वर्तमान शिक्षा पद्धति या गुलामी की पाठशाला / सपना मांगलिक

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कल मेरे घर पर एक विवाह समारोह का आमंत्रण आया। आमंत्रण पत्र में मुझे जो सबसे ज़्यादा लुभाता है वह है बाल मनुहार "मेली बुआ या चाचा की छादी में जलूल जलूल आना जी" और कार्ड पर लिखे समस्त घर के बुजुर्गवार और जिम्मेदार रिश्तेदारों के नाम, सबसे ऊपर लिखी विघ्न विनाशक की वन्दना। मगर इस आमंत्रण पत्र में न तो बाल मनुहार था, न रिश्तेदारों के नाम और न ही गणेश वन्दना, फिरंगी जबान में लिखा यह आमंत्रण मुझे किसी अंग्रेजी कोर्ट नोटिस जैसा ही मालूम दिया। विवाह में भी न पत्तलों पर बैठने का चलन, न ही मनुहार के साथ खाना परोसना हर एक व्यवस्था में पश्चिमी अंधानुकरण चल रहा था। ढोलक पर स्त्रियों द्वारा लोक गीत की मिठास और नृत्य के रंगों की जगह ऑर्केस्ट्रा ने ले ली है। लोग गले मिलने की जगह हाथ मिला रहे हैं हर कोई दुसरे को परोसने की बजाय अपनी थाली में भरने की जुगाड़ में व्यस्त दीखता है। यह केवल शहरों का ही हाल नहीं है। भारत की सच्ची तस्वीर समझे जाने वाले गाँव भी जो कि शहरी सभ्यता से कोसों दूर, शहरों की भागमभाग से एकदम विपरीत शांत और शालीन हुआ करते थे अब वही हमारे गाँव, फैलती अश्लीलता की, शहरों की गंदगी अब इन गावों में धीरे-धीरे अपने पैर फैला रही है या पूरी तरह फैला चुकी है। गाँव के चौपालों पर बिकती नारी देह, गोरी चमड़ी की नुमाइश करती देशी-विदेशी बालाएं, हमारी संस्कृति को धीरे धीरे अपने आगोश में ले रही हैं। शराब-शबाब-कबाब अब इन गाँव बालों के शौक हो गए हैं। आखिर यह पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण इतनी तीव्र गति से हमारे देश में क्यों फ़ैल रहा है? कौन है जो इतनी सफाई से पश्चिमी सोच को हमारे देश के भोले-भाले लोगों के दिमाग में जहर की तरह से उडेंल रहा है? इसका जवाब सिर्फ एक है और वह है देश में कुकुरमत्तों की तरह से पनपती गुलामी की पाठशाला। जो अंग्रेजी माध्यम के स्कूल और कॉलेजों के रूप में हमारे नौनिहालों को भारतीय संस्कार और शिक्षा पद्धति से दिन पर दिन दूर करते जा रहे हैं।

आज से ६९ वर्ष पूर्व इस गुलामी से आज़ादी पाने के लिए कितने इतिहास लिखे गए ये हम सब जानते हैं। कितने ही वीरों ने अपने प्राणों की कुर्बानियां दी, कई आन्दोलन चलाये गए तब जाकर हम गुलामी की जंजीर से आजाद हुए. हमें धन्यवाद देना चाहिए उन सभी इतिहास पुरुषों को जिनके कारण आज हम सब खुली हवा में साँस ले रहे हैं, और आज़ादी के साथ सब कुछ कर रहे हैं। अंग्रेजों ने हमें गुलाम बनाने के लिए कई हथकंडे अपनाये थे कई चालें चली, चाहे हमें आपस में लड़ाने की रणनीति हो, धन दौलत का लालच या, अपने यहाँ ही गोरी चमड़ी वाली नर्तकियां हमारे सामने पेश की हों, ये सभी हथकंडे अपनाकर हमें लम्बे समय तक अपना गुलाम बनाये रखा। आजादी के बाद भी गुलामी की मानसिकता हमारे अन्दर से नहीं गयी और हम लम्बे समय तक इन सब के मोह जाल में फंसे रहे, और आज भी कहीं ना कहीं इनके गुलाम हैं। हमारी इस मानसिकता का पूरा फायदा इन अंग्रेजों ने उठाया और आज भी उठा रहे हैं, उदाहरण हैं इस देश के छोटे-छोटे गाँवों कस्बों से लेकर शहर, महानगर फिर से इस गोरी चमड़ी के मोहजाल में फंस रहे हैं और इनके गुलाम होते जा रहें हैं। आज हम देख रहे हैं, आज की बड़ी-बड़ी महफ़िलों में गोरी चमड़ी वाली बालाओं का बढता चलन, आज हर तरफ उनकी अच्छो खासी डिमांड है। जहाँ देखो बस यही नजर आ रही हैं। आज सैफई महोत्सव हो या दलित नेताओं का अपनी आदमकद मूर्ती लगवाने का शौक जो काम सेंकडों वर्ष पूर्व हमें गुलाम बनाए रखने के लिए अंग्रेजों ने किया था वही आज हमारे भारत देश के नेता कर रहे हैं। दुःख इस बात का है पहले गुलाम बनाने वाले विदेशी थे पराये थे और आज अपनों की ही कब्र अपने खोद रहे हैं अपनी ही भारत माँ का अंचल उसके सपूत ही तार-तार कर रहे हैं। आज जिसे देखो वह ही अश्लीलता और दिखावे के पीछे भाग रहा है। पहले हम क्रिकेट में सफ़ेद युनिफोर्म में टेस्ट मैच देखते थे जो कि वास्तविक खेल होता था मगर आज हम रंग बिरंगी युनिफोर्म में हर चौके छक्के पर जिन्हें हम सब Cheerleader के नाम से जानते हैं, का छोटी छोटी स्कर्ट में झूमना देखते हैं जो मैदान में बैठे दर्शकों का मनोरंजन करती हैं, और रात होने पर हमारे खिलाडियों का। आज हमारे यहाँ इनके चलन को कुछ लोग अच्छे रुतबे की निशानी कहते है, तो कोई अपने आपको पश्चिमी सभ्यता में ढालने के लिए इनका उपयोग करते हैं। तो कोई इसे अपनी परम्परा कह रहा है। परंपरा के नाम पर कहते हैं कि हमारे पूर्वज मनोरंजन के लिए विदेशों से नर्तकियां बुलाते थे, मगर आज अपने ही स्कूल कॉलेज की छात्राओं को पैसे और फेम का लालच देकर यह काम करवाया जाता है।

शहीदे आजम भगत सिंह ने हालांकि राष्ट्रीय आंदोलन के पूंजीवादी नेतृत्व (कांग्रेस) के बारे में काफी पहले आगाह करते हुए कहा था कि कांग्रेस की लड़ाई का अंत किसी न किसी समझौते में ही होगा। भगत सिंह और उनके साथियों ने अपने बयानों, पर्चों और लेखों में साफ तौर पर बताया था कि कांग्रेस के नेतृत्व में जो लड़ाई लड़ी जा रही है उसका लक्ष्य व्यापक जनता की शक्ति का इस्तेमाल करके देशी पूंजीपति वर्ग के लिए सत्ता हासिल करना है।और उनकी इस बात का अर्थ समझने में ही हमें पचास वर्ष से ऊपर का समय लग गया और जब बात समझ में आई तो देश का सारा धन विदेशी खातों, बोफोर्स घोटालों, कोयले और चारे में डूब गया।

आजाद हिन्दुस्तान में आजादी का मतलब जानना है तो यहाँ के बाल मजदूर, बंधुआ मजदूर, बलात्कार और तेजाबी हमलों की शिकार युवतियां, निम्न और मध्यम वर्गीय आम आदमी के पास जाकर कुछ वक्त गुजारो।तब पता चलेगा कि आजादी के पचास साल बाद भी भारत में न तो भूख से आजादी है और ना ही बीमारी से। शिक्षा के अभाव में वह अंधविश्वास का गुलाम बना हुआ है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी कन्या भ्रूण हत्याएं समाप्त नहीं हो सकी हैं और ना ही बाल विवाह और दहेज को लेकर महिलाओं का उत्पीड़न। इससे पूरा सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो रहा है। जहां तक दलितों और आदिवासियों के शोषण और तिरस्कार का सवाल है, इसके लिए दिखाने को कानून बहुत से हैं पर यहाँ भी इन तबकों की आजादी पूरी नहीं समझी जा सकती।आज भी हरिजन के स्पर्श पर लोगों की प्रतिक्रियाएं, शनि और शैव मन्दिरों में महिलाओं के प्रवेश हमें हमारी आजादी और आजाद मानसिकता के स्याह पक्ष को हमारी आँखों के सामने लाकर रख देंगे।

लार्ड मेकाले हमारा मनोविज्ञान समझने में माहिर कूटनीतिज्ञ था।सन् 1835 की 2 फरवरी के दिन लार्ड मैकाले ने ब्रिाटिश संसद में जो कहा, वह आज सच हो रहा है। मैकाले ने कहा था- "मैंने भारत के कोने-कोने में भ्रमण किया है, पर वहाँ मैंने एक भी भिखारी, चोर या असभ्य नहीं देखा। भारतीय बहुत ही उच्च नैतिक मूल्य और प्रतिभा रखते हैं। मैं नहीं सोचता कि हम तब तक भारतीयों को गुलाम बना सकते हैं जब तक इस राष्ट्र की रीढ़ की हड्डी नहीं तोड़ देते, और वह रीढ़ की हड्डी है आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत, इसलिए मैं यह सुझाव देता हूँ कि भारत में ऐसी शिक्षा पद्धति लागू की जाए जिससे भारतीय यह सोचने लगें कि जो कुछ भी विदेशी है, इंग्लैण्ड का है वही सबसे अच्छा है। इस तरह भारत के लोग अपनी विरासत आदि से दूर हो जाएंगे और तभी हम उन्हें पूरी तरह नियंत्रित कर सकेंगे।" मैकाले ने हम भारतियों की शिक्षा पद्धति में बदलाव का जो सुझाव दिया उसका असर आज हमारे यहाँ के स्कूलों और नौनिहालों में दिख रहा है स्कूलों में प्रार्थना के वक्त माँ शारदे की जगह ओ गोड करके जाने क्या बच्चे बिना लय सुर के बडबडाते हैं, हिन्दी में की गयी गलती पर कोई ध्यान नहीं देता अंग्रेजी की वर्तनी में अशुद्धियाँ पकड़ी जाती हैं।स्कूल परिसरों में हिन्दी यानी अपनी मातृभाषा बोलने पर जुर्माना लगाया जाता है।रक्षा बंधन पर क्राफ्ट में राखी नहीं बनाना सिखाते मगर क्रिसमस पर क्रिसमस के पेड़ पर मौजे और टॉफ़ी लटकाना सिखाते हैं।इस तरह की शिक्षा व्यवस्था से हमारे देश में ज्ञानियों की संख्या कम हो रही है और बौद्धिक दीवालीयापन तेजी से फ़ैल रहा है।आज संसद में जिस तरह के विचार रखे जाते हैं सवाल जवाब होते हैं उससे स्पष्ट है कि हमारे यहाँ के इन तथाकथित बुद्धिजीवियों के मस्तिष्क में ज्ञान तंतुओं का कोष नष्ट भ्रष्ट हो चूका है।

पंद्रह अगस्त १९४७ को राष्ट्र ने स्वतंत्रता के नव विहान का स्वागत किया, तिरंगा लहराया। देशवासियों ने यह स्वप्न देखा कि अब राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता का ही बोलबाला होगा। स्कूलों में हमने बचपन में नवभारत का निर्माण करने के गीत गाए और संकल्प भी लिया। मगर सोचा कुछ और हो कुछ और गया।हम पढ़ लिखकर विद्वान् बनने के बजाय कांटे छुरी और फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले जेंटलमैन बन गए। भारतीय से इन्डियन हो गए वह भी बिना किसी शर्म और झिझक के.क्यों? आखिर क्या हो गया हमारे अधिकांश देशवासियों को? अपने प्रति हीनभाव, किन्तु पुराने शासकों, उनकी संस्कृति, सभ्यता तथा रीति-रिवाजों का अंधानुकरण करने की होड़-सी लग गई. भारत की स्वतंत्रता के प्रारंभिक वर्षों में अधिकतर भारतीय अपनी धार्मिक, राष्ट्रीय, सामाजिक मान्यताओं में निष्ठा रखते थे, पर धीरे-धीरे एक बड़े शिक्षित एवं समृद्ध वर्ग में निंदनीय विमुखता देखने को मिली। और अब तो स्थिति यह हो गई है कि अपनी भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाजों से ही नाता तोड़ने का केवल प्रवाह ही तेज गति से नहीं चला, अपितु जो अपना है वह बुरा है, जो विदेश से आया है, वह अच्छा है, यह प्रचार भी चल रहा है। हमारी लस्सी और सत्तू बुरे पेप्सी, कोका कोला बढ़िया, हमारे खाखरा और परांठे बुरे इटालियन पिज़्ज़ा अच्छा, हमारी सेंवई बुरी चायनीज नूडल्स उत्तम, हमारे बाती बाफले बुरे मोमोज स्वादिस्ट, हमारे-सी बी एस ई स्कूल बुरे आई ई एस ई स्कूल बढ़िया, हमारे सलवार सूत और कुरता पाजामा बेढंगे जींस टॉप और कोट पेंट फेंसी। हम अपने ही लोगों, पहनावे, खानपान और रहन सहन को तुच्छ मानकर विदेशी ढंग अपना रहे हैं क्योंकि हमारी मानसिकता वही गुलामी वाली है। हम हिन्दी बोलने में शर्म महसूस करते हैं और अंग्रेजी बोलकर खुद को अंग्रेज से कम नहीं आंकते। आज भारत में शिक्षा मजाक बनकर रह गयी है जो भी बालक पढ़ रहा है न तो उसमें मूल्य हैं और न ही लक्ष्य तक पहुंचाने की सामर्थ्य और यही वह कारण है जिसकी वजह से छात्रों में असंतोष फ़ैल रहा है। रोहित बेमुला जैसे मेधावी आत्म हत्या के लिए अग्रसर हो रहे हैं। हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था दिन पर दिन गिरती क्यों जा रही है? वजह साफ़ है कि हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था एवं नीतियों के क्रियान्वन का कार्य करने वाले हैं दरअसल उन्हें शिक्षा का ज्ञान ही नहीं है। इनमें ज्यादातर वही लोग हैं जिनकी राजनैतिक पहुँच होती है और जो तमाम तरह की जोड़-तोड़ कर काम निकालने में माहिर होते हैं। आज हमारे नौनिहाल जो शिक्षा पा रहे हैं उसका आधार पाश्चात्य संस्कृति है जिसका हमारे जीवन पर कोई प्रभाव नहीं हो सकता। अत: आवश्यकता इस बात की है कि हमारी शिक्षा का आधार हमारी संस्कृति, परिस्तिथियों, सामाजिक मान्यताओं हमारे आदर्श के हिसाब से हो। हमारे नौनिहाल वास्तविक ज्ञान से दूर जा रहे हैं और रटे रटाये थोथे पाश्चात्य ज्ञान को भिखारी के कटोरे में मिली तुच्छ भीख की तरह से ग्रहण कर रहे हैं।

अंत में मैं यही कहूँगी कि अगर हमें देश में शिक्षा का स्तर सुधारना है तो शिक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी उच्च अध्ययनशील, विद्वानों और श्रेष्ठ व्यक्तियों को ही देनी होगी।तभी हमारे देश के युवा देश में ही नहीं पूरी दुनिया में भारत को पुन: ज्ञान के एकमात्र सर्वश्रष्ठ केंद्र के रूप में पहचान दिला सकेंगे।बस ज़रूरत है थोड़ी आत्म मंथन और सबके साथ सबके विकास की भावना की।