वापसी का टिकिट / गोवर्धन यादव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बरसों-बरस बाद मेरा दिल्ली जाना हो रहा है। मैं अपनी मर्जी से वहाँ नहीं जा रहा हूँ, बल्कि पिताजी के बार-बार टेंचने के बाद मैं किसी तरह वहाँ जाने के लिए राजी हो पाया हूँ।

दरअसल मेरा दम घुटता है दिल्ली मे। चारों तरफ़ शोर मचाते भागते वाहन, वाहन में लटकते हुए यात्रा करते नौजवान, कार्बनमोनोआक्साइड-कार्बन्डाइआक्साइड जैसे ज़हरीली गैस फ़ैलाते आटॊ-रिक्शे, चारों तरह भीड ही भीड देखकर मुझे उबकाई-सी होने लगती है, फिर घर का माहौल तो उससे भी ज़्यादा दमघोंटू है।

इसी दमघोंटू वातावरण में मेरे भैया एक सरकारी महकमें में मलाईदार पोस्ट पर कार्यरत हैं। बार-बार पत्र लिखने और टेलीफ़ोन पर बातें करने के बाद भी जब कोई सकारात्मक जवाब उन्होंने नहीं दिया तो पिताजी ने फ़रमान जारी कर दिया कि मैं वहाँ जाकर आमने-सामने बात करुं ।उन्हें अपनी घरेलु समस्या से अवगत करवाऊँ और कोई हल निकाल लाऊँ...

मैंने पिताजी से कहा कि मैं उनसे उम्र में छोटा पडता हूँ, उन्हीं के दिए पैसों से अपनी पढाई जारी रख पाया हूँ। मैं भला उनके सामने समस्याओं को लेकर मुँह कैसे खोल सकता हूँ। मैंने उनसे विनम्रतापूर्वक कहा कि यदि आप स्वयं चले जाएँ तो चुटकी बजाते ही सारे समस्याओं को हल किया जा सकता है। लेकिन वे जाने के लिए राजी नहीं हुये।

अन्तोगत्वा मुझे ही जाना पडा. स्टेशन से बाहर निकलते ही मैंने एक अच्छी-सी दूकान से बच्चॊं के लिए मिठाइयाँ और एक खारे का पैकेट खरीद लिया था।

दरवाजे पर मुझे देखते ही सभी ने घेर लिया था। मैने अपने झोले में पडॆ पैकेट निकालकर उन्हें दिया और वे हो-हल्ला मचाते हुए अन्दर की ओर भागे और अपनी माँ को सूचित करने लगे कि चाचाजी आए हैं। सोफ़े पर बैठते ही मेरी नजरे कमरे का मुआयना करने लगी थी। भैया के ठाठबाट देखकर मैं दंग रह गया था। काफ़ी देर तक यूंही बैठे रहने के बावजूद भाभीजी अपने कमरे से बाहर नहीं आ पायी थी। मुझे कोफ़्त-सी होने लगी थी।और मेरा धैर्य चुकने लगा था। मैं अपनी सीट से उठ ही पाया था कि वे नमुदार हुईं ।मैने आगे बढकर उनके च्ररण स्पर्ष किए.और उन्होंने सोफ़े में धंसते हुए सभी के हालचाल जानने चाहे। सभी के कुशल क्षेम का समाचार मैंने कह सुनाया।अभी मेरा वाक्य पूरा भी नहीं हो पाया था कि उन्होंने पत्थर-सा भारी एक प्रश्न मेरी ओर उछाल दिया" ये तो सब ठीक है लाला, लेकिन तुम्हारा इस तरह, अचानक चले आना, समझ में नहीं आया वैसे। मैं तुम्हारे आने का मकसद अच्छी तरह जानती हूँ। तुम निश्चित ही अपने भाई से पैसे ऎंठने के लिए आए होगे।तुम यदि इसी मकसद से आए तो तुम्हें शर्म आनी चाहिए.क्या हम लोगों ने तुम लोगों का ठेका ले रखा है। तुम पढ-लिख गए हो, कोई जाब-वाब क्यों नहीं कर लेते? ।

भाभी की बातें सुनकर तन-बदन में आग-सी लग गई थी। जवाब में मैं काफ़ी कुछ कह सकता था, लेकिन कुछ भी न कह पाना मेरी अपनी मजबूरी थी। मैं जानता था कि बात अनावश्यक रूप से तूल पकड लेगी। इससे बेहतर था कि मैं चुप रहूँ। उन्हें टालने की गरज से मैंने कहा कि काफ़ी दिनों से मैं आप लोगों के दर्शन नहीं कर पाया था, सो दर्शन करने चला आया था। उसी क्रम को जारी रखते हुए मैंने भैया के बारे में जानना चाहा कि वे दिखलाई नहीं दे रहे हैं...तो पता चला कि वे किसी आवश्यक काम से बाहर गए है और बस थोडी ही देर में वापस आ जाएंगें।

काफ़ी इन्तजार के बाद भैयाजी से मिलना हुआ। मुझे देखते ही उन्होंने भी वह प्रश्न दागा जिसकी मुझे उम्मीद नहीं थी" रवि...अचानक कैसे आना हुआ? घर में सब ठीक-ठाक तो है न?

मैंने उनसे कहा " भैया...सब ठीक ही होता तो मैं यहाँ आता ही क्यों ।मुझे आपसे ठेरों सारी बातें करनी है।

" ठीक है, तो हम लोग ऐसा करते हैं कि किसी होटल में चलकर भॊजन करते हैं और

बैठकर बातें भी कर लेगे। मैं समझ गया कि भैया भाभी की उपस्थिति में कोई न्भी बात करना नहीं चाहेगें।,

स्टेशन के पास ही एक होटल थी। उन्होंने एक थाली का आर्डर दिया और मुझसे मुख़ातिब होकर मेरे आने का कारण जानना चाहा। मैंने विस्तार से घर के हालात कह सुनाया और कहा कि जो रक़म आप भेज रहे हैं, उसमें घर का गुज़ारा चल नहीं पा रहा है। मेरी बात सुनकर वे देर तक ख़ामोश बैठे रहे फिर उन्होंने कहा: "-रवि...इस समय कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है।जबसे अन्नाजी ने जंतर-मंतर पर बैठकर अनशन शुरु किया था, उसके बाद से किसी में इतनी हिम्मत नहीं बची है कि वह किसी से दो पैसे भी ले सके. अब तुमसे क्या छिपाना, मेरे अपने घर का हाल भी बुरा है। बिना मेहनत किए अलग से जो रक़म मिला करती थी उसने सभी की आदतें बिगाड दी है।पत्नि भी अनाप-शनाप ख़र्च करने की आदि हो गयी है। शायद ही कोई ऎसा दिन नहीं जाता कि उसने अपनी ओर से किटी पार्टी में जाने से इन्कार किया हो। उसे अपने स्टेटस सिंबल की चिन्ता ज़्यादा रहती है। रही बच्चॊं की बात तो वे भी अपनी माँ पर गए है। रोज़ एक नयी फ़रमाइश उनकी ओर से बनी ही रहती है। कमाई दो पैसे की नहीं है और ख़र्चा हजारों का है। अब तुम्हीं बताओ रवि कि मैं ज़्यादा पैसे कैसे भेज सकता हूँ।? भवि‍ष्य में अब शायद ही भेज पाऊँगा। यही कारण था कि मैं पिताजी को फ़ोन पर यह सब बता नहीं पा रहा था।और बतलाता भी तो किस मुँह से।? ये तो अच्छा हुआ कि तुम चले आए.और तुमसे मैं अपनी मन की बात कह पाया। शायद पिताजी से कहता तो वे शायद ही इसे बर्दाश्त कर पाते।

भोजन बडा ही सुस्वादु बना था लेकिन भैया कि बातें सुनकर स्वाद अब कडवा-सा लगने लगा था, जैसे-तैसे मैंने खाना खाया और भैया से कहा " अच्छा मैया, अब मैं चलता हूँ...

उन्होनें जेब में हाथ डाला और पर्स में से एक सौ का नोट पकडाते हुए मुझसे कहा कि

अपने लिए टिकिट कटवाले। मैंने बडी ही विनम्रता से कहा:-भाईसाहब मैंने वापसी की टिकिट पहले से ही बुक करवा लिया था...वे कुछ और कह पाते, ट्रेन अपनी जगह से चल निकली थी। मैंने दौड लगा दी और फ़ुर्ती से कम्पार्ट्मेन्ट में जा चढा था। ट्रेन ने अब स्पीड पकड ली थी।