वापसी / नन्दलाल यादव 'सारस्वत'

Gadya Kosh से
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पेशकारी के नौकरी पूरा होथैं सुधीर बाबू अपनोॅ गांव लौटै के तैयारी करी लेलकै। तैयारी तेॅ हुनी साल भरी पहिलें सेॅ करी रहलोॅ छेलै। सच पूछोॅ तेॅ शहरोॅ में रहिये केॅ हुनी शहरोॅ में कहाँ रही रहलोॅ छेलै, हमेशे हुनका गाँव याद आवी जाय।

शहर में हुनका नौकरी करतेॅ चालीस साल पूरा होय गेलै, यानी चार दशक। ई बीचोॅ में हुनी चालीसो बार सोचलेॅ होतै कि गांव चल्लोॅ जांव, कभी दीवाली के अवसर पर, कभी होली पर आरो कभी दुर्गापूजा के मौका पर। पर मनोॅ के बात मने में रही गेलै। पर्व आवै आरो बीती जाय आरो हुनकोॅ जातरा जातरे के जग्घा पर रही जाय। असल में हुऐ कि कभी ठीक समय पर वेतने नै मिलै आरो कभी मिलिये जाय, तेॅ सफड़तै-सफड़तै एत्तेेॅ समय होय जाय कि मने फेनू उचटी जाय। जाय के मतलब छेलै कि दस रोज पहिले गाँव पहुचेॅ, तभिये सार्थक। हेन्होॅ थोड़े होतै कि डीहोॅ पर घोॅर खड़ा होवे करतै। मांटी के भीत, पुआलोॅ के छप्पर। है चालीस सालोॅ में एक्को दाफी तेॅ नै छरैलोॅ गेलोॅ होतै, नै भीती पर लीपा-पोती होलोॅ होतै।

गोतिया भरोसोॅ घोॅर छोड़ी गेलै, ऊ गोतियौं आखिर कहाँ तक देखेॅ पारतै, होतै, अपनो तेॅ घोॅर छै, अपनोॅ तेॅ परिवार छै, जे टा देखतेॅ होतै, वही बहुत। ' ई सब सोची केॅ सुधीर बाबू दुखित होय के बदला प्रसन्न होलै।

आबेॅ जबेॅ ई तय होय गेलै कि अगला महीना के पहिले तारीख केॅ गाँव लेली गाड़ी पकड़ी लेतै, तेॅ हुनी शहर के सब दोस्त सेॅ मिलना-जुलना कुछ ज़्यादा ही शुरु करी देलेॅ छेलै, "पता नै आबेॅ शहर कबेॅ लौटना हुएॅ, लौटो पारतै की नै, के जानै छै। ' हुनी मने मन सोची के थोड़ोॅ मनझमान भी हुएॅ लागै। ऊ दिन जबेॅ अपनोॅ एक पेशकार मित्र विपिन मित्र सेॅ बातचीत करै छेलै, तेॅ मित्र पूछी बैठलै, गॉमोॅ मेॅ की मोॅन लागतौ, शहर के चौक-चौराहा के हवा खैलोॅ वाला केॅ की गाँव खेत-खलिहान सुहैतै?" यहाँ तेॅ नै समझवैं मित्र। गाँव के चुरु भरी हवा-पानी के समक्ष बोतल में भरी केॅ आवै वाला ऑक्सीजन सेॅ सौ गुना अच्छा आरो शुद्ध होय छै। असल मेॅ तोहें तेॅ शहरे मेॅ जनम लेले, आरो शहरे में बढ़ले नौकरियो पैलैं, की बुझवैं तुलसी चौरा रं पवित्र गाँव केॅ। "

"सुधीर, तोहें गाँव के कोॅन हवा-पानी के बात करै छै। लागै छै, बीस पच्चीस सालोॅ सेॅ गाँव नै गेलोॅ छै।"

"जाय केॅ तेॅ चालीस साल सेॅ हम्मेॅ गाँव नै गेलोॅ छियै, तेॅ एकरोॅ की मतलब, जे गाँव दादा-परदादा सेॅ हमरोॅ बाबू के जीवन काल तांय नै बदललै ऊ बीसे तीसे बरसोॅ मेॅ बदली जैतै, से कना? की आबेॅ गॉवोॅ मेॅ आदमी के जग्घा मेॅ भूत बसेॅ लागलोॅ छै।" सुधीरें हँसतेॅ हुएॅ कहलकै।

"हों कहभै, तेॅ थोड़े विश्वास होथौ, तबेॅ भगवान सेॅ हम्मेॅ एतनै प्रार्थना करै छियौ कि तोरा सेॅ भूत पर होने करौ तेॅ अच्छा। अच्छा छोड़ ई सब बातोॅ केॅ तोहें जाय रहलोॅ छैं कहिया आरो फेनू लौटवें कबेॅ।"

"जाय के तेॅ हम्मेॅ एक तारीख केॅ जाय रहलोॅ छियौ, आरो लौटै के जहाँ तांय बात छै, ई जनम मेॅ तेॅ नहियें समझेॅ।"

सुधीर के बात सुनी केॅ विपिन मित्र अपनोॅ दोनों हाथ ओकरोॅ दोनों कन्धा पर धरतेॅ कहलकै, "चलें, अच्छा बात छै तोरा सेॅ मिलै लेॅ हम्मीं तोरोॅ गाँव चल्लोॅ ऐलोॅ करवौ।"

आरो जे सुधीर बाबू सोचलेॅ छेलै कहा मुताबिक एक तारीखे केॅ शहर केॅ छोड़ी देलकै यै लेली हुनी अपनोॅ घरोॅ के सोॅर-समान तखनिये बाहर करी देलेॅ छेलै, जखनी रातकोॅ बारह बजतेॅ होतै, कैन्हेंकि पंडितजी पतरा देखी केॅ बतैलेॅ छेलै कि जातरा के काल बारह बजे रात के बाद नै बनै छै। अच्छा जतरा से तबेॅ आरो एक हफ्ता रुकै लेॅ पड़तै, आरो ई बात सुधीर बाबू केॅ कैन्हों मंजूर नै छेलै।

गाँव तक जाय वास्तें हुनी कुछ बड़े रं गाड़ी करलेॅ छेलै, आरो वही गाड़ी में सब सामान ऊपर-नीचेॅ ठूँसी-ठासी केॅ अपनोॅ पत्नी साथे पिछुलका सीटोॅ पर बैठी रहलै, कैन्हेंकि आरो कोय जग्घोॅ बचले नै छेलै।

गाड़ी चललै, आरो रफ्तार पकड़ी लेलकै। पिछुलका सीट पर होला के कारण सुधीर बाबू साथे शांता केॅ झोल-झाल के शिकार हुऐ लेॅ पड़ी रहलोॅ छेलै, मजकि हुनका एकरोॅ जेना कोय आभासो नै होय रहलोॅ छेलै। आखिर कै दशकोॅ के बाद हुनी अपनोॅ पुस्तैनी गाँव लौटी रहलोॅ छेलै।

हुनका रहलोॅ नै गेलै तेॅ शांता सेॅ पूछलकै, "तोहें कुछ बोली नै रहलोॅ छौ, गाँव जाय के तोरा खुशी नै छौं की?" "हेनोॅ कैन्हें बोलै छोॅ। आय तक हम्मेॅ अपनोॅ ससुराल मेॅ गोड़ तांय नै राखेॅ पारलोॅ छी। शादी के बाद तेॅ पतिये के गाँव-घर हमरोॅ गाँव-घर फेनू खुशी केना नै होतै।"

" शांता, तोरा गाँव जाय केॅ एत्तेॅ सुख मिलतौं, एत्तेॅ सुख मिलतौं कि हम्मेॅ बतावेॅ नै पारभौं। हमरे गाँव होय केॅ बहै छै बेलासी नद्दी। पता नै, आबेॅ ओकरा मेॅ होनोॅ पानी बहै छै की नै, जे रं हम्मेॅ बच्चा मेॅ देखलेॅ छियै। वहाँ बेलासी के पानी हमरोॅ पोखरी में आवी केॅ जमा होय जाय छै, सौन-भादोॅ के दिनोॅ में। हमरोॅ पोखर लाल पोखर कहाय छै, लाल बाबा बनवैलेॅ छेलै, यही लेॅ। अभियो फागुन-चैत में कमलोॅ के फूल फुलतेॅ होतै। एक्को फूल कोय नै तोड़ै, तोड़तियै केना, चार मरद गहरा तालाब छै, ई गाँव भरी में सबकेॅ मालूम छै, बलुक है कहोॅ कि सौंसे इलाका भर केॅ...अभियो लाल पोखर ठामे होतै कत्तो भराय गेलोॅ होतै ...शांता, देखियौ हमरोॅ गाँव केॅ। सब गाँवोॅ सेॅ अलग छै। पोखर सेॅ सटले केन्होॅ छै बाँस वन। दस बीघा सेॅ कम मेॅ नै फैललोॅ छै। जाड़ा दिनोॅ में नै जानौं केन्होॅ-केन्होॅ रंग-बिरंग के चिड़िया कोॅन-कोॅन देशोॅ सेॅ उड़ी केॅ आवै छै। दिन-रात किसिम-किसिम के शोर आरो सबसेॅ बड़ोॅ बात कि एक पक्षी के शिकार कोय्यो आदमी नै करेॅ पारेॅ। कहै छै, लाल बाबा, गाँव के सब छवारिक केॅ बुलाय केॅ बतैलेॅ छेलै, आनदेश सेॅ ऐलोॅ चिड़ियाँ, हमरोॅ अतिथि रं होय छेकै ओकरोॅ वध गोवध नाँखि होय छै। यहू कहलेॅ छेलै कि आनदेश के चिड़ियै नै, सब चिड़ियै अतिथि रं होय छै, कैन्हेंकि चिड़िया के कोय निश्चित देश नै होय छै, कभी है देश, तेॅ कभी हौ देश। ' आरो लाल बाबा के कहलै पर हमरोॅ गाँव मेॅ ऊ विदेशी चिड़ियाँ सिनी पर कोय गुलेल आकि बन्दूक के गोली नै चलावै छै। सुधीर बाबू लगातारे बोललोॅ जाय रहलोॅ छेलै आरो शान्ता अपनोॅ चेहरा पर लगातारे आचरज आरो खुशी के भाव गाय के प्रयास करी रहलोॅ छेलै।

शान्ता के ई भाव केॅ देखते हुएॅ सुधीर बाबू गाँव के लोगोॅ के कहानी सुनैलेॅ छेलै। एक-दू लोगोॅ के नै, दसो आदमी के कहानी कि केना बमभोला असकल्ले तीन डकैतोॅ के पिछुवैतेॅ एक केॅ दबोची लेलेॅ छेलै, आरो फेनू ओकरोॅ हाँक पर केना गाँव भरी के मरद, बच्चा लाठी भाला लेलेॅ दौड़ी पड़लोॅ छेले। गाँव के यही एकता के कारण फेनू हमरोॅ गाँव में कोय डकैत के गोड़ नै पड़लै...कहै के भले हमरोॅ गाँव पंचायत आरो मुखिया छै, मजकि गाँव मेॅ कभियो केकरो मुखिया पंचायत के ज़रूरत नै पड़लै। कहीं कुछ कोय टोला में ढनमनैलोॅ तेॅ टोले के लोग मिली केॅ निपटारा करी लेलकोॅ, गाँव मेॅ बातो तक नै पहुँचेॅ पारलोॅ। "

कहतेॅ-कहतेॅ हुनकोॅ ध्यान शांता के दायाँ कलाई पर गेलै। पौरके साल बर्त्तन उठाय के क्रम में केना केॅ हड्डी खिसकी गेलै, पतो नै चललै। महीना भरी तेॅ यहा सोची केॅ दोनोॅ चुप रहलै कि दरद छेकै, दरद खतम होतै तेॅ सब कुछ ठीक होय जैतै, पर एक्सरे करैला पर पता चललै कि हड्डी पर जखम आवी गेलोॅ छै। दबाय-दारू खूब चललै, मजकि अभियो दरद नै गेलोॅ छै। सुधीर बाबू शांता के कलाई छूतेॅ कहलकै, "बस, आरो कुछ दिन, देखियोॅ, तोरो ई दुख केना दूर हो जाय छौं। गाँव में अपनोॅ भूटो काका छै नी, नामी वैद्य। कोॅन गाँव सेॅ लोग नै आवै छै। केन्सर हेनोॅ रोग छोड़ैलेॅ छै। हुनी अभियो होने होतै, भले अस्सी बरस के होय गेलोॅ होतै। जानै छोॅ भूटो केॅ काका गाँव के लोगें धनवन्तरी मिसिर कहै छै। धनवन्तरी सेॅ कटियो टा कम नै छै हुनी।"

गाड़ी पक्की सड़क छोड़ी के कच्चा रास्ता पर आवी गेलोॅ छेलै, से हिचकोलोॅ चार गुनी बढ़ी गेलोॅ छेलै। शांता तेॅ कै दाफी गाड़ी पर लुढ़कतेॅ-लुढ़कतेॅ बचलै। "जरा संभली केॅ। आरो आधोॅ घण्टा... आधोॅ घण्टा नै, हौ देखोॅ गाँव दिखावेॅ लगलै' सुधीर बाबू हुलासोॅ सेॅ एक दिश इशारा करतेॅ कहलकै," है बीचवाला पुरानोॅ ढंग के पक्का मकान देखै छौ नी, वहा अपनोॅ मकान छेकै। "

हुनी सब बात पूरौ नै करेॅ पारलेॅ छेलै, आरो गाड़ी हुनको इशारा पर वहा मकान के आगू मेॅ आवी केॅ खाड़ोॅ होय गेलोॅ छेलै। सब सामान उतारलेॅ गेलोॅ छेलै। हुनी दरवाजा खोललेॅ छेलै आरो एक-एक चीज केॅ अन्दर करी, ऐगन्हैं मेॅ दू बिछावन लगाय केॅ लेटी गेलोॅ छेलै ई सोची केॅ कि बिहान होतै तेॅ सफाई के बाद सब कुछ समेटलोॅ जैतै।

रास्ता के सफर सेॅ शांता तेॅ एतन्है थकी गेलोॅ छेलै कि धोॅर धरथैं ओकरा नींद आवी गेलोॅ छेलै, मजकि सुधीर बाबू केॅ नींद नै ऐलोॅ छेलै। है बात नै कि हुनी थकलोॅ नै छेलै बात ई छेलै कि है बात हुनका दुखित करी गेलोॅ छेलै कि जबेॅ गाड़ी द्वार लगलोॅ छेलै तेॅ गोतिया के कोय हुनका देखै लेॅ नै ऐलोॅ छेलै। हुनी मने-मन सोचलेॅ छेलै, "है बात तेॅ नहिये नी होतै कि हमरोॅ आवै के खबर नै मिललोॅ होतै। गाड़ी द्वार पर लगलै, यहू तेॅ सोची केॅ आना चाही कि आखिर के ऐलोॅ छै, मजकि नै ऐलै।" सुधीर बाबू के मोॅन छोटोॅ होय गेलै, लेकिन है सोची केॅ कि कल आवै, हुनी मन केॅ शांत करी लेलकै।

पर दूसरो दिन दुपहरिया तक गोतिया के एक्को लोग हुलकै लेॅ नै ऐलोॅ छेलै। हों कुलपुरहैत ज़रूरे आवी गेलोॅ छेलै। हुनकै सेॅ सुधीर बाबू जानलेॅ छेलै कि गाँव के अधिकतर बूढ़ोॅ बुजुर्ग आबेॅ जीत्तोॅ नै रहलोॅ छेलै। विशना केॅ तेॅ घरे उजड़ी गेलोॅ छेलै, महादेवा के कारण। कोर्ट कचहरी मेॅ फँसाय देलकै, तेॅ डीह तक बिकी गेलै, आखिर गाँव छोड़ी केॅ शहर में मजूरी करै छै...हौ जे दुर्गाथान लेली पाँच कट्ठा जमीन वीरू बाबू देलेॅ छेलै, वहू लेली पाँच साल तांय गाँव में कुहराम होतेॅ रहलै। बाद मेॅ वीरू बाबू चार कट्ठा फेनू अपनोॅ नाम सेॅ लिखाय लेलकै, बस मेंढ़ बिठाय भर जग्घोॅ छोड़ी देलकै, आरो आगू के कुछ जमीन ताकि लोग आवेॅ-जावेॅ सकेॅ। दुर्गाथान लै केॅ हेन्हे कुहराम मचलोॅ छेलै कि साल भरी लोग वीरू बाबू कन आना-जाना छोड़ी देलेॅ छेलै, लेकिन कत्तेॅ दिन बोला-बाजी बन्द करतियै। वीरूओ बाबू कहाँ रहलै। हुनको मरथैं सब जमीन बेची बाची हुनकोॅ लड़का सिनी पटना मेॅ मकान खरीदी केॅ बसी गेलोॅ छै।

पुरहैत के बेटा सेॅ सुधीर बाबू जानलेॅ छेलै कि लाल पोखर तेॅ कहिया भताय-उताय केॅ सोॅर बराबर होय गेलोॅ छेलै। गाँव भरी के कूड़ा-कर्कट, प्लास्टिक पन्नी लाल पोखर मेॅ आवी के गिरतेॅ रहलै। आरो जबेॅ पोखर भताय गेलै, तेॅ सुरेशे बाबू के गोतिया ऊ पोखरी के चारो दिश के जमीन दाबी चाँपी लेलेॅ छै। अमीनोॅ-मुहरिरोॅ केॅ लै-दै केॅ कागजो पक्की करवाय ले लेॅ छै।

सुधीर बाबू केॅ ई सब बातेॅ पर केन्होॅ केॅ विश्वास नै होय रहलोॅ छेलै मतरकि पुरहैत के बेटा झूठो तेॅ नै बोलेॅ पारेॅ। भला हुनी झूठो कथी लेॅ बोलतै। एक क्षण लेली सुधीर बाबू मनोॅ में सोचतेॅ पूछलेॅ छेलै, "अच्छा छोड़ोॅ ई बातोॅ केॅ, कल तोहें हमरोॅ साथ रहियोॅ, ज़रा वैद्य काका के यहाँ जाना छै।"

"के वैद्य काका, भूटो काका?"

"हों-हों हुनिये।"

"हुनी तेॅ दसो साल पहिलै गाँव छोड़ी देलकै।"

" जबेॅ विशने आरो विशू बाबू गाँव छोड़ी देलकै, तेॅ भूटो काका केॅ गाँव छोड़ै मेॅ कत्तेॅ देर लागतियै, नै जोरू नै जमीन। शीशी बोतल, जड़ी-बूटी संभालकै, आरो एक दिन रातो-रात गाँव छोड़ी देलकै।

"लेकिन कैन्हें?"

"आबेॅ हुनकै सेॅ रोगे के देखाय छेलै।"

"से कैन्हेॅ, हुनी ते नहियो देखी केॅ हर रोग केॅ जानी लै छेलै।"

"से बात तेॅ ठीक छै, मजकि है गाँव मेॅ जहिया से एम. बी. बी. एस डॉ। धरमचन्द आवी गेलोॅ छौ नी, भूटो काका के पास कोय जइये लेॅ नै चाहै।"

"कैन्हें की कहियौं। हुएॅ सकै छै, भूटोका के दवाय से रोग हफ्ता भरी मेॅ ठीक हुऐ, आरो डॉ। धरमचन्द के देलोॅ टेबलेट सेॅ तेॅ घण्टा भरी में रोग दूर।"

"लेकिन भूटोका के दबाय रोग केॅ जोड़ सेॅ दूर करै छेलै।"

"हौ बात तेॅ तोहें ठीक कहै छौ, मतरकि लोगोॅ केॅ नै जानौ कैन्हें ई विश्वास भै गेलै। कि पुड़िया-तुड़िया सेॅ रोग एकदम सेॅ नै जाय छै।"

"उलटे बात।"

"आबेॅ जे कहोॅ। डॉ। धरमचन्द के जाँच पर आरो हुनके अंग्रेज़ी दवाय के दुकान में जे रं भीड़ लागलोॅ रहै छै कि हुनका कन अदना रोगोॅ के मरीज नै जाय। टेबलेट के सामना में काढ़ा के पीयै लेॅ चाहतियै। अपना केॅ बेकार कुर्सी केॅ भूटोका गामे छोड़ी देलकै।"

"ई अच्छा नै होलै।"

"आबेॅ लोगो केॅ बुझाय छै" पुरहैत के बेटा कहलकै, " एक-एक टेबलेट के बीस-बीस चालीस टाका लागै छै, डाक्टरी फीस अलग, आरो खांसियो बाद खून-पेशाब जाँच कराबोॅ। चूसी रहलोॅ छै। तखनी तेॅ भूटो का पाँच टाका में मियादी बोखार छुड़ाय दै छेलै। भले पाँच दस रोज लगी जाय, लेकिन जड़ी से रोग जाय छेलै। हुनकोॅ आखरी रोगी हमरे बाबू जी छेलै। की रं नाभि जलै छेलै, पेशाब तेॅ जेना आगिन। पाँच रोजोॅ मेॅ हेनोॅ ठीक होलै कि बाबू जी दस साल तक घरोॅ के खेत-बारी देखतेॅ रहलै।

सुधीर बाबू केॅ लागलै कि हठाते हुनकोॅ आँखी के सम्मुख अन्हार उतरी गेलोॅ रहेॅ। हुनी एक दाफी अपनोॅ मुण्डी केॅ हौले सेॅ झटकैलकै, अरो दायां हाथ सेॅ माथा सहलैतेॅ कहलकै, आपनेॅ तेॅ पुरहैत छेकियै, आरो हमरा सिनी के कुलपुरहैत। की आपनेॅ हमरा ई गाँव के नया दस-बीस छवारिक सेॅ परिचय नै करवाय देवै। "

"हों-हों, कैन्हेंनी...मजकि एत्तेॅ-एत्तेॅ छवारिक मिलथौं कहाँ सेॅ। सब तेॅ दिल्ली पंजाब, आसाम में कमाय छै, हों एक दू मिलेॅ पारेॅ।"

"की बोलै छियै आपनें।"

" एकदम सच बोलै छियौं। मजकि छवारिकोॅ सेॅ तोरा मतलबे की? इस्कूल चलैवोॅ की? लेकिन इस्कूल चलथौं की! ई गाँव मेॅ तीन-तीन ठो अंग्रेज़ी इस्कूल बच्चा वास्तें खुली गेलोॅ छौं।

"आरो हौ सरकारी इस्कूल?"

"ऊ तेॅ बन्दे दाखिल समझोॅ। आधोॅ हिस्सा मेॅ तेॅ मुखिया के मवेसी बंधे छौं, बाकी में पाँच ठो मास्टर आवै छै। सब अपनोॅ-अपनोॅ गाँव सेॅ। कभी बारह बजेॅ कभी एक बजेॅ। हाजरी बनैलकौ, आरो दू-तीन बजतेॅ-बजतेॅ रास्ता लेलकौं। एक्को लड़के नै आवै छै, मास्टरो की करतै।"

"कहतेॅ-कहतेॅ पुरहैत के लड़का हठाते चुप होय गेलोॅ छेलै। अच्छा छोड़ोॅ ई सब बातोॅ केॅ। आबेॅ ई तेॅ बतावोॅ कि तोहें यहाँ अब स्थायी रूपोॅ सेॅ रहै लेॅ नी ऐलोॅ छोॅ। नौकरी तेॅ पूरा होइये गेलोॅ होथौं?"

"नौकरी तेॅ पूरा होय गेलै, लेकिन यहाँ हम्मेॅ रहै लेॅ नै ऐलोॅ छियै। शहर के मकान छोड़ना छेलै, तेॅ एत्तेॅ-एत्तेॅ सामान कहाँ रखतियै, से यहाँ आवी केॅ राखी देलियै। ऐलोॅ छियै, तेॅ हफ्तादस रोज रहौ पारौं।" सुधीर बाबू बड़ी भारी मनोॅ सेॅ कहलेॅ छेलै।

लेकिन पाँच रोजोॅ सेॅ अधिक हुनी गाँमोॅ मेॅ नै रहलोॅ छेलै। दू-तीन दिन तांय तेॅ गाँमोॅ के लोगे हुनका नद्दी-बहियार दिश घूमतेॅ देखलेॅ छेलै, फेनू हठाते गाँव वाला सुनैलकै कि सुधीर बाबू अपनोॅ घरोॅ के ताला-चाभी पुरहैत के बेटा सुकान्तोॅ के हाथोॅ मेॅ थमाय केॅ अपनी पत्नी साथे वहाँ शहर लौटी गेलोॅ छै, स्थायी रूपोॅ सेॅ बसै लेॅ।