वयं रक्षाम / आचार्य चतुरसेन शास्त्री

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आचार्य चतुरसेन शास्त्री आचार्य चतुरसेन की पुस्तक वयं रक्षाम: का मुख्य पात्र रावण है न कि राम। यह रावण से संबन्धित घटनाओं का ज़िक्र करती है और उनका दूसरा पहलू दिखाती है। इसमें आर्य और संस्कृति के संघर्ष के बारे में चर्चा है। आर्य संस्कृति के बारे में यह कुछ इस प्रकार बताती है-

उन दिनों तक भारत के उत्तराखण्ड में ही आर्यों के सूर्य-मण्डल और चन्द्र मण्डल नामक दो राजसमूह थे। दोनों मण्डलों को मिलाकर आर्यावर्त कहा जाता था। उन दिनों आर्यों में यह नियम प्रचलित था कि सामाजिक श्रंखला भंग करने वालों को समाज-बहिष्कृत कर दिया जाता था। दण्डनीय जनों को जाति-बहिष्कार के अतिरिक्त प्रायश्चित जेल और जुर्माने के दण्ड दिये जाते थे। प्राय: ये ही बहिष्कृत जन दक्षिणारण्य में निष्कासित, कर दिये जाते थे। धीरे-धीरे इन बहिष्कृत जनों की दक्षिण और वहां के द्वीपपुंजों में दस्यु, महिष, कपि, नाग, पौण्ड, द्रविण, काम्बोज, पारद, खस, पल्लव, चीन, किरात, मल्ल, दरद, शक आदि जातियां संगठित हो गयी थीं।- वयं रक्षाम: से

'वयंरक्षाम:' की भूमिका में उन्होंने स्वीकार किया है कि उन्होंने कुछ नवीन तथ्यों की खोज की है, जिन्हें वे पाठक के मुँह पर मार रहे हैं। परिणामत: नहले पर दहला मारने के उग्र प्रयास में 'सोमनाथ' अधिक से अधिक चामत्कारिक तथा रोमानी उपन्यास हो गया है; और अपने ज्ञान के प्रदर्शन तथा अपने खोजे हुए तथ्यों को पाठकों के सम्मुख रखने की उतावली में, उपन्यास विधा की आवश्यकताओं की पूर्ण उपेक्षा कर वे 'वयंरक्षाम:' और 'सोना और ख़ून' में पृष्ठों के पृष्ठ अनावश्यक तथा अतिरेकपूर्ण विवरणों से भरते चले गए हैं।