वसन्त सेना / यह उपन्यास / यशवंत कोठारी

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शूद्रक के प्रसिद्ध संस्कृत नाटक “मृच्छकटिकूम्” ने मुझे हमेशा से ही आकर्षित किया है। इस नाटक के पात्र, घटनाएं और परिस्थितियां हमेशा से ही ऐसी लगी है कि मानो ये सब आज की घटनाएं हो। राजनीतिक परिस्थितियां निर्धन नायक, धनवान नायिका, राजा, क्रांति, कुलवधू, नगरवधू और सम्पूर्ण कथानक पढ़ने में मनोहारी, आकर्षक तो है ही, आन्नद के साथ विचार बिन्दु भी देता है। इसी कारण संस्कृत नाटकों में इसका एक विशेष महत्व है।

यह नाटक ईसा पूर्व की पहली या दूसरी सदी में लिखा गया था। इस बात में मतभेद हो सकते है, मगर मेरा उद्देश्य केवल नाटक की पठनीयता से है। इस नाटक के मूल को भी पढ़ा, डा॰ राधंेयराघव के अनुवाद को पढ़ा। मंच रूपान्तरण के रूप में आचार्य चतुरसेन तथा डा॰सत्यव्रत सिन्हा को पढ़ा। इस पर आधारित फिल्म “उत्सव” को देखा तथा उत्सव के संवाद लेखक स्व. शरद जोशी से भी चर्चा की। मुझे ऐसा लगाा कि इस नाटक मे औपन्यासिकता है। द्दश्य-श्रव्य काव्य के समस्त गुणों के बावजूद यह नाटक एक उपन्यास का कथानक बन सकता है, धीरे धीरे मेरी यह धारणा बलवती होती गई। रचना का ताना-बाना मेरे जेहन में घूमता रहा। कई बार थोड़ा बहुत लिखा, मगर लम्बे समय तक कोई निश्चित स्वरूप नहीं बन पाया अब जाकर इस का समय आया। और इसे एक लघु उपन्यास का रूप मिला।

उपन्यास या कहानी पर आधारित नाटकों के उदाहरण काफी मिल जायेगें, मगर ऐसे उदाहरण साहित्य में कम ही है, जब किसी नाटक को उपन्यास में ढ़ाला गया हो। मैंने यह प्रयास किया है। औार कुछ अनावश्यक प्रसंगों तथा वर्तमान स्वरूपों में अशोभनीय शब्दों को छोड़ दिया है, लेकिन कथ्य व शिल्प का निर्वाह करने का पूरा प्रयास किया है।

वसन्त सेना समाज के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है जिसके पास सब कुछ होकर भी कुछ नही हे। चारूदत्त की निर्धनता में वसन्त सेना के सम्पूर्ण ऐश्वर्य को समा लेने की उद्दाम भावना ने ही मुझे आकर्षित किया है।

तमाम कमियों के बावजूद यदि यह रचना पाठकों को आकर्षित कर सकी , उनका थोड़ा बहुत भी मनोरंजन कर सकी तो में अपना श्रम सार्थक समझूंगा।

आपकी प्रतिक्रिया के इन्तजार में।

रामनवमी, जयपुर।