वर्दी वाली लड़की / पद्मा मिश्र

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[नक्सलवाद हमारे झारखण्ड की प्रमुख समस्या है, -अँधेरे में उम्मीद तलाशने की एक कोशिश है मेरी--पद्मा मिश्र]

धूप तेज थी. घने पेड़ों से छन छन कर आती सूरज की किरणें तीखी चुभन का अहसास करा रही थीं. बस, सन्नाटे को भंग करती झरने की आवाज रह रह कर ताजगी का आभास देती और वहीं नीचे गिरता पानी हरी घास और सुखी पत्तियों के ढेर में गुम हो जा रहा था...पाखी एक सूखे पत्थर पर बैठी हुई अपने गीले बालों को फैलाए निश्चिन्त पर सजग, विश्राम कर रही थी, वहीं पास में ही उसकी राइफल पेड़ से टिकी रखी थी.वह जंगल के चप्पे चप्पे से परिचित थी. कभी इन्हीं जंगलों में पली बढ़ीचंचल, चतुर हिरनी सी दौड़ती भागती पाखी ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा की एक दिन... .वह इन्हीं जंगलों में कैद होकर रह जायेगी. .इन सूखे निर्जीव पत्थरों, पेड़ों, पत्तों की तरह. उस सुनसान इलाके की ख़ाक छानते फिरते आज महीनों बाद इस और आना हुआ है. यह इलाका उसकी यादों का एक अमिट हिस्सा है. उसका अपना गाँव पास ही है.... बस कुछ सौ मीटर की दूरी पर.... ..पर आज हजारों दूरियाँ पैदा हो गयी हैं. वर्षों बाद आज अपना गाँव घर याद आ रहा था. तभी पास ही पत्तों के चरमराने की आवाज आई., वह तुरंत संभल कर बैठ गयी और हाथ राइफल तक जा पहुंचे “कौन है वहां ?”

“ हम हैं दीदी राम सिंग जी, पीने खातिर पानी ले जा रहे थे. अब आप भी आ जाओ अन्दर, शाम ढले तक बाहर बैठना ठीक नहीं”

“ठीक है, आप अपना काम करो, मैं आती हूँ”उसे राम सिंग जी का अचानक आना अच्छा नहीं लगा.... ..हमेशा चतुर शिकारी की तरह घात लगाए, ... उसकी आँखें चीते की तरह चमकती थीं. जरुरत से ज्यादा बोलने वाला बातूनी.

पाखी ने अपनी सूख गयी वर्दी पहन कर बंदूक उठाई और खुले बालों को कसकर लपेट लिया. झरने के पानी से हाथ मुंह धोकर जंगल की तरफ चल दी. उसके जूतों की भारी आवाज दूर तक सुनाई दे रही थी.उसने नदी के साथ साथ चलती शहर की और जाने वाली सड़क को बड़ी हसरत से देखा, न जाने क्यों... और न जाने सोच कर उसकी आँखें भर आईं. कहीं मन के कोने में दबी छुपी मानवता, ममता की कोमलभावनाएं ज़िंदा थीं अभी, .. वरना बागियों की खूंख्वार सरगना कही जाने वाली कामरेड पाखी को कौन नहीं जानता?..वह पेड़ों से घिरे समतल स्थान पर अपने जैसे ही आठ दस लडके लड़कियों के दल में शामिल हो बैठ गयी. एक लड़का दौड़ कर एक गिलास चाय और दो मुट्ठी मुधी ले आया. जिसे पाखी ने थाम लिया था.सभी चाय पी रहे थे. बिना बोले अपने आप में गम था हर आदमी. एक अनिश्चित जिन्दगी..समय का बहाव कहाँ ले जाए, किसे मिलायेऔर कौन बिछुड़ जाए पल भर में.

चाय लाने वाला लड़कावहीं पाखी के बगल में खडा था, गोरा, चिट्ठा, सत्रह अठारह साल का युवा, .

“क्यों टूटू, कैसा है?गाँव में सब ठीक है न?” पाखी ने पूछा था. “हाँ दीदी, दामोदर दादा ने मुढी और सामान पहुंचाने को बोला था.और कहा है की अभी आठ दस दिन वहां न आयें, बहुत कड़ी जांच चल रही है.... कोइ महिला एस.पी है, बड़ी तेज है, किसी की नहीं सुनती, बस अपनी करती है.”टूटू चुप हो गया था.

“नाम क्या है उसका?”

“नारायणी”

नारायणी?पाखी चौंक गयी पर किसी को पता नहीं लगाने दिया .इस नाम ने उसके दिलिदिमाग में हलचल मचा दी थी.... ....बरसों बाद एक बार फिर सुनाई दिया यह नामआज भी उसे बैचैन कर रहा था. उसने सबके सामने यूँ कंधे झटके जैसे 'वह देख लेगी उसे भी.टूटू अपने गाँव वापस लौट गया था. सूरज ढल रहा था, सभी हाथों में टार्च लेकर यहाँ वहां फ़ैल कर सावधान हो बैठ गए थे. दो तीन लोगों ने मिलकर सुखी जमीन के टुकड़े पर आग जला ली थीऔर खाना पकाने की तैयारी करने लगे. सोनामानी पाखी के पास आकर बैठ गयी, उसके होनेसे पाखी दल में खुद को सुरक्षित महसूस करती है. मुखिया हुई तो क्या? है तो औरतही ना!..दस दस् नरपिशाचों के बीच मात्र पांच लड़कियां, अपनी अस्मिता में सन्नद्ध .दुनिया उन्हें क्रूर भले ही कह ले, पर वे भी डरती हैं इस जिन्दगी से. रात के अँधेरे में पुलिस की गोलियों से ज्यादा दर इनसे ही लगता है.... .वैसे भीसबकी अपनी अपनी मजबूरियां हैं, .गरीबी, अभावों मेंबीता जीवन अपने परिवार, अपनों के सपने सच करने के लिए आत्मघाती ही तो बन बैठा है. इसी लिए मौत से भी डर नहीं लगता उन्हें.... .........सोनामानी पाखी की हर बात की राजदार थी. अभिन्न सखी जैसी, इन्हीं जंगलों में मिली थी सोनामनी...सोलह सत्तरह वर्ष की मासूम, असहायबालिका, जिसे उन'शिकारियों' से छुडा लिया था पाखी ने और बड़े जतन से उसकी रक्षा कर रही थी.अपने से उम्र में कुछ वर्ष छोटी सखी पाकर जंगल की उदास, बोझिल जिन्दगी में कुछ पल चैन से जी पाने की उम्मीद बंधी थी.

सोनामानी ने पूछा “टूटू क्या कह रहा था दीदी?..नारायणीशहर में आ गयी है?तू मिलेगी क्या उनसे, पहचानेंगी वह तुम्हें?”

“पहचान तो लेंगीनारायणी, पर मैं क्या कहूंगी उनसे ? की उनकी मुंह बोली बेटी पाखी अब बागी हो गयी है.जिसने कभी एस.पी, दी.एस.पी बनने के सपने साथ साथ देखे थे, वो आज अपराधी, भगोड़ा, नक्सली सरगना है!.........नहीं सोना, हिम्मत नहीं होती, ..पर मैं मिलूंगी जरुर एक बार.. जरुर मिलूंगी”... ...फुसफुसाते हुए पाखी ने सबकी नजरें बचाकर गालों पर ढुलक आये आंसुओं को पोंछ लिया था.... ...पाखी नहीं चाहती थी यह जिन्दगी, इस जलालत हिंसा भरी जिन्दगी से उसे घृणा थी.... वह पढ़ना चाहती थी. उंचा और उंचा उड़ना चाहती थी...पर उसकी अभावों भरी दुनिया ने बूढ़े माँ बाप को लाचार बना दिया था. रोजजंगल में जाकर लकड़ियों के बण्डल बनाना, और कभी महुआ, बेर, जंगली जामुन, भी बेच लेती थी पाखी. दो चार छोटे बच्चों को भी पढ़ा लेती थी पाखी... ताकि परिवार का गुजारा हो सके. उसके दो छोटे बाई, बहन की पढाई हो सके.... पर, उस गरीबी, विपन्नता और अभावों के बीचभी ईमानदारी और ममता की छाँव भरी जिन्दगी उसे प्यारी थी.... .उसे पूरा विशवास था की कोइ साथ दे या न दे, यह जंगल तो अपना है ना?भूखा थोड़े ही न रखेगा, कुछ न कुछ तो मिलता ही रहेगा.... .वह जंगल के कोने कोने में हिरनी सी उड़ान भरती, सहेलियों संग खेलती, कूदती फिरती थी.... .परन्तु पेट की भूख भी तो थी, जिनके लिए कठिन परिश्रम करती थी पाखी.

पाखी वह दिन नहीं भूलती जब गाँव में धोती और कम्बल बांटे जा रहे थे, सरकार की और सेगरीबों के लिए. सभी बड़े खुश थे. वह भी लाइन में लगी हुई थी. परन्तु न जाने कौन कौन लोग आकर कम्बल ले जाते और जो सचमुच उस गाँव के गरीब थे वे घंटोंसे इंतज़ारकर रहे थे. पाखी ने इसका विरोध किया तो सभी की नजरें उस पर केन्द्रित हो गईं. एक बारह तेरह वर्षीया बच्ची का आक्रोश देख सब हैरान थे. उसकी पहल से कुछ लोगों को कम्बल मिला. तभी एक महिला पुलिस अफसर ने उसे संकेत से बुलाया .

“क्या नाम है तुम्हारा?”

“पाखी”

“पढ़ती हो?”

“हाँ, उस स्कूल में.'

“पाखी का मतलब जानती हो,  ?...चिड़िया... जो उंचा उड़ती है, बहुत दूर तक चली जाती है. तुम इस लाइन में क्यों हो?तुम्हे भी चिड़िया की तरह ऊंचा उड़ना है, पुलिस अफसर बनना है, बनोगी ना मेरी तरह?फिर इस गाँव में कोइ गलत काम नहीं करेगा.”

“हाँ, मैं भी बनूंगी आपकी तरह..खूब पढूंगी. .पर मेरे बाबा के पास पैसे नहीं हैं. “

तुम चिंता मत करो 'कह कर दुसरे दिन वह उनके साथ स्कूल गयीऔर पूरी फीस माफ़ करवाई.तब उसकी प्रतिभा को देख कर सबको एक उम्मीद बांध गयी थी. नारायणी उसके घर आकर उससे मिलती, और उसका उत्साह बढाती थीं. तभी से एक पुलिस अफसर बनने का सपना उसके आँखों में पलने लगा था.पर शायद नियति को यह मंजूर नहीं था. हाई स्कूल के बाद कालेज की कक्षाओं में वह सदैव सर्वप्रथम रही थी.....

कुछ दिनों से दामोदर दादा के घर कुछ लडके आने लगे थे.दादा ने उन्हें अपना रिश्तेदार बताया था. कभी कभी वे रात भर रहते, कभी दस दस दिनों तक, खाते पीते और मुंह अँधेरे ही चल देते. वे जब भी आते गाँव वालों से घुल मिल कर बातें करते और उन्हें समझाते की सरकार उनका हक़ उनको नहीं देती, उनका पैसा उन अमीरों की तिजोरी भरता है. उनको भी अमीरों के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए, “फिर एक दिन अँधेरे जंगलों में गुम हो जाते.......वह एक मेधावी किशोरी थी, देश सेवा का सपना मन में पाल रही थी .उसे ऊनकी विद्रोही बातें अच्छी नहीं लगती थीं.... .पर उन गरीबों को दो वक्त पेट भरने के लिए पैसों की जरुरत थी, जो वे लडके आकर उन्हें देते थे. उनकी जरूरतें पूरी करते थे. किसी की बेटी के ब्याह में मदद करते, तो किसी का इलाज करवाते, जबकि सरकार की मदद आपसी बन्दर बाँट बन कर रह जाती थी. उन निरीह गरीबों तक मदद पहुंचाने की कोशिशें तो सरकारी नियमों और कागजोंमे ही कैद होकर रह जातीं. ऐसे में गाँव वालों का समर्थन उन लड़कों को मिलने लगा था.वे उनके लिए देव तुल्य हो गए थे....इधर पुलिस जब भी कुछ बागी लड़कों की तलाश में गाँव तक आती तो जैसे हड़कंप मच जाता था.... जब आस पास खोज करने, और गाँव वालों से पूछ ताछ करने के बाद भी कुछ पता नहीं चलता था तो वे किसी निर्दोष वृद्ध या किशोरको ही कैद कर जेल में दाल देते, उनके साथ क्रूरता पूर्ण व्यवहार करते .कोइ कोइ पथ भ्रष्टअधिकारी तो पूछताछ के नाम पर गाँव की अबोध युवतियों का 'शिकार' तक कर डालते थे.... .धीरे धीरे गाँव वालों का पुलिस और सरकार से विशवास उठता जा रहा था.........................भाग्य ने विपरीत करवट ली थी. एक दिन जीविका के लिए संसाधनों की खोज में भटकती पाखी उन बागी दरिंदो की नजरो में आ गयी .... हाँ वे दरिन्दे ही थे. सिर्फ गोली, बंदूक की भाषा समझने वाले...खून को माथे का तिलक मानने वाले नर पिशाच थे वो.... गाँव में जो उनकी मदद करते, उनका साथ देते, रक्षा करते, पर जो उनकी सरकार विरोधी गतिविधियों का विरोध करते वे उनके साथ क्रूर अमानवीय व्यवहार करते थे.....उस क्षण तो उनकी आँखों में हिंसक चमक और 'भूख'देख वह घबरा कर भाग आई थी.... .रात में झोंपड़ी के दरवाजे पर दस्तक हुई, ... 'वे ही लोग थे. आते ही बाबा, माँ, भाई बहन को घेर कर बंदूकें तान दीं.और पाखी को चलने का इशारा करते बोले” चल उठ!”उसके इनकार करने पर उसके बाबा को बंदूक के बट सेमारा. और उनके सर से रिवाल्वर सता दी.... पति के मुंह, नाक, सर से खून बहता देख कर माँ चीत्कार कर उठी. पाखी ने साहस दिखाते हुएउन पर प्रहार करने की कोशिश की पर व्यर्थ!..एक और बंदूकों के साए में माँ, बाबा, छोटे भाई बहन और दूसरी तरफ मौत का वो रास्ता जो उसके परिवार को सुरक्षित करता.पाखी मजबूर हो गयी थी, अपने सपनों, अपने देश, घर परिवार से प्यार करने वाली पाखी आज विवश थी.... .तभी माँ ने बिलखते हुए कहा” जा बेटी! तुझे जंगल को दिया, आगे तेरा भाग्य”......पाखी ने उस पल माँ की मजबूरी समझी थी. की बेटी की जान बचाने, पति व् दुसरे बच्चों की रक्षा करने का और कोइ उपाय नहीं था.... .उस रात उन लोगों ने जबरन खाना बनवा कर खाया और भोर होते अपने साथ उसे जंगल लेते गए. और एक मोटा नोटों का बण्डल माँ के सामने फेंक कर चले गए.... .उस दिन के बाद, उसने अपने परिवार को फिर नहीं देखा था.... ..आज पाखी का मन न जाने क्यों बैचैन हो रहा था. टूटू ने नारायणी की याद दिला कर उसका अतीत जगा दिया था.... ...........

धीरे धीरे सात आठ वर्ष बीत गए थ. उस समय विपिन जी दल के मुखिया थे., तेज, फर्राटे दार अंगरेजी बोलते थे. वही थे गिरोह के मास्टर माइंड, और बाकी सभी उसका पालन करने वाले. वह हंसमुख थे, इस लिए भावनाओं की भाषा भी समझते थे. विपिन ने पाखी को बड़े जतन से सम्भाला था अपनी अमानत समझ कर.....बस वह कैद हो गयी थी, जंगल के भयावह अंधेरों में. कहीं जाने की इजाजत नहीं थी.किसी से ज्यादा बात करने की भी नहीं, ...उसे एक वर्दी पहनने के लिए दी गयी, जो सेना की वर्दी जैसी लगती थी, पर थी नहीं.....उस दिन वह बहुत रोई थी.... जिस वर्दी को पहन कर वह देश की सेवा करना चाहती थी, उसी से उसे दर कर भागना पड़ता था.और जो वर्दी उस पर थोप दी गयी थी, वह उसे देश के प्रति कृतघ्न और अपराधी बना रही थी. दिन रात जोशीले भाषण देना, सरकार को गालियाँ देना, विस्फोट करना, बारूदें बिछाना...न जाने क्या क्या होता रहता था उन सबके बीच.... ...वय;संधि केमोड़ पर खड़ीअठारह वर्षीया पाखी कामनबार बार विचलित हो जाता था. विपिन जी ने ढेर सारी किताबें दी थीं उसे पढ़ने के लिए..लिनामें केवल हिंसा प्रतिहिंसा, घात प्रतिघात विद्रोह की बातें भरी पडी थीं. कौन किसका शोषण कर रहा था, कौन सताया जा रहा था, ... .वह सारा साहित्य केवल आग की विषैली ज्वालाओं से घिरा था. वह कभी नहीं समझ पाई की क्यों लड़ रहे हैं ये लोग?किसके लिए?...गरीबों के मसीहा बने उनके ये कर्णधार उनको ही तो मार रहे हैं.रेल की पटरियां उखाड़ कर, बारूदी सुरंगें बिछाकर, विस्फोट करते हैं तो क्या मरने वाले केवल पुलिस या सरकारी कर्मचारी ही होते हैं?...उनमे वे गरीब मजदूर भी होते हैं जिनके हक़ की लड़ाई लड़ने का वो दावा करते हैं. “.....पाखी की सारी अम्रुतियाँ आज जाग उठी थीं.----”फिर उसे बंदूक चलाना सिखाया गया, मांसाहार के लिए मजबूर किया गया. कभी कभीपुलिस के आने का संकेत मिलते ही भारी भारी बंदूकें उठा कर लुकते छिपते, घने जंगलों में मीलों दूर तक चलना पड़ता था.... .कभी कोइ साथी घायल हो जाता तो उसे भी साथ लेकर चलना पड़ता था.... कभी कोइ बिछुड़ जाता तो दल के सारे लोग दुखी हो जाते पर पाखी मन ही मन खुश हो लेती कीचलो एक दरिंदा तो गया दुनिया से !...मानवता का एक दुश्मन तो मिट गया.... वोदहशत और आतंक भरी रातें आज भी उसका पीछा कर रही हैं. “

“क्या हुआ दीदी?आज सुबह से ही तू परेशान है.'सोनामानी ने उसका माथा दबाते हुए पूछा था

“नहीं सोना, विपिन जी और पुराणी बातें यादआ गईं थीं, उनको उस मुठभेड़ में गुजरे पांच वर्ष बीत गए, पर मेरी कैद बढ़ा गए मुझे दल का ब्रेन लीडर घोषित करके.”....दल के लिए नए नए नारे लिखना नया साहिय और नई योजनायें बनाना ही उसका काम था.... एक्शन, कार्यवाही, लैंड माइंस बिछाना आक्रमण करना... सब रामसिंग्जी करता थापर सारी जिम्मेदारी पाखी के नाम.... .जो अब तक भगोड़ा, खूंख्वार अपराधी घोषित हो चुकी थी सरकार व् पुलिस की फाइलों में.... .जो पुलिस को धोखा देने के लिए था. उधर पुकिस पाखी कोखोजती, इधर राम सिंग जी का दल अपना काम कर आता था.... वह मजबूर थी. दिन रात बंदूकों से घिरी, खून, हिंसा के परिवेश में खो गए पाखी के सपने.... ....पाखी उस दिन भी टूट गयी थीजब उनके द्वारा ही किये गएविस्फोट से उड़ा दी गयी ट्रेन में उसका भाई भीथा.... .उस दिन उसका ह्रदय टुकडे टुकडे हो गया था. उसकी कल्पना में बाबा, माँ का आंसुओं में भींगा चेहरा और कानों में माँ की चीत्कार गूंज रही थी.... .पर उनके बहते हुए आंसुओं को पोंछने हेतु उठे उसके हाथ उन सबको मौत के मुंह में ले जाते.... उस दिन अपनों को खोने की पीड़ा ने उसे दूसरों के दर्द को महसूस करना भीसिखाया था. वह जार जार रोई थी अपनी लाचारी और बेबसी पर.उस दिन से वह घृणा करने लगी थी इन बागियों से, उनके घृणित कामो से पर कभी फिरासत के पलों में वह विपिन जी को समझाती “आप लोग व्यवस्था के खिलाफ लड़ रहे हैं, गरीबों को न्याय और उनका हक़ दिलाने के लिए, तो यही तरीके क्यों?विरोध जताने के लिए हिंसा क्या जरुरी है?....आपके विचार भले ही आपकी नज़रों में समाज विरोधी न हों पर दूसरों की नजर में आपके बुरे कामों की ही चर्चा होती है. यदि ये सारा संघर्ष उनके अधिकारों के लिए हैतो समाज की मुख्य धारा में मिल कर व्यकास्था को बदलें, सुधार लायें... .ये सारा आक्रोश किस लिए है?”

तब विपिन जीने तैश में आकरआक्रामक हो जवाब दिया”फिर पुलिस और सरकार उन नेताओं को क्यों नहीं पकड़तीजो गरीबों के विकास के नाम पर, चुनाव जीतने के लिए हमसे मदद माँगते हैं.”.....पाखी सहम कर चुप हो गयी थी.

उसकी सोच को एक जोरदार झटका लगा, कोईधाम से कूड़ा था .सोनामानी डर करपाखी के पास आ गयी जोतुरंत बंदूक उठाकर निशाना साध चुकी थी. कोई जोर से फुसफुसाया “नहीं कामरेड, गोली मत चलाना, मै हूँ राघव जी. पुलिस सुबह तक यहाँ पहुँच सकती है. जल्दी से खाना खाकर यहाँ से निकल चलें. “

पाखी तुरंत सतर्क हो गयी”हाँ, ऐसा ही करो”.

पत्तलों में अधपका, चावल आलू की सब्जी के साथ सबने जल्दी जल्दी खाया. फिर तेजी से एक एक कर 'अंधेरों में गुम हो गया पूरा कारवां. तेज तेज कदम बढाती पाखी सोच में डूबी हुई थी.इन अंधेरों में ही न जाने क्यों उसे वो रास्ता नजर आता है जो उसको उजाले की दुनिया में ले जाएगा. इस क्षण भी उसका मन चाह रहा था कीऐसे ही सोनामनी का हाथ थामे दौड़ते हुए इन्हीं अंधेरों में गुम होकर निकल भागे... ..पर उसके आस पास उन राक्षसों का दल घेरा बांधे चल रहा था. वे उसे एक पल भी आँखों से ओझल होने नहीं देते थे. शायद उन्हें अंदेशा था की उनके हर मिशन और गतिविधियों की राजदार, उनकी ब्रेन लीडरकामरेड पाखी दिल सेउनके साथ नहीं है. वह उन्हें कभी भी धोखा दे सकती है. एक जगह चौराहे पर रुक कर पाखी ने राम सिंग जी से कहा” तुम लोग दो दलोंमें बाँट जाओ!..और झरने की ओट वाले अड्डे पर पहुँचो”.

“और आप कामरेड?”रामसिंग ने अधीरता से पूछा था.

“मैं नदी के रास्ते आ रही हूँ. “पाखी ने तत्परता से जवाब दिया... .....”तब मैं भी आपके साथ ही रहूंगा”. रामसिंग ने उसका साथ नहीं छोड़ा था. बाकी साथियों के चले जाने पर वे तीनो नदी के रास्ते ढलान पर उतर गए. रास्ता गीला था, पाँव फिसल रहे थे, पर वे लोग ह्हादियों का सहारा ले आगे बढ़ही रहे थे.कीअचानक गोलियों की आवाज आईऔर तेज जलती टार्च की रोशनी उनके चेहरों पर पडी “कौन है वहां? रुक जाओ”.एक रोबदार आवाज गूंजी और दौड़ते कदमों की तेज आहट पास आती सुनाई दी.वे सब नीचे बैठ गए थे. घना अन्धेरा था. कोई दिखाई नहीं दिया.... ...कदमो की आहट अब दूसरी और चली गयी थी.रामसिंग जी ने काहा 'कामरेड, हम ऐसे ही रेंगते हुए आगे बढ़ते रहेंगे, आगे महुआ का बड़ा गाछ है, हम वहां से अड्डे पर आसानी से जा सकेंगे”.

पाखी ने हामी भरी ही थी की गोलियों की तेज आवाज पास आती सुनाई दी, लग रहा था की पुलिस का घेरा सिमटता जा रहा था. रामसिंग की नजरें कुछ ढूंढ़ रही थीं थीं. कल रात बिछाई गयी सुरंगें सही तरह काम भी कर पाएंगी या नहीं, इसकी भी जांच अभी बाकी है” वह बडबडाया औरधीरे से रिमोट निकाल कर पाखी से अनुमति माँगी... .पाखी ने उसके हाथ से रिमोट ले लिया और धीरे से कहा' मैं करूंगी”अचानक सन्नाटे को चीरती हुई गोली के साथ कड़क नारी स्वर गुंजा “रुक जाओ!”

गोली रामसिंग जी के पैरों में लगी, वह वहीं कराह के साथ लुढ़क गया. पाखी ने फुर्ती से रिमोट उछाल कर नदी में फेंक दिया और घायल रामसिंग को सम्भाला .गोली अन्दर नहीं जा पाई थी, पर खून ज्यादा बह रहा था. उसने घाव पर कस कर गमछा बांधा और उसे सहारा दे दौड़ती हुई एक झटके में बड़े गाछ तक पहुँच गयी फिर उसे वहीं बैठाकर सोना का हाथ थामे... बंदूकें वापस लाने के बहाने लौट कर तेजी से भागती चली गयी.....अंधाधुंध, , , निरुद्देश्य... .दिशाहीन, बेतहाशा दौड़ते कदमो के साथ पाखी और सोनामनी एक खुली जगह पर रुकीं और जमीन पर बैठ कर हांफने लगी थीं. नदी काफी पीछे छुट गयी थी.... .गोलियों की पीछा करती आवाजें, टार्चों की जलती बुझती रोशनी भी पीछे रह गयी थी. “पता नहीं यह कौन सी जगह है, बड़ी बड़ी चट्टानों और कांटेदार पेड़ों से घिरी रेतीली सी जगह” पाखी ने व्यग्रता से इधर उधर देखा, उसकी साँसें फ़ूल रही थीं..दम घुटता सा लगा. प्यास भी लगी थी, पर पानी यहाँ कहाँ?..उसे लगा, वह बेहोश हो रही है.... ..अर्ध तंद्रा में उसने देखा की वह अपने माँ बाबा के साथ है, छोटे भाई बहन सब उसके आस पास हैं, नारायणी भी हैं “वह सोने जागने की स्थिति में थी, तभी किसी ने उसके आगे पानी बोतल बढाते हुए पुकारा “पाखी!”

“कौन हो तुम?”उसने अधमुंदी आँखों से पहचानने की कोशिश की.

“मैं नीरू, नारायणी....पानी पी ले पाखी.”

पाखी हडबडाते हुए उठ बैठी. न नारायणी ने कोई सवाल पुछा और न पाखी को कोई उत्तर देना पडा.... ....बस पानीकी पूरी बोतल एक सांस में खाली कर पाखी मौन ही रही. आंसू चुपचाप उसके गालों को भिंगो रहे थे.... .वह मौन हो नीरू को देख रही थी, ... ...वही चिर परिचित मुस्कान... अपनापन.., पर कर्तव्य निष्ठा से भरा आत्मविश्वास!.../

वह आज पराजित हो गयी थी..जिसके आगे, वह नीरू... नारायणीकेवल उसका हाथ थामे उसे ही निहार रही थी.

नारायणी ने शांत स्वरोंमे कहा” डरो मत. मेरे साथ कोई नहीं है.... तुम कानून की शरण में आ जाओ, तुम्हें कोई हानि नहीं पहुंचेगी. तुम दोनों आत्म समर्पण कर दो.... ..पाखी मै तुम्हारे बारे में सब जानती हूँ.... .बहुत खोजबीन की, सच्चाई का पता लगाया.... एक एक खबर, जंगल का एक एक कोना छानती रही तुम्हारी तलाश में. आज मिली है तू, तो तुझे खोना नहीं चाहती.... तेरी दुनिया... , तेरे सपनों की मंजिल तुझे बुला रही है पाखी, ..आज जिन्दगी ने तुझे एक मौका और दिया है. अपनी नारायणी पर एक भरोसा तो करके देख. लौट आ पाखी!”

पाखी धीरे से उठी, सोनामनी का सहारा ले, नीरू के पीछे पीछेचल दी.... ..पीछे छूट गयी अंधेरों की भयावह दुनिया, ... .विपिन की यादों और अपराधों, ... .हिंसा की विषैली हवा से दूर..., अपने पीछे दफ़न हो गए सपनों के पूरा होने की क्षीण सी उम्मीद लिए अपने कदम बढ़ा रही थी. वह वर्दी वाली लड़की. नए प्रभात का सूर्य उसकी प्रतीक्षा कर रहा था. ---

(आत्म कथ्य---मेरी कहानियां जिन्दगी के आसपास साँसें लेती हैं. जीवन के सुख, दुःख, हर्ष विषाद प्रेम की सुन्दरतम अनुभूतियों का दर्पण बन समाज को सच दिखाना ही उनकी सार्थक अभिव्यक्ति है भटके हुए कदमों को उनके सपनों की राह तक पहुंचाना, और संवेदना के एक नए क्षितिज का निर्माण करना मेरी कहानियों की सृजन यात्रा का पाथेय है.)