वसन्त सेना / भाग 4 / यशवंत कोठारी

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संवाहक को देखने के बाद वसन्तसेना अपनी सेविका मदनिका को इशारा करती है। वह संवाहक से जानकारी लेती है कि संवाहक पटना शहर का निवासी है और मालिश का काम करता हैं इस शहर की प्रशंसा सुन कर यहां पर रोजगार की तलाश में आया है और मीठे, हंसमुख, छिपे हाथ से दान देने वाले, दूसरों की बुराई और अपनी भलाई भूल जाने वाले एक आर्य की सेवा में था। मगर वे निर्धन हो गये हैं और वह अनाथ।

हां आर्ये में आर्य का सेवक था। अब वे धनहीन हो गये हैं।

हां गुण और धन का मेल नहीं होता हैं अक्सर गुणी व्यक्ति धनहीन हो जाता हैं वसन्त सेना बोली।

हां आर्ये। आर्ये चारूदत्त निर्धन हो गये हैं।

आर्य चारूदत्त का नाम सुन कर ही वसन्तसेना को अपार प्रसन्नता होती है। वह संवाहक को कहती है --

तुम इसे अपना ही घर समझो। मदनिका इनके आराम की व्यवस्था करो। इन्हे सब सुविधाऐं दो।

संवाहक यह सब सुन कर प्रसन्न होता है। वह सोचता है आर्य चारूदत्त के नाम मात्र से उसे सब सुविधाएं मिल रही है। वसन्तसेना आर्य चारूदत्त के बारे में और जानकारी चाहती हेै पूछती है --

अब वे कहां हेै ?

उनके धनहीन होने के बाद मैं जुआरी हो गया। मैं बरबाद हो गया। मैं अस्सी रत्ती सोना हार गया। माथुर पीछा कर रहा हे। उन्होने मुझे बहुत मारा।

इसी बीच माथुर और जुआरी खून की बूंदों का पीछा करते करते वसन्तसेना के घर पर दस्तक देते है। वसन्तसेना मदनिका को अपना कंगन देकर कहती है--

आर्य चारूदत्त के सेवक के ऋण का भार उतार दो। धूताध्यक्ष को सोने का कंगन दे देा। और कहना - इसे संवाहक ने भिजवाया है। मदनिका जाकर माथुर को सोना चुका देती हे। माथुर और जुआरी चले जाते हे। संवाहक कृत कृत्य हो जाता है।

मदनिका वापस वसन्तसेना के पास आती है, संवाहक मदनिका को देखकर खुश होता है। वह वसन्तसेना से पूछता है --

आर्ये मेरे लायक कोई सेवा हो तो बतायें।

सेवा तो आप आर्य चारूदत्त की ही करें। वसन्तसेना ने कहा।

मेरा बहुत अपमान हो गया है। मैं अब बौद्ध भिक्षु बन जाउंगा।

नहीं। आर्य नही। मदनिका कहती है।

लेकिन मैं निश्चय कर चुका हूं। संवाहक ने कहा। तभी वसन्तसेना के प्रासाद के बाहर शोर उभरता है।

वसन्तसेना का मस्त हाथी खुल गया है। कर्णपूरक वसन्तसेना के कक्ष में आता है।

क्या बात हैं कर्णपूरक । बहुत प्रसन्न दिखाई दे रहे हेा ।

हां आर्ये । प्रणाम । आज मैंने आपके मस्त हाथी को काबू में करके एक सन्यासी की जान बचाई है।

बहुत अच्छा कर्ण पालक तुमने एक बडे अनर्थ को होने से बचा लिया। मैं बहुत खुश हूं। वसन्तसेना ने कहा।

लेकिन आर्ये आगे सुनिये ज्योंहिं मैंने हाथी को काबू में किया एक सज्जन नागरिक ने आभूषण के अभाव में मेरे ऊपर बहुमूल्य दुशाला फेंक दिया।

दुशाले का नाम सुनकर ही वसन्तसेना कह उठती है---

जरा देखना क्या दुशाले में चमेली के फूलों की गन्ध है ?

क्या उस पर कुछ लिखा हे।

हां आर्ये इस पर चारूदत्त लिखा है।

वसन्तसेना दुशाले को लेकर औढ़ लेती है। मुस्कुराती है। शरमाती है।

वसन्तसेना कर्णपूरक को आभूषण इनाम में देती है।

कर्णपूरक चला जाता हे। वसन्तसेना मदनिका से चारूदत्त की बातें करने लग जाती है। वसन्तसेना चाव से दुशाला लपेट लेती है।

निर्धनता मनुष्य जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है। निर्धन होना ही सबसे बडा अपराध है। यक्ष ने जब युधिष्ठिर से पूछा कि संसार में सबसे ज्यादा दुखी कौन है ? तो युधिष्ठिर का प्रत्युत्तर था- निर्धन व्यक्ति सबसे ज्यादा दुखी है। उपनिषदों में भी निर्धनता को पौरूषहीनता माना गया है। अर्थात् व्यक्ति मे पौरूष उतना ही है, जितना उसके पास धन हे। सभी गुण कंचन में बसते है। धनवान ही रूपवान , चरित्रवान , साहित्य, कला, संस्कृति का पारखी , सज्जन और सबल होता है। इर युग में धनवान की पूछ होती रहती है। राजा भी धनवान की बात ध्यान से सुनता हैं। इस कलि युग में इस धन का महत्व और भी ज्यादा हैं जीवन में निर्धनता का अभिशाप सबसे बडा अभिशाप है। धन से कलियुग में सब कुछ क्रय किया जा सकता हैं और इसी कारण व्यक्ति साम, दण्ड , दाम, भेद, सही , गलत सभी तरीकों से धन कमाने के लिए टूट पडता हैं, वह पैसे की इस अन्धी दौड में घुड दौड के घोडे की तरह दौड रहा हैं राज्याश्रय तथा राजाज्ञा निर्धन के लिए नहीं होती है, निर्धन तो हमेशा दुख ? कोप और दुभाग्य का मारा होता है, और यदि व्यक्ति धनवान से निर्धन हो जाता हैं तो उसके कष्ट और बढ़ जाते हेै, मित्र मुंह मोड लेते हे, रिश्तेदार पहचानना बंद कर देते है। और उपेक्षा , अपमान का जीवन जीने को बाध्य होना पड़ता है।

आज कल आर्य चारूदत्त इसी अपमान को जी रहे है। उनका सेवक बर्द्धमानक आवास में अकेला अपनी और अपने स्वामी की निर्धनता को कोस रहा हैं निर्धन , गरीब स्वामी का सेवक क्या कभी सुख पा सकता हैं नहीं। और धनवान का सेवक क्या कभी दुख पा सकता है? नहीं। वर्द्धमानक सोचता हैं और पश्चाताप करता है। लेकिन सेवक की अपनी मजबूरियां, सीमाएं , मर्यादाएं होती है। , जिस प्रकार हरे धान का लोभी सांड बार बार एक ही खेत में घुस जाता हैं वेश्यागामी पुरूष और जुआरी अपने व्यसन नहीं छोड सकते है, उसी प्रकार मैं भी अपने स्वामी को नहीं छोड सकता हूं । आर्य चारूदत्त अभी रात्रीकालीन संगीत सभा से लौटे नहीं हैं । वर्द्धमानक बैठक मेें उनका इंतजार कर रहा है।

चारूदत्त अपने मित्र विदूषक मैत्रेय के साथ आवास की ओर आ रहे हैं।

चारूदत्त रात्रीकालीन सौम्य वेशभूषा में हैं। वे एक संगीत सभा में रेमिल का गायन सुनकर आ रहें है। आर्य रेमिल के गायन की मुक्तकंठ से प्रशंसा कर रहें है। वे मैत्रेय से कहते हैंः-

मैत्रेय यह वीणा भी अपूर्व वाद्य है। वीणा तो व्याकुल मानव का सच्चा साथी हैं यह मन बहलाव का उत्तम साधन हैं यह प्रेम को जगाने वाला पवित्र वाद्य हैं सच में रेमिल बहुत सुन्दर गाते है। उनके गले में सरस्वती का वास हैं मैत्रेय अनमना सा साथ चल रहा हैं कहता हैः-

मुझे तो शास्त्रीय संगीत सुनकर हंसी आती है। ऐसी पतली आवाज में गाने वाले पुरूष तो मंत्र जपता पंडित सा प्रतीत होता है।

चारूदत्त संगीत के आनन्द में अभी भी आकंठ डूबे हुए हैं ? वे पुनः रेमिल की प्रशंसा करते हैः -

बहुत सुन्दर गाया। क्या गीत । क्या आवाज । जैसे पुष्प थपकिया देते हो । उसने मेरे मन के दुख को धो दिया। मेैत्रेय इस वार्ता से ऊब चुका था। कह उठाः -

अब जगह जगह श्वान समुदाय चैन से नींद ले रहे है। आकाश में चंद्रमा अंधकार के लिए स्थान बना रहेे हैं और हमें भी घर पहुंच जाना चाहिए। वे दोनों चलते हुए घर पहुंचते है। मैत्रेय वर्द्धमानक को आवाज देकर आवास गृह का दरवाजा खुलाता है। वर्धमानक आर्य चारूदत्त को देखकर आसन बिछाता है।

आर्य के पांव धुलाने की व्यवस्था करें। मैत्रेय कहता हैः -

वर्द्धमानक पानी डालने को उद्यत होता है, मगर मैत्रेय पानी डालता है और वर्द्धमानक चारूदत्त के पांव धेाता हैं मैत्रेय भी पांव धोता हैं । अब वर्द्धमानक कहता है‘- आर्य मैत्रेय दिन भर आभूषणों की रक्षा मैंने की है, अब रात में आप ध्यान रखें । वह मैत्रेय को गहने देकर चला जाता हैं चारूदत्त खो जाता हैं मैत्रेय वसन्तसेना के गहनों की पोटली सिरहाने रख सोने का प्रयास करता है।