वर्कशॉप / पद्मा राय

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यहीं पहुंचना था कि किसी और जगह? तय करना कठिन था लेकिन दुविधा ज़्यादा देर तक नहीं रही। तेज चाल से चलती एक महिला जिसने हरे रंग का शलवार कुर्ता पहन रखा था, तेजी से हमारी तरफ लपकती हुयी दिखाई दी। स्टाफ की ही हो शायद लेकिन बहुत कोशिश करने पर भी मैं याद नहीं कर पायी कि उसे पहले कब देखा है।

"आप लोग वालंटियर्स हैं न?" वह हम से ही पूछ रही थी।

"जी."

"आज जो वर्कशॉप होने वाली है उसी के लिए आप लोग आयीं हैं?"

"जी."

"तब ऐसा करिए आप लोग इसी कमरे में इंतजार करिए." कहकर वह उतने ही तेज कदमों से वापस लौट गयी। व्यस्तता कुछ ज़्यादा थी शायद।

उत्सुकतावश मैने कमरे के अंदर झांका। इस तरह के वर्कशॉप में आने का मेरा यह पहला मौका था। जमीन के तीन चौथाई हिस्से पर एक धारीदार दरी बिछी हुयी थी। दरी के सामने वाला हिस्सा नंगा था और उसके बीचोंबीच दरी की तरफ मुंह किए हुए दो कुर्सियां अभी शायद किसी के आने का इंतजार करती हुई खाली थीं।

अंदर पहुंचे हम। हमसे पहले से वहाँ कई लोग बैठे थे वे सब किसी डॉक्टर के आने का इन्तजार बडी बेसब्री से कर रहे थे। साढे दस का समय उन्हें दिया गया था और साढे दस कब के बज चुके थे परंतु डॉक्टर का अभी तक कहीं पता नहीं था। वहां आये लोगों की निगाहें यहाँ वहाँ भटक रहीं थीं। उनमें से कुछ का ध्यान दीवारों पर टंगे चार्ट्स और पोस्टरों पर था।

उसी महिला ने थोडी देर बाद दुबारा आकर हमें बताया-

"अभी थोडी देर और आप सबको इंतजार करना होगा। डॉक्टर साहब को लेने हमारी वैन काफी देर पहले ही जा चुकी है। कोई बहुत सीरियस पेशेन्ट आ जाने के कारण उन्हें थोडी देर हो रही है। उम्मीद है आप लोग उनकी मजबूरी समझ रहें होंगे। परंतु अब ज़्यादा देर उन्हें आने में नहीं लगेगा। उम्मीद है कि अब तक वे चल चुके होंगे। हमे उम्मीद है कि थोडी देर में ही वे यहाँ पहुंच जाएंगे।"

इंतजार करने वालों में हम लोगों के अलावा कई जोडे मां-बाप भी थे। कुछ अकेले-अकेले भी आए थे। हर जोडे क़े साथ कम से कम एक बच्चा ज़रूर था। कइयों के साथ दो बच्चे भी थे लेकिन उनमे से एक सामान्य था और दूसरा स्पैस्टिक। जाहिर है स्पैस्टिक बच्चों की अपनी कुछ ज़रूरतें भी थीं। जिन को पूरा करने के लिए कभी उनकी माँ उठती अपने बच्चे को गोद में संभाले-संभाले कमरे से बाहर निकलती और थोडी देर में वापस आकर अपनी जगह पर बैठ जाती तो कभी किसी दूसरे बच्चे के माँ बाप में से कोई दूसरा यही काम करता दिखाई देता। बच्चे बडा हो या छोटा अंतर कोई खास नहीं था, चलते तो ज्यादातर अपने माँ बाप के पैरों पर ही थे।

डॉक्टर से बडी उम्मीदें हैं इन लोगों को। उनका बडा नाम सुना है इन्होंने। हो सकता है कुछ ऐसा बता जाएं जिससे उनका बच्चा जल्दी से जल्दी ठीक होने लगे। थोडा कम या ज़्यादा लेकिन इसी से मिलती-जुलती चाहत सभी की है। उनमे से कुछ बहुत पढे लिखे थे तो कुछ कम। हो सकता है कि उनमे कुछ लोग ऐसे भी कभी रहें हों जो कभी ईश्वर में विश्वास न रखतें हों किन्तु अब ऐसा नहीं है। वे सभी अब ईश्वर में बहुत ज़्यादा विश्वास रखने वालों में से एक हैं ऐसा मुझे उनकी बातों को सुनकर महसूस हुआ।

अचानक मुझे लगा जैसे किसी ने अपनी ऊंगली से मेरी पीठ में टहोका दिया हो। मैने चिहुंक कर इधर-उधर देखा। मेरी दांयी तरफ एक सीधी-सादी-सी महिला अपने माथे पर एक लाल रंग की बडी-सी गोल बिंदी चिपकाए अपनी बडी-बडी अांखों से मुझे ही देख रही थी। मैने आंखों से ही कारण जानना चाहा। हौले से हंसकर उसने जो कहा उसका मतलब था कि मुझसे वह कुछ जानना चाहती थी। उस वक्त मुझे थोडी हैरत भी हुयी। फुसफुसाती आवाज में बोली-

"आपका भी कोई बच्चा ...?"

वाक्य अधूरा ही छोड दिया था उसने। फिर भी उसने मुझसे जो पूछना चाहा था उस बात को मैं सही-सही समझ सकी थी। मैं अन्दर ही अन्दर कांप उठी।

"नहीं...॥ नहीं। ।" मैने जल्दी से कह गयी।

"मैं यहाँ वालंटियर की तौर पर काम करतीं हूँ।"

उसकी बडी-बडी आँखें और भी बडी हो आयीं और वह कुछ ज़्यादा ही ध्यान से मुझे देखने लगी। उसकी नजरों का सामना कर पाना थोडा कठिन लगा और मैं सामने रखी खाली कुर्सी की तरफ देखने लगी। अभी डॉक्टर नहीं आयें हैं। न चाहते हुए भी मेरी नजरें एक बार दुबारा उस महिला की तरफ मुड ग़यीं। वहां एक बच्चा यही करीब दो साल का होगा, उस औरत और उसके पति के बीच बैठा हुआ अपने सामने बैठी वालंटियर जो मुश्किल से उन्नीस-बीस वर्षों की रही होगी, के बालों को बार-बार खींचता और खुश होता हुआ दिखायी दिया। उसकी इस हरकत ने मुझे आकर्षित किया और मेरी नजरें वहीं टिक गयीं। मैने देखा कि बाल खिंचने से वह लडक़ी पीछे घूमकर जब देखती तो फिक् से हंस देता वह बच्चा। मुझे भी मजा आने लगा इस खेल में जो यहाँ बैठी इस लडक़ी और बच्चे के बीच चल रहा था। बच्चे की हंसी यहाँ के भारी-भरकम माहौल को हल्का करती हुयी मुझे अपने तरफ आकर्षित कर रही थी। अपने को रोकना मेरे लिए अब मुश्किल हो गया। उसके गाल को हल्के से थपथपाया, फिर उस महिला की तरफ देखकर पूछा,

"ये आपका बच्चा है?"

"हां जी." उसका बोलने का लहजा पंजाबी था। मेरी बात का जवाब देने के साथ ही साथ वह हंसी भी। इस कोशिश में न जाने क्यों उसका पूरा चेहरा कांप उठा।

"क्या प्राब्लम है इसे?" मैने उसके मासूम चेहरे की तरफ देखते हुए पूछा।

वह बच्चा अभी भी उसी वालण्टियर के बालों में उलझा हुआ उन्हें उलझाता जा रहा था। उसके बाल खींचने पर वह लडक़ी अपने सिर पर अपना हाथ रखती ताकि बाल खींचने पर दर्द न हो और फिर पीछे मुडक़र उस बच्चे को घूरकर देखती। झट से वह अपना हाथ इस तरह खींच लेता जैसे उसने तो कुछ भी नहीं किया हो लेकिन जैसे ही वह लडक़ी सामने देखने लगती, बच्चा उसके बालों से छेड-छाड फ़िर से शुरू देता। उसकी माँ तब से अब तक कई बार उसे रोकने की कोशिश कर चुकी लेकिन उस के ऊपर अपनी माँ के प्रयासों का कोई असर पडा हो ऐसा मुझे तो नहीं लगा। शायद उस लडक़ी को भी इस खेल में आनन्द आने लगा था।

"दो साल का होने को आया हमारा समीर लेकिन भगवान जाने क्यों अभी तक अपने आप चल नहीं पाता। घुटनों से चलता है वह भी बहुत तेज...पर। ख़डा नहीं हो पाता..." ख़िसियानी हंसीं के साथ उसने अपनी बात समाप्त की। ऐसा लग रहा था जैसे कि उसने कोई अपराध किया हो। मैं आश्चर्य में पड ग़यी।

"इस तरह की हंसी का मतलब?"

"बोलता तो है न? और तो कोई प्राब्लम नहीं है?"

"हांजी, हांजी बोलता है लेकिन उतना नहीं जितना इस उम्र के दूसरे बच्चे बोलतें हैं।" बेचारगी भरी आवाज में उसने बताया और इसी बीच उसकी नजरें एक बार अपने पीछे की तरफ घूम गयीं। उसकी आवाज कांप रही थी और पूरा बदन थरथरा रहा था। उससे थोडा ही हटकर उसके पीछे एक आदमी बैठा था जो उसका पति था, लगातार उसे कनखियों से देखता हुआ अपने चेहरे पर उदासी बिखेरे बैठा था। उसके चेहरे पर तनाव साफ देखा जा सकता था। उन दोनों के बीच शायद कुछ हुआ था। मुझे जाने क्यों अचानक लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने बच्चे की इस हालत के लिए ये आदमी अपनी पत्नी को ही जिम्मेदार मानता है। हो सकता है ये मेरा सिर्फ़ वहम् ही हो!

"और भी बच्चें हैं आपके?"

शायद उसे इसी प्रश्न का इंतजार था। जल्दी से बोली-

"हां जी, एक बेटी है न और वह एकदम अच्छी है। बस न जाने कैसे इस को यह बीमारी लग गयी?" और हंस दी।

"उफ् क्यों हंसती है बिलावजह ये इतना?" मैं चुपचाप सामने देखने लगी। उससे और क्या बात करूं, मेरी समझ में नहीं आ रहा था। लेकिन वह अभी और बात करना चाहती थी, शायद उसकी जिज्ञासा का समाधान अब तक नहीं हुआ था इसलिए उसने बात आगे बढ़ायी,

"आप यहाँ क्या काम करतीं हैं?"

"कोई भी काम जो इन बच्चों के लिए हमसे हो पाता है, हम करतें हैं।"

"अच्छा-अच्छा ...आप लोग इन बच्चों के साथ काम करतीं हैं जो यहाँ रेगुलर आतें होंगे।"

"जी." सामने देखते हुए ही मैने उसकी बात का जवाब दिया।

डॉक्टर आ चुके थे। उनके आने से कमरे के बीचों-बीच रखी कुर्सी भर गयी। उस कमरे में मौजूद सभी लोग एकदम खामोश हो गए. एक गिलास पानी लेकर कृष्णा आया। गिलास की बाहरी सतह पर पानी की बूंदें दिखाई दे रहीं थीं। डॉक्टर ने गिलास छूकर देखा। पानी ठंडा था। पानी से भरा गिलास उन्होंने दूसरी खाली पडी क़ुर्सी पर रख दिया। शायद थोडी देर बाद पिएंगे।

"आप रोज आतीं होंगी?"

"नहीं, रोज नहीं, हफ्ते में सिर्फ़ तीन दिन।"

उसके चेहरे पर मुझे अपने प्रति सम्मान जगता हुआ दिखायी दिया और न जाने क्यों मुझमें अजीब तरह की शर्मिन्दगी का अहसास भी भरता गया।

"मैं इस सम्मान के योग्य हूँ भी या नहीं?"

उससे नजर मिलाना मेरे लिए मुश्किल होता जा रहा था।

"डाक्टर बोलना कब शुरू करेंगे?"

मैं सामने देखने लगी फिर से। वहां डाक्टर बैठे थे। अब शायद कुछ ही देर में बोलना आरम्भ करेंगे। उनको सुनने के लिए ही यहाँ इतने सारे लोग इकट्ठे हुएं हैं।

अभी तक डाक्टर चुपचाप बैठे थे। अचानक उन्होने अपनी गर्दन बांयीं तरफ झुकायी और सीधे होकर बैठ गये।

डाक्टर हल्के-हल्के मुस्कुरा रहे थे। उनकी मुस्कान मनमोहक थी। थोडी देर तक वे इसी तरह सबकी तरफ देखते रहे और मुस्कुराते रहे। उस बडे क़मरे में बैठे लोग उनके बोलने का इंतजार कर रहे थे। उन्होने विनम्र स्वर में बोलना आरम्भ किया। उनकी बातों में उन लोगों के प्रति गहरा अपनापन और आस्था झलक रही थी। उनकी स्नेहिल आवाज वहाँ बैठे सभी लोगों को अभिभूत कर गयी। बडे मन से और बडे ही ध्यानपूर्वक उनकी बातें वहाँ उपस्थित प्रत्येक व्यक्ति सुनता हुआ दिखायी दे रहा था। सब उन्हें ही सुन रहे थे। उनकी अकेली सहज और सच्ची आवाज उस कमरे में मौजूद सभी लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए पर्याप्त थी।

जब से मैने यहाँ आना शुरू किया है और इन बच्चों से मेरा साक्षात्कार हुआ है तब से स्पैस्टिक शब्द सुन कर ही दिल में न जाने कैसा तो लगने लगता है। डाक्टर इसी के विषय में बता रहे थे। मैने सुना वे कह रहे थे-

"ब्रेन यानी कि दिमाग जो हमारे शरीर के प्रत्येक अंग के क्रियाकलापों को-कैसे कब और क्यों करना है, निर्धारित करता है, जब अभी पूरी तरह विकसित नहीं हुआ होता बल्कि विकसित होने की प्रक्रिया से गुजर रहा होता है तब उस अवस्था में यदि किसी भी कारण उसे आघात पहुंचता है तब पैदा होती है ये बीमारी। पैदा होने के बाद भी दिमाग के विकास की ये प्रक्रिया चलती रहती है। दिमाग को आघात गर्भ में, पैदा होते समय या पैदा होने के बाद कभी भी किसी कारणवश पहुंच सकता है। कारण चाहे कोई भी हो, किन्तु इससे बच्चे का मोटर सिस्टम प्रभावित होता है एवं इसका असर दिखाई देने लगता है। बच्चे के शरीर के विभिन्न अंगों का दिमाग के साथ तालमेल गडबडाने लगता है। यह किसी एक अंग, दो अंगों या फिर उससे ज़्यादा अंगों के साथ भी हो सकता है।"

करीब दस मिनट से बोल रहे डाक्टर अब खामोश हो गये थे। उन्हें गले में खरांश महसूस हुई. गला फंसने लगा था। खंखार कर के गला साफ किया और साथ वाली कुर्सी पर रखे पानी के गिलास को छूकर देखा। अब उतना ठंडा नहीं है। पिया जा सकता है। गिलास उठाया और एक सांस में खाली कर के कुर्सी के नीचे थोडा अंदर की तरफ खिसकाकर रख दिया। इस बीच उन्हें याद आया कि अभी कुछ बातें उन्हें और कहना बाकी रह गया है। सामने बैठे बच्चों को प्यार भरी नजरों से उन्होने हल्के से छुआ और फिर किसी एक विशेष को न देखते हुए भी सभी की तरफ देखने लगे। चेहरे पर अजीब तरह की शांति थी। वहां उपस्थित लोगों के प्रति गहरी संवेदना से भरी आवाज एक बार फिर सुनायी देने लगी।

"एक बहुत ज़रूरी बात मैं आप लोगों को खासतौर से बताना चाहता हूँ। बीमारी की पहचान जितनी जल्दी हो जाती है उतनी ही आसानी से और अच्छी तरह बच्चे की थैरेपी की जा सकती है। जैसे-जैसे देर होती जाती है वैसे-वैसे मुश्किलें बढती जाती है। इस बीमारी का कोई भी इलाज नहीं है। इसे ठीक नहीं किया जा सकता है। कोई दवा खाने से या किसी भी दवा या तेल की मालिश इसे ठीक नहीं कर सकती। जो लोग ऐसा दावा करतें हैं वे आप लोगों को धोखा देने का काम करतें हैं। बस अगर कोई चीज है जो कि इस बीमारी से लडने में मददगार है तो वह है सिर्फ़ और सिर्फ़ ट्रेनिंग एवं फिजिकल थैरेपी. एक बात और जो आप सबको शायद नहीं मालूम होगा कि हम अपने दिमाग का केवल कुछ हिस्सा ही इस्तेमाल करतें हैं इसलिए दिमाग के दूसरे बचे हिस्से को ट्रेनिंग की मदद से कुछ फायदा मिल सकता है। हम इस तरह से उसका पोटैंशियल बढ़ाने की कोशिश कर सकतें हैं। लेकिन इसके लिए ज़रूरत है डिटरमिनेशन की। हमे नियति के विरूध्द जाकर बहादुरी के साथ लडना होगा। कठिन लडाई है लेकिन असंभव कुछ भी नहीं। सबसे ज़रूरी बात यह है कि आप जितनी जल्दी यह बात समझ जायगें उतना ही बच्चे के हक में ठीक रहेगा कि यह लम्बी लडाई आप को ही लडनी है।" डाक्टर अपनी बात समाप्त कर चुकें हैं। चेहरे पर तनाव की एक भी रेखा नहीं थी। इस समय उनके चेहरे पर एक सहज मुस्कान मौजूद थी।

बहुत गर्मी है। इस साल कुछ ज़्यादा गर्मी पड भी रही है। पारा चौवालीस के आसपास पहुंच चुका है अभी से।

उनकी बातें सबने ध्यानपूर्वक सुनी थी। डाक्टर इंतजार कर रहें हैं, अगर किसी को कोई शंका हो तो उनकी पूरी कोशिश होगी उसे दूर करने की। पूछना तो बहुतों को है बहुत कुछ, किन्तु पहल कौन करे? कोई इधर-उधर देख रहा था तो किसी की निगाहें ऊपर छत पर टंगे पंखे को टटोल रहीं थीं बेमकसद। मेरे पीछे बांयी तरफ बैठी बडी-बडी आँखों वाली पंजाबिन महिला दरवाजे से बाहर देखती हुयी किसी और ही दुनियां में जैसे गुम थी।

एक आदमी जो शायद अकेले ही आया था, बच्चा भी उसके साथ नहीं था-शायद आने की स्थिति में नहीं रहा होगा इसलिए नहीं आया था-, अपनी जगह पर खडा होकर पूछने लगा,

"डाक्टर साहब मैने पहले एक दूसरे डाक्टर को अपने बच्चे को दिखाया था तब उसने कहा था कि उसके दिमाग में कोई चीज होती है जिसे शायद फलूड कहतें हैं उसकी मात्रा ज़्यादा हो गई है जिसे निकालने के लिए आप्रेशन करना पडता है। तो क्या डाक्टर साहब आप्रेशन करवाने से ये बीमारी ठीक हो सकती है?"

इतना कह चुकने के बाद वह आदमी अपनी जगह पर बैठ गया। घुटने सिकोड उन्हें अपने दोनो हाथों से पकडक़र ऊपर को मुहं उठाये वह डाक्टर के जवाब का इंतजार करने लगा।

डॉक्टर ने गौर से उसकी बात सुनी। इसी दौरान ऊपर से नीचे तक एक सरसरी निगाह से उसका निरीक्षण भी कर गये। किसी साधारण से परिवार का एक मामूली गृहस्थ। अपनी भवें सिकोडक़र कुछ देर तक डॉक्टर ध्यानमग्न रहे फिर कहने लगे,

"आपका मतलब शायद फ्ल्यूड से था। उस डॉक्टर ने इसी चीज के बारे में बताया होगा। कई बार ऐसा होता है कि दिमाग में जो एक तरह का पानी जैसा पदार्थ होता है उसकी मात्रा किसी कारणवश बढ ज़ाती है जिसकी वजह से उसे ज़्यादा जगह की ज़रूरत होने लगती है। अब पानी ज़्यादा जगह घेरने लगता है और आपको तो मालूम है कि सिर का आकार तो निश्चित है उसे तो बढ़ाया नहीं जा सकता लिहाजा दिमाग को अपनी ज़रूरत के मुताबिक जगह मिलने में दिक्कत होने लगती है। इस वजह से दिमाग अपना काम सुचारू रूप से नहीं चला पाता और शरीर में कई प्रकार की विकृतियाँ पैदा होने लगती है।" एक लंबी सांस लेने के बाद उन्होने फिर से बोलना शुरू किया,

"उस स्थिति में सिर का एक आप्रेशन करके दिमाग में एक नली डाल देतें हैं जिसे शंट कहतें हैं। जिससे ज़रूरत से ज़्यादा बना पानी निकलता रहता है। इस आप्रेशन को दिमाग की बाईपास सर्जरी कहतें हैं। लेकिन आपने ये तो बताया ही नहीं कि आपसे ये बात डॉक्टर ने कब बतायी थी?"

"यही कोई तीन चार साल पहले।" दबी हुयी आवाज में अटक-अटक कर उसने बताया।

"तब आपने आप्रेशन करवाया नहीं, क्यों?"

"आप्रेशन करवाने में बहुत पैसा लगता इसलिए हमने सोचा कि एक बार किसी दूसरे डॉक्टर को भी दिखालें तब आप्रेशन करवायें।"

"तब?"

"दूसरे डॉक्टर को दिखाया भी था हमने, लेकिन उन्होंने तो कहा था कि आप्रेशन करवाने की कोई ज़रूरत नहीं है। उससे फायदा कुछ होगा नहीं ऊपर से पैसा और बेकार में बरबाद होगा। इसलिए ..." क़हते-कहते उसकी आवाज कांपने लगी और बात अधूरी रह गयी।

असली दिक्कत कहाँ थी यह समझ में आ गया था डॉक्टर को। उसकी आवाज की कातरता से साफ लग रहा था कि उसमें बैठा पिता अपनी असमर्थता की वजह से दुखी था। अगर पास में पैसे होते तब शायद स्थिति कुछ बेहतर होती।

डॉक्टर ने उसकी आवाज में छिपी मजबूरी को महसूस कर रहे थे। अपनी आवाज को भरसक कोमल बनाते हुए सान्त्वना भरे लहजे में कहा_

"अगर किसी डॉक्टर ने यह राय दी थी तब तो ठीक ही किया आपने आप्रेशन न करवाकर। अब आप उसके थैरेपी पर ध्यान दीजिए."

उस आदमी के पास अब हिम्मत नहीं बची थी कि कुछ और पूछ सके. अपराध-बोध ज़रा भी कम नहीं हो पाया था उसका। आगे अब कुछ और जानने की न तो उसकी इच्छा थी और न ही साहस।

वह महिला जो मेरे पास बैठी थी उसका चंचल बच्चा थक कर सो गया था। पूरी तरह निश्चिन्त, अपनी माँ के गोद में। वैसे भी वहाँ चल रही इन तमाम बातों में ऐसी शायद ही कोई बात रही हो जिसमे उसकी थोडी भी दिलचस्पी रही हो। डाक्टर जो कुछ कह रहे थे वह सारी बातें उसकी समझ में न आने वाली बातें थीं और निहायत नीरस थीं। बच्चा सो रहा था और माँ का हाथ निरंतर उसके बालों को सहेजने में लगा था।

अनायास मेरी निगाहें उनकी तरफ घूम गयीं। उसे सोता हुआ देखा तो अनजाने में ही मुंह से निकल गया _

"सो गया?"

सिर हिलाकर हामी भरी उसने।

"बडा प्यारा बच्चा है।"

मेरी बात सुनकर हंसने लगी थी वह औरत। मगर कुछ खयाल आते ही अचानक थम गई उसकी हंसी और उदासी की एक पर्त ने उसके चेहरे को अपने अंदर समेट लिया। शायद अब रोने वाली है। मुझे लगा जैसे मुझसे कोई बडी भारी भूल हो गई हो। मैं स्तब्ध होकर जल्दी से सामने देखने लगी।

डॉक्टर की कुर्सी से सटकर कुर्ता पाजामा पहनकर एक आदमी बैठा था, उसने अपना हाथ उठा दिया। उसके पास एक बच्चा चुपचाप बैठा हुआ सामने की तरफ देख रहा था। डॉक्टर की निगाहें उसकी तरफ उठीं।

"हां-हां, पूछिये न क्या पूछना चाहतें हैं?"

"डॉक्टर साहब मेरा यह बेटा है। पहले बोलने लगा था किन्तु अब इसने फिर से बोलना बंद कर दिया है। क्यों डॉक्टर साहब, ऐसा क्यों हो गया?" कहते-कहते थोडा झुक गया वह आदमी और डॉक्टर जिस कुर्सी पर बैठे थे उस कुर्सी का हत्था अपने हांथो में कसकर पकड लिया और उनके जवाब का इंतजार करने लगा।

"क्या बच्चे को दौरे भी आतें हैं?" बच्चे की तरफ देखते हुए डॉक्टर ने पूछा।

"जी." अब वह आदमी सीधे खडा होकर डॉक्टर की बात बडे ग़ौर से सुन रहा था।

"कई बार ऐसा होता है कि दौरों के दौरान दिमाग की कुछ कोशिकाएं जो दौरों के पहले एकदम ठीक ठाक होतीं हैं, नष्ट हो जातीं हैं। यही हुआ है आपके बेटे के साथ।"

"तब अब क्या करें हम? क्या अब मेरा बच्चा कभी बोल नहीं पाएगा?"

कातर निगाहों से डॉक्टर को देखते हुए उनकी बात सुनने की हिम्मत जुटाता वह आदमी मुझे अंदर तक हिला गया। उस समय मेरी दिली ख्वाहिश थी कि डाक्टर उसकी बातों का कोई जवाब न दें। लेकिन मैने सुना, डॉक्टर को ठहरे हुए स्वर में कहते हुए _

"हिम्मत मत हारिए. एक बार फिर से, नये सिरे से इसकी फिजियोथैरेपी करवानी होगी। कोशिश करते रहिए...॥" ड़ॉक्टर की आवाज कहीं दूर से आती हुयी सुनायी पड रही थी।

डॉक्टर की बात अभी समाप्त हुयी ही थी कि दरवाजे के पास बैठी एक सांवली-सी औरत उठ कर खडी हो गयी। वहां बैठे सभी लोगों की नजरें उसकी तरफ घूम गयीं। डॉक्टर अपना सिर हिला रहे थे, पूछा_

"हां कहिए."

"जी ।" उसकी आवाज उसका साथ नहीं दे रही थी।

"शायद आप कुछ पूछना चाहतीं थीं।"

"जी। ।"

"हां, हां पूछिये, मैं आप लोगों के लिए ही यहाँ आया हूँ।"

"मेरी बेटी ।" फ़िर से अटक गयी। उसके गले में जैसे कुछ अटक गया था। उसने कई बार कोशिश की किन्तु कायदे से एक वाक्य भी पूरा नहीं कर पायी थी अभी तक। एक दो शब्द बोलते-बोलते गला भर्राने लगता था।

"आप पहले पानी पी लीजिए, फिर बोलिए."

बडा कमरा था। उपस्थितों की संख्या बहुत थी किन्तु सब खामोश थे और सबकी आंखों में नमी थी। डॉक्टर को किसी भी तरह की हडबडी नहीं थी।

अपने साथ पानी की बोतल लेकर आयी थी वह औरत। उसने पानी पिया, रूंधे गले को साफ किया और एक बार दुबारा प्रयास करना शुरू किया। इस बार उतनी दिक्कत नहीं हुयी।

"मेरी बेटी के स्पाईनल कॉर्ड में कुछ परेशानी है। उसके कमर के नीचे का हिस्सा बिल्कुल काम नहीं करता है। डॉक्टर साहब उसके हाथ वगैरह एकदम ठीक हैं, सारे काम सही ढंग से करतें हैं लेकिन कमर के नीचे का हिस्सा एकदम बेकार हैं। यहां तक कि हम उसे टॉयलट ट्रेनिंग तक नहीं दे सकते। उसका इस पर कोई कन्ट्रोल भी नहीं है।"

"अभी तक तो सब किसी तरह से चल ही रहा था किन्तु अब जब कि उसकी छोटी बहन भी चलने लगी है तब शायद उसकी भी इच्छा होती होगी और इसीलिए, पूछने लगी है कि क्यों अभी तक वह चल नहीं पाती।" गला भर आया उसका। आवाज फिर से फंसने लगी। उसने इधर उधर देखा और एक बार फिर से पानी का एक घूंट लिया। कमरे में असहनीय शान्ति थी। डॉक्टर भी कुछ देर तक सुन्न बैठे रहे। वे अपनी बेचैनी छिपाने की भरसक कोशिश करते दिखाई दे रहे थे। उसकी बात जारी थी।

"हम अपने बच्चे को लेकर एब्राड भी गये। वहां कई डॉक्टरों को दिखाया किन्तु हर जगह से एक ही जवाब मिला कि इस केस में वे कुछ नहीं कर सकते। अब आप ही बताइये डॉक्टर साहब मैं उस मासूम को क्या जवाब दूं जब वह भोलेपन से पूछती है कि ममा मैं कब तक चल पाऊंगी। मेरी तो समझ में आता नहीं।"

अब तक डॉक्टर अपनी भावुकता पर काबू पा चुके थे।

"क्या उम्र होगी उसकी?"

"यही कोई सात वर्ष के लगभग।"

"उसका आई क्यू टेस्ट कभी करवाया था आपने?"

"जी आई-क्यू तो अपनी उम्र के बच्चों की तरह ही है।"

"देखिए जब ऐसा है तब तो उसके लिए बहुत अच्छी बात है इसका मतलब यह हुआ कि अगर उसे आहिस्ता-आहिस्ता समझाया जाय तब वह यह बात अच्छी तरह समझ सकती है कि क्यों अभी तक चल नहीं पायी वह। उसे बताइये कि उसे क्या दिक्कत है, और फिर यह भी बताइये कि वह चल नहीं पायेगी, कभी भी नहीं।" अपने फेफडे में ढेर सारी हवा भरते हुए डॉक्टर ने भारी आवाज में कहा-

"प्रकृति ने उसे क्या नहीं दिया है इस बात पर ज़्यादा अफसोस करने से कोई फायदा नहीं बल्कि क्या मिला है उसे और उसको कैसे उसके आगे के जीवन को बेहतर बनाने में उपयोग में लाया जा सकता है, के बारे में सोचने की ज़रूरत है। अपने बच्ची को सच का सामना करने लायक बनाइये-इसी में आपकी और आपके बच्ची की बेहतरी है।"

"लेकिन डॉक्टर साहब, अभी तक तो हम उससे कह रहे थे कि एक दिन वह भी ज़रूर चलेगी और अब अचानक कैसे कह दें कि वह कभी चल ही नहीं पायेगी? हम उससे कैसे ऐसा कह सकतें हैं?" कहते-कहते उसके होंठ सूखते जा रहे थे। बीच-बीच में वह औरत अपनी बोतल से एक दो घूँट पानी अपने मुंह में डालती जा रही थी।

"आप लोगों को उससे ऐसा नहीं कहना था। आखिर पढे लिखे लोग हैं आप दोनो। कैसे इस तरह की बेवकूफी कर सकतें हैं? मेरी समझ में नहीं आ रहा है।"

डॉक्टर एकाएक गम्भीर हो गए.

"तब क्या हमें आरम्भ में ही उम्मीदें छोड देनी चाहिए?"

"मैं ऐसा कहाँ कह रहा हूँ? उम्मीद पर तो दुनियां कायम है। उम्मीद के सहारे ही हम भी काम करतें हैं। लेकिन हमे रियलिस्टिक होना पडेग़ा। वास्तविकता से हमें भागना नहीं है। सच्चाई का सामना करिए. डट कर उसका मुकाबला करने से ही कुछ हो सकता है। आप इसको समझिए और हिम्मत के साथ अपनी बच्ची को भी ताकत दीजिए ताकि वह इस स्थिति का बहादुरी के साथ सामना कर सके. उसे बताइये कि ऐसी अवस्था में भी वह बहुत कुछ ऐसा है जो कर सकती है। खडी होकर नहीं चल सकती तो क्या हुआ? अभी दुनियां खत्म नहीं हुयी है। ऐसी न जाने कितनी चीजें हैं जो आप लोगों की मदद और मेहनत से वह हासिल कर सकती है। जीवन में आस्था रखिए. विश्वास, लगन और मेहनत से क्या कुछ नहीं हासिल किया जा सकता है। याद रखिये माँ से बडा मददगार दुनियां में शायद ही कोई दूसरा मिले। हां उसके दिल में ऐसी इच्छायें मत जगाइये जो पूरी नहीं हो सकती। वरना वास्तविकता का आभास होते ही उसे तिनका-तिनका बिखरने से कोई नहीं रोक पाएगा। आपका भगवान भी नहीं।" लंबी-सी सांस लेकर उन्होने अपनी बातें जारी रखी,

"जब आप अपनी बात बता रहीं थीं उस समय आपने कहा था कि बच्ची के इलाज के सिलसिले में आप विदेश तक हो आयीं हैं, इसका मतलब आपके पास रिसोर्सेस की कोई कमी नहीं है। तब तो आप बहुत कुछ कर सकतीं हैं अपनी बच्ची के लिए. अच्छे व्हील चेयरस् और तमाम उन ज़रूरी सामानो को खरीदिये जो उसके पोटैन्शियल को बढ़ाने में मददगार साबित होतें हैं। एक बार फिर से कहता हूँ कि झूठे आश्वासन देकर आप उसे मत बहलाइये। कहीं ऐसा न हो जाय कि बाद में उसे सम्भालना ही मुश्किल हो जाय। अच्छी तरह से गांठ बांध लीजिए कि इस बीमारी का कोई इलाज न्हीं है। जो डेमेज हो चुका है उसे वापस नहीं लाया जा सकता। हां इतना ज़रूर हो सकता है कि जो कुछ बचा हुआ है उसके पास, उसी की मदद से ट्रेनिंग और थैरेपी के सहारे उसको जीने लायक बनाना होगा। कोई दूसरा नहीं आयेगा आपकी मदद के लिए. आपको स्वयं अपनी मदद के लिए आगे आना होगा। हिम्मत और धैर्य के साथ आगे बढक़र अपनी बच्ची के मन में जीने की जिजीविषा पैदा करनी होगी। बहादुर बनाना होगा उसे और साथ में आपको भी बहादुर बनना होगा। मुश्किल काम ज़रूर है किन्तु असम्भव नहीं। भरोसा रखिये अपने पर। आप कर सकतीं हैं इस काम को, ऐसा मुझे विश्वास है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आप मेरे विश्वास को ठेस नहीं पहुंचायेंगी। क्यों समझ रहीं हैं न आप?" डॉक्टर की आंखों में उम्मीदें थीं और था ढेर सारा भरोसा।

वह सुन रही थी सब कुछ और शायद समझ भी रही थी। कोई जवाब नहीं दिया उसने। वहीं बैठ गयी चुपचाप। इन बातों को उसने पहली बार नहीं सुना था। इसके पहले भी डॉक्टरों ने उसे कुछ-कुछ इसी तरह की बातें कहीं थीं। फिर भी न जाने क्यों हर उस डॉक्टर से जिससे पहली बार मिलने का मौका मिलता है उसे, कुछ ऐसी उम्मीद हो जाती है कि क्या पता वह उसकी बेटी के शरीर के निचले हिस्से में कुछ जुम्बिश पैदा करने में सफल हो जाय।

डॉक्टर जो अभी तक उसे बहादुर बनने के लिए कह रहे थे-के माथे पर पसीने की बूंदें दूर से ही दिखायी देने लगीं थीं। जेब से रूमाल निकाल कर अपना माथा वे जल्दी-जल्दी उसे पोंछने लगे।

ठीक उसी समय मेरे बांयीं तरफ कुछ हलचल-सी हुयी। मैने मुडक़र देखा बडी-सी बिंदी वाली महिला अचानक उठ कर खडी हो गयी थी। डॉक्टर साहब क्या इस तरह की बीमारी बच्चों को अपनी माँ की वजह से ही होती है? " एक झटके में उसने अपना वाक्य पूरा कर दिया। हां इस दौरान वह लगातार अपने पति की तरफ ही देखती रही थी।

डॉक्टर चौंके.

"नहीं तो।"

"लेकिन। !।" उसका आंखें अभी भी अपने पति की ओर ही थीं।

"नहीं॥। बिल्कुल भी नहीं। किसने कहा आपसे? सोचा भी कैसे आपने? ऐसा भूल कर भी अपने दिमाग में मत लाइये। अगर ऐसी बात मन में किसी वजह से आ भी जाये तो उसे निकाल फेंकिये। ऐसा नहीं है। किसी भी परिवार में स्वस्थ माता पिता होने के बावजूद ऐसे बच्चे का जन्म हो सकता है। पिचानबे प्रतिशत केसेस में संयोगवश ऐसा हो जाता है। ऐसा देखा गया है कि अज्ञानता वश कई लोग बच्चे की इस स्थिति के लिए माँ को जिम्मेदार ठहराने लगतें हैं। किन्तु यह बात सच नहीं है।"

"हूँ ऽ-ऽ ऽ तब फिर ऽ-ऽ ऽ।" क़हकर वह चुप हो गयी, लेकिन अभी भी उसकी आंखें अपने पति पर ही टिकीं थीं। उसके पति उससे आंखें नहीं मिला पा रहा था और शायद इसलिए इधर-उधर देख रहा था। अभी-अभी डाक्टर की कही हुयी बातों को सुनकर उसे अपनी गलतफहमी का अहसास अच्छी तरह से हो चुका था और वह ग्लानि महसूस कर रहा था।

बहुत देर से सब चुपचाप बैठे थे। सुई गिरने की आवाज भी उस दौरान सुनी जा सकती थी। उस खामोशी में खलल पडा। शुरू से अब तक शान्ति से बैठी एक महिला ने एक लम्बी सांस ली। एक दूसरी महिला ने जैसे अपने आप से ही कहा-

"कम से कम अब हम दूसरे बच्चे के बारे में प्लान तो सकतें हैं। इस बच्चे के होने के बाद से तो हमे इस बारे में सोचने में भी डर लगने लगा था।"

डॉक्टर के रहस्योद्धाटन के बाद से मेरे नजदीक बैठी महिला जो अब तक मुझसे बातें करने के लिए लगातार बहाने तलाशती रही थी नि: शब्द बैठी थी। अचानक उसके चेहरे का आकार बिगडने लगा और मैने देखा कि बात-बेबात हंसने वाली वह महिला फूट-फूट कर रोने लगी थी। उसके पति के चेहरे पर अपराध बोध साफ झलक रहा था।

मेरी स्थिति तो और भी अजीब हो गयी थी। जब वह बिलावजह हंस रही थी तब मुझे खीज हो रही थी और अब मुझे बेचैनी हो रही थी। सच कहूँ तो उसकी हंसी से कई बार डर-सा लगने लगा था। उसके रोने में मुझे कुछ भी अजीब नहीं लग रहा था। उसका पति सिर झुकाये चुपके-चुपके अपनी आंखें पोंछ रहा था और उसकी पीठ पर आहिस्ता-आहिस्ता हाथ फेरते हुए उसे चुप कराने की कोशिश भी कर रहा था। उसके हाथ कांप रहे थे। अपनी पत्नी पर उसने अनजाने में जो इल्जाम लगाए थे उन पर उसे ग्लानि हो रही थी।

एक इच्छा बडी शिद्दत से मेरे मन में सिर उठा रही थी कि उसका पति थोडी देर के लिए ही सही कहीं चला जाय और मुझे कुछ देर उस औरत से बातें करने का मौका दोबारा मिल जाय।