लौट आओ दीपशिखा / भाग 4 / संतोष श्रीवास्तव

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सैयद चचा जब भी फुरसत मेंहोते चित्रकारों के किस्से सुनाते। दीपशिखानेजाना कि चित्रकलाएक तपस्या है जिसमें शुरूआती मेहनत और कष्ट के बाद का हासिल रोमांचक है। वह उस हासिल में दिलोजान से जुट गई।

"क्यों न हम सब एकजुट होकर एक प्रदर्शनी लगाएँ जिसमें सभी के चित्रोंकीमिलीजुली प्रस्तुति हो।" आफ़ताब के इस सुझाव पर सभी के चेहरे खिल उठे।

"अभिनव प्रयोग रहेगा यह। जहाँगीर आर्ट गैलरी में तारीख़ें देख लेते हैं कि कब वहाँ जगह उपलब्ध है और काम में जुट जाते हैं।" सना जोश में थी।

"मेरा भी एक सुझाव है।" मुकेश ने कहा।

"हाँ, बोलोन।"

हम आठों मिलकर एक आर्ट ग्रुपस्थापितकरते हैं और उसी के तहत प्रदर्शनी लगाएँगे। "

मुकेश के सुझाव पर सभी उछलपड़े-"अरे वाह यार... क्या आइडिया है कसम से... जहाँ को लूट लेंगे हम।"

एंथनी ने एक फ्लाइंग किस मुकेश की तरफ़ उड़ाया।

"हाँ... तो पहले कॉफ़ी... कॉफी के साथ ग्रुप का नामकरण होगा।"

फोन पर कॉफ़ी का ऑर्डर दिया गया। थोड़ी देर बाद सबके हाथों में कॉफ़ी के मग थे और स्टूडियो में ख़ामोशी। दीपशिखा ने पर्ची पर लिखा अंकुर ग्रुप ऑफ़ आर्ट'। सैयद चचाको बुलाया गया। नाम की पर्ची उन्हीं से निकलवाई गई और इत्तफ़ाक़कि दीपशिखा कि पर्चीही सैयद चचा ने निकाली। नामकरणके साथ ही सैयद चचा नारियल और बेसन के लड्डू ख़रीद लाए। मुकेश ने नारियल फोड़कर सभीकेस्टूडियो में उसका पानी छिड़का और अगरबत्तियाँ लगाई गईं। यह एक ऐसी पहल थी जिसने सभी को जोश और उत्साह से भर दिया था। दूसरे दिन शादाब और एंथनी जहाँगीर आर्ट गैलरी जाकर प्रदर्शनी की तारीख़ पक्की कर आये और गैलरी बुक करा आये। सारा ख़र्च दीपशिखा ने दिया। सबसे पहले निमंत्रण पत्र बना।

"अंकुर ग्रुप ऑफ़ आर्ट की प्रस्तुति... चित्रकलारॉकपेंटिंग और छायाचित्रों (ट्रांसपेरेंसियाँ) का अनूठा संगम। प्रायोजक-दीपशिखा।"

"नहीं, मेरा नाम नहीं आना चाहिए।" दीपशिखा ने विरोध किया।

"क्योंख़र्च तो तुम्हीं कर रही हो।"

"तो क्या हुआ, हम सब अंकुर के ही तो सदस्य हैं।"

"ओ.के... ओ.के... " मुकेश ने सबको शांत किया।

"ऐसा करते हैं जब हमारे चित्र बिकेंगे तो हम उसमें लागत शामिल करके शेयर कर लेंगे इसलिए प्रायोजक का नाम मत दो... क्यों दीपशिखा, ठीक है न।"

फिर भी दीपशिखा भुनभुनाती रही। स्टूडियो से निकलकर सब अपनी-अपनी राह हो लिए थे। मुकेश, दीपशिखा प्रियदर्शिनीपार्क की ओर चले आये। नारियल के पेड़ों के इर्द गिर्द की चट्टानों पर बैठते हुए दीपशिखा ने सामने फैले समंदर की ओर देखा... लहरें शांत थीं-"दीप, क्यों हर बात मन पर ले लेती हो?" मुकेश ने उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया।

"मैं ऐसी ही हूँ।"

दीपशिखा के बालों का क्लिप मुकेश ने शरारती अंदाज़में निकाल लिया। रेशमी सुनहले बालों के संग हवाएँ सरगोशियाँ करने लगीं-"और मैं ऐसा हूँ।"

"वो तो मैं जानती हूँ।" दीपशिखा ने उसके कंधे पर अपना सिर टिका दिया-"तुम्हें जाना तभी तो तुम मेरा हाथ अपने हाथों में लेने का साहस कर पाए।"

"मैं खुशनसीब हूँ, मुझको किसी का प्यार मिला।"

"हूँऽऽ आज तुम मस्ती के मूड में हो... जाओ... पॉपकॉर्न लेकर आओ... आज मैं तुम्हें अपनी कविता सुनाऊँगी।"

"माय गॉड... पॉपकॉर्न खाते हुए कविता पाठ?"

"जाओ न यार... भूख लगी है।"

रात दबे पाँव शमा के क़रीब आ चुकी थी। समुद्री हवाओं में खुनकी घुलने लगी थी।

"मेरे लिए सूरज का डूबना सच है क्योंकि मैं सूरज का उगना देख ही नहीं पाता।" मुकेश ने पॉपकॉर्न चबाते हुए कहा।

"क्यों? मैं तो हर सुबह सूरज को उगता देखती हूँ... मासूम सा... गोल... नारंगी... बिनाकिरनों वाला लेकिन झिलमिलाता।"

"फीमेल की यही तो फितरत है... जो चमकदार है उसका साथ देती हैं।"

"ऐसा तुम सोचते हो। तुम मर्दों की सोच ही संकीर्ण है।"

"शुक्रिया... शुक्रिया जानेमन... हाँ तो मैं कह रहा था कि मेरे लिए सूरज का डूबना सच है। मैं जो देखता हूँ वही मेरे लिए सच है। सूर्योदय के समय मैं सोता रहता हूँ। सूरज को अगर समंदर में डूबते हुए देखो तो लगता है जैसे समंदर के हर क़तरे ने बड़ी शिद्दत से उसे अपने में समेट लिया है।" और कैमरे की स्क्रीन पर वह डूबते सूरज की तस्वीरें दिखाने लगा-"मैं जो प्रदर्शनी के लिएचित्रबनाऊँगा न, उसकी थीम ही रहेगी डूबता सूरज।"

"मेरी थीम आदिवासी। मैं आदिवासियों पर पहले से ही काम कर रही हूँ।"

"तुमथीम का नाम देना प्रकृतिपुत्र।"

गहराती रात में दीपशिखा और मुकेश चट्टान से उठकर तट पर टहलने लगे। सैलानियों की भीड़ के बावजूद दोनों एक दूसरे में डूबे थे। मुकेशने दीपशिखा को बाँहों में भरकर चूम लिया। समंदर का क़तरा-क़तरा पुकार उठा... महर्बा... महर्बा... दोनों के दरम्यान वक़्त मानो थम-सा गया। लहरें किनारों तक आकर लौटना भूल गईं, रेत में समाने लगीं। समंदर से बर्दाश्त नहीं हुआ, उसने रेत के संग ही लहरों को वापिस खींच लिया।

और दिनों की बनिस्बत आज दीपशिखा को घर लौटने में देर हो गई थी। दाई माँ पाँच छै: बार फोन कर चुकी थीं और हर बार दीपशिखा का जवाब होता... काम में बिज़ी हूँ, लौटने में देर होगी। "

"इतनी देर कहाँलगा दी बिटिया... मारे घबराहट के हम तो..." दीपशिखाने झट दाई माँ के गाल चूम लिए-"क्या दाई माँ... अब मैं बड़ी हो गई हूँ। पर तुम मुझे अभी भी तोतली गुड़िया ही समझती हो... छोती छी... पाली... पाली..."

उसने तुतलाकर अपनी ही नक़ल उतारी। दाई माँ लाड़ से उसे देखती रहीं। दीपशिखाको दाई माँ लगती भी बहुत सुंदर हैं। गोरा-गोरा मुखड़ा... काली भंवरे-सी ऑंखें और पतले-पतले गुलाबी होठ...

जब सुलोचना कि शादी हुई थी तो उनके साथ मायके से दहेज़ के रूप में दाई माँ ही आईं थीं-चूँकि अंतर्जातीय विवाह था बल्कि अंतरधार्मिक भी इसलिए कहीं ससुराल में सुलोचना अकेली न पड़ जाएँ तो संग कर दी गई थीं दाई माँ जो सुलोचना कि ही उम्र की थी। वह भी तब जब सुलोचना के लिए मायकेका दरवाज़ा खुल गया था। शुरू-शुरू में तो वे हर दो महीने बाद छुट्टी लेकर अपने पति महेशचंद्र के पास चली जातीं पर फिर यूसुफ़ ख़ानने महेशचंद्र को अपने कारोबार में नौकरी पर लगा दिया। पीपल वाली कोठी के सर्वेंट क्वार्टर में दोनों की गृहस्थी बस गई। दो लड़कियाँ हैं उनकी। अब तो घर द्वारवाली हो गईं। दोनों की पढ़ाई-लिखाई, शादी ब्याहका ख़र्च यूसुफ़ ख़ान ने ही उठाया। बहुतसारे एहसानों का बोझ लिए दोनों मियाँ बीवी पीपलवालीकोठी के लिए समर्पित रहे। सुलोचना को और यूसुफ़ख़ान को उन दोनों पर इतना विश्वास है कि वे दीपशिखा कि ओर से एकदम निश्चिंत हैं। दाई माँ को तो लगता ही नहीं कि दीपशिखा उनकी बेटी नहीं है।

टेबिल पर खाना लगाकर दाई माँ फुलके सेंकने लगीं। दोफुलके खाती है दीपशिखा जो दाई माँ हमेशा गर्मागर्महीपरोसती है उसे। खाना खाते हुए सारे दिन की घटनाओं का बयानसुने बिना दाई माँ उसे सोने नहीं देती। लेकिन दीपशिखा सावधान है। वह भूल से भी मुकेश का ज़िक्र नहीं छेड़ती। अगर बात खुल गई तो हो सकता है पाबंदियाँ शुरू हो जाएँ क्योंकि पल-पल की ख़बर दाई माँ के ज़रिए यूसुफ़ ख़ान और सुलोचना तक पहुँच जाती है। पीपलवालीकोठी में दिन की और रात की शुरुआत दाई माँ के फोन से ही होती है। दीपशिखा के जन्म के पहले सुलोचना को विशाल कोठी मानो काटने को दौड़ती थी लेकिन अब... कोठी के हर कोने, हरवस्तु में दीपशिखा कि मौजूदगी का एहसास है। एक शाम कोठी के लॉन में चायपीते हुए यूसुफ़ ख़ानने कहा भी-"तुम हर महीने एक चक्कर मुम्बई का लगा लिया करो।"

"कहो तो दीपू की शादी होने तक वहीं रह जाऊँ?"

"शादी? ये अचानक तुम्हें क्या सूझी? इस ओर तो मेरा ध्यान ही नहीं गया।" यूसुफ़ ख़ान के चेहरे पर चिन्ता झलक रही थी।

"दीपू अब छब्बीस की हो गई। तुम क्या उसे बच्ची ही समझ रहे हो? सवालये उठता है कि लड़का किस कौम में तलाशा जाये।"

सुलोचनाकी आँखों की दुविधा यूसुफ़ ख़ान तुरन्त समझ गये। थोड़ा सम्हले-"लड़का मुस्लिम ही होगा।"

"ज़रूरी तो नहीं, हिन्दू भी हो सकता है। यह तो दीपू की पसंद पर निर्भर करता है।"

"यानी कि अब अपना भला बुरा वह सोचएगी? वह तय करेगी कि हिंदू में शादी हो कि मुस्लिम में... है उसे इतनी समझ?"

सुलोचना के चेहरे पर मुस्कुराहट देख वे परेशान हो उठे-"तुम मेरी बात कोतवज़्ज़ोनहीं दे रही हो।"

"मैं सोच रही हूँ कि आख़िर है तो वह हमारी ही बेटी। जब हमने अपनी शादी का फैसला खुदकिया तो वह क्यों नहीं कर सकती?"

सुलोचना के याद दिलाने पर उन्हें अपनी शादी याद आ गई। कैसे चार दोस्तोंकी उपस्थिति में उनका सुलोचना सेनिक़ाह हो गया था। निक़ाह के समय उनका नाम बदलकरनिक़हत रखा गया था और सभी दंग रह गये थे जब सुलोचनाने निक़ाहनामेपर उर्दू लिपि में हस्ताक्षर किये थे। फिर सुलोचना कि मर्ज़ी के अनुसार यूसुफ़ ख़ाननेहिन्दू रीति से भी शादी की थी। उनका नाम भी बदलकर 'अजय' रखा गया था। तभी दोनों ने तय कर लिया था कि दोनों अपने-अपने ढंग सेअपनी ज़िन्दग़ी जियेंगे। वहाँ उनका कोई दख़ल नहीं होगा। सुलोचना माँग में सिंदूर भी लगाती हैं, माथे पर बिंदी, मंगलसूत्र... करवाचौथ का व्रत भी रखती हैं। इस सबको लेकरकभी उन दोनों में मतभेद नहीं हुआ। लेकिन युसूफ़ ख़ान के परिवार वालों को यह बात बड़ी नागवार लगती थी और वे धीरे-धीरे यूसुफ़ ख़ानको उनके हर हक़ से बेदख़ल करते गये। यूसुफ़ख़ानने इस बात की परवाह नहीं की। सुलोचना उनके प्रति बेहद समर्पित और ईमानदार है। वेसुलोचना कि मौजूदगी से भरी साँसों को बड़े एहतियात से लेते हैं... लेकिनबेटी के मामले में विचलित हो उठे हैं।

"लगाओदीपूको फोन... शादी के मामले में उसकी मर्ज़ी पता करो।"

"यूसुफ़महाशय... शादी के मामले कहीं फोन पर पूछे जाते हैं। वह दशहरे में आयेगी ही। बीस ही दिन तो बचे हैं। तभीबातेंकरना सही होगा।" कहते हुए सुलोचना ने चाय की आख़िरी घूँट भरी और फूलों की क्यारियों की ओर चल पड़ीं... माली को कुछ ज़रूरी निर्देश देने थे।

दीपशिखाऔर शेफ़ाली आज जल्दी पहुँच गई थीं स्टूडियो। दीपशिखा आदिवासियों की पेंटिंग्स के साथ-साथ इब्न-ब-तूता पर भी काम करना चाहती थी। जब वह पीपलवालीकोठी में थी, मुम्बई नहीं आई थी तब उसने इब्न-ब-तूता पर एक रेखाचित्र बनाया था। इस सैलानी व्यक्तित्व के चेहरे पर रहस्यमयी मुस्कान औरपास में खड़ा उसका गधा और बच्चों की उसकी कहानियाँ सुन-सुन कर विस्फ़ारित आँखों को उसने रेखाचित्र में उकेरा था। अब वह इस चित्र में इब्न-ब-तूता कि लम्बी दाढ़ी और उस दाढ़ी में चिड़ियों के घोंसले भी बनाएगी। यही घोंसले तो बच्चों को उसकी ओर आकर्षित करेंगे।

"बहुत मुश्किल है शेफ़ाली उस रहस्यमयी मुस्कान को इब्न-ब-तूता के चेहरे पर चित्रित करना जो सदियों तक शहर-दर-शहर गाँव-दर-गाँव भटकने और सैंकड़ों सालों तक बच्चों को कहानियाँ सुनाने के बाद चेहरे पर उभरती है लेकिन नामुमकिन नहीं।"

"तुमऐसा कर लोगी दीपशिखा... मुझे पता है।"

"तुम लोगों का भरोसा नर्व्हस भी करता है और उत्साहित भी।"

इतने में मुकेश आ गया... उसके चेहरे पर ताज़ी खिली मुस्कान थी।

"लो तुम्हारा इब्न-ब-तूता आ गया।" दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ीं।

"क्या बात है, मैं चाँदनी में नहा रहा हूँ।" मुकेश ने रोमांटिक होते हुए कहा।

"देख दीपू... मुकेश कवि होने की ज़द में प्रवेश कर रहा है।" दीपशिखा ने बेहद प्यार भरी नज़रों से मुकेश की ओर देखा और अपने काम में लग गई। हालाँकिउसके सभी दोस्तों कोउनके प्रेम के बाबत पता है लेकिन दोनों सबके सामने प्रगट नहीं करते। एक स्वस्थ दोस्ती का रिश्ता क़ायम है सबकेबीच। हँसना, खिलखिलाना, एक दूसरे को छेड़ना, खानापीना और काम में जुटे रहना... दिनमानोपंख लगाये उड़े चले जा रहे थे। लेकिन एक रूटीन दीपशिखा और मुकेश के बीच बिना चूकेचलता रहा। स्टूडियोकेबाद कभी प्रियदर्शिनी पार्क, कभी गिरगाँव चौपाटी, कभी मरीन ड्राइव के समुद्री तट पर तीन चार घंटे गुज़ारना और दीपशिखा को घर के गेट तक पहुँचाना। जुहू तट पर वे कभी नहीं जाते थे क्योंकि वह दीपशिखा के घर के एकदम नज़दीक था। दीपशिखा अब मुकेश की ज़रुरत थी और मुकेश दीपशिखा की। इसज़रुरत ने दोनों को ऐसे तारों सेजोड़दिया है जिसे तोड़ना आसान नहीं। एक दूसरे के अंदर से गुज़रते हुए जैसे दोनों बारीकतार हो गये हैं और उनका वजूदबारीक तारों से बुना जाल बन गया है। इस गहराते प्रेम जाल मेंदोनों कोमलता से समा गये थे। जाल से आज़ाद होना अब उनके वश में न था। दीपशिखा हवा में डोलती पंखुड़ी-सी मुकेश के दिल में समा गई थी और मुकेश के जिस्म काकोना-कोना महक उठा था। हवा ने उन्हें शरारत से देखा और पंखुड़ियाँ छितरा कर हँस दी। कोयल एन कानों के पास झुककर कुहुक उठी... जाने कहाँ से आवाज़ आई... दीप... दीप... दीप... मुकेश... मुकेश... मुकेशकिदोनों के दिल की पहाड़ियों ने दूधिया झरने छलका दिये।

दशहरेपे दीपशिखा दाई माँ के संग पीपलवाली कोठी आई। महेश काका फ़्लैटकी देखभाल के लिए मुम्बई में ही रुक गये। दाई माँ की बड़ी बेटी की जचकी होने वाली थी सो आते ही वे उसके पास गाँव चली गईं। सुलोचना को दीपशिखा कुछ बदली-बदली-सी नज़र आई। खूबसूरत तो वह बला कि थी तिस पर मुकेश के प्रेम ने उसके चेहरे को गुलाब-सा खिला दिया था। वह बेहद खुश रहने लगी थी। संगीत, चित्रकलासे उसे हद्द दर्ज़े का लगाव था... सुलोचना ने एक और रूप देखा उसका... सुबह उठकर योगासन, प्राणायाम के बाद वह अपने मोबाइल में फीड गाने लगाती और नाचती... नाच भी ग़ज़ब के! बिल्कुलफ़िल्मी स्टाइल वाले। वे चकित थीं कि उनकी धीर, गंभीर बेटी में आकांक्षाओं के साथ-साथ यह चंचलता, यह जीवंतता कैसे, कहाँ से आ गई? फिरउन्हें याद आया कि नृत्य, संगीतऔर शेरो शायरी के शौक़ीन तो यूसुफ़ ख़ानभी हैं। दीपशिखा जब दस वर्ष की थी तो उनकी कोठी में बनारस घराने केकत्थकनर्तक गोपीनाथ आये थे। उनकेनृत्य का आयोजन इसलिए भी और किया गया क्योंकि उस दिन सुलोचना और यूसुफ़ख़ान की शादी की सालगिरह थी। कई लोगों को आमंत्रित किया गया था। नृत्य तो रात भर चलता रहा लेकिन हैरत की बात यह थी कि दीपशिखाभी मध्यरात्रि तक जागकर नृत्य देखती रही थी। नृत्य के गीत के बोल थे-"बलमवा मोहे... लालचुनरिया मँगा दे।"

गोपीनाथ जी ने लाल रंग की अनेक मुद्राएँ प्रस्तुत कीं... खिले हुए पुष्प, सिंदूर से भरी माँग, बिन्दी, उगता सूरज, पान का बीड़ा लेकिन बलमवा तब भी नहीं समझे कि चुनरिया का रंग उनकी सजनी को कैसा चाहिए। अंत में यशोदा मैया कि गोद में उनके लाल कन्हैया को बताकर नृत्य की समाप्ति हुई।