वंश परम्परा / कृष्णा जाखड़

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वंश परम्परा

राजपूताने (राजस्थान) की जनता पर दोहरा शासन अंग्रेजों के आगमन के साथ शुरू हो गया था। चार वर्गों में बंटी हुई जनता में वैश्यों (खासकर बनियांे) का काम धन कमाना और राजकार्य के लिए धन मुहैया कराना था। धन कमाने बनियें दिसावर जाते और देस में लाकर खर्च करते। ऐसी ही स्थितियों में राजस्थान (तत्कालीन राजपूताना) में चूरू क्षेत्र के सुजानगढ़ कस्बे से एक खेतान परिवार आज से वर्षों पहले रोजी के लिए निकला; जो कलकत्ता जाकर ठहरा। कलकत्ता में ही अपना व्यापार जमाया और वहीं पारिवारिक उन्नति की ओर अग्रसर हुआ।

इसी परिवार के पांच बेटों में से एक श्री लादूरामजी खेतान थे। श्री लादूरामजी बड़े ही नेकदिल इंसान थे। उन्हीं के घर (बालीगंज, कलकत्ता के मकान नं. ७१) में पांचवीं बेटी का आगमन १ नवम्बर, १९४२ ई. को हुआ। यह संतान ही प्रभा खेतान थीं। उस समय मारवाड़ी परिवार में बेटी होना ही गुनाह था फिर प्रभा तो पांचवीं बेटी थीं। पुराने खयालातों के समृद्ध परिवार में इस प्रतिभा के जन्म लेने पर कोई खुशी नहीं मनाई गई। उल्टे परिवार में निराशा ने स्थान बनाया। और तो और, बच्ची के आगमन के साथ ही मां श्रीमती पूरणीदेवी की बीमारी भी शुरू हो गई। प्रभा को न मां का प्यार मिला और न ही उनके स्तनों का दूध। मां की गोद के लिए तरसती इस बच्ची को दाई मां की गोद में स्नेह मिला और उनके ही स्तनों से दूध भी। प्रभा की मां श्रीमती पूरणीदेवी को यह संतान कभी अच्छी नहीं लगी।

पारिवारिक परिस्थितिया

प्रभा खेतान का परिवार संकीर्णतावादी हिन्दू सनातनी परिवार था। सन् १९४२ में प्रभा का जन्म हुआ। यह समय महात्मा गांधी के राष्ट्रीय नेतृत्व का समय था। उनका प्रभाव चहुंदिश था। खेतान परिवार भी गांधीजी के विचारों से प्रभावित था। प्रभा के पिताजी तो पूर्णतया गांधीवादी ही थे। प्रभा लिखती हैं -

बाबूजी अपनी ससुराल राजगड़िया हाउस जीमने गये थे। गांधीजी की आलोचना सुनकर बिना भोजन किए ही उठकर चले आए।``

मारवाड़ी परिवारों में हर समय व्यापार के पहलुओं और सिर्फ पैसे की चर्चा होती रहती थी। ऐसे ही परिवेश में प्रभा का बचपन और किशोरावस्था बीती। प्रभा खुद लिखती हैं-

हमारे परिवार का परम् सुख था रुपया! अधिक से अधिक रुपया।``

प्रभा के पिताजी जूट के व्यापारी थे। उनकी खुद की जूट मिल थी। सात भाई-बहनों से भरा-पूरा परिवार और अनेक नौकर-चाकर। उन्हीं नौकर-चाकरों में प्रभा की दाई मां भी थी, जिससे प्रभा को ढेर सारा प्यार मिलता। दाई मां के अलावा प्रभा को अपने पिताजी की भी स्नेह दृष्टि मिलती। परंतु अफसोस कि; जब प्रभा मात्र ९ वर्ष की थीं तब एक साजिश के तहत उन्हें मार दिया गया। उस पीड़ा का वर्णन प्रभा करती हैं-

दूसरे दिन अखबार में सुर्खियां थीं- प्रसिद्ध उद्योगपति लादूराम खेतान की रहस्यमयी मौत। मृत देह सोनागाछी के बाथ हाउस में मिली।``

इस घटना से पारिवारिक परिस्थितियां ही बदल गइंर्।

मारवाड़ी परिवारों में स्त्री शिक्षा को कतई महत्त्व नहीं दिया जाता था। प्रभा को स्कूल भेजने के खिलाफ सर्वप्रथम प्रभा की मां ही खड़ी हुई। लेकिन प्रभा के पिताजी की इच्छा लड़कियों को उच्च शिक्षा दिलाने की थी। प्रभा उनके शब्दों का स्मरण करते हुए लिखती हैं-

इन लड़कियों को पढ़ने भेजो, इन्हें मैं ऊंची शिक्षा दिलाना चाहूंगा।``

पिताजी के देहांत के बाद प्रभा के लिए घर असुरक्षित-सा हो गया। और ऐसी ही परिस्थितियों के बीच प्रभा बड़ी हुईं। सगे बड़े भाई के द्वारा शारीरिक शोषण और इन्कार के बाद फीस आदि पर लगी पाबंदी प्रभा के लिए किसी त्रासदी से कम न थी। भाभी और बहनें सिर्फ गहनों-कपड़ों पर ही ध्यान रखती थीं। हां, पिताजी के देहांत के बाद प्रभा ने अपनी अम्मा को सदैव परेशान देखा। उनकी परेशानी का मूल सामाजिक मर्यादा बनाए रखना था।

एक मारवाड़ी परिवार जो अंदर से खोखला होते हुए भी सामाजिक रूप से धनी होने की उद्घोषणा से आक्रांत था। आय का घटता क्रम और व्यय की बढ़ती सीमा। प्रभा के परिवार की पिताजी के देहांत के बाद यही स्थितियां बन गई थीं और प्रभा की मां उन स्थितियों से लोहा ले रही थी।

प्रभा की मां आर्थिक कमजोरी के बाद भी अपने घर की इज्जत को बनाए रखने के लिए दोगला व्यवहार अपनाए रहती थी। पैसा मनुष्य को जहां भौतिक सुख-सुविधाएं देता है वहीं अशांत, भयभीत और तनावग्रस्त रखता है। पैसे वाले बाहर से सुखी नजर आते हैं मगर अंदर से हमेशा आशंकित रहते हैं और यही सब प्रभा के ईद-गिर्द की परिस्थितियां थीं।

बाल्यकाल

प्रभा के जन्म के बाद उनकी मां बीमार रहने लगी। प्रभा को मां का प्यार नहीं मिला और तभी घर में एक आया को रखा गया। ये प्रभा की दाई मां थीं। इनका प्यार पाकर ही प्रभा का बचपन बीता। सभी भाई-बहन गोरे और सुंदर थे। उनके बीच प्रभा का रंग सांवला था। सांवला रंग होने के कारण वो मां की उपेक्षा का पात्र बनती। प्रभा स्वस्थ और हृष्ट-पुष्ट थीं और यही कारण था कि वह अपनी बहनों से बड़ी लगती।

प्रभा रंगभेद का शिकार रही और अपनी मां का प्यार पाने के लिए तरस जाती थी। प्रभा खुद लिखती हैं-

अम्मा ने मुझे कभी गोद में लेकर चूमा नहीं। मैं चुपचाप घंटों उनके कमरे के दरवाजे पर खड़ी रहती। शायद अम्मा मुझे भीतर बुला लें। शायद.......... हां, शायद अपनी रजाई मंे सुला लें। मगर नहीं, एक शाश्वत दूरी बनी रही हमेशा हम दोनों के बीच।``


उपेक्षा पाकर बच्चे का आहत मन कुंठित हो अपनी कमियां ढूंढ़ता रहता है। इतना होते हुए भी प्रभा अपने पिताजी की लाडली बेटी थी। पर, यह दुर्भाग्य जरूर रहा कि उनकी स्नेहिल छाया अल्प समय के लिए थी। बाल्यकाल की उपेक्षा ने हमेशा प्रभा का पीछा किया। वह लिखती हैं-

मैं उपेक्षित थी, आत्मसम्मान की कमी ने मेरा जिंदगी भर पीछा किया।``

गलती करने पर बच्चे को डांटा जाए तो वह दुखी नहीं होता लेकिन भाई-बहनों की बजाय उसे उपेक्षित किया जाए तो उसका बालमन टूट जाता है, कल्पनाओं के मोती बिखरने लगते हैं। ऐसी ही एक घटना का प्रभा उल्लेख करती हैं-

बाबूजी के इतालवी दोस्त ने हम दोनों बहनों को उपहार में दो गुड़ियाएं भेंट कीं, एक बड़ी-सी वॉकी-टॉकी और दूसरी बेबी डॉल जो बोतल से पानी पीते ही सूसू कर देती, जिसे देख हम सब हंसते। हां तो अम्मा ने कहा, 'तुम दोनों बहन मिलकर खेलो।` ........... 'नहीं मुझे नहीं खेलनी गीता की गुड़िया से।` लेकिन गीता क्यों देने लगी अपनी गुड़िया को। दाई मां की गोद में मंुह छुपा के मैं बहुत-बहुत रोई थी।``

भयाक्रांत और नीरस बचपन, उससे भी ज्यादा दुखदायी असमय आती किशोरावस्था। प्रभा के मात्र ९ वर्ष की उम्र में मासिक धर्म शुरू हो गया। बढ़ता हुआ कद और किशोरावस्था के सारे परिवर्तन १० साल की प्रभा में दिखने लगे। प्रभा की मां ऊपर से इसका हरदम आभास कराती रहतीं। प्रकृति की देन का सारा दोष प्रभा पर? प्रभा को प्यार की जगह गालियां मिलतीं। प्रभा लिखती हैं-

भाटा, पत्थर, बोकी, गधी, भंगन उपाधियों से विभूषित होकर मैं कपड़े बदलने गई।``

मन की बात कोई सुनने वाला न हो तो इंसान अकेला होने लगता है और वह अकेलापन सदा उसका दामन थामे रहता है। ऐसा ही प्रभा के साथ हुआ-

मेरे साथ मेरा अकेलापन हमेशा रहा है।``

दूसरी जगह-

रेलिंग पर बैठी गौरेया से मैं न जाने क्या-क्या बात किए जा रही थी।``

चाहे कुछ भी हो मगर एक आश्रय ईश्वर सबको प्रदान करता है। प्रभा को भी उनके ईश ने दाई मां के रूप में आश्रय बख्सा था। उनके बालमन को पूर्णत: संतुष्ट करने का प्रयास दाई मां करती थी। प्रभा भी दाई मां को ही अपना संरक्षक मानती थी। दाई मां के बिना वह अपने-आप को असहाय मानती। एक जगह लिखती हैं-

मुझे मालूम नहीं कि अब क्या करना चाहिए। दाई मां दिखलाई नहीं देती। मैं कितनी असहाय हूं, दाई मां के अलावा मेरा कोई नहीं।`` दूसरी जगह लिखती हैं-

दाई मां मेरा सहारा, मेरा आश्रय थी। अम्मा के क्रोध, भाई बहनों का तूफानी वेग, गरजते बादल, कड़कती बिजलियां, दाई मां इन सबसे मुझे बचाकर रखती।``

शिक्षा-दीक्षा

प्रभा की स्कूली शिक्षा कलकत्ता के 'बालीगंज शिक्षा सदन` में पूरी हुई। सुप्रसिद्ध साहित्यकार मन्नू भंडारी के सान्निध्य में चौथी से ग्यारहवींं कक्षा तक की पढ़ाई प्रभा ने वहां से पूरी की। बालीगंज शिक्षा सदन के अलावा अपनी आत्मकथा में प्रभा एक और स्कूल का जिक्र करती हैं-

अम्मा ने गोखले मेमोरियल कॉन्वेंट स्कूल से गीता और मेरा नाम कटा दिया, 'घर बैठो, राई-जीरा चुनो, सिलाई-कढ़ाई करो`।``

जिस प्रकार प्रभा का बचपन कठिनाइयों से भरा था, वैसे ही इनकी शिक्षा की सीढ़ियां भी हिचकोले देती हुई आगे बढ़ने दे रही थीं। प्रभा की परेशानियां हमेशा उनके साथ चलती रहीं। स्कूल के समय पर वह तैयार नहीं हो पातीं और स्कूल बस चली जाती। दाई मां के अनुनय-विनय पर स्कूल भेजा जाता। पढ़ने में प्रभा तेज थीं। 'टॉप थ्री` में रहने वाली प्रभा ने जैसे-तैसे अपनी स्कूली शिक्षा पूरी की। प्रभा को शिक्षक हमेशा अच्छे मिले, वे हमेशा आगे पढ़ने के लिए प्रेरित करते रहे। अन्त:ज्ञान को जागृत करने वाले शिक्षकों ने हमेशा उन्हें उत्साहित किया।

ग्यारहवीं का रिजल्ट आने के बाद प्रभा से पूछा गया, आगे क्या पढ़ोगी? तब प्रभा का जवाब था, 'प्रेसिडेंसी कॉलेज में दर्शन।` परंतु इस इच्छा का सम्मान नहीं हुआ। चाहे हो न हो पर प्रभा ने मजबूत इरादों के कारण प्रेसिडेंसी कॉलेज में प्रवेश लिया। कॉलेज के प्रथम दिन एक प्रोफेसर ने छात्रों को संबोधित करते हुए जो कहा उसका उल्लेख प्रभा करती हैं-

इस क्लास में कभी नेताजी सुभाषचंद्र बोस भी पढ़ा करते थे। तुम लोग उस परम्परा की अगली कड़ी हो।` ` कॉलेज में आने के बाद प्रभा की समझ विकसित होती जा रही थी। घर में अपनी अम्मा, भाभी और बड़ी बहनों का सा जीवन उन्हें अस्वीकार होता जा रहा था। उनके सामने पूरी दुनियां थी और ढेर सारी किताबें। एक तरफ कम्युनिष्टों की राजनीति और देश में साम्यवाद लाने का दावा तो दूसरी तरफ बाजारवाद का हावी होना, प्रभा को ये सब सोचने के लिए मजबूर कर देते।

बंगाल की राजनीति गर्म पड़ती जा रही थी और प्रभा की कॉलेज शिक्षा पूरी होती जा रही थी। सन् १९६५ में प्रभा का एम.ए. फाइनल और साथ ही लॉ इंटरमीडियेड भी हो गया।

अपनी जिज्ञासु प्रवृत्ति और शिक्षकों के प्रोत्साहन ने प्रभा की पाठन अभिवृत्ति को विकसित किया। दर्शन की पुस्तकों को पढ़ते हुए उनमें छिपे गूढ़पन की असमझ ने प्रभा को उद्वेलित किया और अपनी जिज्ञासा अपने गुरु के सामने प्रकट करने पर विवश किया। गुरु ने जो मार्गदर्शन किया, प्रभा के शब्दों में-

नहीं, भारतीय दर्शन को जरूर पढ़ो, बार-बार पढ़ो। अर्थों की पर्त-दर-पर्त खुलती चली जाएगी। हां, तुम्हारे अंदर तीन बातों का होना जरूरी है- अभीप्सा, जिज्ञासा और संकल्प। और फिर बार-बार दोहराते रहने का अभ्यास।``

इसके बाद प्रभा की दर्शन में बढ़ती रुचि ने उनसे दर्शन का गहन अध्ययन करवाया। आगे चलकर इसी विषय में उन्होंने पी-एच.डी. की। 'ज्यां पॉल सार्त्र का अस्तित्ववाद` पी-एच.डी. का विषय था। शोध के दौरान प्रभा ने बड़ी गहनता से अध्ययन किया। आगे चलकर लायन्स क्लब के 'यूथ एक्सचेंज प्रोग्राम` के तहत प्रभा ने अमेरिका के लॉस एंजेल्स से ब्यूटी थैरॉपी कोर्स में डिप्लोमा भी लिया।

साहित्यिक अभिरुचि

साहित्य हमेशा प्रकृति से सामीप्य चाहता है। प्रकृति मन के कोमल भावों के संपर्क मंे आकर मन को उद्वेलित करती है और मन एक रचना-संसार बसाता है, उसमें से साहित्यकार की बुद्धि खिले हुए पुष्प लेकर एक छोटा-सा रचनात्मक घर सजाती है। प्रभा को बचपन से ही प्रकृति के प्रति मोह था या बचपन की परिस्थितियों ने उनको प्रकृति के इतने करीब ला दिया था कि घंटों अकेली बैठी वह काल्पनिक जगत में विचरती, कभी चिड़िया से बतलाती तो कभी घंटों गंगा की लहरों को निहारती हुई उसमें कुछ खोजा करती। खुले गगन में उड़ते पाखी उनके मन को खींचते तो कभी पेड़-पौधे भी उनसे कुछ कहते। इस नन्हीं-सी बच्ची को लगता मानो ये हवा, बहता पानी, उड़ते पक्षी, हिलती हुई पेड़ों की पत्तियां और सामने बैठी चिड़िया उससे कुछ कह रही है। और प्रभा उसको लिखने के प्रति लालायित हो उठती।

बालीगंज शिक्षा सदन में पढ़ते समय ही प्रभा ने कविताएं लिखनी शुरू कीं। उनकी सबसे पहली कविता दैनिक 'सुप्रभात` में छपी, तब वे सातवीं कक्षा में थीं। उनका बालमन लिखने लगा और तब से वे लगातार लिखती रहीं।

प्रेरणा-स्रोत :

अंतर्मन में छुपे ज्ञान के अकूत भंडार को जागृत करने के लिए बाह्य उद्दीपक की आवश्यकता होती है। वही उद्दीपक प्रेरित करता है और क्रियान्विति की ओर बढ़ाता है। प्रभा को प्रेरित किया प्रकृति ने, कभी शिक्षकों ने तो कभी आत्मीयजनों ने। समकालीन परिस्थितियों से उद्वेलित होकर भी प्रभा ने लिखा। सुविख्यात साहित्यकार मन्नू भंडारी के पास ७-८ वर्षों तक अध्ययन करने के कारण प्रभा पर उनका भी असर था। प्रभा ने उन्हीं के चरण-चिह्उाों पर चलना चाहा। प्रभा लिखती हैं-

मन्नू भंडारी, जिन्होंने मुझे चौथी से ग्यारहवीं तक पढ़ाया, साहित्य की दुनिया में जिनके कदमों की छाप पर मैंने चलना चाहा।``

विद्यालय से निकलकर जब प्रभा ने महाविद्यालय में शिक्षार्थ प्रवेश किया तो वहां के योग्य शिक्षकों से भी प्रेरणा मिली। दर्शन के अध्ययन ने प्रभा के चिंतन को और अधिक जागृत किया, अस्तित्व ने तो झकझोर कर ही रख दिया और इसी का परिणाम उनकी सार्त्र पर पी-एच. डी. है।

प्रभा ने जितना अध्ययन किया वह गहनता से किया। इससे उनका चिंतन उभरा और बौद्धिक धरातल फौलाद-सा हो गया। बचपन से असमानताओं को झेलती आई प्रभा ने समाज की तरफ देखा तो वहां नारी का स्थान दोयम दर्जे पर नजर आया। अमीरों के घर नारी गहनों से लदी एक कठपुतली-सी दिखी। एक तरफ नारी घर की चारदीवारी में कैद थी तो दूसरी तरफ मजदूर वर्ग में पूरे दिन काम करके भी पुरुष से आधी मजदूरी पाने वाले जीवन-संघर्ष में पिस रही थी। इन सब वजहों से प्रभा में नारीवादी सोच मजबूत हुआ और जब वह कागजों पर उतरा तो साहित्य में वे नारीवादी चिंतक के रूप में पहचानी गईं।

बंगाल की राजनीतिक उथल-पुथल ने भी प्रभा के चिंतन को जगाया। मार्क्स जैसे विचारक को पढ़ने के लिए उकसाया। प्रभा ने जितना भारतीय साहित्य का अध्ययन किया उतना ही विदेशी साहित्य को भी पढ़ा। प्रभा को बार-बार विदेश जाने का मौका मिला तो उन्होंने वहां के समाज को करीब से महसूस करने का प्रयास किया। उन्होंने देखा कि व्यक्ति सिर्फ वस्तु बनता जा रहा था। आर्थिक मजबूती की दौड़ में व्यक्ति अपने मानवीय धरातल से उखड़ता जा रहा था।

इस भौतिक अंधानुकरण ने प्रभा को अंदर तक हिला दिया और उनके उद्वेलित हृद्य ने शब्दों को जन्म दिया जो कलम से झरने लगे। व्यापारिक जगत ने भी प्रभा को ऐसे अनुभव दिए जो प्रभा के प्रेरणा-स्रोत बन गए। चमड़े की बनी वस्तुओं से छोटा-सा व्यापार शुरू करके प्रभा ने समय के साथ बड़ा व्यावसायिक साम्राज्य स्थापित किया। इस दौरान प्रभा ने जितनी समस्याओं का सामना किया, जितनी ठोकरें खाइंर् उतनी ही प्रभा मजबूत होती गईं। मानसिक मजबूती के साथ उनका चिंतन भी मजबूत हुआ और इसी चिंतन ने व्यापारिक अनुभवों को लिखवाया।

प्रभा की आंतरिक और बाह्य प्रेरणा रूपी बीज का ही परिणाम उनका श्रेष्ठ साहित्य रूपी फल है, जो हिन्दी साहित्य जगत् में अपना अहम् स्थान रखता है। उनकी अंत:प्रेरणा नहीं जागती तो वे किसी धनी पुरुष की पत्नी होती और गहनों से लदी, बच्चों से घिरी हुई किसी घुटन भरी चारदीवारी में होती। प्रभा आत्म-प्रेरणा के साथ-साथ बाह्य प्रेरणा से आलोडित हुई और उसके अनुसार चली। उसी के कारण प्रभा ने न केवल एक पूर्ण नारी, बल्कि एक संस्था का रूप लिए जिंदादिली से जीवन जीया।