वापसी / प्रेम कुमार मणि

Gadya Kosh से
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यूँ तो हफ़्ते भर से बीमारी को लेकर खुसुर-पुसुर मची थी, और इस बात की चर्चा थी कि कारख़ाना कभी भी बन्द हो सकता है, लेकिन आज ऐलानिया तौर पर कह दिया गया था कि कल से फ़ैक्ट्री अगले आदेश तक के लिए बन्द की जा रही है। मज़दूरों को कुछ समझ में नहीं आया कि आख़िर मामला क्या है। इस जीवन में जाने कितनी बीमारियाँ आईं और गईं, लेकिन ऐसा कोहराम कभी नहीं देखा था। इसी शहर में प्लेग, डेंगू, मलेरिया, मियादी और खोंखी-सर्दी के जाने कितने रेले आए और गए। मज़दूर टस से मस नहीं हुए थे। लेकिन महामारी की इस ख़बर ने शहर में दहशत फैला दी थी। स्वस्थ-टाँठ लोग भी मुँह पर पर पट्टी बान्ध कर चल रहे थे। दुनिया भर में इस बीमारी का ज़ोर है, ऐसी बात कही जा रही थी।   गोबरधन इसे अफ़वाह बता रहा था। उसका कहना था, बीमारी भी कोमल सुकुमार देह देख के पड़ाव डालता है. खिच्चा मांस और ताज़ा खून मजूर के देह में कहाँ से मिलेगा। रोज़ तो मच्छर जाने केतना नहीं खून पी जाता है। रात को एक दफा जो नींद आती है भोर में मुर्गे की बोली सुन कर ही खुलती है। दिन भर खटने के बाद रात को थकान के मारे खाने का जी नहीं करता। लेकिन नहीं खाएगा तो अगले रोज़ की खटाई फिर कैसे होगी। इसलिए चार रोटी दबानी ही होती है। यही तो मजूर की जिनगी है। 

महेन्दर, रामविलास और सिवचंदर सरिया बनाने के एक छोटे-से कारख़ाने में काम करते थे, जिस में कुल जमा तीन सौ मज़दूर थे। रात-दिन तीन पारियों में काम होता था। फ़ैक्ट्री की चिमनी कभी बन्द नहीं होती थी। स्क्रैप गलाकर सरिये की ढलाई की जाती थी। यादव सरिये का दिल्ली के आसपास के कई ज़िलों पर अच्छा कब्ज़ा था। कुछ साल के भीतर ही कम्पनी कहाँ से कहाँ पहुँच गई थी। हल्ला था, मालिक सीमेण्ट की फ़ैक्ट्री डालने का भी मंसूबा बाँध रहा है। सिवचंदर सोचता था, ऐसा हुआ, तो मनेजर साहब का गोड़-हाथ पकड़ कर अपन छोटे भाई का भी कोई बंदोबस्त करवा लेगा, जो गांव में बहेंगवा बना मटरगस्ती करता है और बूढ़े बाप पर बोझ है। गाँव अब रहने लायक जगह नहीं रह गई है। उसे खूब अच्छी तरह याद है कि महेन्दर भाई किस तरह उसे साथ लाया था। रामविलास और वह साथ-साथ ही आए थे। रेल से जहाना-गया तो खूब किया था और कई बार पटना भी आना-जाना हुआ था, लेकिन पहली बार उसने दिल्ली की यात्रा की थी। दिल्ली देस नहीं, परदेस है; पराया देस। सब कुछ अजगुत-अजगुत लग रहा था। टीशन पर उतरा तो भीड़ देख माथा चकरा गया। चुपचाप महेन्दर भाई के पीछे लगा रहा। एक बार तो उसकी तरह का शर्ट देख कर वह दूसरे के पीछे लग गया, तब पीछे मुड़ कर महेन्दर भाई ने ही टोका। इस तरह बचते-बचाते उसके ठिकाने पर आया। महीना भर उजबक बना रहा था। एक-एक बात समझनी पड़ती थी। बोली-चाली, खान-पान में भी बड़ा भेद था। जीवन के तौर -तरीके भी भिन्न। फिर भी यह नई दुनिया थी।

गाँव की तरह खुली हवा और मोरहर का किनारा भले नहीं हो, भय नहीं था। खाने के लिए चार रोटियाँ मिल जाएँ और पुरसुकून शांति — तब उसे और क्या चाहिए। दिल्ली में भीड़-भाड़, कोंचा-कोंची चाहे जितनी हो, रणवीर सेना नहीं थी, इतना ही काफी था। वह महेन्दर भाई के प्रति कृतज्ञ था। उसने ठान लिया था कि महेन्दर भाई को कभी बेइज़्ज़त नहीं होने देगा। इतने साल हो गए, उसने कोई ऐसा अवसर नहीं आने दिया। तीनो दस गुना दस के एक ही कमरे में रहते। उसी में खाना पकाने का कामचलाऊ सरंजाम होता। नीचे फ़र्श पर ही दरी बिछाकर तीनों एक साथ सो जाते। तीनों में कोई भी आलसी नहीं था। अपने क़िस्म का अपनापा और प्रेम भी तीनों में था। हालाँकि तीनों की ज़ात तीन थीं, लेकिन मन ऐसा एक था जितना रामायण में राम के भाइयों का भी नहीं था। छुट्टी के रोज़ जब इत्मीनान का वक़्त होता तो महेन्दर कहता था हम लोग राम भरत लछुमन तो हो गए, लेकिन एक सतरोहन बाक़ी है।

किसी सतरोहन को ढूँढ़ लाना है। सिवचंदर का ध्यान अपने भाई पर टिका था। कहता — सतरोहन भी जल्दी आ जाएगा, महेन्दर भाई। काम तो ढूंढ़िए पहले। यहाँ लाकर बोझ तो नहीं न बनाना है। तीनों जने बिहार के जहानाबाद ज़िले के थे। उनका गाँव बहुत ही पिछड़े इलाके में था। जब नक्सलवाद की आंधी उठी, तब अन्य गांवों की तरह उनका गांव भी उसका अखाड़ा बना। खातेदार मालिकों और जोतदार रैयतों के बीच तनातनी बढ़ने लगी। भूमिधारियों की रणवीर सेना ने जब गाँव पर पहली दफ़ा आक्रमण किया तो दस लोग मारे गए, दूसरी दफ़ा में नौ। लाल सेना ने जवाबी कार्रवाई में बगल के गाँव में इसके दुगुना यानी अड़तीस का सफ़ाया कर बदला लिया और हंगामा मच गया। किसी का भी गाँव में रहना अब सुरक्षित नहीं था। जवाबी हमले के डर से लोग गांव छोड़कर जहाना शहर आ गए। रिक्शा-ठेला चलाएंँगे, लेकिन गाँव नहीं जाएँगे। गांव अब इनसान के रहने की जगह नहीं रह गई थी। इलाका आग की झील बन गया था। इसी माहौल से कोई बीस साल पहले थोड़ा आगे-पीछे तीनों आए थे। महेन्दर सब से पहले आया था। उसने दो साल तक पंजाब के एक गांव में खेतिहर मजूर का काम भी किया था।   बीते सालों में दिल्ली धीरे-धीरे अपनी हो गयी लगती थी. यहाँ तक कि खांटी पंजाबी गालियाँ भी सब ने सीख ली थीं. खड़ी बोली में मगही जुबान के तड़के लगा कर एक अलहदा-सी जुबान भी गढ़ ली थी. सड़क किनारे लगने वाले बाजार से सेकंड हैंड कपडे भी दो-दो जोड़ी थे, सब के पास. बैंक में सब के खाता थे और पाँच-दस हजार उन खातों में जरूर पड़े रहते थे. तीनों दो हज़ार महीना के हिसाब से घर भी भेजते थे. गाँव की जिंदगी में इसी से उनके घरों में उछाह आ गया था. एक ही साथ तीनों ने अलग-अलग ट्रांसिस्टर रेडियो अपने घरों के लिए ख़रीदे थे, जो कई साल से उनके घरों को संगीतमय रखते थे. तीनों की बीवियाँ नियमित उनसे फोन पर बतियाती थीं. 

इधर कुछ सालों से गाँव में शांति थी. खून खराबा बन्द हो गया था. गाँव तक जाने वाली पगडंडी पक्की सड़क में बदल चुकी थी. और भी बहुत कुछ हुआ था. हल-बैल वाली खेती बन्द हो गयी थी. पूरे गांव में किसी के दरवाजे पर अब बैल नहीं थे. ट्रेक्टर-कटर-थ्रेसर से पूरी खेती होती. ढेंकी-ओखली-मूसल सब जाने कहाँ चले गए थे. आधे गांव में लकड़ी-गोइठा की जगह गैस स्टोव से खाना पकने लगा था. बीपीएल कार्ड पर सब को चार रूपये किलो के हिसाब से पैंतीस किलो गेहूं-चावल मिलने लगे थे. बुढ़ापे का पेंशन माँ-बाबू को मिलने लगा था. और सब से बड़ी बात गाँव से बुरी खबरों का आना बन्द हो गया था. कुछ साल बंद रहने के बाद खेती-बारी की फिर से शुरुआत हो गयी थी. लोग जहाना से एक बार फिर गॉँव लौट आये थे. तीनों सोचते थे, अपने इलाके में ही ऐसा कारखाना बैठ जाता और वही जॉब मिल जाता, तब इतना दूर पराये देस में काहे रहते. एक बार सुनने में आया कि वहां भी कुछ कल- कारखाना खुलने वाला है. लेकिन यह अफवाह था. चुनाव के वक़्त का झूठा वायदा. दसियों साल बीत गए और कहीं कुछ नहीं हुआ, तो सब ने मान लिया अपने देस में कुछ होने वाला नहीं है. जिंदगी जीना है, तो मन को मारना होगा. घर-परिवार से दूर वनवास की यह ज़िंदगी जो जीता है, उसी को इसका भाव मालूम होता है. लेकिन, जैसा कि एक फ़िल्मी गीत है ना! ‘ज़िंदगी तो जीना ही पड़ता है. यदि यह जहर भी है, तो पीना ही पड़ता है.’ लेकिन, मैंने इन सब के इतिहास की नहीं, फ़िलहाल की कहानी कहने के लिए आपको आमंत्रित किया है. जैसा कि

मैंने बतलाया कोविड महामारी के बाद इन का कारखाना बंद हो गया. उस रोज यही चर्चा रही कि मार्च महीने के बाद गर्मी बढ़ेगी और इस रोग के भाइरस ताप से मर जायेंगे, जैसे अपने कारखाने में हाई हीट पर स्क्रैप का लोहा पिघल कर कड़ाह के बन रहे गुड़ जैसा तरल हो जाता है. इसलिए बीस मार्च को जब फ़ैक्ट्री बंद की गयी, तब यही अनुमान किया गया कि महीने के आखिर तक के लिए यह बंद हुआ है. लेकिन, इस बीच अफवाहों का बाजार गर्म रहा. गांव से भी जानकारी मिली कि वहां भी स्कूल-कॉलेज सब बन्द हो गए हैं और कोई गांव से नहीं निकल रहा है. इन्हीं अफवाहों को सुनते-सुनाते तीन चार रोज बीते और 24 मार्च को प्रधानमंत्री ने अगले महीने की चौदह तारीख तक के लिए लॉक डाउन की घोषणा कर दी. रेल-जहाज, बस-ट्रक सब बन्द. आनन्-फानन ऐसी कि आठ बजे रात को वह बताते हैं कि आज ही बारह बजे रात से कोई अपने घर से बाहर नहीं निकले. ऐसा फरमान तो आज तक नहीं सुना था. 

प्रधानमंत्री का भाषण तीनों ने एक साथ अपने मोबाइल पर सुना था. तरकारी बन गयी थी और रोटी पकनी बाकी थी. रामविलास ने महेन्दर भाई से कहा- हम को तो खतरा के बात मालूम पड़ रहा है भाई जी. चौदह तारीख आज ही है ? इतना रोज का तनख्वाह मलिकवा बइठा के देगा, आपको लगता है? महेन्दर कुछ नहीं बोला. सिवचन्दर रोटी बेलने में लग गया. खा-पी ले, जो होना होगा सो होगा. प्रधानमंत्री के भाषण के बाद पूरा मुलुक अपने घरों में बंद हो गया. इतना डर कभी नहीं देखा गया था. बीमारी से किस देस में कितने लोग मरे और कैसे मरे, यही चर्चा सब की जुबान पर थी. घर पर सिवचन्दर ने बीवी से बात की तो उसने बतलाया— "इतना डर तो रणवीर सेना का भी नहीं था. का असरफ- टोला और का रेयान-टोला सब एक लेखा डर से घर में घुसल हैं।" महेन्दर उम्र में भी बाक़ी दोनों से बड़ा था, और इसलिए इस छोटे कुनबे का स्वाभाविक गार्जियन था. उसने अगले रोज़ सब के बैलेंस पैसे के बारे में जानकारी ली. तीनों एक साथ एटीएम तक गए और जितना निकाल सकते थे, उतनी रकम निकाल लाये. सब मिला कर बाईस हज़ार निकले. लौटते वक्त देखा, पंसारी की दुकान पर भीड़ लगी है. तीनों ने एक दूसरे को देखा. कुछ खरीदारी कर लेना जरूरी था. आटा, चावल, दाल, आलू जैसी चीजें खरीद कर वे लौट रहे थे कि रामविलास ने टोका, साबुन भी कुछ अधिक ले लेना चाहिए. हाथ को कई-कई बार साबुन से धोना है. लौट कर तीनों फिर दुकान पर गए और साबुन की इतनी अधिक बाटियाँ खरीदी; जितनी आज तक कभी नहीं खरीदी थी.  दिन के तीसरे पहर खा-पी के अपनी खोली में पसरे हुए थे कि महेन्दर के मोबाइल पर किशुन का फोन आया — ‘भाई रे, ई बन्दी अबही जैतो नाय. हमरा तो मकान मालिक डेरा छोड़ने को बोल रहा है. कहता है, जितना जल्दी हो छोड़ दो. अब हम काहाँ जावें भइवा. तोहरे खोली पर आ जावें? महेन्दर क्या जवाब देवे. कैसे मना करे किशुना को. पांच साल पहले बाबू की बीमारी में एक यूनिट खून दिया था अपनी देह का. अहसान एकबारगी कैसे भूल जाय ! न नहीं कर सका. रामविलास और सिवचन्दर ने भी महेन्दर भाई के निर्णय का स्वागत किया. लेकिन फिर तीनों एक साथ डर भी गए. कहीं हमलोग का मकान मालिक भी कुछ टंटा नहीं खड़ा करे. ई मालिक भी कुछ कम हरामी नहीं है. 

महेन्दर ने कई दोस्तों से बात कर इस चीज की जानकारी ली कि क्या गांव लौटना संभव हो सकता है. सब जगह से नकारा जवाब मिला. किसी भी तरह घर नहीं लौटा जा सकता. ख़बरें मिल रही थीं कि हर जगह मजदूरों में बेचैनी है. काम-धंधे बन्द तो इतने रोज परदेश में रह कर क्या करेंगे! जो सुरक्षित घरों में थे, वे लोग इस लॉक-डाउन को लेकर उत्सव मना रहे थे. एक रोज थाली और ताली पीटी गयी, दूसरे रोज दीप जलाये गए. यहाँ खोली में बन्द-बन्द जान पर पड़ी थी. बाहर निकलो तो पुलिस डंडे बरसाती थी. दुबके रहने की भी सीमा होती है. दस गुना दस के कमरे में अब चार जने पड़े अपनी किस्मत को कोस रहे थे. वक़्त काटे नहीं कट रहा था. 

दूसरी दफा जब लॉक डाउन की तारीख बढ़ी, तब मालिक ने खबर ली. मुंह पर पट्टी बाँधे खुद चल कर आया. जब किराया ले लिया, तब बोला कि अगले महीने से घर खाली करना है. और नहीं करना है तो तीन महीने का एडवांस किराया जमा करना है. महेन्दर को मालिक पर दया आई. बोला — "इतने साल से आपके किरायेदार हैं. हम किराया देने में कभी हील- हुज़्ज़त करने गए ? और आप इस आफत की घड़ी में हम पर अविश्वास कर रहे हैं ? हम आपका किराया लेकर भाग रहे हैं?"  मालिक तो मालिक था. उसने कड़ाई से कहा — "हम भाषण सुनने नहीं आये हैं. एडवांस दो, या डेरा छोडो।" फरमान सुना कर वह क्षण भर नहीं रुका. मालिक के जाने के बाद चारोँ ने बैठ कर परिस्थितियों का आकलन किया. क्या किया जाय, कैसे किया जाय. राशन-पानी भी सीमित थे. पैसे बहुत थोड़े बच गए थे. बैंक भी खाली कर चुके थे. फ़ैक्ट्री से कुछ मिलने की उम्मीद नहीं. मालिक का ऐसा व्यवहार! आफत ही आफत. बीमारी से भी बड़ी विपदा तो इन पर अभी आ पड़ी थी. क्या किया जाय? 

(दो) 

तीसरे रोज सुबह-सुबह किशुन का मोबाइल टनटनाया. पंकज का फ़ोन था. नरेला से पचास से अधिक साथी पैदल आनंद विहार टर्मिनल की तरफ कूच कर गए हैं. वहां से सरकार रेल और बस से अपने मजदूर भाइयों को अपने वतन बुलाने का बंदोबस्त करेगी. यूपी की सरकार तो अपने मजूर भाइयों को पूरी दुनिया से बटोर रही है. कल तक का समय है. 'पहले आओ, पहले पाओ' की नीति. जो जिस क्रम में टर्मिनल आवेगा, उसी क्रम में उसका नंबर लगेगा. हजार रुपया पर हेड का किराया. अपने जानते किशुन ने ठीक से जानकारी ली, लेकिन महेन्दर भाई से भी बात कराना जरुरी समझा. महेन्दर कुछ उत्साह में आ गया. तरकारी बनाने के लिए आलू-भंटा की कटाई हो चुकी थी, और आटा गूँथा जा रहा था.

महेन्दर ने भी प्रधानमंत्री की ही स्टाइल में आनन-फानन हुकुमजारी किया-तो साथियो, तैयार हो जाओ. चलो अपने देस!!  -चलो. चलो अपने देस! चारों एकबारगी उत्साह में आ गए. लगा स्वर्ग से बुलावा आया है. महेन्दर, सिवचन्दर और रामविलास का गांव तो एक ही था, किशुन का गांव गया के पास था. सब की दिशा एक ही थी. तय हुआ, दो-दो रोटी पेट में डाल लिया जाय. रामविलास भोजन को पेट्रोल कहता था. उसके लिए भोजन की यही अहमियत थी. चलना है तो पेट में कुछ होना जरुरी है. डेग लम्बा-लम्बा मारना है. यह भी चिंता थी कि टर्मिनल पर जल्दी पहुंचना है. नहीं तो नंबर पीछे चला जायेगा. जल्दी-जल्दी तरकारी बनी. रोटियाँ पकाने में जल्दीबाज़ी हुई तो कुछ जल गयीं, कुछ अधपकी रह गयीं. लेकिन घर-वापसी के उत्साह में सब ने चार-चार के हिसाब से जल्दी-जल्दी खायी. एक रोटी बच गयी, तो बड़े प्रेम से दूर खड़े कुत्ते को आवभगत के साथ बुला कर दिया. जल्दी- जल्दी कपडे समेटे. सिवचन्दर के अलावा तो किसी ने नहाया भी नहीं था. नहान-धोन का समय नहीं था. जल्दी कूच करने की हुद थी.  "अपना -अपना गमछा जरूर ले लेना है. मुंह ढाँपे चलना है. सरकार का नियम है." महेन्दर ने चेतावनी दी. "और लाइफ़बॉय साबुन धोकड़ी में ही रखना है साथी." रामविलास ने पूरक चेतावनी दी. रामविलास ने बचे हुए आटा और आलू प्याज को भी पॉलीथिन में बाँध कर एक अलग थैले में कर लिया. थोड़ा सत्तू भी बचा हुआ था सब को इसी के साथ रख लिया. पानी रखने के लिए दो खाली बोतलें भी रख ली. पता नहीं कब किस चीज की जरूरत पड़ जाय. गृहस्थी की समझ रामविलास को कुछ अधिक ही रहती है. 

नौ बजे तक चारों मुख्य सड़क पर आ गए थे. सबकी पीठ पर प्लास्टिक का थैला. गले में गमछा, पॉकेट में साबुन. दिल में जज्बा. चलो-चलो अपने गाँव!! चलो अपने देस!! महेन्दर जब से परदेस में रह रहा है जाने कितनी दफा अपने गाँव आया-गया है. लेकिन इस बार का जाना, जैसे दिल्ली से विदाई की तरह का है. बीस साल से यहाँ है. यह भी पता है दिल्ली वालों के पास सब कुछ है दिल नहीं है. लेकिन ईमान- धरम भी नहीं है, यह इस बार पता चला. इतना निठुर हुआ जाता है भला! मकान मालिक को देवता आदमी समझता था. बाप की बीमारी में भी किराया बाकी नहीं रखा. सबका सिला यही दिया कि इस आफत की बेला में अपना असली चेहरा दिखला दिया. कर्कट की छावनी वाली बित्ता भर की कोठरी का दो हज़ार महीना देता है. दो हज़ार ले कर हम भाग जावेंगे, यही न सोचा इस ने? यही है इंसानियत. ओह! किसे क्या कहे. फैक्ट्री अचानक से बन्द कर दी. यह भी नहीं सोचा कि बन्द कर रहे हैं, तो कुछ एडवांस का इंतज़ाम कर दें. मजूर क्या खाएंगे, इसकी चिंता नहीं की. सरकार का एलान होता है कि मजदूर वापस घर नहीं जाएँ. मजदूर क्या करें ? मरें? 

मुख्य सड़क पर आते-आते मजदूरों की भीड़ बढ़ती चली जा रही थी. तरह-तरह के ठिकानों पर काम करने वाले. दिहाड़ी मजदूर. रिक्शा- ऑटो ड्राइवर, मिस्त्री, कुली-खलासी से लेकर घरेलू काम करने वाले स्त्री- पुरुष. सड़क पर मानो मजदूरों की रैली निकली हो. एक जनसमंदर बनता जा रहा था. ये तमाम लोग 'बाइली' थे- बाहरी. दिल्ली उनकी नहीं थी. दिल्ली तो सेठों, नेताओं और ठेकेदारों की है. मजदूरों ने उसे गढ़ा, बनाया, संवारा, लेकिन खुद बाइली बने रहे. उसने सुना था कि यह पृथ्वी शेषनाग के फन पर स्थित है. फन पर यह धरती माता है या नहीं, पंडित लोग जानें; लेकिन यह दिल्ली और दुनिया के सारे शहर जरूर मजदूरों के कंधे पर खड़े हैं. मजदूर अपना कन्धा हटा लें, तो ये सारे शहर भहरा कर गिर पड़ेंगे. 

लोग कदम-कदम बढ़ रहे थे. चुप-चाप. एक ही संकल्प कि गाँव-घर जाना है. अधिकांश लोग बिहार-पूर्वी उत्तरप्रदेश के थे. चलते-चलते किसी का मोबाइल टनटनाता और वह उसे कान से सटा लेता. बीच-बीच में कोई खबर भी फ़ैलती. सरकार रुकने के लिए कह रही है. ‘साली सरकार! पंद्रह रोज से भूखे बिलबिला रहे थे, तब पूछने नहीं आया कोई. अब रुकने को कह रहे हैं. उनके भोसड़ा में डेरा डालें? आयं!’ ‘मकान मालिक डंडा किये था, तब नहीं पूछने गए कि बेचारों पर रहम करो. जिनके घरों में वर्षों से झाड़ू-पोछा किया, उनसे मिलने गए तो ऐसा मुँह फेर लिया कि कभी देखा ही नहीं हो.’ जितने लोग उतनी बातें. सब के मन में झंझावात चल रहा था. लोग मौन थे. लेकिन ज्वालामुखी की तरह उनके दिल सुलग रहे थे. महेन्दर ने भी आज तक अनुमान नहीं किया था कि शहर में इतने मजदूर हैं. पता नहीं क्यों उसे कुछ उत्साह जैसा अनुभव हो रहा था. एक बार तो उसके मन में आया कि तमाम मजदूर टर्मिनल की तरफ नहीं जाकर यदि जो प्राइम मिनिस्टर की कोठी पर ही धावा बोल दें तो कैसा रहे. आओ प्रधानजी, करो चाय पर चर्चा. बहुत करते हो अपने मन की बात, इस दफा हमारी भी सुनो! सब के मन में कुछ न कुछ फूट रहा था. भीड़ ऊपर से चाहे जितनी शांत हो, भीतर-भीतर विचलित और बेचैन थी. 

सिवचन्दर को कभी कोई गंभीर बात दिमाग में नहीं आती. सुधुआ है. पेट भरे सो काम! उसने प्रेमपूर्वक कहा — "महेन्दर भाई, बहुत रोज से आप सतरोहन ढूँढ रहे थे." किशुन की तरफ इशारा कर कहा — "आ गए आखिरी बेला में सतरोहन। यह कैसा रमैन-पाठ है भाई कि चारों भाई बन से अजुध्या जी लौट रहे हैं"   रामविलास को बात कुछ अच्छी लगी. उसे घर जाने का उत्साह कुछ अधिक था. खी-खी दाँत निपोर कर उसने खुश होने की कोशिश की — "ठीक कहा चन्दर भाई, हमलोग अजुध्या जी को चल दिए हैं." उसकी दादी रमैन का कलेजा छूने वाला गीत गाती थी. अजुध्या जी में मूसलधार बरखा हो रही है. राजमहल में बैठी कौशल्या माता रो रही है कि इस बरखा में उनके राम-लखन भीग रहे होंगे. भीगत होइहें राम- लखन दुनो भाई. रामविलास के मन में चलचित्र की तरह दृश्य उभर रहे हैं. जब दादी यह गीत गाती थी,तब एक बार उसका आँचल पकड़ कर उसने पूछा था- सीताजी के लिए कौशल्या माता नहीं रोती थी दादी?  "मेरा रामविलास !" दादी ने कलेजे से सटा लिया था. "तू बड़ा दयालु होगा रे!" दादी को कभी नहीं भूल पाता रामविलास. दादी मानुष नहीं देवी थी, देवी. उसकी आँखें भीग गयीं. क्या हमारे लिए भी कोई रोता होगा ? उसे पहले बीवी का ख्याल आया. फिर माई का. दादी तो अब इस दुनिया में नहीं है. वह जरूर हमारे लिए रोती. अचानक उसके मन में गीत की एक लड़ी इठलाई —  

कदम-कदम बढ़ाये जा 

ख़ुशी के गीत गाए जा 

यह ज़िन्दगी है कौम की

तू कौम पे लुटाए जा.... 

(तीन) 

ले बलैय्या ! हुआ बखेड़ा ! 

कारवां अभी यमुना पुल के इसी पार था कि भीड़ में खल-बली मची. खबर फैली कि पुलिस टर्मिनल से लोगों को खदेड़ रही है. लाठी-चार्ज कर रही है. आंसू गैस छोड़ रही है. यह भी कि रेल और बस खुलने की बात भी पूरी तरह अफवाह है. सरकार ने लाठी-चार्ज के अलावा और कोई व्यवस्था नहीं की है. यह तो हतप्रभ करने वाली खबर थी. भीड़ समंदर की लौटती लहरों की मानिन्द वापस लौट रही थी. कुछ लोग सड़क किनारे सुस्ताने के लिए बैठ गए थे. ये चारों भी सड़क किनारे खाली घासदार जगह देख बैठ गए. अब क्या किया जाय; यह उनके सामने यक्षप्रश्न जैसा था. चारों ने एक दूसरे को देखा और फिर चुप लगा गए. सबकी नजर केवल महेन्दर पर थी. अब तो न घर के रहे, न घाट के. शाम होने को थी और कोई निर्णय करना जरुरी था. महेन्दर ने डेरा के बगल वाले साथी सुनील गोंड को फोन लगाया, जो मध्यप्रदेश का था और परिवार के साथ रहता था. उसका डेरा छोड़ने का कोई इरादा नहीं था. वह जानना चाहता था कि क्या हाल है. यह भी कि बाजार करने के लिए हमलोग दूर आ गए हैं और लौटने में देर हो सकती है. 

उधर से जो खबर मिली वह उदास करने वाली थी. सुनील ने कहा- कोई बारह बजे मकान मालिक आया था. हमसे भी पूछ रहा था कि लोग कहाँ गए. किसी ने उसे बता दिया था कि आपलोग बिहार के लिए चल दिए हो. कुछ समय बाद वह फिर आया और उसने बड़ा- सा ताला कमरे पर जड़ गया. सुनील का कहना था, आपलोग मकान मालिक से चाबी लेकर ही इधर आओ. नहीं तो दिक्क्त होगी. महेन्दर ने सभी साथियों को बात बतला दी. सब के मुंह लटक गए. अब क्या किया जा सकता है ? 'साथी चिन्ता करने से कुछ नहीं होगा. जो होगा, देखा जायेगा. यह किसी एक का निर्णय नहीं है, सबका निर्णय है. हमलोग सब कुछ हार चुके हैं साथी, हिम्मत हार गए, तो कही के नहीं रहेंगे." रामविलास ने अपने अंदाज में सब को सम्बोधित किया था. सिवचन्दर ने हामी भरी. किशुन ने जब आहत स्वर में कहा कि लगता है मुझी से गलती हो गयी, तो महेन्दर ने उसका हाथ दबाया- नहीं किशुन भाई, रामविलास ठीक बोल रहा है, डेरा छोड़ना और घर के लिए चलना सब का फैसला था. हम ही लोग क्यों इतने हज़ारों लोग तो इस कारवां में हैं. हम मजदूरों की तकदीर ही ख़राब चल रही है भाई. सब कुछ हमारे खिलाफ हो गया लगता है. ई स्साली सरकार भी हम लोगों को ही तंग-तबाह कर रही है. 

सिवचन्दर ने देखा की थोड़ी दूर एक जगह चाय बिक रही है. रामविलास को वह खींच ले गया और चाय की प्यालियाँ ले आया. चारों ने चाय पी. फोन पर इधर -उधर की जानकारी ली. फिर सभी उसी घास पर ढह गए. थके थे, इसलिए थोड़ा आराम कर लेना जरूरी समझा. 

मोबाइल पर समय देखा तो सात बज रहे थे. शाम गहराने लगी थी. रौशनी में सारा शहर नहा चुका था. सुबह की चार रोटियों के सिवा दिन में किसी ने कुछ और खाया भी नहीं था. सिवचन्दर बोतल में पानी भर लाया और जुगाड़ी रामविलास ने अपने थैले से बड़ा -सा कटोरा और गिलास निकाला और सत्तू का घोल तैयार किया. सब ने एक-एक गिलास सत्तू का घोल पीया, तब जान में जान आयी. 

इसी जान और जोश में महेन्दर ने अपना संकल्प अनुमोदन के लिए साथियों के सामने रखा — "हमलोग रुकेंगे नहीं साथी. यात्रा जारी रहेगी. दिल्ली के हालात भी ठीक नहीं हैं. लोगों के व्यवहार बदल रहे हैं. और तो और ससुरी सरकार डरी हुई है. यदि हमलोगों को मरना ही है तो अपने लोगों के बीच में मरेंगे. हज़ार किलोमीटर की दूरी है. हमारे ही इलाके के थे पहाड़-पुरुष दशरथ मांझी. सुना था वह दिल्ली पैदल ही आये थे एक बार. हमलोग चार हैं. हमलोग दिल्ली से अपने देस पैदल ही नहीं जा सकते क्या? चलेंगे, चलते रहेंगे, चाहे जितने रोज में पहुंचें. जहाँ चाह,वहाँ राह. थकान से देह में जितनी ऊर्जा थी,उसमें पूरे उल्लास के साथ साथियों ने एक साथ कोहराम किया — "हमलोग धरती नाप देंगे साथी. इतिहास बनाएंगे हमलोग." सिवचन्दर को हाई स्कूल में पढ़ी कविता की पंक्तियाँ याद आई और उसने उसे नारे की तरह पूरे वेग में उछाला – 

मानव जब जोर लगाता है 

पत्थर पानी बन जाता है. 

सिवचन्दर पागलों की तरह चिल्लाया — इन्किलाब ज़िंदाबाद.  किशुन ने फोन पर बेहतर रुट की जानकारी ली. महेन्दर ने उसे इसी बात का जिम्मा दिया था. भोजन की जिम्मेदारी सिवचन्दर- रामविलास को थी. बाकी काम के लिए महेन्दर था. चलने के पहले बोखार और दर्द की दवा रख लेना जरुरी समझा गया. जूतों के हाल लिए गए. चलेंगे. साथ देने लायक जूते थे. तय हुआ कि कल भोर से हमलोग यात्रा शुरू कर देंगे. बगल के पार्क में सबने पड़ाव डाले. चाय वाले से बात हो गयी कि अपनी भट्टी पर वह बीस रुपया लेकर खाना पकाने देगा. बर्तन भी देगा. चायवाला भी बिहारी ही था. रामविलास ने जात का हवाला देकर उसे पटाया था. महेन्दर ने कहा — "ऐसे मिजाजी साथी रहें तब इंसान क्या नहीं कर सकता? हिमालय चढ़ सकता है.हमारी यात्रा इतिहास बनाएगी महेन्दर भाई. देखना जब हमलोग गाँव पहुंचेंगे तब लोग हमारी आरती उतारेंगे. दिल्ली से गाँव पांव पैदल जाना इतिहास रच देने से तनिक कम नहीं होगा. अगले चुनाव में हमलोग आपको ही मुखिया नहीं बना दिए तो फिर क्या. देखना क्या करते हैं हमलोग."   अगले रोज अलसुबह चारों जब निकले, तब मोबाइल चार बजने की सूचना दे रहा था. उन्हें उम्मीद थी कि पांव-पैदल यात्रा इन चार जनों की ही होगी. लेकिन कोई दस किलोमीटर चल कर वे जैसे ही एनएच चौबीस पर आए देखा, सैकड़ों लोग इसी तरह पांव-पैदल चल रहे हैं. मानो कोई अदृश्य शक्ति उन्हें खींचे जा रही हो. सड़क पर यह भीड़ लगातार गाढ़ी ही होती जा रही थी. महेन्दर विस्मित था कि इतने लोग चले जा रहे हैं. उसे विश्वास नहीं हुआ तो एक-दो से पूछा और पता चला कि वे सब अपने गाँव जा रहे हैं. उन्हीं से यह भी पता चला कि मुख्यमंत्री ने लोगों को अपनी जगह पर ही रहने को कहा है, और यह भी कि अपने सूबे में वह किसी को घुसने नहीं देंगे. 

महेन्दर स्वभाव से गमखोर और चुप्पा किसिम का आदमी रहा था, लेकिन राहगीर साथी कि इस बात पर उसे गुस्सा आ गया. बोला- सूबा उनकी बपौती है का ? हम तो अपने गाँव जायेंगे, देखते हैं कौन रोकता है. ‘अरे, वो मुख्यमंत्री है भाई. उसके पास पुलिस-फ़ोर्स है. वो नहीं चाहेगा,तो हम कैसे घुसेंगे ?’ ‘हम तो जायेंगे,देखते हैं,कौन रोकता है हम सब को?’ ‘हम से इतना गुस्सा काहे दिखाते हो भाई. हम भी तो आप ही के राह पर हैं. कोई नहीं रोकेगा,तो अच्छा है. और रोकेगा भी तो क्या. कमसे कम हम अपने देस की माटी पर तो मरेंगे.’ 

दोपहर कुछ खाने-पीने के बाद जब चारों कुछ सुस्ताने बैठे तब महेन्दर ने इंगित किया, रामविलास का चेहरा मुरझाया हुआ है. वह चहकता रहता था,लेकिन जरुरत से ज्यादा चुप था. महेन्दर ने पूछा-  'रामविलास, तबियत तो सही है न?’ उस ने 'हाँ' का सिर हिलाया. महेन्दर ने पूछ लिया-'कुछ उदास दिख रहे हो भइवा.' रामविलास ने मुंह लटका

लिया. चिंता से भरे महेन्दर ने फिर पूछा- 'कुछ हुआ तो नहीं? ‘कुछ नहीं.’ ‘तो?’ ‘घर पर फोन किया था भाई.’ ‘हाँ,तो? सब ठीक है न ?’ ‘ठीक काहे नहीं रहेगा. हमारे आप के लेखा कोई मजूर के जिंदगी जी रहा है लोग! ठीक तो रहबे करेगा न!’  कहते-कहते रामविलास की आँखे भर आयीं. तनिक रुक कर बोला- घर का लोग बोल रहा है कि ऐसे बखत में इतना हलकान हो कर आने की कौन जरुरत थी. जादे उम्मीद है कि गाँव में हमलोगों को घुसने नहीं देगा. पंचायत का फैसला हुआ है कि बाइली लोग गाँव में घुसेंगे तो महामारी फैलाएंगे.' ‘यह किसने कहा? ' महेन्दर ने जोर देकर पूछा. ‘घरवाली बोली और कौन बोलेगा.’ ‘तो वह तुम्हारे आने की खबर से खुश नहीं है ?’ ‘नहीं है. कह रही है, आप लोग बीमारी का भाइरस लाइयेगा और कुच्छो नहीं. आने पर भी आप लोगों को घर में नहीं, महीना भर तक स्कूल में रखा जायेगा.’ महेन्दर ने झट से अपने घर फोन लगाया. अब तक उसने फोन नहीं किया था. आने की योजना अचानक बनी थी, भागम-भाग में. इसलिए घर बात करने की फुर्सत नहीं मिली थी. उसने भी फोन बीवी को ही लगाया. वह मानो इंतज़ार ही कर रही थी. उठाते ही झांव से बोली- ‘वाह ! तो चुप्पा-चुप्पा आ रहे है ? कहिया से चले हैं ? जेवार से खबर मिलता है हम को... गाँव भर में हल्ला हो गया है सब के आने का. हम कौन है कि हम को खबर करेगा लोग. घर का मुर्गी दाल बराबर. रामविलास के घर खबर पहिले आता है

और बासी खबर हम को मिलता है.' वह सुपरफास्ट ट्रेन की तरह रुकने का नाम नहीं ले रही थी. बोले जा रही थी- ‘सुने जे बड़ा हलकान हुए आप लोग. बड़ा दुःख हुआ. लेकिन इतना हलकान हो के गाँव आने का कौन जरुरत था.' पूरी बातचीत में उसने हूँ-हाँ भी नहीं किया. बस सुनता रहा और फिर अचानक फोन काट दिया. बोलने के लिए रह ही क्या गया था. काफी देर तक ग़ुम-शुम रहने के बाद उस ने अचानक उपदेशक जैसी मुद्रा बना ली. बोलने लगा- ‘भांड में जाय गाँव-घर और भांड में जाय देस. सब मतलब के लोग हैं. हुंह... सुनता था संसार मोह माया पर टिका है. झूठी बात. स्साला ये संसार भय पर टिका है, डर पे टिका है. लोभ पे टिका है. किसी का कोई नहीं संसार में. झूठा है यह संसार झूठा! ठीक कहा है कबीर सहेबवा..यह संसार झाड़ का झाखड़.. स्साले जिस गाँव के लिए हम चले हैं, वहां हमारे रोकने के लिए बांस-बल्ली लगा रहे हैं लोग. स्कूल में रखेंगे लोग. बीवी आने से खुश नहीं..घर के लोग खुश नहीं...गांव के लोग खुश नहीं, सरकार खुश नहीं... और हमलोग चले हैं अपने देस.. दिल्ली में मकान मालिक ने डेरे में ताला जड़ दिया और गांव के लोग गांव में बांस बल्ली लगा कर रास्ता रोक दिया. सरकार सीमान पर रोकने का फरमान जारी कर रही है. हम कहाँ जाएँ, का करें? हाय री ज़िंदगी! यही है हमारी ज़िंदगी !’ सिवचन्दर सड़क छाप कुत्ते की माफिक मुँह आसमान की ओर करके रोने लगा. महेन्दर भाई को उसने इतना दुखी कभी नहीं देखा था. उसने मानो आसमान को ही सम्बोधित किया- 'हम नहीं जायेंगे गाँव. हम अब रेल की पटरी पर जायेंगे..वहीं कट

मरेंगे...' रामविलास ने सिवचन्दर के कंधे पर हाथ रखा- भाई,पगलाओ नहीं. होश से काम लो. इतना भावुक होने का समय नहीं है. तुम तो इतना होशियार हो. तुम ऐसा सोचोगे तो कैसे होगा. सिवचन्दर रामविलास से लिपट गया. बोला- अब का होगा भइवा? ‘सब अच्छा होगा.' रामविलास बुजुर्ग की तरह बोला. महेन्दर ने कहा- ‘साथी लोग, मेरा बरमण्ड गरम है अभी. सब लोग सोचो क्या करना है अभी ?’ रामविलास और किशुन मानो एक साथ ही बोले- 'गाँव चलो साथी, गाँव, जो भी होगा, जैसा भी होगा, अब वहीं होगा. जान देने से अच्छा है कुछ करना.' सिवचन्दर ने अंतिम बात में अपनी आवाज मिलायी- जान देने से अच्छा है,कुछ करना... चारों ने अपनी गठरी उठाई. उठ कर खड़े हुए और फिर चल दिए. किसी ज़माने में रामविलास ने गाँव में हो रहे नाटक में एक गीत गाया था. उसकी कुछ पंक्तियाँ उसे याद थीं. उसके कंठ में खनक भी थी. वह जोर-जोर से गाने लगा- 

देस हमारा, धरती अपनी 

हम धरती के लाल.. 

नया इनसान बनाएँगे 

नया संसार बसाएँगे..