लौट आओ दीपशिखा / भाग 5 / संतोष श्रीवास्तव

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सुबह दीपशिखा ने सुलोचना से पूछा-"माँ, लाल रंग की ही चुनरी लानी है ये कैसे समझाया उन्होंने?" सुलोचना कि आँखें रात्रि जागरण से बोझिल हो रही थीं। चाहती थीं थोड़ी देर सो ले पर बेटी की जिज्ञासा को वेटाल नहीं सकती थीं-"दीपू... कोई भी कला हो... एक तपस्या होती है। तुम्हें चित्रकारी का शौक है तो तुम चित्रकारी से अपने मन के भाव प्रगट करती हो वही काम नर्तक अपनी भावमुद्राओं सेकरता है। गहरे डूबना ही कला का उद्गम है।"

शायद दीपशिखा में चित्रकारी के साथ नृत्य का बीज भी उसी दिन पड़ा हो। उनके प्रश्न का समाधान हो गया था। उन्होंने दीपशिखा को एकांत में बुलाया-"बैठो दीपू।" दीपशिखा समझ गई... माँ किसी मसले पर चर्चा करना चाहती हैं और निश्चय ही यह मसला उससे जुड़ा ही होगा। उसने अपने मनको तैयार किया।

" पहले ममा... मेरीनई लिखी कविता सुनो...

मैं मोहब्बत के सफ़े पर

इक तारीख़-सी सजी हूँ

और तू मेरे दिल के गोशे पर

हिना बनकर रचा है।

"क्या बात है दीपू... प्रकृति के असली तत्त्व कोसमझ लिया है कि इस ज़िन्दग़ी में केवल प्रेमही सच है बाकीसब व्यर्थ... लेकिन बेटी, जब हम प्रेम में डूबते हैं तो कोई साथी चाहिए होता हैवरनाप्रेम तनहा ज़िन्दग़ी में घुटकर रह जाता है।"

दीपशिखाटकटकी बाँधे सुलोचना को देखे जा रही थी। उसे लग रहा था जैसे मुकेश के साथ चलने का रास्ता अब सुगम होता जा रहा है।

"तो तलाशूँ कोई जीवनसाथी तुम्हारे लिए?"

"इस बार वहचौंकी-" क्यामाँ? "

सुलोचना ने अपनी बात दोहराई। इस बीच दीपशिखा को जवाब ढूँढने का मौका मिल गया-"नहीं माँ, मैं शादी के बंधनमें नहीं बँधना चाहती हूँ।"

"क्यों? कोई ख़ास वजह?"

दीपशिखा ख़ामोश रही... वह कह भी सकती थी कि उसे मुकेश से प्यार है और वह उसी के साथ जीवन गुज़ारना चाहती है और अगर यह हो जाता है तो इससे बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता। लेकिन वह अपेक्षाओं के घेरे में नहीं आना चाहती। शादी और कुछ नहीं बस एक दूसरे सेअपेक्षाओं का लम्बा सफ़र है।

"जवाब दो दीपू, तुम कौन से दिली मंथन से गुज़र रही हो?" दीपशिखा सावधानी से बात को ख़त्म करना चाहती थी कि माँ को शक भी न हो, दुख भी न हो और बेटी पर से उनका विश्वास डगमगाये भी नहीं।

माँ, मैं विश्वविख्यात चित्रकार, कवयित्री होने का सपना पाले हूँ। शादी इस सपने की क़तई इजाज़त नहीं देती। और माँ शादी तो एक आम बात है, हर व्यक्ति शादी करता है, परिवार बनाता है और एक दिन दुनिया से चल देता है। माँ, क्या तुम चाहोगी कि तुम्हारी बेटी साधारण जीवन जिये? "

सुलोचना उसके सुलझाव भरे वाक्यों में डूब गईं। उन्हें लगा जो वे नहीं कर पाईं वह दीपू कर रही है। जो वे नहीं सोच पाईं... वह दीपू सोच रही है। असाधारण होकर वे भी जीना चाहती थीं पर समाज और परिवार के विद्रोही तेवरों को नकारते हुए सिर्फ़ प्रेम विवाह कर पाईं वे और फिर यूसुफ़के कदमों तले जन्नत की कामना में समर्पित होती गईं और रह गईं बस एक साधारणऔरत बनकर जोमोमसा पिघलती है पर अपने पिघलने का सबब नहीं जानती बस इतना जानती है कि उसका पिघलना दूसरों को उजाला दे रहा है जबकिवहअपने अंदर की उस आँच से पिघलती है जो औरत का रूप बख़्शतेवक़्त विधाता ने उसके सीने में उतार दी थी। सुलोचना ने दीपशिखा कोगले से लगा लिया, सीने में ऐसे दुबका लिया जैसे अपने पंखों के नीचे गौरैया अपने चूज़ों को दुबकाती है।

"मुझे तुम पर भरोसा है दीपू... तुम जो करोगी ठीक ही करोगी।"

"शुक्रिया माँ... माँ, मैं आम ज़िन्दग़ी के लायक नहीं। मुझे ऐसे ही अच्छा लगता है। धरती पर रहकर आसमान को देखना। उन आकाशगंगाओं को जिनमें करोड़ों सूरज और चाँद हैं। हमसुई की नोक बराबरभी तो नहीं हैं माँ।"

सुलोचनाने उसकी पीठ थपथपाई और अंदर रसोई घर में चली गईं। यूसुफ़ ख़ान का प्रश्न अनुत्तरित हीरहा। हालाँकि रात की तन्हाई में, अँधेरे में हाथ बढ़ाकर यूसुफ़ ख़ान ने सुलोचना कि हथेली छुई थी।

"क्या कहा दीपू ने?"

सुलोचना ने सारी बातें बताते हुए कहा-"हमें वक़्त का इंतज़ार करना होगा।"

"कब तक?"

"बता नहीं सकती। परइसकेअलावा दूसरा विकल्प भी तो नहीं है हमारे पास।"

यूसुफ़ ख़ान ने लम्बी साँस हरी और अँधेरे में धीरे-धीरे उभरते छत के दूधियाझाड़फानूस पर नज़रें टिका दीं।

मुम्बई वापिसी की दीपशिखा कि फ़्लाइट सुबह 3.30 की थी। रातको दाई माँ अपनी बेटी की जचकी कराके लौटी थीं और बहुत खुश थीं। लड़का जो पैदा हुआ था। रात को ही सुलोचना ने बूँदी के लड्डू मँगवाये थे। दाई माँ के लिए साड़ी और चूड़ियाँ... ढेरसारे मेवे मिठाई, कपड़े, ज़ेवरजच्चा-बच्चादोनों के लिए दौलतसिंह के हाथ वे कल भिजवाएँगी ऐसा उन्होंने दाई माँ को बताया। दाई माँ की खुशी समेटे नहीं सिमट रही थी। वे ढोलक लेकर बैठ गईं और लगीं सोहरें गाने। पीपलवाली कोठी गीतों से गुलज़ार थी। कल सब कुछ शांत हो जायेगा सोचकर सुलोचना उदास हो गईं। सबसे छुपाकर उन्होंने अपनी छलक आई आँखें रुमाल में दबा लीं। इस बार दीपशिखा कि बिदाई बोझिलहो रही थी। यूसुफ़ ख़ान के लिए सुलोचना के लिए और खुद दीपशिखा के लिए भी... जिन माँ पापा ने उसे चौदह बरस बाद पाया था उनकी अपेक्षाओं में खरी कहाँ उतर पा रही थी दीपशिखा? तो क्या वह स्वार्थी है, सिर्फअपने ही बारे में सोचती है? सहसा वह सुलोचना से लिपटकर सुबकपड़ी-"माँ... मुझे लेकर दुखी मत रहना... मैंने अपना जीवन कला को समर्पित कर दिया है। माँ, मैं खुद की रही कहाँ?" "ईश्वर तुम्हें सही राह दिखाये दीपू।" कहकर सुलोचना ने अपनी बिटिया को कलेजे से ऐसे भींचा मानो ईश्वर के दियेइस तोहफ़े को नज़र न लगे किसी की।

मुम्बई लौटकर ज़िन्दग़ी को ढरल्ले पर आ जाना चाहिए था पर ऐसा हुआ नहीं। कुछ दिन अवसाद में बीते सखी सहेलियों के साथ के बावजूद... सुलोचना का चेहरा बार-बार आँखों के सामने आ जाता। बार-बार वह अप्रश बोध से ग्रसित हो जाती, कई सवाल दिमाग़ में मँडराते, क्योंवह उन्हें खुश नहीं रख पा रही हैं क्याकर डाले ऐसा कि माँ के ख़ामोश होठ मुस्कुराने लगें?

"स्टूडियो क्यों नहीं आ रही हो? सब काम रुका पड़ा है।" फोन शादाब का था जबकि शेफ़ाली और मुकेश को वह तबीयत ख़राब होने के बहाने से टाल चुकी थी। शेफ़ाली तो क्या टलती... आ धमकी घर-"यह क्या चेहरा बनालिया है, हुआक्या है तुझे?"

उसने सब कुछ बयान कर दिया... शेफ़ाली हँस पड़ी-"इतनी-सी बात? एक बार मुकेश से मिल ले, सब ठीक हो जायेगा, बेचारा मजनू बना तेरे घर और स्टूडियो की सड़कें नापरहा है।"

तैयार होकर दोनों स्टूडियो पहुँची... फिर ढेरों सवाल... कहाँथी? क्या हो गया था? प्रदर्शनीके दिन नज़दीक आ रहे हैं और आप जनाब...

मुकेश दूर खड़ाबेहद उदास नज़र आ रहा था।

"अब आ गई हूँ न! काम पर लग जाती हूँ। तुम सब भी तो कलाकार हो, जानते नहीं कलाकारअपने मूडसे ही काम कर पाते हैं।"

"ओऽऽऽ" दोस्तों के समवेत स्वर ने दीपशिखा के चेहरे पर मुस्कान ला दी। मुकेश को मानो ज़िन्दग़ी मिल गई। वह दीपशिखा के नज़दीक स्टूल पर बैठ गया। कैनवास पर इब्न-ब-तूता था।

"यार... येइब्न-ब-तूता तुम्हारी थीम में फिट नहीं बैठ रहा... इसे बनाकर अलग रख दो और थीम को कॉन्सन्ट्रेट करो।" मुकेश के कहने पर शेफ़ाली ने भी उसकी हाँ में हाँ मिलाई...

"ओ.के. बाबा... लो इब्न-ब-तूता ये गया कोने में, बस।" दीपशिखा ने अधूरी पेंटिंग सचमुच कैनवास से उतार कर कोने में टिका दी। उसकी इस हरकत पर सब खुशी से चीख़-सा पड़े-"ये हुई न बात।"

"ओ.के. नो बहस... अबहम काम पर लगें?" और दीपशिखा ने ब्रश उठाया।

बाकी लोग अपने-अपने स्टूडियो में चले गये। मुकेशतल्लीनता से दीपशिखा को देखे जा रहा था। शेफ़ालीको लगा इस वक्त उसका यहाँ मौजूदरहना ठीक नहीं-"चलो, मैंचलती हूँ। दीदी को आज शॉपिंगकरनी है। रूठ गईं तो मनाना मुश्किल हो जायेगा।"

दीपशिखासमझ गई... उसकी सखी में गज़ब की समझ है। वह उसके चेहरे के भाव पढ़ लेती है और कभी उसे निराशनहीं करती। उसके जाते ही दीपशिखा मुकेश से अपनी थीम पर चर्चा करने लगी।

"मैं चाहती हूँ मुकेश कि चित्र ऐसे बनाऊँ जो केवल आँखों से ही दिखाई न दें बल्किभावों के द्वारा महसूस भी किये जा सकें।"

"मसलन?"

"मसलन कि मैं उन रंगों को बिखेरूँ जो अभिव्यक्ति से गूँथे हों... काला रंग महज़ काला न दिखे... एक भरी पूरी चंद्रविहीन रात दिखे... रात का सन्नाटा दिखे... दृश्य की बेचैनी दिखे... सुनहले रुपहले रंग... महज़ सुहावनापन न दें बल्कि एहसासकरायें दिन की समाप्ति का, सूरजकेडूबने का, पंछियों के घोंसलों में लौटने का... मुकेश में रंगों के साथ-साथ भावों को भी उतारना चाहती हूँ।"

"तुम कर पाओगी ऐसा... क्योंकि तुम एक कवयित्री हो... तुमबिंदु से रंगों को निकालकर अभिव्यक्तिदोगी... दीप, करो ऐसा, तुममें वह जज़्बाहै।"

जाने क्या हुआ... कौन-सा बोध... कौन से अनागत का संकेत कि दीपशिखा सिहर उठी। उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा। ब्रश हाथ से छूट गया और वह मुकेश की बाँहों में समा गई। वह कहना चाहती थी किहाँ, मैं कर पाऊँगी ऐसा... वह कहना चाहती थी कि कर पाने में उसे उसका साथ देना होगा... पर इस साथ की चाहत में दीपशिखा के आगे एकशून्य खुलता गया और उसने घबराकर आँखें मींच लीं।

अंकुरग्रुप ऑफ़ आर्ट की प्रदर्शनी मुम्बई में चर्चा का विषय बन गई। प्रतिदिन अखबारों में छपने लगा... संभ्रांत घरों के और कला के पारखियों की शामेंप्रदर्शनी मन रखे चित्रों की चर्चा में गुज़रती रहीं। कुछ चित्रों को छोड़कर लगभग सभी चित्र बिक गये। दीपशिखा का बीएस एक चित्र नहीं बिका जो उसने आर्ट गैलरी को उपहार में दे दिया। सभी बेहद खुश थे। शुक्रवार की रात प्रदर्शनी ख़त्महुई और शनिवार इतवार मनाने को कोई माथेरान गयातो कोई खंडाला... मुकेश और दीपशिखा महाबलेश्वर चले गये। दाई माँ को समझाकर कि "चिंता मत करना, सोम की सुबह मैं लौट आऊँगी।"

"पीपलवाली कोठी से फोन आया तो?" दाई माँ को जवाब चाहिए था।

"हाँ, तो कह देना, अब इतने दिन लगकर काम किया है तो दो दिन दोस्तों के साथ वीक एंड मनाएँगे और क्या?"

दाई माँ के पल्ले बात पड़ी नहीं... अमीरों की अपनी जीवन पद्धति... इतने साल पीपलवाली कोठी में गुज़ारकर न वे समझ पाई हैं और न समझना चाहतीं। वैसे भी वे इन दिनों नाती के ख़यालों में मगन रहतीहैं। महेशचंद्र से कहकर ऊन मँगवाया हैऔरछोटे-छोटे मोज़े, टोपे, स्वेटर बुनने में लगी रहती हैं। अब उधर ठंड भी तो कितनी पड़ती है।

महाबलेश्वरकेवो दो दिन... वक़्त मानो ठहर-सा गया था दीपशिखा और मुकेश के दरम्यान-"यू नो दीप ज़िन्दग़ीकितनी पेचीदा है?"

दीपशिखा के हाथों में मुकेश का एक हाथ था और दूसरे हाथ से वह उसकेबालों से खेल रहा था। नाव झील की सतह पर आहिस्ता-आहिस्ताडोल रही थी। मल्लाह की मौजूदगी कोई महत्त्व नहीं रखती। उसे पता है इसरोमेंटिक जगह मेंप्रेमी या नये शादीशुदा जोड़े ही अधिक आते हैं। पतवार की छप... छप में मल्लाह के गीत की लय अजब समाँ बाँध रही थी। दीपशिखा ने उसके होठों पर हथेली रख दी-"नहीं, कुछ मत कहो... वक़्त को यूँ ही बहने दो।"

मुकेश देर तक दीपशिखा कि सपनीली आँखों में देखता रहा... देखता रहा कि सपनों का हुजूम वहाँ करवटें बदल रहा है कि उन आँखों में ऐसा कुछ है जो और कहीं नहीं दिखता जबकि वह कहना चाहता था कि ज़िन्दग़ी उन्हें खूबसूरत लगती है जो उसे तर्क की नज़र से देखते हैं और उन्हें भयानक जो उसकी आलोचना करते हैं।

"दीप... ज़िन्दग़ी के मायने बताओगी?"

"मुझे नहीं पता मुकेश... मेरे लिए ज़िन्दग़ी ईश्वर का दिया वह कालखण्ड है जिसमें मुझे आसमान छूना है और पाताल की गहराईयाँ तलाशनी हैं।"

नाव किनारे लग चुकी थी। मुकेश ने मल्लाह को रुपिए दिये तो उसने झुककर सलाम ठोंका। पास ही स्ट्रॉबेरी का स्टॉल था। लाल-लाल स्ट्रॉबेरी मानो आमंत्रण दे रही थी। मुकेश स्ट्रॉबेरी ख़रीद लाया जिसे खाते हुए दोनों होटल की ओर लौटने लगे।

होटल का एक ही कमरा, एक ही बिस्तर... एक दूसरे पर कुर्बान दीपशिखा और मुकेश... खिड़की पर लगे सुनहले और कत्थई परदों की धीमे-धीमे हिलती झालर साक्षी थी दोनों के मिलाप की, हवाओं की चंचल तरंग साक्षी थी दोनों के समर्पण की जो बार-बार उन परदों को छेड़ रही थी। दो रातें... हसीन, नशीलीऔर बहकती दो रातें संग-संग गुज़ार कर जब दोनों मुम्बई लौटे तो दीपशिखाकानिखरा-निखरा खूबसूरत चेहरा देख दाई माँ आश्वस्त हुईं-जब गई थी बिटिया रानी तो थकी-थकी लगती थी, अब थकान का कहीं नामोनिशान न था। वह दीपशिखा कि लाई पत्तेदार गाजरें, स्ट्रॉबेरी जैम और स्ट्रॉबेरी से भरा पैकेट थाम किचन की ओर मुड़ी-"चाय बनाएँ बिटिया?"

"नहींकॉफ़ी... कुछ खाने को भी दो, बड़ी भूख लगी है।"

ज़िन्दग़ी ने रफ़्तार पकड़ ली। छै: महीने गुज़रते देर न लगी। मुकेश भारीउधेड़बुन मेंथा। पापा का हुक्म थाफौरन घर आ जाओ, ममा ने उड़ती-उड़ती ख़बर दी थी उसे कि कोई लड़की पसंद की है उन्होंने... वह पसंद कर ले, हामी भर दे तो शादी की तारीख़ पक्की कर ली जाए। मुकेश का काम में मन नहीं लग रहा था... क्या करे? दीपशिखा के संग सम्बन्ध बन चुके हैं... एक तरफ़ यथार्थ है दूसरी तरफ़ यूटोपिया। एक ओर सच्चाई है तो दूसरी ओर स्वप्न... वह किस सिरे को पकड़े... दोनों में से एक सिरा तो छूटेगा ही जबकि उसके लिए दोनों सिरे महत्त्वपूर्ण हैं। पापा-ममा को ही समझाना पड़ेगा। सुबह उसने दीपशिखा को फोन किया-"कुछ दिनों के लिए घर जा रहा हूँ। इस बीच तुम अधिक से अधिक पेंटिंग बना लो ताकि लौटकर भोपाल में प्रदर्शनी प्लान कर सकें।"

"अरे... अचानक। और ज़्यादा पेंटिंग मतलब तुम देर से लौटोगे?" दीपशिखा उदास हो गई।

"नहीं दीप... जल्दी लौटूँगा... तुम्हारे बिना क्या रह पाऊँगा मैं... अब तुम्हारी आदत हो गई है मुझे।"

"सिर्फ़ आदत... प्रेम नहीं?"

"तुम भी न... प्रेम से ही तो ज़रुरत उपजती है। आदतउपजती है।"

"बातें बनाना खूब आता है तुम्हें? जाओ, जल्दी लौटना। मैं तुम्हारा इंतज़ार करूँगी।"