिया था उसने फिर सकपका गई। यूसुफ़ ख़ान के भी कान खड़े हुए-"ये मुकेश कौन है?"

"मेरा दोस्त पापा... चित्रकार है, फोटोग्राफ़ी भी करता है। बहुत अच्छा कलाकार है। मिलवाऊँगी आपसे।" भोलेपन से दीपशिखा बोली।

लेकिन यूसुफ़ ख़ान ने इस बात को भोलेपन से नहीं लिया। उन्होंने बाल्कनी में जाकर सुलोचना को फोन लगाया-"तुम्हारीबेटी के दोस्तों में लड़के भी हैं। ऐसे में कुछ ऊँचनीच न हो जाए। तुम कुछ दिनों के लिए यहाँ आकर रहो। माहौल देखो, दीपू को समझो... ये ज़रूरी है।"

सुलोचना ने ख़ामोशी से सुना। यूसुफ़ ख़ान के शक्की स्वभाव से वे परिचित थीं। कोई सुलोचना कि तारीफ़ कर दे या बार-बार उससे मिलने आये तो उन्हें शक़ हो जाता था। फिर ये तो बेटी का मामला है। बेटी मेंआए बदलावों को सुलोचना समझाना चाहती थीं। तय हुआ कि यूसुफ़ ख़ान के लौटते ही वे मुम्बई जायेंगी। दाई माँ को ताकीद की गयी किदीपशिखा के आने, जाने मिलने जुलने वाले लोगों पर नज़र रखें और पल-पल की ख़बर उन तक पहुँचाएँ।

लेकिन दीपशिखा के क़दमों को अब कोई रोक नहीं सकता था। भले ही पंख न हों पर हौसले हैं और यही हौसले तो परवाज़ हैं जो अकाश को चूमेंगे।

"क्या रखा है आकाश में दीप..."

दीपशिखा के स्टूडियो में एक ढलती शाम मुकेश ने खूब मीठी कड़क चाय पीते हुए कहा-"वहाँ न घर बना सकते, न फूल खिला सकते, न ही छै: ऋतुओं का आनंद ले सकते। बड़ीशून्य-सी कल्पना है आकाश को चूमने की।"

दीपशिखा कैनवास पर रंगों के कोलाज में डूबी थी। चौंक पड़ी... "क्या कहा तुमने? शून्यकल्पना! हुज़ूर, शून्य ही तो सबको विस्तार देता है।"

"मेरे कैमरे को नहीं... मेरे कैमरे में शून्य समा ही नहीं सकता।"

"फोटोग्राफ़रमहाशय जी... आप चाहें तो क्या-क्या बना दें शून्य को... साधारण औरत को अप्सरा बना दें..."

"भला ऐसा क्यों? जबकि मेरे पास अप्सरा है।"

"सुनूँ तो... कौन है वह?"

मुकेश ने कैमरा दीपशिखा के चेहरे पर लाकर क्लिक किया और स्क्रीन पर दिखाया-"ये।"

दीपशिखा का चेहरा आरक्त हो उठा। उसे लगा जैसे उसका दिल धक् से हुआ है और जिसकी आवाज़ अब भी उसे सुनाई दे रही है। शाम का जादुई तिलिस्म धीरे-धीरे स्टूडियो में भी उतर आया। न जाने कैसे... बस इसी एक लम्हे में मुकेश ने झुककर आहिस्ता से दीपशिखा के होठ चूम लिए। पहले प्यार का पहला स्पर्श... जैसे बाहर लगे बाँस के झुरमुट में हवा के चंचल झोंके की बीन बज उठी हो।

सुलोचना का आना दीपशिखा को चकित कर गया। न कोई सूचना, न तयशुदा कार्यक्रम, न यूसुफ़ ख़ान ने ही इसके संकेत दिये। शाम के झुटपुटे में जब वह मुकेश से बिदा ले घर आई तो दरवाज़ा खुलते ही सुलोचना को सोफ़े पर बैठे पाया-"माँऽऽ... तुम?"

वह दौड़कर उनके गले लग गई-"अचानक कैसे? कहीं सपना तो नहीं?"

सुलोचना ने दीपशिखा को बाँहों में भरकर उसके गाल, माथा चूम लिये-"माँ तो हक़ीक़तहोती है दीपू, सपना नहीं। लेकिन तुम ज़रूर सपनों की उम्र से गुज़र रही हो।"

दीपशिखा सोफ़े पर माँ के बाजू में बैठ गई-"देखो माँ, तुम्हारी बेटी कितना काम करती है। सुबह की निकली हूँ।"

"तो फिर लंच वग़ैरह?"

"अरे माँ... दाई माँ ब्रेकफ़ास्ट के नाम पर ब्रंच करा देती हैं और काम के जूनून में भूख किसे लगती है?"

कहते हुए दीपशिखाकपड़े चेंज करने के लिए उठी। दाई माँ ने नज़दीक आकर कहा-"जल्दी फ्रेश हो जाओ बिटिया। मूँग की दाल में मेथी के पत्ते डालकर मुंगौड़ियाँ बनाई हैं। साथ में अदरक वाली चाय भी न? फटाफटले आती हूँ।"

जींस, टी शर्ट उतारकर वह बाथटबमें जा घुसी। कुनकुने पानी में सारी थकान पिघलने लगी। चेहरा धोते हुए ऊँगलियाँ होठों पर आकर टिक गईं... वह प्रथम चुम्बन! उसके अंदर जैसे कुछ पिघलने-सा लगा, नसोंमें तीव्र गति से दौड़ने लगा। क्या था वह... प्यार... प्यार का जमा हिमखंड जो मुकेश के होठों की आँचसे पिघलनेलगा था, पिघलकरनसों में दौड़ रहा था और वह समूची खिंची जा रही थी मुकेश की ओर... नहाने के दौरान ही उसने मुकेश को एस एम एस किया-"मैंने ये दावा कब किया कि तुम मेरे हो। तुम्हारी आँखों ने खुद ही बता दिया।"

जवाब आया-"मेरी आँखें अब वह नींद न लें जिसके सपनों में तुम मौजूद न हो।"

"मुझेसपना नहीं हक़ीक़त बनाओ मुकेश।"

"मेरी दीप... तुम मुझमें हो और मैं तुममें हूँ, तो ये हक़ीक़त ही तो है।"

धीरे से दरवाज़ा खटका-"दीपू, कितनानहाओगी?"

"आई माँऽऽ..." और आज का आख़िरी एस एम एस...

"मेरे होठों पर तुम्हारे होठों की छुअन... एक ज़िन्दा एहसास कि तुम मेरे क़रीब हो। गुड नाइट।"

सोने से पहले सुलोचना दीपशिखा के सिरहाने आकर बैठ गईं-"दीपू अब तो तुम बड़ी चित्रकार हो गई हो। देखी मैंने तुम्हारी पेंटिंग्स... मुझे तुम पर गर्व है।"

दीपशिखाने सुलोचना के सीने में अपना चेहरा छुपा लिया। "ओहमाँ, रीयली! मैं अमृता शेरगिल जैसी तो नहीं पर उनकी चित्रकारी मुझे अपील करती है। माँ... एक बात बताओ... कलाकार छोटी उम्र क्यों लेकर आते हैं दुनिया में? जैसे अमृता शेरगिल, जैसे पाश, सुकांत भट्टाचार्य, हेमंत। हेमंत भी चित्रकार और कवि दोनों था न माँ... पर ये कलाकार कवि बाईस, तेईस साल ही जिये। माँ, मैं मरना नहीं चाहती।"

"पगली।" सुलोचना ने उसकी पीठ थपथपाई-"यह सब हमें नहीं सोचना है, हर एक का मरण का दिन तय है... हमें सिर्फ़ जीने और कुछ कर गुज़रने की बात सोचनी चाहिए।"

"हाँमाँ, मैं पेरिस में एग्ज़ीवीशन लगानाचाहती हूँ। अंतरराष्ट्रीयस्तर पर अपने चित्र प्रदर्शित करना चाहती हूँ पर पहले मुम्बई, दिल्ली और भोपाल में... है न माँ।"

सुलोचना दीपशिखा कि आँखों में आकाँक्षाओं का समंदर ठाठें मारते देखती रहीं। वे सहम गईं। बचपन से ही दीपशिखा में असाधारण बातें उन्होंने देखीं। छोटी-सी उम्र से चित्रकारी, ग़ज़ल, कविता कि समझ... लेकिन दोनों ही कलाओं में कहीं बचपना नहीं दिखा। प्रौढ़ता दिखी, गंभीरता दिखी। मुम्बई में पढ़ने, अकेले रहने के उसके फैसले के आगे जो वे झुकीं थीं उसकी वजह जहाँ एक ओर उनकी अपनी सोच थी कि वे भी तो ऐसा ही जोश भरा खून अपनी नसों में दौड़ता महसूस करती थीं और इसी कारण वे अपने माता पिता कि मर्ज़ी के बिना मुसलमान लड़के से शादी करने की हिम्मत जुटा पाईं थीं, वहीं दूसरी ओर उसकी प्रौढ़ता और गंभीरता भी थी। लेकिनआकाँक्षाएँ यदि पूरी न हों तो सर्वनाश कर डालतीहैं इंसान का। उन्होंने दीपशिखा में जो आकाँक्षाओं का अथाह समंदर देखा... उन्हें लगा कहीं कुछ ग़लत हो रहा है... कहीं कुछ ऐसा जिसे होने देने से रोकना है लेकिन जिसकी अनिवार्यता कि जड़ें भी गहरी-गहरी हैं। उन्होंने ऊँघती दीपशिखा का सिर तकिये पर रखा-"अब सो जाओ, गुडनाइट।"

"गुडनाइट माँ।"

दीपशिखा के कमरे की दूधिया चाँदनी-सी रोशनी से बाहर निकलते ही सुलोचना को तेज़ बल्बों की चकाचौंध ने दबोच लिया। वे घबराई हुईतो थीं ही... उत्तेजितभी हो गईं... "महेश, लाइट क्यों जल रही है अब तक?" एकख़ामोशआहट... कमरा अँधेरे में कैद हो गया और उससे भी गहन अँधेरे में सुलोचना... क्या होगा दीपू का? आकाँक्षाओं का भँवरजालन ले डूबे कहीं? देर रात तक सुलोचना अपने बिस्तर पर करवटें बदलती रहीं। तीन बजे के क़रीब नींद आई होगी और सुबह छै: बजे खटपट से नींद खुल भी गई। देखा, बाल्कनी में दीपशिखा प्राणायाम कर रही थी और दाई माँ जूसर में से लौकी का जूस निकाल रही थी। महेश दीपशिखा के कपड़ों में आयरन कर रहा था। सब कुछ व्यवस्थित... दीपशिखा भी सधी-सधी सी, प्राणायामके बाद वह वॉकर पर आ गई।

"हाय माँ... गुडमॉर्निंग, नींद अच्छी आई? इधर आइए बाल्कनी में। समंदर की ताज़ी हवा के संग उड़ते परिंदों को देखिए... वाओ... ब्यूटीफुल... अब बताइए, पीपलवाली कोठी से दिखता है ऐसा नज़ारा?"

पसीने से लथपथ वह फर्श पर ही बैठ गई... नेपकिन से पसीना सुखाते हुए बोली-"माँ... देखो ये चार लाइनें कविता कि सुबह-सुबह लिखीं। दाई माँ, जूसऽऽऽ"

सुलोचना अब तक एक शब्द भी नहीं बोली थीं। दीपशिखा के रूटीन वर्क को मुग्ध हो निहार रही थीं। बदलाव तो आया है बेटी में। पर इतना और इस तेज़ी से आयेगा, उन्होंने सोचा न था।

अगली सुबह शेफ़ाली ने सरप्राइज़ दिया-"हम आ गये हैं मुम्बई।"

"अरेवाह, अच्छासरप्राइज़ दिया। इसीलिएदो दिन से चुप थी तू।"

"तूने कौन-सा फोन किया? तू भी तो..."

"अरे यार, माँ आई हैं।"

"पता है मुझे... आरही हूँ बारह बजे तक। तू अपना पता एस एम एस कर। दीदी ने आज से नौकरी ज्वाइन कर ली। अभी हम वर्किंग वुमन हॉस्टल में हैं।" शेफ़ाली ने पूरा समाचार एक ही साँस में कह डाला। दीपशिखा ने फोन रखते ही माँ से कहा-"माँ, शेफ़ाली और दीदी आ गई हैं। दाई माँ... आज बैंगन का भरताज़रूर बनाना, शेफ़ाली को बहुत पसंद है।"

अपनी प्राणों से भी प्यारी सखी के स्वागत में वह और भी कुछ सोचती कि सुलोचना ने कहा-"अच्छा हुआ शेफ़ाली आ गई... मैं भी कल लौट रही हूँ। अब निश्चिंतता रहेगी।"

निश्चिंतता रहेगी! दीपशिखा के मन में कुछ खटका... तो क्या माँ उसके इस महानगर में अकेले रहने की वजह से चिन्तित हैं? मगर क्यों?

बारह बजे उसने शेफ़ाली को अटैंड किया... दिन भर गपशप, खानापीना। शाम को स्टूडियो भी ले जाकर दिखाया। मुकेश से भी मिलवाया लेकिन वह 'क्यों' उसके ज़ेहन में दिन भर अटका रहा। अगर वह माँ की जगह होती तो वह भी शायद ऐसा ही सोचती लेकिन माँ के लहज़े में 'कुछऔर' की बू भी थी जिसके लिए वह खुद को मना नहीं पा रही थी। उसके हर क़दम का माँ ने, पापा ने साथ दिया... फिर? सुलोचना के जाने के बाद भी कई दिनों तक वह बेचैन रही... टुकड़ों-टुकड़ों में बँटकर उसने रूटीन तो निभाए पर हर बार वह उन मौकों पर मन से ग़ैरमौजूदरही।

अद्भुत दुनिया से परिचित हो रही थी दीपशिखा। चित्रकला, रॉकपेंटिंग, फोटोग्राफ़ी। फोटोग्राफ़ी में भी छायाचित्रों को मिलाजुलाकर अनोखे दृश्य प्रस्तुत करना। मुकेश को इसमें कमाल हासिल था। रॉकपेंटिंग में शेफ़ाली बेजोड़ थी। शेफ़ाली दीपशिखा के साथ उसके स्टूडियो में चार पाँच घंटे काम कर लेती थी। जास्मिन, सना, एंथनी, शादाब, आफ़ताबसब अच्छे दोस्त बन गये थे। सबका मक़सद एक था, लगन एक थी... हौसले एक थे पर चुनौतियों को झेलने की ताक़त अलग-अलग थी। दीपशिखा को बहुत आनंद मिलता था, इन सबों के बीच। शेफ़ाली का मानना था-"रॉक पेंटिंगप्रकृति से सीधा साक्षात्कार कराती है। अजंता कि गुफाओं पर की कला आदिम युग में मानव की मूर्तिकला कि सबसे पहली साक्षी कही जा सकती हैं। ऊर्जा का स्रोत जो प्रागैतिहासिक युग के रहस्यों को अपने में छुपाए है।" दीपशिखा कैनवास पर गढ़े चित्रों को रहस्यमय समझती थी जिसकी एक-एक रेखा न जाने कितने रहस्यों से भरी है।

सभी चित्रकार हुसैनसे मिलने के इच्छुक थे। जहाँ एक ओर वे किंवदंतीबन चुकेहैं वहींदूसरी ओर अपनी सनक औरजूनून के लिये भी मशहूर हैं। शेफ़ाली को 'हुसैनदोशी गुफ़ा' देखने की तमन्ना है जो अजंता कि गुफ़ा के तर्ज़पर बनी है और जिसमें हुसैनकी पेंटिंग लगी हुई है।

"चलोहम देखकर आते हैं 'हुसैनीगुफ़ा' ।"

सना के प्रस्ताव पर शादाब चहककर बोली-"तुम लोगों ने अभी तकहुसेनी गुफ़ानहीं देखी... माशाल्लाह मिरेकिल है, थोड़ी ज़मीन के नीचे है तो थोड़ी ऊपर... मानो एकऐसा कैपसूल जो एयर स्पेस में बस छूटना ही चाहता हो। वहाँ उनके काले कटआउट कुछ इस तरह बिखरे हैं जैसे ख़ामोश, गुमनाम परछाईयाँ चल रही हों... सन्नाटा इतना कि ख़ामोशी तकसुनाई न दे।"

"क्या बात है शादाब... तुम तो शायरा हो सकती हो।" सना मंत्रमुग्ध हो बोली। एंथनी ने ज़ोरदार ठहाका लगाया-"ये और शायरा... इसे तो उर्दू तक ठीक से नहीं आती... और है मुसलमान।"

शादाब तुनक गई-"एंथनी, तुम मेरा मज़ाक मत उड़ाया करो।"

"अरे, बुरामान गईं?" एंथनी के लहज़े में माफ़ीनामा था।

"बुरा न मानने के लिए दिल को मनाना पड़ रहा है, वह कह रहा है सबको चाय समोसे खिलाओ।"

ताबड़तोड़ ऑर्डर दिया गया।

"एक ट्रीट जास्मिन की बाकी है। उसकी पेंटिंग्स काफी अच्छे दामों में बिकी हैं एग्ज़िवीशनमें।"

"हाँ तो एक ही दिन इतना नहीं खाना है और जास्मिन की ट्रीट तो शानदार होगी। चाय समोसे से काम नहीं चलेगा। समोसे गर्मागर्म थे... सभी के बीच बहस के मुद्दे भी गर्मागर्म थे। माहौल खुशनुमा था। और खुशनुमा क्यों न होगा मशहूर हस्तियों की कला ने भी इसी इंस्टिट्यूट ने निखार पाया है। शादाब जिनकी फैन है वे हुसैनभी यहाँ चित्रकारी करते थे। इसइंस्टिट्यूट की बरसों से देखभाल करते उम्रदराज़ सैयद साहब जिन्हें सब चचा कहते हैं बताते हैं कि" हुसैनका कहना ही क्या था... लाजवाब चित्रकार। उन दिनों उन्होंने एक फ़िल्म बनाई थी 'थ्रू द आइज़ऑफ़ ए पेंटर' जिसकी शूटिंग राजस्थान के जैसलमेर और रेगिस्तानी इलाक़ों में हुई थी। मैं भी उनके साथ था। कई दिन हम वहाँ रहे और हुसैनने एहसास नहीं होने दिया कि हम अपने घर से इतनी दूर हैं। "