वालंटियर / पद्मा राय

Gadya Kosh से
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सामने बैठी वीरा दीदी से वह बता रही थी।

"उस दिन मैंने ठान लिया था। अपने बच्चे की बेहतरी के लिये मुझे ही सब कुछ करना होगा। इसलिये चल दी थी।"

"बहन जी, कहां जाना है आपको?" गेट के करीब पहुंचकर ऑटो रिक्शा वाले ने पूछा था।

ध्यान से उस इमारत को देखते हुये मैंने उसे ऑटो रोकने के लिये कहा और उसे पैसे देकर नीचे उतर गयी। रोहित मेरी गोद में था। गेट के पास खाकी वर्दी पहने एक संतरी खडा था। एक रजिस्टर में उसने मेरा नाम, पता और आने का मकसद लिखवाया। उसके बाद मैं आगे बढी। सामने रिसेप्शन दिखायी दिया। मेरे रोहित से मिलते जुलते कई बच्चे उधर से गुजरते हुये दिखायी दे रहे थे। रोहित की उम्र के, उससे छोटे, उससे बडे-हर उम्र के बच्चे वहाँ मौजूद थे। किसी बच्चे को कोई एक प्राब्लम थी तो किसी को दो और किसी-किसी को तो मल्टिपल प्राब्लमस। पैर आगे बढ़ाने में झिझक हो रही थी। रिसेप्शन के पास ही एक विसिटरस रूम था, रिसेप्शनिस्ट ने उसी कमरे में बैठ कर इंतजार करने के लिये कहा। जाकर वहीं बैठ गयी। अभी वहाँ कोई नहीं था। मैं समय से पहले पहुंच गयी थी। यहीं पर आकर मिलने के लिए निर्मला दी ने कहा था। यहां आकर उनसे मिलने के लिये मुझे अपोलो के उसी डाक्टर ने बताया था। पिछले दिनो की बातें अपने आप मेरे दिमाग में रील की तरह घूमने लगीं।

उस दिन भी वही हुआ था, जिसकी आंशंका थी। हर दिन की तरह नाश्ता तैयार करके मेज तक पहुंचने ही वाली थी कि गाडी स्टार्ट होने की आवाज सुनायी दी। मन मसोस कर रह गयी। कुछ देर उसी तरह नाश्ते की प्लेट हाथ में लेकर खडी सोचती रही-क्यों करतें हैं इस तरह राजीव? ज़रा जरा-सी बात में आजकल नाराज हो उठतें हैं। परेशान हैं तो क्या मेरी परेशानी कुछ कम है? या शायद मुझे सजा देने का यह नया तरीका इजाद किया है। लेकिन किस बात की सजा? आखिर इसमें मेरी क्या गलती? डेढ वर्ष के रोहित ने अभी तक खडा होना नहीं शुरू किया तो उसमें मैं कहाँ से कसूरवार ठहरतीं हूँ? क्या मेरी इच्छा नहीं होती कि मेरा बेटा भी खडा हो और डगमगाते पैरों से एक दो डग भरे?

अकेले होते ही आजकल मेरा सिर्फ़ एक काम रह गया है-उसे खडा करने की कोशिश। अंत में थक हार कर बैठ जातीं हूँ। अभी तक तो उसने घुटनों से चलना भी शुरू नहीं किया है फिर खडा होकर चलना कैसे हो सकता है। सोते जागते हर पल बस यही एक इच्छा मन में रहती है कि किसी तरह रोहित जल्दी से जल्दी चलने लगे। अभी कल की ही बात है। मैं दोपहर में कमरे में बैठी थी और रोहित मुझसे थोडी दूर पर चटाई पर था।

तभी उसने मुझे बुलाया _

"ममाऽऽ, ममाऽऽ, ममाऽऽऽऽ। एक लगातार ममा, ममा की रट लगा दी थी उसने।"

"आजा बेटू, आजा यहाँ मेरे पास।" अपने दोनो हाथ फैलाकर मैं उसे बुलाती रह गयी। रोहित ने प्रयास भी किया लेकिन उसके पैरों ने साथ नहीं दिया और एक इंच भी वह आगे नहीं बढ पाया। पस्त हिम्मत होकर अंत में वहीं से चीखने लगा। गुस्से में पास में रखा गुड्डा दीवार पर खींच कर दे मारा। उसके गुस्से से घबराकर उसने तय किया कि अब वह उसे चलाने कीे कोशिश नहीं करेगी और फिर झपटकर उसके करीब पहुंचकर उसे गोद में उठा लिया।

गोल मटोल गदबदा रोहित जब हंसता है तो उसके गालों के बीचों बीच छोटे-छोटे से गङ्ढे बन जातें हैं। जब भी वह किसी को देखता है हंसता ज़रूर है और तब उसी गङ्ढे में अटक कर रह जाता है सबका मन। कुछ खबर नहीं कितनी देर नाश्ते की प्लेट हाथ में लिये-लिये खडी रही। अंत में प्लेट मेज पर पटक, एक कुर्सी खींच वहीं बैठ गयी। क्या करूं? सोच-सोच कर माथा भन्नाने लगा। बहुत देर सोचने के बाद तय किया कि आज उसे लेकर डाक्टर के पास ज़रूर जाऊंगी। पूछूंगी उनसे कि आखिर इसे हुआ क्या है? अकेले अभी तक कहीं नहीं गयी। लेकिन आखिर कब तक? अब ऐसे काम नहीं चलेगा। हिम्मत करके बाहर निकलना ही पडेगा।

सामने दीवार घडी दस बजा रही थी। जल्दी-जल्दी इधर उधर दो चार मग पानी डाल कर नहा ली। जो भी साडी सामने दिखायी दी उसे पहन कर तैयार हो गयी। रोहित को तैयार किया। दो चार नैपी रखी। पानी और दूध की बोतल बैग में डाली। मेन गेट में ताला लगाकर जल्दी-जल्दी सीढियों से नीचे उतर गयी।

सीढियों से उतर कर नीचे पहुंचने तक कई लोग रास्ते में मिले लेकिन अब किसी से भी बात करने की तबीयत नहीं होती। पता नहीं इन सबको मुझसे बार-बार यह पूछने में क्या आनन्द आता है-

"मिसेस बंसल, आपका बेटा खडा होने लगा?"

अब क्या जवाब दूं इनकी बात का? ऐसा नहीं है कि सच बात ये लोग जानते न हों किन्तु मजा लेतें हैं यह पूछकर। किसी की दुखती रग को छेडने में आनंद जो आता है इनको। तब मन करता है कि इनका मुंह नोच लूं लेकिन बस सोच कर ही रह जाती हूँ। ऐसा करना मुमकिन जो नहीं है।

गुस्से में खटाखट नीचे उतरती चली गयी। जहां कहीं भी दो औरतें दिखायी देतीं, उसे देखते ही आपस में खुसुर पुसुर करने लगतीं हैं। अच्छी तरह समझतीं हूँ कि उन लोगों के बीच किस टॉपिक पर बातचीत चल रही होगी पर उन्हें अनदेखा करके अपना ध्यान उस समय किसी और तरफ लगाने की कोशिश करतीं हूँ। हमेशा मेरी यही कोशिश रहती है कि किसी का सामना न हो इसलिये घर से बाहर निकलना भी करीब-करीब ना के बराबर हो गया है। किसी को सामने देखकर मुस्कुराना भी लगभग भूल चुकीं हूँ। कोशिश करतीं हूँ तब भी ठीक से मुस्कुराना नहीं हो पाता। इस बात को लेकर राजीव नाराज भी होतें हैं-

"अगर कोई मिले तो मुस्कुरा तो सकती हो, इससे तुम्हारा क्या कुछ घट जायेगा?"

क्या मैं नहीं चाहती? शीशे के सामने खडी होकर कई बार उसने मुस्कुराने का अभिनय करने की कोशिश भी की पर हर बार चेहरा हास्यास्पद हो उठता है। अब नहीं करना मुझे यह नाटक-तय कर चुकीं हूँ। राजीव नाराज होंगे तब भी।

सडक़ तक पहुंची थी कि एक ऑटो रिक्शा सामने से जाता हुआ दिखायी दिया। हाथ देने पर रूक गया। खाली था।

"कहां चलना है?" मीटर डाऊन करते हुये उसने पूछा।

"अपोलो हॉस्पीटल।"

"बैठिये।"

एक हाथ में रोहित को संभाले दूसरे में बैग थामे आटो में सम्भलकर चढ ग़यी। रास्ते भर उल्टे सीधे खयालों में मन उलझता रहा। कितनी बातें थीं जो न चाहते हुये भी दिमाग में हलचल मचाती रहीं। घर में कोई सीधे मुंह बात नहीं करता। सब मुझे ही दोषी ठहराते हुये से लगतें हैं। जैसे मेरी वजह से ही रोहित खडा नहीं होता। आज डाक्टर से भी यह पूछना है कि क्या मैं ही जिम्मेदार हूँ इसके लिये? मैं तो अच्छी भली हूँ। मेरे मां, बाप, भाई, बहन सब ठीक ठाक हैं। किसी को कोई दिक्कत नहीं है। फिर मेरा रोहित क्यों नहीं चलता अभी तक, खडा भी नहीं हो सकता? रोहित जब पैदा हुआ था तब उसे देखकर एक भी ऐसा संकेत नहीं मिला था कि जिससे लगता कि उसमे किसी प्रकार की कोई कमी भी है। क्या कुछ नहीं करती उसके लिये? आखिर उसकी माँ हूँ। मुझसे ज़्यादा क्या किसी और को उसकी चिन्ता हो सकती है? सेब उबालकर, केला मैश करके, दो तीन बादाम रात में भिगोकर सुबह उन्हें घिसकर दूध में पकाकर खिलातीं हूँ। खाता भी कितने शौक से है। देखने वाले आश्चर्य करतें हैं-

"मिसेस बंसल आप बडी भाग्य शाली हैं जो आपका बच्चा सब कुछ इतने चाव से खाता है वरना बच्चे तो जल्दी किसी चीज को मुंह नहीं लगाते।"

सब कुछ शौक से खाता है उसी का तो नतीजा है कि कितना दमकता है मेरे रोहित का चेहरा। अपने अनूठे करतबों से सबको अपनी तरफ आकर्षित करना तो कोई इससे सीखे। ज़रूर किसी की नजर लगी है मेरे बेटे को। आज वापस आकर इसकी नजर उतारूंगी। तभी लगा कोई आवाज दे रहा है। ऑटो वाला था-

"बहन जी क्या सोच रहीं हैं? आपको अपोलो हॉस्पीटल ही जाना था न? आ गया है।"

हडबडा कर सौ की नोट उसे थमा रोहित को लेकर नीचे उतर आयी। ऑटो वाले ने कुछ पैसे भी वापस देने चाहे थे, पर मैं वहाँ रूक कर इंतजार नहीं कर पाई. कार्ड बनवाकर सबसे पहले बच्चों वाले डाक्टर के पास पहुंची। उसे कितना समझ में आया पता नहीं लेकिन उसने एक पर्चे पर न्यूरोलाजिस्ट को दिखाने के लिये रेफर कर दिया।

दिल धक-धक करने लगा। न्यूरोलाजिस्ट को दिखाने के लिये क्यों लिखा? क्या इसे कोई दिमागी बिमारी है? नहीं-नहीं ऐसा नहीं हो सकता। इसे देखकर कोई ऐसा सोच भी कैसे सकता है? सारे हाव भाव एक नार्मल बच्चे की तरह ही तो हैं, फिर? अगर इस प्रकार की कोई गडबडी होती तो फिर हरकतें वैसी क्यों नहीं करता। सबको पहचानता है। सही वक्त पर हंसता है और रोता है। तब फिर डाक्टर ने ऐसा क्यों सोचा? मैंने रोहित को कस कर अपने सीने से चिपटा लिया। एक मन किया कि डाक्टर को दिखाये बिना ही वापस लौट जाऊं लेकिन दूसरे मन ने कहा, नहीं दिखा लेने में हर्ज ही क्या है? कुछ देर इसी उहापोह में पडी रही। अंत में न्यूरोलाजिस्ट के चैम्बर में घुस गयी। वहां लम्बी लाइन थी। रोहित सो गया था। उसे कंधे पर चिपका कर वहाँ रखी एक बेंच पर एक किनारे बैठ गयी। जाने कब नम्बर आयेगा? करीबन दो घंटे बाद बारी आयी। डाक्टर ने चश्मा नाक पर सरका कर पूछा-

"क्या परेशानी है आपको?"

"जी, मुझे नहीं मेरे बेटे को।" रूक-रूक कर मैंने अपनी बात कही।

"वही पूछ रहा हूँ।" डाक्टर थके हुये लग रहे थे।

"डाक्टर साहब मेरा बच्चा अभी तक खडा भी नहीं हो पाता लगभग डेढ साल का होने को आया। तब भी।" इतना भर कहने में मेरे आंखों के कोर भीगने लगे थे।

"लाइये इधर ले आइये बच्चे को।" डाक्टर ने नरमाई से कहा। रोहित को ले जाकर मैने टेबल पर लिटा दिया। डाक्टर अपने स्टेथोस्कोप लेकर व्यस्त हो गये। काफी देर तक उसका मुआयना करते रहे। कभी उनके माथे पर बल पड ज़ाते तो कभी उनकी भवें सिकुड ज़ातीं। चेहरे का भाव हर पल बदलता रहा। बीच-बीच में मुझे देखना नहीं भूल रहे थे। कुछ चितिंत दिखायी दे रहे थे। अपनी तरफ से मेरी उनसे कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं हो रही थी। मैंने सोचा कि अपने आप ही बतायेंगे। अंत में वे अपनी कुर्सी पर बैठ गये और सामने रखा पानी का गिलास उठा कर एक सांस में पी गये। थोडी देर बाद चपरासी आकर खाली गिलास भर गया। अभी मैं सोच ही रही थी कि मैं भी पानी मांगूं तब तक वहा वापस चला गया।

मैं डाक्टर के कुछ कहने का इंतजार कर रही थी लेकिन उन्हें कोई जल्दी नहीं थी। वे इत्मीनान से अपने पैड पर कुछ लिखते रहे। यहां मेरी हालत मैं ही समझ सकती थी। मैंने सोचा-

"इन्हें क्या फर्क पडता है, न जाने कितन मरीज इस तरह के इनके पास रोज आतें होंगे।"

डाक्टर के कुछ कहने का इंतजार करते-करते मुझे महसूस हुआ कि अगर कुछ देर और वे नहीं बोलेंगे तो मैं चिल्लाने लगूंगी। तभी डाक्टर ने अपना मुंह खोला-

"आपके पति कहाँ हैं? वे नहीं आयें हैं?"

"जी नहीं।"

"क्यों?"

"वे आफिस गयें हैं।"

"तब फिर आप कल आइये उन्हें लेकर।"

"आप मुझे बताइये डाक्टर साहब, क्या बात है?" रोहित को दोनो हाथों से कस कर पकडे हुये मैं उनकी बात सुनने की हिम्मत जुटा रही थी।

"देखिये आप समझ नहीं रहीं हैं। अभी कई टेस्ट और कराने होंगे तभी पूरी प्राब्लम के बारे में हम बता सकेंगे। आप अपने पति को लेकर कल इसी वक्त आइये।" वे भरसक अपनी आवाज को नार्मल बनाते हुये कह रहे थे।

मुझे लगा डाक्टर कुछ छिपाना चाहतें हैं। मुझसे रहा नहीं गया। मैं पूछ बैठी_

"डाक्टर साहब मुझे बताइये कि आखिर ऐसी कौन-सी बात है जिसके लिये आपको टेस्ट करना है और जिसे आप मुझसे छिपाना चाह रहें हैं? यकीन मानिये मैं इतनी कमजोर भी नहीं हूँ। सब कुछ सुनने की हिम्मत रखतीं हूँ इसीलिये अकेले आयीं भी हूँ। मेरे बच्चे को क्या हुआ है? मैं जानना चाहतीं हूँ।"

मैं तय कर चुकी थी कि बिना सही बिमारी जाने मैं यहाँ से नहीं जाने वाली। अपने दिल को मैं कडा कर चुकी थी। अब जो भी हो।

"ठीक है, जब आप कहतीं हैं तब मैं बताता हूँ। देखिये मुझे शक है कि आपके बच्चे के ब्रेन का एक हिस्सा थोडा डैमेज हो गया है। पैदा होने के तुरंत बाद हो सकता है आपके बच्चे ने रोने में थोडी देर कर दी हो याकि जब वह पेट में रहा होगा उस समय आप कहीं गिर गयीं हों या किसी और वजह से उसके दिमाग में चोट पहुंची होगी। जिसकी वजह से इसका कोआर्डिर्नेशन गडबडा गया है। ब्रेन का मैसेस पैरों तक नहीं पहुंच पा रहा है। इसी वजह से इसे खडा होने में दिक्कत हो रही है। आप समझ रहीं हैं न? पूरी तरह से तभी पता चलेगा जब इसका बे्रन स्कैनिंग होगा। उसके लिये कल आइये।" डाक्टर प्रश्न वाचक मुद्रा में सामने था।

मेरी आंखें उनके चेहरे पर स्थिर हो गयीं थीं। साफ-साफ मैंने उन्हें बोलते हुये सुना। जो समझाना चाहते थे मैं समझ रही थी। लेकिन बोलने की ताकत चुक चुकी थी।

"जी." मरियल-सी आवाज में मैंने उनसे कहा। बहुत हिम्मती बन रही थी मैं अभी थोडी देर पहले तक और अब!

"देखिये मैंने यहाँ इस पेपर पर सब कुछ लिख दिया है कल इसके पिता के साथ इसको लेकर यहाँ फिर आइये। मैं उन्हें समझा दूंगा कि आगे क्या करना होगा।" डाक्टर खामोश हो गये थे और दूसरे मरीज का नम्बर आ चुका था। पूछना तो और भी बहुत कुछ था किन्तु इस समय कुछ भी याद नहीं रहा।

"थैंक्यू डाक्टर।"

पैर बहुत वजनी हो गये थे पर वहाँ कब तक बैठी रहती। बैठने से फायदा भी क्या होता। रोहित को गोद में लेकर भारी कदमो से धीरे-धीरे चलती हुयी गेट के बाहर निकल आयी।

इसका मतलब मेरा बच्चा अब कभी खडा नहीं हो सकेगा। पूरी ज़िन्दगी इसे ऐसे ही रहना होगा। चीख-चीख कर रोने का मन किया लेकिन। शक तो था पहले से कि कहीं न कहीं कुछ गडबड है ज़रूर तभी तो मेरी सारी कोशिशें बेकार हो जातीं थीं। जब भी उसे खडा करने की कोशिश की लुंज पुंज होकर लुढक़ जाता है रोहित। किसी से कुछ पूछती थी तो एक ही जवाब मिलता-

"क्यों इतना परेशान हैं? खडा होगा ही। कुछ बच्चे जल्दी खडा होने लगतें हैं और कुछ थोडा देर से हर काम शुरू करतें हैं। फिर रोहित हेल्दी भी है न। वजन ज़्यादा होने की वजह से भी देरी हो सकती है। आप इसके पैरों में खूब मालिश किया करिये। उससे पैरों में ताकत आयेगी। आप देखियेगा फिर।"

कोई कोई तो मुस्कुरा कर कहता-

"हम समझतें हैं आपकी परेशानी। पहला बच्चा है न। होता है होता है पहले बच्चे के समय हमें लगता है कि वह सारे काम जल्दी-जल्दी करने लगे। यही बात है आपके साथ भी। बेकार परेशान हैं।"

सब अपनी-अपनी राय देने लगतें हैं। किसी ने मेरे शक को तरजीह नहीं दी। राजीव तो डाक्टर के पास जाना ही नहीं चाहतें हैं। इसीलिये तो आज मैं इसे लेकर अकेले निकल आयी थी। आते समय कितनी जल्दी थी इसे दिखाने की लेकिन अब थकान महसूस होने लगी है। मन कर रहा है कि यहीं कहीं बैठ कर कुछ देर सुस्ता लूं। घर जाने का मन भी नहीं कर रहा है। वहां जल्दी जाकर करूंगी भी क्या? राजीव को फुर्सत ही कहाँ होती है। और जब होती भी है तब भी सीधे मुंह बात कहाँ करतें हैं। उनके हिसाब से तो रोहित की इस स्थिति के लिये मैं ही जिम्मेदार हूँ। मेरी देखभाल में ही कहीं कुछ कमी रह गयी है जो रोहित लेकिन अब उससे क्या कहूँगी? नहीं आज राजीव से कुछ नहीं बताऊंगी। मन नहीं कर रहा है उससे उलझने का किसी भी वजह से। आज न कुछ कहने का जी कर रहा है और न ही कुछ सुनने का। बस एक इच्छा है जो रह-रह कर सिर उठा रही है-राजीव के सीने में मुंह छिपा कर जी भर के रो लेने की इच्छा।

डाक्टर की आवाज हथौडे क़ी तरह दिमाग पर आघात कर रही है। धम-धम-धम। खडा नहीं हो पायेगा आपका बच्चा। कभी खडा नहीं होगा आपका बच्चा। क्या क़भी खडा नहीं होगा मेरा रोहित? सिर घूम रहा है। लगा कि रोहित हाथ से छूट जायेगा। उसे कैसे संभालूं? सामने से ऑटो आ रहा है पता नहीं खाली है कि नहीं? अनजाने में हाथ उठ गया। पास आकर ऑटो खडा हो गया। शायद उसने मेरा उठा हाथ देख लिया था। कैसे बैठी उसमे, मैं नहीं जानती। सिर्फ पंजाबी बाग, मुंह से निकला था इतना याद है।

"क्या सोच रहीं हैं?"

सुनकर चौंकी। मेरे बगल में बैठी महिला मुझसे कह रही थी। अपने चारों तरफ देखा पूरा कमरा भरा हुआ था। सामने खडी महिला ही निर्मल दी होंगी। ऐसा मेरा अनुमान था। बातचीत से पता चला कि वहाँ मौजूद ज्यादातर लोग इस संस्था के बारे में सुनकर उसे देखने आये हुये थे। उनमे से कुछ वालण्टियर के तौर पर वहाँ काम करना चाहते थे। मेरी बात निर्मल दी ने सुनी। उन्होंने कहा-

"आप ओ. पी. डी. के समय आइये। उस समय डाक्टर होतें हैं। वे इस बच्चे को देखकर बतायेंगे कि इसका ट्रीटमेण्ट कैसे होगा। आज भी वे आये हुयें हैं। ऐसा करिये आप इस समय वहीं चली जाइये।"

कहने के बाद निर्मल दीदी ने वीरव्रती को बुलाकर मुझे होम मैनेजमेण्ट वाली जगह पहुंचने का रास्ता दिखाने के लिये कहा।

वहां पहुंचकर मैंने जो देखा उसे बयान करने लायक शब्द मेरे शब्द कोश में नहीं हैं। करीब एक घंटा मैं वहीं एक कुर्सी पर बैठ कर अपनी बारी का इंतजार करती रही। इस बीच मैं लगातार देख रही थी कि-कोई बच्चा चल नहीं सकता था, कोई सुन नहीं सकता था, तो किसी के हाथ पैर दोनो का कोआर्डिनेशन सही नहीं था और किसी बच्चे को बोलने में दिक्कत होती थी-फिर भी हार मानकर बैठे नहीं थे उनके माता पिता। बल्कि एक उम्मीद मन में लिये हुये पूरे धैर्य और हिम्मत के साथ वे सब जूझ रहे थे। यहां आने के पहले मेरी हिम्मत जवाब देती हुयी लग रही थी किन्तु अब इन लोगों के जुझारूपन से मुझमें भी उम्मीद जगने लगी। बस थोडा धैर्य की ज़रूरत होगी।

डाक्टर ने मुझसे रोहित के फिजियोथेरैपी के बारे में कहा। उन्होंने कहा कि रोहित को फिजियोथेरैपी से फायदा होगा। कम से कम इतना तो ज़रूर कि वह अपने आप व्हील चेयर के सहारे चल सके. व्हील चेयर के सहारे चलकर भी रोहित बहुत कुछ कर सकता है। उसके लिये मुझे यहीं आना होगा। देरी नहीं होनी चाहिये। कल से ही उसका इलाज आरम्भ हो जायेगा।

इतने देर में ही वहाँ कई लोगों से मिलना हुआ। टीचरस, हेल्परस और वालण्टियरस। वालण्टियरस कई थे। निस्वार्थभाव से वे सब अपने काम में जुटे थे। उन्हें देखकर यह निर्णय करना मुश्किल था कि वे वहाँ के इम्प्लॉयी हैं या कि वालण्टियर। उनके सहयोग के बिना वहाँ कोई काम सही तौर पर होना ज़रा मुश्किल था। उन्हें देखकर और उनसे बातें करके एक खयाल मेरे मन में आया। मैंने सोचा अगर ये लोग जिनकी अपनी इस तरह की कोई समस्या नहीं है फिर भी यहाँ पर आकर इन बच्चों के लिये अपना कीमती वक्त निकाल सकतीं हैं तब क्यों नहीं मैं?-एक घंटा ही सही वालण्टियर की तौर पर यहाँ काम करूं। मन में यह बात उठते ही उसे करने की तैयारी भी कर ली। न जाने क्यों मुझे बडा सुकून मिला। वहां मौजूद एक वालण्टियर से पूछा-

"सुनिये क्या आप मुझे बतायेंगीं कि वालन्टियर बनने के लिये मुझे क्या करना होगा?"

"ऐसा है कि आप निर्मल दीदी से मिलिये, वही इसके बारे में आपको बतायेंगी कि आपको क्या करना है।" उसने मुझे ध्यान से देखते हुये कहा।

मैंने निर्मल दीदी से बात की। पहले तो वे कुछ हिचकिचायीं। उनके हिसाब से रोहित के साथ यहाँ काम करने में मुझे दिक्कत होगी। किन्तु बाद में वे मान गयीं और यह तय हो गया कि कल से मैं भी यहाँ एक वांलण्टियर के हैसियत से काम करूंगी और उसी बीच रोहित की फिजियोथैरेपी भी होगी। राजीव से पूछे बिना ही सब कुछ तय हो गया है किन्तु मुझे पूरी उम्मीद है कि वह भी मुझसे सहमत होगें। शायद पहली बार। कितनी देर से लगातार बोल रहीं हूँ, अब रूकूंगी। न जाने क्यों कुछ धुंधला धुंधला-सा दिखाई दे रहा है। शायद आँख में कुछ पड ग़या है।