वफा की देवी / प्रेमचंद

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माघ का महीना, सुबह का समय, हरिद्वार में गंगा का किनारा, स्नान का मेला, सामने की पहाड़ियाँ सुबह की सुनहरी किरणों में नहाई खड़ी हैं। यात्रियों की इतनी भीड़ है कि कंधे से कंधा छिलता है। जगह-जगह साधु-संन्यासियों और कीर्तनियों की टोलियाँ बैठी हुई हैं। इस समय सांगली के कुँअर साहब और उनकी रानी स्नान करने आए हैं। उनके साथ उनकी छह वर्ष की लड़की भी है। कुँअर साहब के सिर पर जयपुरी पगड़ी, नीची अचकन, अमृतसरी जूते, बड़ी-बड़ी मूछें, गठीला शरीर। रानी का रंग गेहुँआ, शरीर नाजुक, गहनों से सजी हुई। लड़की भी गहने पहने हुए है। कई सिपाही, प्यादे उनके साथ भाला-बल्लम लिए, वर्दियाँ पहने चले आ रहे हैं। कई सेवक भी हैं।

ये लोग भीड़़ को हटाते, नदी-किनारे पहुँचकर स्नान करते हैं। चार आदमी रानी के स्नान के लिए परदा करते हैं। लड़की पानी से खेल रही है, राजा साहब पंडितों को दान दे रहे हैं और लड़की पानी पर अपनी नाव तैरा रही है। अचानक नाव एक रेले में बह जाती है, लड़की उसे पकड़ने के लिए लपकती है। उसी समय भीड़ का ऐसा रेला आता है कि लड़की माँ-बाप से अलग हो जाती है। कभी इधर भा गती कभी उधर, बार-बार अपनी माँ को देखने का भ्रम होता है। फिर वह रोने लगती है, डर के मारे किसी से कुछ बोलती भी नहीं, न रास्ता ही पूछती है। बस खड़ी फूट-फूटकर रो रही है और अपनी माँ को पुकारती है। अचानक एक रास्ता देखकर उसे धर्मशाला के मार्ग का भ्रम होता है। वह उसी पर हो लेती है, लेकिन वह रास्ता उसे धर्मशाला से दूर ले जाता है।

इधर लड़की को न पाकर कुँअर साहब और उनकी रानी इधर-उधर खोजने लगते हैं और बौखलाकर अपने नौकरों पर बिगड़ते हैं। नौकर लड़की की तलाश में चले जाते हैं। एक छोटी लड़की को देखकर रानी सहसा उसकी ओर दौड़ पड़ती है, लेकिन जब अपनी गलती पता चलती है तो आँखों पर हाथ रखकर रोने लगती है। कुँअर साहब गुस्से से आग बबूला हो रहे हैं, मगर तलाश करने कहीं नहीं जाते। अभी उनका साफा ठीक नहीं हुआ, अचकन भी नहीं सजी, बाल भी सँवारे नहीं जा सके। अब वहाँ नौकर तो रहे नहीं, वे पंडितों पर बिगड़ते हैं और अन्ततः नखशिख से सज- धजकर, कमर में तलवार लगाकर लड़की की तलाश में निकलते हैं। इसी मध्य गंगा के किनारे आकर रानी मन्नत माँगती है। भीड़ के मारे एक कदम चलना मुश्किल है। भीड़ बढ़ती जाती है। बेचारे हतभागे माँ-बाप धक्कम-धक्के में कभी दो पग आगे बढ़ते हैं तो कभी दो पग पीछे हो जाते हैं।

इधर रोती हुई लड़की अपनी धर्मशाला को पहचानने की कोशिश में और दूर चली जा रही है।

सहसा कुँअर साहब के मन में आता है कि शायद लड़की धर्मशाला में पहुँच गई हो और उसे नौकरों ने पा लिया हो। फौरन भीड़ को हटाते हुए दोनों धर्मशाला की ओर चल देते हैं मगर वहाँ पहुँचकर देखते हैं कि लड़की का कुछ पता नहीं। घबराकर दोनों फिर निकल पड़ते हैं। आश्चर्य यह है कि आगे-आगे लड़की रोती चली जा रही है और पीछे-पीछे माँ बाप उसकी तलाश में जा रहे हैं, बीच में केवल बीस गज की दूरी है मगर दोनों का आमना-सामना नहीं होता। यहाँ तक कि घंटों बीत जाते हैं। बादल घिर आते हैं। रानी थक जाती है, उससे एक कदम भी चला नहीं जाता। वह सड़क के किनारे बैठ जाती है और रोने लगती है। कुँवर साहब लाल-लाल आँखें निकाले, बेसुध हुए सारी दुनिया पर झल्लाए हुए हैं।

निराश होकर राजकुमारी फिर हरिद्वार घाट की ओर चलती है और माँ-बाप के सामने से निकल जाती है, लेकिन दोनों की दृष्टि दूसरी ओर है, आँखें चार नहीं होतीं।

इतने में कंधे पर मृगछाला डाले, हाथ में तम्बूरा लिए एक जटाधारी महात्मा चले आ रहे हैं। राजकुमारी को घबराया देखकर वे समझ जाते हैं कि यह अपने घरवालों से बिछुड़ गई है। वे उसे गोद में उठा लेते हैं और उससे उसके घर का पता पूछते हैं। लड़की न तो अपने माता-पिता का नाम बता सकती है न अपने घर का पता, वह बस रोए जाती है। डर के कारण उसका मुँह ही नहीं खुलता।

अब साधु के मन में एक नई इच्छा उत्पन्न होती है। लड़की को गोद में लिए वे सोच रहे हैं कि मुझे क्या करना चाहिए? उनका मन कहता है - जब इसके माँ-बाप का पता ही नहीं तो मैं क्या कर सकता हूँ? उनका मन लड़की को छिपा रखने के लिए प्रेरित करता है। वे राजकुमारी को लिए अपनी कुटिया की ओर चले जाते हैं। उनकी लड़की और पत्नी दोनों मर चुके हैं और इसी शोक में वे संसार से विरक्त हो गए हैं। इस चाँद सी लड़की को पाकर उनके हृदय में पितृ-प्रेम पुनः जाग्रत हो उठता है। वे समझते हैं कि परमात्मा ने उन पर दया करके उनके जीवन-दीप को जगमगाने के लिए इसे भेजा है।

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पथरीली जगह पर एक साफ सुथरी, बेलों और फूलों से सुसज्जित कुटिया है। पीछे की ओर बहुत नीचे एक नदी बह रही है। कुटिया के सामने छोटा-सा मैदान है। दो हिरन और दो मोर मैदान में घूम रहे हैं। वही महात्मा कुटिया के सामने एक चट्टान पर बैठे तम्बूरे पर गा रहे हैं। राजकुमारी भी उनके सुर में सुर मिलाकर गा रही है। उसकी उम्र अब दस साल की हो गई है। भजन गा चुकने पर लड़की कुटिया में जाकर ठाकुरजी को स्नान कराती है।

साधु भी आ जाते हैं और दोनों ठाकुरजी की स्तुति करते हैं। फिर वे मस्ती में आकर नाचने लगते हैं। थोड़ी देर बाद लड़की भी नाचने लगती है। कीर्तन समाप्त हो जाने के पश्चात् दोनों चरणामृत लेते हैं और साधु राजकुमारी को (जिसका नाम इंदिरा रखा गया है) पढ़ाने लगते हैं। उसे गाना, बजाना, नाचना सिखाने में उन्हें आत्मिक आनन्द प्राप्त होता है। उनकी इच्छा है कि इंदिरा ईश्वर-भजन और जगत्-सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दे। वे उस शुभ घड़ी का स्वप्न देख रहे हैं जब इंदिरा ठाकुरजी के सामने मीरा की भाँति गायेगी और मस्ती में आकर नाचेगी। इंदिरा इतनी रूपवती, इतनी मृदुभाषिणी और नृत्य में इतनी पारंगत है कि जब वह रात में कीर्तन करने लगती है तो भक्तों की भीड़ लग जाती है।

महात्माजी ने ये पाँच बरस इसी कुटिया में बिताए हैं। इंदिरा यात्रा के कष्ट सहन करने के योग्य हो गई है इसलिए अब साधु तीर्थयात्रा करने के लिए निकलते हैं। भक्तजन उन्हें बिदा करने के लिए आते हैं। एक भक्त को कुटिया सौंपकर महात्मा इंदिरा के साथ तीर्थयात्रा के लिए चल देते हैं।

बरसों तक महात्माजी तीर्थस्थानों की यात्रा करते रहते हैं। कभी बदरीनाथ जाते हैं कभी केदारनाथ, कभी द्वारका कभी रामेश्वरम, कभी मथुरा कभी काशी, कभी पुरी। दोनों प्रत्येक स्थान पर मंदिरों में कीर्तन करते हैं और भक्तों को आध्यात्मिक आनन्द से सराबोर कर देते हैं। अब महात्माजी इंदिरा को शास्त्रों और वेदों का भी सदुपदेश देते हैं। जब महात्माजी ध्यानमग्न हो जाते हैं तो इंदिरा प्रायः वेदों का अध्ययन करती है।

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एक दिन महात्माजी और इंदिरा दोनों एक गाँव में जा पहुँचते हैं। यह गाँव मुसलमानों का है। एक हफ्ते से प्लेग फैला हुआ है। लोग गाँव के बाहर झोंपड़ियाँ डाले पड़े हैं। महात्माजी एक वृक्ष के नीचे आसन जमाते हैं और प्लेगग्रस्त लोगों का उपचार करते हैं। इंदिरा भी महिलाओं की सेवा में व्यस्त हो जाती है। जड़ी-बूटियाँ खोजना, दवाएँ बनाना, मरीजों को उठाना-बैठाना, उनके बच्चों के लिए खाने-पीने की व्यवस्था करना उन दोनों का नित्य कर्म है। यहाँ तक कि महात्माजी को प्लेग हो जाता है और वे उसी वृक्ष के नीचे पड़ जाते हैं। गाँव के सभी स्त्री-पुरुष और आसपास के देहात के लोग महात्माजी की सेवा-शुश्रूषा के लिए आते हैं लेकिन महात्माजी की दशा बिगड़ती जाती है और एक दिन वे इंदिरा को बुलाकर ईश्वर- भजन और जनसाधारण की सेवा का उपदेश देकर ठाकुरजी के चरणों का ध्यान करते हुए समाधि ले लेते हैं। गाँव में कोहराम मच जाता है। महात्माजी की अर्थी धूमधाम और गाजे-बाजे के साथ निकलती है। एक भजन मंडली भी साथ है। गाँव की परिक्रमा करने के पश्चात् उसी वृक्ष की छाया में उनकी छतरी बनती है।

इस समय इंदिरा की आयु बीस-इक्कीस वर्ष है और उसके चेहरे पर ऐसा तेज है कि देखने वालों की आँखें झुक जाती हैं। उसका भरा-पूरा शरीर हर प्रकार का कष्ट सहन करने का अभ्यस्त हो गया है। गाँव के लोगों की इच्छा है कि वह उसी गाँव में रहे मगर अब उससे अपने उपकारी का बिछोह सहन नहीं होता। जिस गाँव में उस पर यह कष्ट आन पड़ा उसमें वह अब नहीं रह सकती। वह हृदय को इस बात से सांत्वना देना चाहती है कि जो ईश्वरेच्छा थी वही हुआ, लेकिन उसे किसी प्रकार सन्तोष नहीं होता। अन्ततः एक दिन वह सबसे बिदा लेकर निकल पड़ती है। उसकी कमर में कटार छिपी है, हाथ में तम्बूरा और कमंडल तथा कंधे पर मृगछाला है।

वह गाँव-गाँव और नगर-नगर में ईश्वर के भजन सुनाती और जनता के हृदय में भक्ति के दीप जलाती घूमती है। वह जिस नगर में जा पहुँचती है, वहाँ बात की बात में हजारों आदमी आ जाते हैं। उसकी सवारी के लिए सर्वोत्तम साधन प्रस्तुत किए जाते हैं लेकिन वह प्रदर्शन और बनावट को तुच्छ समझती हुई किसी मंदिर के सामने वृक्ष की छाया में ठहरती है। उसकी आँखों की निश्छल अदाओं में वह आकर्षण है कि लोग उसके मुँह से एक-एक शब्द सुनने के लिये व्याकुल रहते हैं। उसके दर्शन करते ही बड़े-बड़े ऐयाश और मनचले उसके समक्ष श्रद्धा से सिर झुका देते हैं। इंदिरा को सूफी कवियों की कविताएँ बहुत पसन्द हैं। वह मीरा, कबीर आदि के दोहों को अत्यन्त रुचि से पढ़ती और उन्हीं के भजन गाती है। तुलसी और सूरदास के पदों से भी उसे प्रेम है। समकालीन कवियों में से जिसकी कविताएँ उसे सर्वाधिक प्रिय हैं, वह हरिहर नाम का एक कवि है। वह उसके गीतों को पढ़कर मतवाली हो जाती है। उसके हृदय में उसका विशेष सम्मान है। वह चाहती है कि कहीं हरिहर से भेंट हो जाती तो वह उसके चरणों को चूम लेती।

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जरवल रियासत का प्रमुख नगर, पथरीला क्षेत्र, साफ सुथरी सड़कें, साफ सुथरे आदमी, वैभवशाली महल, एक अत्यन्त सुन्दर चौक, चारों ओर प्रकाश में नहाई हुई दुकानें, बीच में एक पार्क, पार्क में फव्वारा; उसी फव्वारे के सामने खड़ी इंदिरा तम्बूरे पर भजन गा रही है। हजारों लोग तल्लीन खड़े हैं। जाती हुई मोटर कारें रुक जाती हैं और उन पर से उतर-उतरकर रईस लोग गाना सुनने लगते हैं। खोमचे वाले रुक जाते हैं और खोमचा लिए भजन सुनने लगते हैं। इंदिरा अपने प्रिय कवि हरिहर का एक अध्यात्म में डूबा हुआ पद गा रही है। उसकी रसीली धुन सबको मस्त कर रही है।

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कई बरस हुए हरिहर एक मालदार रईस था, काव्य-रसिक, दार्शनिक चिन्तन में डूबा हुआ और आध्यात्मिकता में रंगा हुआ। अपने शानदार महल को छोड़कर एक झोंपड़ी में बैठा अध्यात्म और दर्शन की भावनाओं को कविता और गीतों के आकर्षक रूप में अभिव्यक्त किया करता था। अध्यात्म की वास्तविकताएँ उसके मनोमस्तिष्क में जाकर काव्यात्मक चमक-दमक से सुसज्जित हो जाती थीं। बैठे-बैठे पूरी रात बीत गई है और वह अपने विचारों में मस्त है। खाने-पीने, कपड़े-लत्ते की चिन्ता नहीं। उसकी दृष्टि में जगत् स्वप्न है, केवल इच्छाओं की मृगतृष्णा। उसकी दृष्टि में इसकी कोई वस्तु ऐसी नहीं कि मानव उसमें मन लगाए। वह अपनी सम्पत्ति की कोई परवाह नहीं करता, कामकाज पर लेशमात्र भी ध्यान नहीं देता। व्यापारी लोग बार-बार उससे मिलने आते हैं लेकिन वह अपने आनन्दकानन से बाहर नहीं निकलता। हाँ, यदि कोई फटेहाल आ जाता है तो तत्काल आकर उसे अतिथिशाला में ले जाता है। उसका समस्त वैभव गरीबों के लिए न्यस्त है, कभी गरीबों को कम्बल बाँटता है कभी अनाज। कोई भूखा भिखारी उसके द्वार से निराश नहीं लौटता। परिणाम यह होता है कि वह कर्ज में डूब जाता है। कर्ज देने वाले नालिश करते हैं, उस पर डिग्री होती है। हरिहर अपना एकान्त छोड़कर कभी मुकदमे की पैरवी करने नहीं जाता। उसकी सम्पत्ति कुड़क हो रही थी और वह अपनी झोंपड़ी में बैठा सितार पर वह पद गा रहा था जो उसने अभी-अभी लिखा था। बनाव-सजाव की वस्तुएँ उसके महल से निकालकर नीलाम कर दी जाती हैं, उसे तनिक भी दुःख नहीं। तब उसका महल नीलाम कर दिया जाता है और वह इसी प्रकार निस्पृह बना रहता है। एक बहुत बड़ा रईस आकर इस महल पर अधिकार जमा लेता है। हरिहर के पास अब भी विस्तृत इलाका है। वह चाहे तो फिर भव्य महल बनवा सकता है, मगर उसे सम्पत्ति से प्यार नहीं। वह हरेक गाँव में घूम-घूमकर अपनी आसामियों को जमींदारी के अधिकार प्रदान कर देता है, यहाँ तक कि उसके सभी एक सौ एक गाँव स्वतन्त्र हो जाते हैं। वह जिस गाँव में जा पहुँचता है, लोग उसका स्वागत करने दौड़ते हैं और उसके चरणों की धूल मस्तक पर लगाते हैं। उसके लिए हर प्रकार की सुविधाएँ प्रस्तुत की जाती हैं लेकिन वह गाँव के बाहर किसी वृक्ष की छाया में टिक जाता है और जंगली फल खाकर सो रहता है। अन्ततः सम्पत्ति की चिन्ता से मुक्त होकर वह फिर सन्तोष के साथ अपने आनन्दकानन में आ बैठता है। आज उसके हर्ष की कोई सीमा नहीं है। उसकी कुटिया में अब भी कितनी ही फालतू चीजें हैं जिन्हें उसकी सौन्दर्यप्रियता ने एकत्र कर रखा है। चित्रकला और कारीगरी के इन अजूबों को इकट्ठा करके वह एक ढेर लगा देता है और उसमें आग लगा देता है। उसका सितार और तम्बूरा और डफ, मूर्तियाँ, मृगछालाएँ, अध्यात्म और दर्शन की किताबें, सब उस ढेर में जलकर राख हो जाती हैं और वह मुस्कराता खड़ा उन वस्तुओं को राख होते हुए देखता है।

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शाम हो गई है। शहर के चौक में इंदिरा अपने तम्बूरे पर एक पद गा रही है। हजारों आदमी इकट्ठा हैं। बड़े-बड़े रईस और अमीर तल्लीन खड़े हैं। वह लुभावना गीत सुनकर हरिहर चौंक जाता है और कान लगाकर सुनता है और तब लपककर भीड़ में पीछे खड़ा हो जाता है। इंदिरा पद गा रही है जिसकी एक-एक तान उसके हृदय पर चोट करती है। आज हरिहर को अपनी रचनाओं के गाम्भीर्य, दर्द और प्रभाव का आभास होता है। वह आश्चर्य की मूर्ति बना खड़ा रहता है। यहाँ तक कि गाना समाप्त हो जाता है, लोग विदा हो जाते हैं और इंदिरा भी वहाँ से चली जाती है, मगर अभी तक हरिहर वहीं विचारों में डूबा हुआ बिना हिले-डुले मूरत बना खड़ा है। जब बिल्कुल सन्नाटा छा जाता है तो उसे अपने आसपास की चुप्पी का आभास होता है। वह एक-दो आदमियों से इंदिरा का पता पूछना चाहता है, मगर झिझक के कारण नहीं पूछता। वह विवश होकर अपनी कुटिया में लौट जाता है और प्रेम का पहला गीत लिखता है। वह व्याकुलता की दशा में पूरी रात काटता है और दूसरे दिन संध्याकाल फिर चौक की ओर जाता है। इंदिरा आज भी चौक में गा रही है, भीड़ कल से भी कहीं अधिक है मगर क्या मजाल कोई हिल भी सके। हरिहर भी बुत बना हुआ सुनता है और जब आधे घंटे के बाद इंदिरा चल देती है तो वह उसके पीछे हो लेता है। भक्तों की अजगर जैसी लम्बी पंक्ति साथ में है। इंदिरा कुटिया के पास पहुँचकर सब लोगों को विदा कर देती है, केवल हरिहर उससे कुछ दूरी पर चला आ रहा है। अपनी कुटिया में पहुँचकर इंदिरा पानी भर लाती है और तब ठाकुरजी को भोग लगाकर स्वयं भी खाती है। फिर धरती पर पड़ रहती है।

धवल चाँदनी छिटकी हुई है। कुटिया के सामने धरती पर बैठकर हरिहर पत्थर के टुकड़ों पर कोयले से प्यार का एक नया गीत लिखने लगता है। लिखते-लिखते पूरी रात बीत जाती है। जब पूर्व में सूर्योदय की लालिमा प्रकट होती है तो वह पत्थर के टुकड़ों को कुटिया के द्वार पर क्रम से रखकर वहाँ से कुछ दूर जाकर एक वृक्ष के नीचे लेट जाता है। पत्थर के टुकड़े इस प्रकार रखे गए हैं कि इंदिरा को उसका प्रेम-संदेश पढ़ने में लेशमात्र भी कठिनाई न हो।

संध्या-पूजन और कीर्तन के पश्चात् जब इंदिरा मुँह अंधेरे बाहर निकलती है तो उसे द्वार पर क्रम से रखे हुए पत्थर के चौकोर टुकड़े दिखाई देते हैं। वह आश्चर्य से एक पत्थर उठा लेती है। उसे उस पर कुछ लिखा हुआ दिखाई देता है। अरे! यह कोई प्रेमगीत है। वह दूसरा पत्थर उठाती है। उस पर भी वही लिखा है। यह इस गीत का दूसरा अन्तरा प्रतीत होता है। फिर वह पत्थर के सभी टुकड़ों को उठाकर पढ़ती है और उन्हें एक पंक्ति में रखकर पूरा गीत पढ़ लेती है। इस गीत में वह दर्द और प्रभाव है कि वह कलेजा थामकर रह जाती है। यह उसी अमर कवि हरिहर की रचना है। इंदिरा के मन में कितनी बार इच्छा उत्पन्न हुई थी कि इस कवि के दर्शन करे लेकिन उसे कुछ पता नहीं था कि वह कौन है, कहाँ रहता है। आज यह प्रेम-संदेश पाकर वह पागलों की भाँति उसकी खोज में निकल पड़ती है। उसे विश्वास है कि वह कहीं आसपास ही होगा। वह उसे चारों ओर तलाश करती है और अन्ततः वह उसे कुटिया के पिछवाड़े जमीन पर सोता हुआ दिखाई देता है। वह आश्चर्यपूरित आनन्द से उसके चेहरे की ओर देखती है। यह देखकर कि उसे मक्खियाँ सता रही हैं, वह अपने आँचल से मक्खियाँ उड़ाने लगती है। हरिहर की नींद खुल जाती है और इंदिरा को आँचल से पंखा झलते देखकर वह इस प्यार का आनन्द लेने के लिए पड़ा रहता है। फिर वह उठकर बैठता है और इंदिरा उसे प्रणाम करती है।

अब हरिहर भी वहीं रहता है। वह कुटिया के अन्दर रहती है, हरिहर बाहर। दोनों साथ-साथ पहाड़ियों पर घूमते हैं और जंगली फल-फूल एकत्रित करते हैं। इंदिरा के गीतों से पहाड़ियाँ गूँजने लगती हैं। अब वह शहर के चौक में अपने गीत सुनाने नहीं जाती, केवल हरिहर ही उसका श्रोता है। मगर अब भी शहर के भक्तों की भीड़ लग जाती है और लोग उसे बहुत से उपहार देने जाते हैं, जिन्हें इंदिरा खुले हाथों से गरीबों में बाँट देती है।

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सुबह के समय इंदिरा झील के किनारे एक चट्टान पर बैठी गा रही है और हरिहर सामने बैठा ठाकुरजी के लिए हार गूँथ रहा है। झील में मुर्गाबियाँ, हंस आदि तैर रहे हैं। किनारों पर हिरण, नीलगाय आदि सब मानो उस गीत से मस्त हो रहे हैं।

एकाएक घोड़े पर सवार राजकुमार ज्ञान सिंह उधर से निकलता है। उसके साथ कई बंदूकची, शिकारी और दरबारी हैं। वह मर्दाने चेहरे का अत्यन्त सुन्दर युवक है। अभी मसें भीग रही हैं। ऊँचा कद, चौड़ा सीना, उन्नत ललाट। इंदिरा का गाना सुनते ही जैसे सन्नाटे में आ जाता है। उसका घोड़ा वहीं रुक जाता है और सारी भीड़ वहीं चुपचाप खड़ी हो जाती है। इंदिरा अध्यात्म के नशे में डूबी हुई है, उसे ज्ञान सिंह के आने की कुछ भी खबर नहीं होती। जब गाना समाप्त हो जाता है तो राजकुमार घोड़े से उतरता है और इंदिरा के पास आकर सम्मान से प्रणाम करता हुआ उसका नाम पूछता है। वह अब तक अविवाहित था। राजों-महाराजों के यहाँ से सैकड़ों प्रस्ताव आए थे लेकिन उसने एक भी स्वीकार नहीं किया। आज इस रूपसी को देखकर वह आत्मविस्मृति की दशा में पहुँच जाता है। वह सम्मान के साथ उसे अपने महल में आने का निमंत्रण देता है। इंदिरा एक दिन का अवकाश माँगती है, ज्ञान सिंह दूसरे दिन आने का वचन देकर चला जाता है लेकिन शिकार में उसका मन बिल्कुल भी नहीं लगता। उसे एकाएक शिकार से घृणा और प्रत्येक जीवधारी से प्रेम हो जाता है। अब उसे हिरणों का शिकार करने में दुःख होता है। वही दर्दभरा गीत उसके कानों में गूँज रहा है और आँखों में वही सूरत बसी हुई है।

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यह निमंत्रण पाकर इंदिरा खुशी से फूली नहीं समाती। उस चिंगारी का उसे कुछ पता नहीं जो उसके रूप और गीत ने ज्ञान सिंह के हृदय में भड़का दी थी। वह सोचती है - शाही कृपाओं के सहारे वह जीवन की चिन्ताओं से मुक्त हो जाएगी और हरिहर के साथ सन्तुष्ट रहती हुई जीवन के दिन काट देगी। क्योंकि राजकुमार के दिल का हाल उससे छिपा नहीं रहता इसलिए हरिहर सोचता है कि रनिवास में इंदिरा कितनी प्रसन्न होगी। क्या ऐसी अनिंद्य रूपसी पहाड़ों तथा जंगलों में फिरने के योग्य है। हरिहर के साथ रहकर उसे भूख व चिन्ता के अतिरिक्त और क्या मिलेगा। वह इस देवी को इन कठिनाइयों में डालना नहीं चाहता। उसके आध्यात्मिक सन्तोष के लिये इतना विश्वास ही पर्याप्त है कि उसका स्थान इंदिरा के हृदय में है। यही विचार उसके जीवन को चरमोत्कर्ष तक पहुँचाने के लिए पर्याप्त है। उसके हृदय में और कोई इच्छा, और कोई आकांक्षा नहीं है।

रात बीत जाती है। पौ फटे हरिहर इंदिरा को फूलों के गहनों से सजाता है। भक्तों ने उस दिन इंदिरा को जितने उपहार दिये थे, वे सब हरिहर ने इकट्ठे कर रखे हैं। वह इस सज्जा से इंदिरा के रूप को और भी चमका देता है मगर जब अवसर मिलता है तो इंदिरा की आँख बचाकर आँसुओं की दो-चार बूँदें भी गिरा लेता है। इंदिरा से हँस-हँसकर बातें करता है मानो उसे कोई आशंका न हो, लेकिन उसे मन में विश्वास है कि अब इंदिरा के दर्शन नहीं होंगे। यह भय भी है कि इंदिरा के मन में अब उसकी याद नहीं रहेगी, शाही भोग-विलास में पड़कर वह उसे अवश्य ही भूल जायेगी। कौन किसको याद करता है! लेकिन वह इस विचार से अपने दिल को सांत्वना देता है कि वह आराम से तो रहेगी, उसके व्यक्तित्व से प्रजा को लाभ होगा। क्या वह इतनी बदल जाएगी कि अधिकार पाकर शाही अत्याचार के विरुद्ध मुँह भी न खोले? क्या वह महात्मा के उपदेश को भूल सकती है?

जब इंदिरा बन-सँवरकर तैयार हो जाती है तो दोनों साथ बैठकर कीर्तन करते हैं। आज इस कीर्तन में दोनों के मन में भिन्न-भिन्न भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। इंदिरा अनजाने में प्रसन्न है। उसे हरा ही हरा सूझता है। वह संन्यास और वैराग्य से अघा चुकी है और अब सांसारिक वस्तुओं का आनन्द लेना चाहती है। उसके विचार में शाही कृपाएँ उसके लिये समृद्धि का द्वार खोल देंगी। वह इस समय भी उस जीवन का स्वप्न देख रही है जब वह हरिहर के लिए अच्छा खाना पकाएगी, उसके लिए अच्छे-अच्छे कपड़े बनवाएगी, उसके सिर में तेल डालेगी, जब वह सोएगा तो उसके लिए पंखा झलेगी। क्या ऐसा गुणवान, ईश्वर तक पहुँचा हुआ कवि इस योग्य है कि संसार की उपेक्षा का शिकार हो? मगर हरिहर दुःख के विचारों में डूबा हुआ है। उसकी आँखों के समक्ष अंधेरा छा रहा है। इसी समय ज्ञान सिंह अपने साथियों के साथ सवारी लिए आ पहुँचता है।

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शाही महल के सुसज्जित और सुरुचिपूर्ण कमरे, रूपवती दासियाँ। राजमाता का दरबार लगा हुआ है। इंदिरा महल में पहुँचकर राजमाता को प्रणाम करती है। रानी उसकी बड़ी आवभगत करती हैं। वे स्नान करके पूजा के लिए तैयार बैठी हैं। इंदिरा उनके साथ मंदिर में जाती है जो काँच की वस्तुओं से सजा हुआ है, और वहाँ उनका कीर्तन होता है। रानी के साथ और भी कई कुलीन महिलाएँ हैं। इंदिरा का कीर्तन सुनकर सब अपना आपा खो बैठती हैं। रानी साहिबा इंदिरा को गले लगा लेती हैं और अपनी मोतियों की माला निकालकर उसके गले में डाल देती हैं। इंदिरा दूसरा भजन गाती है। रानी उसके पाँवों पर सिर रख देती है। उसके हृदय में भगवान् की ऐसी भक्ति कभी न उमड़ी थी। इसी समय पद्मा आती है। पद्मा रूप में इंदिरा से बिल्कुल अलग है। उसके रूप में रौब, गाम्भीर्य, लावण्य और आकर्षण है। इंदिरा के रूप में मृदुलता और नम्रता। एक चमेली का फूल है - सादा और कोमल, उसका सौन्दर्य उसकी कोमलता और सादगी में है। दूसरा सूरजमुखी है - सुवर्ण और सुदर्शन। पद्मा का पिता सरदार केसरी सिंह राज्य में मंत्री के पद पर प्रतिष्ठित है। वह पद्मा का विवाह राजकुमार ज्ञान सिंह से करना चाहता है। पद्मा भी राजकुमार को सच्चे दिल से चाहती है मगर राजकुमार उस पर अधिक आसक्त नहीं है, फिर भी उसका बहुत आदर-सत्कार करता है।

पद्मा आकर राजकुमार को इंदिरा की ओर मुग्ध दृष्टि से घूरते हुए देखती है। यह भी देखती है कि यहाँ इसका आदर-सम्मान हो रहा है। स्वयं उसका इतना सम्मान कभी न हुआ था। यह साधारण, बाजारों में गाने वाली औरत उससे बाजी मार ले, इस विचार से वह अन्दर ही अन्दर जल जाती है। उसे तत्काल इंदिरा से ईर्ष्या व द्वेष उत्पन्न हो जाता है और वह उसे अपमानित करने की योजना बनाने लगती है। वह रानी साहिबा को उससे विमुख करना चाहती है। उसके चेहरे-मोहरे, पहनने-ओढ़ने का मजाक उड़ाती है। लेकिन जब इस दुश्चक्र का इंदिरा पर कोई प्रभाव नहीं होता तो वह उसे बदनाम करना चाहती है। अवसर पाकर वह अपना कीमती कंगन उसके तम्बूरे के नीचे छिपा देती है और कुछ देर बाद उसे तलाश करने लगती है। इधर-उधर ढूँढ़ती हुई वह इंदिरा के पास आती है और तम्बूरे से कंगन निकाल लेती है। शर्मिन्दा होकर इंदिरा रोने लगती है। पद्मा से दासियाँ बहुत प्रसन्न हैं क्योंकि वह उन्हें पुरस्कार देती रहती है। वे सब इंदिरा से विमुख रहती हैं। लेकिन इसी समय ज्ञान सिंह आ जाता है और इस घटना का समाचार सुनकर इंदिरा को दोषी नहीं ठहराता। उसे इस घटना में धूर्तता और शरारत प्रतीत होती है। वह इंदिरा की ओर से किसी भी प्रकार की बेईमानी का विचार तक मन में नहीं ला सकता। उसका व्यवहार देखकर दासियाँ भी उसी की हाँ में हाँ मिलाती हैं और रानी साहिबा पद्मा को कठोर शब्द कहती हैं। पद्मा दाँत पीसकर रह जाती है।

इधर शाही महल की दीवार के नीचे हरिहर आत्मविस्मृत हुआ खड़ा है कि सम्भवतः इंदिरा की आवाज कानों में पड़ जाए। वह यहाँ से निराश होकर फिर इंदिरा की कुटिया में जाता है और उसकी एक-एक वस्तु को चूमता और रोता है।

दूसरे दिन महल में पुनः महफिल सजती है। आज महाराज साहब जरवल भी उपस्थित हैं। संयोग से सांगली के कुँअर साहब भी आए हुए हैं। इन चौदह-पंद्रह बरसों में उन्होंने बड़े-बड़े दुःख उठाए हैं। उनकी पत्नी का देहान्त हो गया है। पत्नी और पुत्री की याद में बहुत दुबला गए हैं लेकिन बनने-सँवरने का शौक अभी तक बना हुआ है। अब भी वही जयपुरी साफा है, वही नीची अचकन, वही अमृतसरी जूता, उसी प्रकार बाल सँवारे हुए, यद्यपि इस बाहरी सजावट के आवरण में रोता हुआ हृदय छिपा है। जिस समय इंदिरा तल्लीन होकर गाती है, उनकी आँखों से आँसू बह निकलते हैं। इंदिरा के चेहरे में उन्हें अपनी स्वर्गवासी पत्नी का प्रतिबिम्ब दिखाई देता है। उन्होंने जब पहली बार इंदिरा की माँ को नयी नवेली दुल्हन के रूप में देखा था उस समय वह बिल्कुल ऐसी ही थी। इतनी समानता उन्होंने आज तक किसी औरत में नहीं देखी। जब इंदिरा यहाँ से जाने लगती है तो वे उसके साथ कुछ दूर जाते हैं और अवसर पाकर उसका नाम और उसके माता-पिता का हाल पूछते हैं। इंदिरा अपने बचपन की घटना उन्हें बताती है। कुँअर साहब को विश्वास हो जाता है कि इंदिरा ही मेरी खोई हुई बेटी है। उनका हृदय सहसा उमंग से भर जाता है कि इसे गले लगा लें लेकिन लाज रोक देती है। क्या पता यह किस-किसके साथ रही, इस पर क्या-क्या बीती, वे इसे अपनी बेटी कैसे स्वीकार कर सकते हैं? इंदिरा भी ध्यान से उनके चेहरे को देखती है और उसे कुछ-कुछ याद आता है कि उसके पिता की सूरत इनसे मिलती थी, लेकिन वह भी लाज से यह सब प्रकट नहीं करती कि कहीं कुँअर साहब मना कर दें तो शर्मिन्दा न होना पड़े।

इंदिरा के कीर्तन से राजा साहब जरवल इतने प्रसन्न होते हैं कि उसे पाँच गाँव माफ कर देते हैं। इंदिरा उनके पाँवों पर गिरकर कृतज्ञता प्रकट करती है।

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राजकुमार अपनी नाव सजाता है और इंदिरा को नदी में घुमाने के लिए ले जाता है। इंदिरा इस अवसर की प्रतीक्षा में है कि राजकुमार से हरिहर की सिफारिश करके उसे राजकवि के रूप में प्रतिष्ठित करा दे। इसलिए वहाँ से मन उचट जाने और हरिहर का बिछोह असहनीय होने पर भी वह जाने का नाम नहीं लेती। नदी की सैर में शायद वह अवसर हाथ आ जाए, इसलिए वह इस प्रस्ताव को प्रसन्नता से स्वीकार कर लेती है। नाव लहरों पर खेल रही है। इंदिरा हरिहर का एक पद गाने लगती है। सहसा उसे किनारे पर खड़ा हरिहर दिखाई दे जाता है। उसके चेहरे से निराशा ऐसे बरस रही है मानो यह बिछोह स्थायी हो।

इस प्रेम के पद से राजकुमार का दिल बेसुध हो जाता है। उसके सब्र का बाँध टूट जाता है। वह इंदिरा के समक्ष अपने आकुल-व्याकुल हृदय की कथा कह सुनाता है। वह अपना हृदय उसे दे बैठता है। अब इंदिरा को पता चलता है कि वह एक सुनहरे जाल में फँस गई है, अब हरिहर का नाम मुँह पर लाना कहर हो जाएगा, राजकुमार तत्काल हरिहर के लहू का प्यासा हो जाएगा। वह मन में पछताती है कि बेकार में राजकुमार का निमन्त्रण स्वीकार किया। यह हवस का पहला कोड़ा है जो उस पर पड़ा। अब वह यह भी समझने लगी है कि यद्यपि राजकुमार उसके सामने भिखारी बना खड़ा है मगर वास्तव में वह उसकी कैद में है।

वह कहती है, ‘राजकुमार, मैं दीन-हीन औरत हूँ, इस योग्य नहीं कि तुम्हारी रानी बनूँ। तुम बदनाम हो जाओगे और आश्चर्य नहीं कि राजा साहब और तुम्हारी माताजी भी तुमसे रुष्ट हो जाएँ। इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा। मैं तुम्हें कष्ट में डालना नहीं चाहती।’

राजकुमार, ‘मैं तुम्हारे लिए सिंहासन को ठोकर मार दूँगा। इंदिरा, मुझे किसी की खुशी या नाराजगी की परवाह नहीं है। मैं तुम्हारे लिए सब कुछ करने को प्रस्तुत हूँ।’

इंदिरा बहाना करती है कि उसने संन्यास-व्रत धारण कर लिया है और यदि उसने संकल्प तोड़ा तो उन महात्माजी को कितना कष्ट होगा जिन्हें वह अपना गुरु मानती है। उसका यह काम उन्हें परलोक में भी चैन से नहीं रहने देगा। वह राजकुमार का सम्मान करती है लेकिन उसके लिए प्यार करना निषिद्ध है और वह अपने संकल्प को तोड़ नहीं सकती।

राजकुमार, ‘इंदिरा, तुम्हें मुझ पर तनिक भी दया नहीं आती?’

इंदिरा, ‘अपने संकल्प को तोड़कर मैं जीवित नहीं रह सकती।’

राजकुमार, ‘ये सब बहाने हैं इंदिरा! क्या मैं मान लूँ कि तुम्हारे हृदय में किसी अन्य के लिए स्थान है?’

इंदिरा, ‘मैंने आपसे कह दिया, मैं संन्यासिनी हूँ।’

राजकुमार, ‘यह तुम्हारा आखिरी फैसला है?’

इंदिरा, ‘हाँ, आखिरी।’

निराशा की दशा में राजकुमार अपनी कमर से तलवार निकालकर अपने सीने में घोंपना चाहता है। इंदिरा तेजी से उसका हाथ पकड़ लेती है।

राजकुमार, ‘मुझे मर जाने दो इंदिरा। जब मैं तुम्हें पा नहीं सकता तो जिन्दगी बेकार है।’

इंदिरा उसकी कमर में तलवार लगाती हुई बहलाने के लिए कहती है, ‘आपको मेरे जैसी हजारों औरतें मिलेंगी। आपको एक गरीब का प्रेम मिल भी जाए तो आपको इससे सन्तोष नहीं होगा।’

राजकुमार का चेहरा प्रसन्नता से खिल जाता है और कहता है, ‘प्यार तो संकल्प और व्रत की चिन्ता नहीं करता।’

इंदिरा, ‘लेकिन प्यार छूमन्तर से पैदा होने वाली चीज भी तो नहीं। जो प्यार एक दृष्टि से पैदा हो सकता है वह एक दृष्टि में समाप्त भी हो सकता है। तुम राजकुमार हो। मुझे क्या भरोसा कि मुझसे अधिक रूपवती और सौन्दर्यवान औरत पाकर तुम मेरी ओर से आँखें नहीं फेर लोगे। फिर तो मैं कहीं की भी न रहूँगी। प्रिय-मिलन के लिए ईश्वर को छोड़कर यदि भाग्यहीन रहूँ तो क्या हो?’

राजकुमार, ‘हाँ, तुम्हारी यह शर्त मुझे स्वीकार है। इंदिरा, मुझे अवसर दो कि मैं तुम्हारे हृदय पर अपने प्यार का चिह्न अंकित कर सकूँ। लेकिन यदि तुम मुझसे मुँह मोड़कर चली गईं तो देख लेना, उसी दिन तुम्हें मेरे मरने की खबर मिलेगी।’

इंदिरा देखती है कि हरिहर धीरे-धीरे नदी के किनारे से बस्ती की ओर चला जा रहा है। अपनी बेबसी और निराशा का विचार करके उसकी आँखें नम हो गईं।

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पद्मा अपनी इच्छाओं का खून होते सरलता से नहीं देख सकती। वह इंदिरा के सम्बन्ध में खोज आरम्भ करती है कि शायद कोई ऐसा सूत्र हाथ आ जाए जिसके आधार पर वह उसे राजकुमार की दृष्टि से गिरा दे। एक दिन वह उसके ठिकाने का पता पूछती-पूछती उसकी कुटिया तक जा पहुँचती है। वहाँ उसकी भेंट हरिहर से हो जाती है। बातों-बातों में वह हरिहर को इंदिरा की बेवफाई की कथा सुनाती है। उसने कई तस्वीरें बनवा ली हैं जिनमें राजकुमार के साथ इंदिरा का सैर करना, गाना-बजाना, पढ़ना-लिखना दिखाई देता है। वह कहती है कि वहाँ इंदिरा ऐसी प्रसन्न है मानो उसे सृष्टि की सम्पदा ही मिल गई हो, और तुम उसके वियोग में घुल रहे हो। ऐसी बेवफा औरत इसी योग्य है कि उसकी पोल खोल दी जाए ताकि वह अपना काला मुँह कहीं न दिखा सके। लेकिन इन बुरी बातों का हरिहर पर कोई प्रभाव नहीं होता। अन्ततः उधर से निराश होकर पद्मा एक दूसरा जाल फैलाती है। वह हरिहर को अपने साथ दरबार में लाती है और राजकुमार से उसका परिचय कराती है। राजकुमार उसकी कविता सुनकर बहुत प्रसन्न होता है। यह वही कविता है जो उसने इंदिरा के मुँह से सुनी है। राजकुमार उसका बहुत सम्मान करता है। पद्मा हरिहर के मुँह से ऐसे शब्द निकलवाना चाहती है जो उसके प्यार का भेद खोल दें और राजकुमार को पता चल जाए कि यह इंदिरा का प्रेमी है। लेकिन हरिहर इतना चौकन्ना है कि वह मुँह से ऐसा एक भी शब्द नहीं निकलने देता जिससे उसका प्यार प्रकट हो जाय। राजकुमार इंदिरा की प्रशंसा करता है। हरिहर इस प्रकार सुनता है मानो उसने इंदिरा का नाम भी नहीं सुना। पद्मा उसी समय रनिवास में जाकर इंदिरा को अपने साथ लाती है। उसे विश्वास है कि आकस्मिक भेंट से दोनों अवश्य ही इतने हर्षित हो जाएँगे कि उस कमजोर नींव पर कोई भी भवन बना खड़ा किया जा सकेगा। लेकिन हरिहर को देखकर इंदिरा पराएपन का व्यवहार करती है और हरिहर भी उससे अधिक बात नहीं करता। तब पद्मा एक कवि-गोष्ठी आयोजित करती है और उसमें रियासत के बड़े-बड़े सुकुमार कवियों को आमंत्रित करती है। यह भी प्रस्ताव किया जाता है कि जिसकी कविता श्रेष्ठ होगी उसे राजकवि का पद प्रदान किया जाएगा। पद्मा को विश्वास है कि हरिहर की कविता ही सर्वोत्कृष्ट होगी इसलिए वह इंदिरा को निर्णायक बनाती है। राजकुमार भी बड़ी प्रसन्नता से इंदिरा को निर्णायक बनाया जाना स्वीकार करता है। अब इंदिरा को साफ दिखाई दे रहा है कि उसकी तबाही के सामान जुटाए जा रहे हैं। हरिहर की कविता निश्चय ही सर्वश्रेष्ठ होगी और उसे विवश होकर उसी को श्रेष्ठ कहना पड़ेगा। हरिहर के पक्ष या समर्थन में मुँह से एक शब्द भी निकालना उसके लिए घातक विष बन सकता है। उसके निर्णय पर आपत्ति करना और हरिहर की कविता में दोष निकालकर राजकुमार के मन में इंदिरा के प्रति संदेह उत्पन्न करना कुछ कठिन न होगा। वह चाहती है कि यदि अवसर मिले तो हरिहर को सावधान कर दे, लेकिन उसे इसका अवसर नहीं मिलता।

पद्मा कवि-गोष्ठी की तैयारियों में व्यस्त रहती है। नियत तिथि पर सभी कवि उपस्थित होते हैं, हरिहर भी आता है। नयी कविता की शर्त है। हरिहर ने कोई नयी कविता नहीं लिखी। अन्य कवि अपनी कविताएँ सुनाते हैं। प्रशंसा का स्वर गूँज उठता है। अन्ततः जब हरिहर की बारी आती है तो वह स्पष्ट कह देता है, ‘मैंने कोई नयी कविता नहीं लिखी।’ उसने भी पद्मा के इन प्रयासों को अपनी चतुराई से ताड़ लिया है और उसके जाल में फँसना नहीं चाहता। इंदिरा इसे दैवी सहायता समझकर मन ही मन परमात्मा को धन्यवाद देती है। एक दूसरे कवि को पुरस्कार तथा पद मिल जाता है और इंदिरा के प्रेम का रहस्य छिपा रह जाता है। यहाँ से हरिहर प्रसन्नतापूर्वक विदा होता है। रनिवास में इंदिरा भी प्रसन्न व आनन्दित है, उसके लिए इससे अधिक प्रसन्नता की बात और क्या हो सकती है?

-12-

राजकुमार ज्ञान सिंह की राजगद्दी का उत्सव मनाया जा रहा है। शहर में दीपावली मनाई जा रही है। चौराहों पर भव्य द्वार बनाए गए हैं। मुख्य द्वार से चौक तक बिजली के दोमुँहे सुन्दर बल्ब लगाए गए हैं। किनारे के वृक्षों पर बिजली से जगमगाते अक्षरों में स्तुति वाक्य लिखे गए हैं। पण्डित लोग मुहूर्त देखते हैं। उसी समय ज्ञान सिंह महल से निकलकर भव्य मण्डप में आता है जो इसी उत्सव के लिए बनाया गया है। दरबारी और रईस लोग उपहार भेंट करते हैं। ज्ञान सिंह उठकर अपनी नीति की घोषणा करता है और शाही सेवकों तथा प्रजा को अपने कर्त्तव्य-पालन हेतु निर्देशित करता है। उसने आसामियों का आधा लगान माफ कर दिया है इसलिए प्रजा अत्यधिक प्रसन्न है। प्रसन्नता प्रकट करके सब उसे दुआएँ देते हुए विदा हो जाते हैं। फिर गरीबों में भोजन वितरित किया जाता है। बन्दियों को मुक्त करने का आदेश होता है। फिर सेना की सलामी और परेड होती है। बैंड बजता है। अफसरों को पदक और जागीरदारी मिलती है। फिर आतिशबाजियाँ छोड़ी जाती हैं। इसके पश्चात् ठाकुरद्वारे में कीर्तन होता है। वहाँ इंदिरा के दर्शनों की लालसा में हरिहर आया है, लेकिन कीर्तन करने वालों में इंदिरा नहीं है। परम्परा के प्रतिकूल वेश्याओं को आमंत्रित नहीं किया गया। इस उत्सव में ज्ञान सिंह ने अनावश्यक खर्च करना अस्वीकार कर दिया है। शहर में चर्चा है कि इंदिरा का विवाह ज्ञान सिंह से होगा। ऐसी कृपालु, दीनों की पालक और सर्वप्रिय रानी मिलने से प्रत्येक छोटा-बड़ा प्रसन्न है।

कीर्तन के पश्चात् ज्ञान सिंह इंदिरा के पास जाता है और कहता है, ‘इंदिरा, क्या अभी तुम्हारी परीक्षा पूरी नहीं हुई?’

इंदिरा कहती है, ‘अभी नहीं, मुझे इस प्रतिष्ठा के योग्य बनने दीजिए।’

राजकुमार, ‘इस उत्सव की स्मृति में प्यार का एक उपहार प्रस्तुत करता हूँ।’

इंदिरा, ‘अभी मेरे लिए प्यार का कोई उपहार वर्जित है।’

राजकुमार, ‘तुम बड़ी निर्दयी हो इंदिरा!’

इंदिरा, ‘और ऐसी निर्दयी औरत को आप अपनी रानी बनाना चाहते हैं? रानी को दयालु होना चाहिए।’

राजकुमार, ‘सारी दुनिया के लिए तो तुम दया की देवी हो लेकिन मेरे लिए पत्थर की मूरत।’

ज्ञान सिंह अब इंदिरा के हाथों में है। वह आत्मा है तो ज्ञान सिंह शरीर। प्रजा के अधिकारों को इंदिरा एक क्षण के लिए भी विस्मृत नहीं करती। आए दिन नये-नये फरमान जारी होते हैं जिनके द्वारा प्रजा की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए कोई न कोई नया अधिकार प्रदान किया जाता है। शाही खर्चे कम किए जाते हैं। शाही महल में भी वह ठाट-बाट नहीं है। सेवकों की एक पूरी पलटन थी, उन्हें हटा दिया गया है। रूपवान दासियों की भी एक फौज थी, उन्हें भी हटा दिया जाता है। प्रजा की आवश्यकताओं के लिए महलों के कई भाग पृथक् कर दिए जाते हैं। एक महल में पुस्तकालय खुल जाता है, दूसरे में औषधालय। एक पूरा भवन किसानों और मजदूरों के नाम कर दिया जाता है, जहाँ उनकी पंचायतें होती हैं और विभिन्न प्रकार के कृषि उपकरणों की प्रदर्शनी लगती है। सेना के एक बड़े भाग को भंग कर दिया जाता है। उसके स्थान पर प्रजा में से युवा चुन लिए जाते हैं और तत्काल राष्ट्रीय सेना सुसज्जित कर दी जाती है। युवाओं के लिए व्यायामशालाएँ निर्मित की जाती हैं। ज्ञान सिंह वैभव के वातावरण में पला हुआ राजकुमार है। उसका आदेश प्रजा के लिए कानून हो सकता था, अब वह पग-पग पर स्वयं ही प्रतिबन्ध आरोपित करता है। यह सब इंदिरा की प्रेरणा का प्रभाव है। इंदिरा जो राजाज्ञा लिखती है, वह उस पर आँखें मूँदकर हस्ताक्षर कर देता है।

इधर अमीरों और दरबारियों में बड़ी चिन्ता व्याप्त हो जाती है। उनके विचार में रियासत नष्ट हुई जाती है। ज्ञान सिंह की यही दशा रही तो थोड़े ही दिनों में अमीरों का खात्मा हो जाएगा। आजादी की इस बाढ़ को रोकने के षड्यन्त्र किए जाते हैं। पद्मा इस षड्यंत्र की प्राणवायु है। ये लोग कटी-छँटी सेना के सिपाहियों और बर्खास्त किए गए सरकारी सेवकों में अफवाहें फैलाते हैं। अमीरों में भी विद्रोह उत्पन्न करते हैं। ज्ञान सिंह को तलवार की नोक पर अधीन करके किसी दूसरे राजा को गद्दी पर बैठाना चाहते हैं। इस षड्यन्त्र से पद्मा का उद्देश्य मात्र यही है कि इंदिरा अपमानित व बदनाम हो। वह उसको बदनाम करती है और इंदिरा को ही इन समस्त परिवर्तनों का एकमात्र कारण ठहराती है। इसलिए विद्रोहियों का यह समूह उसके प्राणों का प्यासा हो जाता है। सशस्त्र विद्रोह की तैयारियाँ की जा रही हैं।

ज्ञान सिंह और इंदिरा शाही महल के एक छोटे से कमरे में बैठे शतरंज खेल रहे हैं। कमरे में कोई सजावट या बनावट नहीं है। आज इंदिरा ने यह शर्त लगाई है कि यदि वह जीत जाएगी तो जो चाहेगी राजा से माँग लेगी, उसके देने में राजा को कोई आपत्ति नहीं होगी; और राजा को भी यही अधिकार होगा। अपने-अपने मन में दोनों प्रसन्न हैं। ज्ञान सिंह की प्रसन्नता की सीमा नहीं है, आज वह अपनी सफलता के विश्वास से फूला नहीं समा रहा है। दोनों खूब मन लगाकर खेल रहे हैं। पहले राजा साहब बढ़त लेते हैं और इंदिरा के कई मोहरे पीट लेते हैं। उनकी प्रसन्नता क्षण-प्रतिक्षण बढ़ती जाती है। अचानक बाजी पलट जाती है, राजा के बादशाह पर शह पड़ जाती है और उसका वजीर पिट जाता है। फिर तो एक-एक करके उसके सभी मोहरे गायब हो जाते हैं और वह हार जाता है। उसके मुँह पर निराशा छा जाती है। उसी समय इंदिरा एक राजाज्ञा निकालती है और राजा से उस पर हस्ताक्षर करने का निवेदन करती है। झुकी हुई दृष्टि से राजा उस राजाज्ञा को देखता है। अनाज का आयात कर माफ कर दिया गया है जिससे शाही राजस्व में एक महत्त्वपूर्ण राशि की कमी हो जाती है। रियासत में बहुत कम अनाज उत्पन्न होता है, अधिकांश अनाज दूसरे देशों से आता है। इस पर आयात कर के कारण अनाज महँगा हो जाने से प्रजा को कष्ट होता था। इंदिरा गरीबों को सस्ता अनाज उपलब्ध कराने की चिन्ता में थी और अवसर पाकर उसने आज यह राजाज्ञा प्रस्तुत की। ज्ञान सिंह को संकोच तो होता है लेकिन वह जबान हार चुका है। राजाज्ञा पर हस्ताक्षर कर देता है।

इसी समय बाहर शोर मच जाता है। एक संतरी दौड़ा हुआ आता है और सूचना देता है कि विद्रोहियों ने शाही महल को घेर लिया है और अन्दर घुसने की चेष्टा कर रहे हैं।

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ज्ञान सिंह का मुँह क्रोध से लाल हो जाता है। वह तत्काल हथियारों से सुसज्जित होकर इंदिरा से विदा लेता है और परकोटे पर चढ़कर विद्रोहियों को ऊँची आवाज में सम्बोधित करके विद्रोह का कारण पूछता है।

नीचे से एक आदमी उत्तर देता है, ‘हम यह अत्याचार सहन नहीं कर सकते। इंदिरा हमारी तबाही का कारण है, वह हमारी रानी नहीं बन सकती।’

ज्ञान सिंह इंदिरा के उन उपकारों का वर्णन करता है जो उसने देश पर किए हैं, लेकिन नीचे से वही उत्तर आता है, ‘इंदिरा हमारी तबाही का कारण है, वह हमारी रानी नहीं बन सकती’, मानो किसी ग्रामोफोन की आवाज हो।

तब ज्ञान सिंह वह राजाज्ञा निकालकर पढ़नी प्रारम्भ करता है जिस पर उसने अभी-अभी हस्ताक्षर किए हैं, लेकिन विद्रोहियों पर उसका भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता। फिर वही रटन लगाई जाती है, ‘इंदिरा हमारी रानी नहीं बन सकती, वह हमारी तबाही का कारण है।’ इसके साथ ही विद्रोही लोग सीढ़ियों से परकोटे पर चढ़ने की कोशिश करते हैं। मुख्य द्वार बन्द कर दिया जाता है।

अब ज्ञान सिंह कुपित होकर धमकियाँ देता है लेकिन चेतावनी की भाँति उसकी धमकियाँ भी भीड़ पर प्रभाव नहीं डालतीं। वे परकोटे पर चढ़ने की निरन्तर कोशिश करते हैं।

ज्ञान सिंह आवेश में आकर खतरे के घंटे के पास जाता है और उसे जोर से बजाता है। सेना के सिपाही सुनते तो हैं लेकिन निकलते नहीं। वह पुनः घंटा बजाता है। सिपाही तैयार होते हैं और शीघ्रता से हथियार इकट्ठे करने लगते हैं। तीसरा घंटा बजता है, पूरी सेना निकल पड़ती है। पद्मा उसी समय आकर उन्हें बहकाती है, ‘नादानो! क्यों अपने पाँवों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारते हो। क्या अभी तक तुम्हारी आँखें नहीं खुलीं? तुम्हारे कितने ही भाई निकाल दिए गए और आज वे दर-दर की ठोकरें खाते फिरते हैं। बहुत जल्द तुम लोगों की बारी भी आई जाती है। यदि यही दिन-रात हैं तो दो-चार महीनों में सबके सब निकाल दिए जाओगे। ये विद्रोही कौन हैं? ये तुम्हारे ही भाई हैं जिन्हें ज्ञान सिंह की नयी बिनबियाही रानी इंदिरा ने निकाल दिया है। एक बाजारू वेश्या तुम पर इस तरह राज कर रही है, क्या तुम लोग इसे सहन कर सकते हो?’

इस समय इंदिरा के पास आकर पद्मा उसे मित्रवत् सलाह देती है, ‘भाग जाओ इंदिरा, अन्यथा तुम्हारी जान खतरे में है।’ इंदिरा इस अवसर को अच्छा समझती है और पद्मा के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करती है। पद्मा उसे एक गुप्त द्वार से ले जाती है जो शहर के बाहर एक मंदिर में खुलता है। वह सुरंग ऐसे ही कठिन अवसर के लिए बनाई गई है। पद्मा ने पहले ही हरिहर को बुला लिया है। उसके साथ दो घोड़े हैं। चारों ओर अंधेरा है।

हरिहर एक घोड़े पर इंदिरा को सवार करा देता है और दूसरे पर स्वयं बैठता है और दोनों शहर की अंधेरी सड़कों पर होते हुए निकल जाते हैं।

इसी समय पद्मा परकोटे पर चढ़कर ज्ञान सिंह के बराबर में खड़ी होकर कहती है, ‘बहादुरो! मैं तुम्हें शुभ सूचना देती हूँ कि अब इंदिरा इस महल में नहीं है। तुममें से कोई एक विश्वसनीय आदमी शाही किले में आकर तसल्ली कर सकता है। वह जिस गुमनामी से आई थी, फिर उसी में चली गई है। अब तुम लोग वापस लौट जाओ। मैं तुम लोगों को विश्वास दिलाती हूँ कि तुम लोगों के सिर से ये आदेश हटा लिए जाएँगे।’

ज्ञान सिंह घायल पक्षी की भाँति एक ठंडी साँस लेकर गिर पड़ता है। विद्रोहियों की भीड़ लौट जाती है और ज्ञान सिंह को इस विद्रोह से छुटकारा दिलाने का श्रेय पद्मा को मिलता है।

निराश स्वर से ज्ञान सिंह पूछता है, ‘इंदिरा कहाँ चली गई?’

पद्मा, ‘जहाँ से आई थी वहीं चली गई। यदि तुम समझते हो कि उसे तुमसे प्यार था तो तुम गलती पर हो। वह यहाँ मजबूरी में पड़ी थी। उसका प्रेमी वही अभागा कवि हरिहर है, वह उसी पर जान देती है। उसको कोई पद दिलाने के लिए वह यहाँ पड़ी हुई थी। जब उसने देखा कि यहाँ खतरा है तो भाग निकली। बेवफा थी।’

मृतप्राय सी दशा में ज्ञान सिंह अन्दर आया और आवेश में इंदिरा की प्रत्येक वस्तु को पैरों से कुचल डालता है। प्यार असफल होने पर पश्चात्ताप का रूप धारण कर लेता है। दीवारों पर इंदिरा के कई चित्र लगे हुए हैं। ज्ञान सिंह उन चित्रों को उतारकर टुकड़े-टुकड़े कर डालता है। इस समय धैर्य और क्षमा की देवी बनी हुई पद्मा बाहर से तो उसके क्रोध को शान्त कर रही है लेकिन चोट करने वाली ऐसी-ऐसी बातें कहती है कि ज्ञान सिंह की ईर्ष्या की आग और भी भड़क उठती है। वह तम्बूरे के सैकड़ों टुकड़े कर डालता है। अचानक उसे एक बात याद आ जाती है। वह तत्काल बाहर आता है और कई विश्वस्त सिपाहियों को इंदिरा का पीछा करने के लिए भेज देता है और आदेश देता है कि शहर की नाकाबन्दी कर दी जाए।

फिर अन्दर जाकर इंदिरा की पूजा की वस्तुएँ और ठाकुरजी का सिंहासन - सब उठा-उठाकर फेंक देता है। जो दासियाँ इंदिरा की सेवा में नियुक्त थीं, उन्हें निकाल देता है और एक उन्माद की सी दशा में पाँव पटकता हुआ इंदिरा को बार-बार कोसता है, ‘धूर्त्ता, छलिया, जादूगरनी, बेवफा, कपटी।’

पद्मा उसे ठंडे पानी का गिलास लाकर देती है। वह गिलास को एक ही साँस में खाली करके पटक देता है। उसकी आँखों से चिंगारियाँ निकल रही हैं, नथुने फड़क रहे हैं। वह पद्मा की ओर से विनम्र हो जाता है। वह उसे सहिष्णुता और वफा की देवी मानने लगता है। उपकृत होने का भाव भी कुछ कम नहीं है। यदि पद्मा आड़े न आई होती तो विद्रोहियों ने महल पर अधिकार कर लिया होता और पता नहीं उसके सिर पर क्या विपत्ति आती। वह उससे अपनी पिछली गलतियों की क्षमा माँगता है। और पहली बार उसके हृदय में उसके प्यार की झलक उमड़ने लगती है। इस निराशा और शोक की दशा में पद्मा ही उसे सद्गति की देवी दिखाई देती है। वह उसे गले से लगा लेता है। प्रेम के आवेग में पद्मा उसके कंधे पर सिर रखकर रोने लगती है।

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घोड़ों पर सवार इंदिरा और हरिहर प्राचीर के एक द्वार पर पहुँचते हैं। द्वार बन्द है। दूसरे द्वार पर आते हैं, वह भी बन्द है। हरिहर को पता है कि प्राचीर में एक दरार है, जिस पर घास-फूस जमी हुई है और शायद किसी को इस दरार की खबर भी न हो। दोनों उस दरार में घोड़े डाल देते हैं और काँटों से उलझते, घास-फूस के ढेरों को हटाते कठिनाई से दरार को पार करते हैं, लेकिन बाहर की ओर प्राचीर से लगी हुई नदी आती है। विवश दोनों अपने घोड़े नदी में डाल देते हैं और तैरते हुए नदी से पार हो जाते हैं। दूसरी ओर पहुँचकर दोनों तनिक साँस लेते हैं और फिर भागते हैं। बहुत दूर चलने के बाद उन्हें एक मन्दिर मिलता है। दोनों वहीं घोड़े खोल देते हैं और रात्रि व्यतीत करते हैं। प्रातःकाल वहाँ से दोनों पैदल ही चल देते हैं और दोपहर होते-होते एक बड़े गाँव में जा पहुँचते हैं। वहाँ गाँव का जमींदार बारात लेकर अपना विवाह करने जा रहा है, हजारों आदमी इकट्ठा हैं। दूसरे गाँवों के लोग भी तमाशा देखने आए हैं। बारात चलने को तैयार है। दूल्हा घर से निकलकर मोटर पर बैठता है और मोटर चलने को ही है कि एक औरत आकर मोटर के सामने लेट जाती है। यह जमींदार साहब की पहली पत्नी है जिसे उन्होंने पन्द्रह वर्षों से छोड़ रखा है। आज वे अपना विवाह करने जा रहे हैं तो पत्नी उनके रास्ते में आ जाती है। पति-पत्नी में कुछ वाद-विवाद की नौबत आती है। पति पत्नी को धमकाकर रास्ते से हट जाने का आदेश देता है। पत्नी पर कोई प्रभाव नहीं होता। तब वह क्रोध में आकर मोटर चला देता है, पत्नी कुचली जाती है। उस समय हजारों आदमी क्रोध में आकर जमींदार साहब पर टूट पड़ते हैं और उसे मार डालते हैं। इंदिरा और हरिहर को दुःख होता है कि कुछ पहले यहाँ क्यों न आ पहुँचे नहीं तो समझा-बुझाकर दोनों का मिलन करा देते। कुछ देर उस गाँव में ठहरकर दोनों फिर वहाँ से आगे बढ़ जाते हैं, जहाँ नाच हो रहा है। वहाँ इंदिरा गाती है और उन्हीं लोगों के साथ रात बिताती है।

कई दिन के बाद दोनों उस रियासत की सीमाओं से बाहर निकल जाते हैं और सांगली की रियासत में जा पहुँचते हैं। दोनों यहीं एक गाँव में रहने लगते हैं। दोनों गाँव की सेवा करते हैं और उनकी सेवा से गाँव वाले बहुत प्रसन्न हैं।

गाँव में एक ठाकुरद्वारा है, वहीं दोनों रात में कीर्तन करते हैं। उनकी सेवा और भक्ति की प्रसिद्धि आसपास के गाँवों में फैल जाती है और भक्तों की संख्या बढ़ने लगती है। उन किसानों की दृष्टि में ये दोनों दैवी शक्तियाँ हैं और वे उनकी प्राणपन से अर्चना करते हैं। गीत तथा कविता के इस संसार में दोनों ईश्वरीय अस्तित्व के दर्शन करते हैं और सांसारिक मलिनता और इच्छाएँ उनके मन से निकल जाती हैं। उन्हें हरेक वस्तु में एक ही वास्तविकता के दर्शन होने लगते हैं। कभी-कभी हरिहर झरने के किनारे जा निकलता है और उसके संगीत में ईश्वरीय ध्वनि सुनता है और उसका हृदय आध्यात्मिक भावों से परिपूर्ण हो जाता है। कभी किसी जंगली फूल को देखकर वह मस्ती में आ जाता है और उसमें ईश्वर के दर्शन करता है।

एक दिन सांगली के कुँअर साहब शिकार खेलने आते हैं। उनके साथ बंदूकची, शिकारी आदि भी डेरे लिए आ पहुँचते हैं। संध्याकाल है, कुँअर साहब अपने हाथी पर गाँव में आते हैं और शिकार की तैयारियाँ होने लगती हैं। उसी समय इंदिरा उनके सामने पहुँचकर एक आध्यात्मिक पद गाती है। कुँअर साहब के हृदय में लड़की का प्यार हरा हो जाता है। जब उन्होंने पहली बार इंदिरा को देखा था तो उसे पहचान गए थे लेकिन उस दशा में उसे अपनी लड़की स्वीकार करने का उन्हें साहस न हुआ था। तब से उन्हें निरन्तर अपनी बेटी की स्मृति बेचैन करती रहती थी लेकिन इस मध्य उनका प्यार इन विचारों पर हावी हो चुका है। अब वे सहन नहीं कर पाते और इंदिरा को सीने से लगाकर कहते हैं, ‘तू मेरी खोई हुई प्यारी बेटी है।’ वे उससे अपने साथ चलने का आग्रह करते हैं लेकिन हरिहर वैभव और समृद्धि के जाल में फँसना नहीं चाहता। उसे आशंका होती है कि कहीं वैभव में पड़कर इंदिरा को ही न खो बैठे। वह इंदिरा से कुछ नहीं कहता लेकिन उसके हाव-भाव से उसकी मनोदशा प्रकट हो जाती है और इंदिरा अपने पिता के साथ जाने से मना कर देती है। मन्दिर के सामने झोंपड़ी में दोनों बैठे हुए हैं। घर में कोई सामान नहीं। उधर शाही महल में वैभव है, प्रतिष्ठा तथा नौकर-चाकर हैं, लेकिन इंदिरा यह सब अपने प्यार पर न्योछावर कर देती है।

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इंदिरा को महल से निकालकर और उसकी ओर से निश्चिन्त होकर कुछ दिनों से ईर्ष्या के कारण नेपथ्य में चली गई पद्मा की स्वाभाविक सज्जनता प्रकट हो जाती है और वह प्राणपन से ज्ञान सिंह की सेवा करती है। इस आशा तथा शोक की दशा में यदि वह कुछ खाता है तो उसी के आग्रह से, घूमने जाता है तो उसी के कहने से, रियासत का कामकाज देखता है तो उसी के संकेत से। वह कभी गीत गाकर, कभी कहानी सुनाकर उसका मनोरंजन करती है। लेकिन प्रायः रातों में राजा की नींद उचट जाती है और वह इंदिरा को याद करके बेचैन हो जाता है। तब उसके सीने में ईर्ष्या की आग भड़क उठती है। इंदिरा किसी पराए की होकर रहे, यह विचार उसके लिए असहनीय है। वह तपस्विनी बनकर रहती तो सम्भवतः उसके चरणों की धूल मस्तक पर धरता लेकिन वह पराए के पार्श्व में है, यह सोचकर उसके तन-बदन में आग लग जाती है।

ज्ञान सिंह के भेदिए और जासूस चारों ओर फैले हुए हैं। एक दिन उसे सूचना मिलती है कि इंदिरा सांगली के एक गाँव में है। ज्ञान सिंह उसी समय कुछ परखे हुए सिपाहियों और जान छिड़कने वाले मित्रों को साथ लेकर इंदिरा और हरिहर की खोज में चल पड़ता है। पद्मा उसे रोकती है, मिन्नतें करती है लेकिन वह तनिक भी परवाह नहीं करता। अन्ततः विवश होकर वह भी उसके साथ चल पड़ती है। सभी घोड़ों पर सवार हैं और डबल चाल चल रहे हैं। कठिन पहाड़ी रास्ता है। ज्ञान सिंह और पद्मा अपने साथ वालों से बहुत आगे निकल जाते हैं। अचानक उनका सामना कई सशस्त्र डाकुओं से हो जाता है। अपने पिस्तोल से पद्मा दो आदमियों को नरक का मार्ग दिखा देती है, शेष डाकू भाग खड़े होते हैं। कई दिन पश्चात् यह जत्था उस गाँव में पहुँच जाता है जहाँ इंदिरा और हरिहर शान्ति का जीवन जी रहे हैं।

बात की बात में खबर फैल जाती है कि राजा ज्ञान सिंह इंदिरा और हरिहर को बन्दी बनाने के लिए चढ़ आए हैं। आसपास के किसान लाठियाँ, गंडासे और कुल्हाड़े लेकर आते हैं। इंदिरा और हरिहर दोनों दलों के बीच में आकर खड़े हो जाते हैं। उन्हें देखते ही ज्ञान सिंह तलवार खींचकर उन पर झपटता है। इंदिरा और हरिहर वहीं सिर झुकाकर बैठ जाते हैं और परमात्मा का ध्यान करने लगते हैं। हरिहर की गर्दन पर तलवार पड़ने ही वाली है कि पद्मा आ जाती है और लपककर राजा के हाथ से तलवार छीन लेती है। दोनों प्रेम-दीवानों की बहादुरी और समर्पण देखकर ज्ञान सिंह की आँखें खुल जाती हैं। सहसा उसके हृदय में उस प्रकाश का प्राकट्य होता है जिसके समक्ष दुर्बलताएँ और वासनाओं की उद्दंडताएँ नष्ट हो जाती हैं। वह एक मिनट तक चुप खड़ा रहता है, फिर इंदिरा के पाँवों पर गिर पड़ता है। पद्मा राजा साहब को उनके जीवन का अन्त कर देने वाले दुष्कर्म से बचाकर उनका मन जीत लेती है।

एक क्षण में ज्ञान सिंह इंदिरा के पाँवों से उठकर पद्मा को गले लगा लेता है। इंदिरा भी पद्मा को सीने से लगा लेती है। फिर हरिहर और ज्ञानसिंह आलिंगनबद्ध हो जाते हैं।

['वफा की देवी’, उर्दू से, ‘आखिरी तोहफा’ 1934 उर्दू कहानी-संग्रह में संकलित।]