विकास / परंतप मिश्र

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काल के सापेक्ष विकास के पथ पर मानव-जीवन परिस्थितिजन्य परिवर्तनों को आत्मसात करता हुआ निज मान्यताओं और प्राथमिकताओं को उपयोगिता के आधार पर विस्थापित करता जा रहा है। वैचारिक क्रांति की दिशा में तर्क और अन्वेषण का स्थान विचारों के व्यवसायीकरण ने सुरक्षित कर लिया है। परिणामस्वरूप सामाजिक कुरीतियाँ और खोखले रीती-रिवाज अज्ञान के अन्धकार में स्वयं को सुरक्षित पाते हैं।

यह ध्रुव सत्य है कि सतत विकास आवश्यक परिवर्तनों के स्वागत से पुष्ट होता है। पर नीर-क्षीर विवेक हीनता सदियों से बहती हुई अविरल धारा को भी अवरुद्ध कर प्राण विहीन कर देगी। यहाँ यह आवश्यक है कि विकास की अनवरत शृंखला में उन नवीन आयामों पर विचार करें। उनकी गुणवत्ता को कसौटियों पर कसकर उनके दूरगामी प्रभाव का आकलन कर उसे आवश्यक स्वीकार्यता प्रदान करें।

देश, काल एवं परिस्थितियों को उनके तत्कालीन मान्यताओं से जोड़ कर देखा जा सकता है। वर्षों के अंतराल पर उनमें कुछ समावेश भी होता रहता है। किसी भी सभ्य एवं उन्नत समाज की सभ्यता एवं संस्कृति उस समय के जन-जीवन का दर्पण होती है तथा उसका पोषण व संरक्षण कर नई पीढ़ी तक उसका संवहन पूर्णता से हो सके यह हमारा नैतिक दायित्व होना चाहिए।

मैंने देखा है कि चमकदार जल से भरी लबालब नदियों की तलहटी में शुष्क रेत, अपनी शुष्कता को त्याग कर नमी का आनन्द लेती है। इसी तरह तपते हुए रेगिस्तान में भी रेत का एक-एक कण शुष्कता कि पराकाष्ठा में भी अपने अन्तस् में नमी को सहेज कर रखता है। विपरीत परिस्थियों में भी दो विरोधी प्रकृति वालों की स्वीकार्यता एक अद्भुत साहचर्यता का उधारण प्रस्तुत करता है। अनुकूल परिस्थितयों में जलती हुई रेत ने भी विकास की राह पर अपने अन्तस् में सहेजी नमी से एक बीज के अंकुरण को अनुकूल आधार प्रदान किया है। अपनी शुष्कता कि ढाल से उसकी उन्नति का मार्ग प्रशस्त करता है।

प्रकृति की गोद में नैसर्गिक रूप से विकसित होता यह अंकुरण तत्कालीन परिस्थितिजन्य परिवर्तनों को आत्मसात करता हुआ, एक सुकुमार पौधे से एक विशाल वट वृक्ष होने तक की यात्रा तय करता है। कभी शुष्कता कि पराकाष्ठा रहे रेतीले मिटटी ने अपने जीवन का समस्त अनुभव उस नन्हे से बीज में संजो दिया है जो कल उसका प्रतिनिधित्व करेंगीं। यह नन्हा-सा पौधा न जाने कितने पथिकों को अपने शीतल छाँव के साथ ही साथ अपने आकर्षक पुष्पों और स्वादिष्ट फलों से समस्त मानवता को पुष्ट करेगा। अंततः जीवन चक्र की पुनरावृति स्वरुप अपने बीजों को पुनः अपनी मातृभूमि को सौंप जायेगा।

अनुभव विहीन ज्ञान मात्र थोथे उपदेश के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। आधुनिकता कि अंधी दौड़ में उच्च आदर्शों का स्थान दिखावे ने ले लिया है। मूल्यवान संस्कार एक औपचारिकता तक सिमट कर रह गए हैं।

आज की फसलें खुले आसमान की कड़ी धूप में खिलखिला कर नहीं हँसती बल्कि मुरझा जाती हैं। अब उन्हें छायादार कपड़ों से सुरक्षित किया जाता है। प्रकृति के साथ उनका नैसर्गिक जीवन, कोरे विकास की कल्पना में अपनी गुणवत्ता और संतुलन को खोकर आजीवन एक बैसाखी पर निर्भर रहता है। प्रकृति के साथ संतुलन और अपने अस्तित्व की जिजीविषा को समाप्त कर लिया है।

पर मैं आशान्वित हूँ, हमारा समाज नैतिक मूल्यों की पारम्परिक धरोहर को पुष्पित-पल्लवित होने में अपना योगदान अवस्य देगा। उत्थान से पतन तक की नियत यात्रा में आज का एक-एक क्षण कल के इतिहास को स्वर्णाक्षरों में अंकित क्र सकेगा।

इन्ही बीजाक्षरों की पौध धरती को चीर कर सुगन्धित एवं छायादार वृक्षों का उद्यान विकसित करेंगें और अपने आने वाले कल के लिए एक नए आधार को प्रदान करेंगे। अपने आधार को निराधार न होने दें। नई सुबह का स्वागत इनके महकते फूलों और स्वादिष्ट फलों से करें। विकास के पथ पर नव निर्माण की हर राह पर जड़ों से जुड़ कर रहें जिससे जीवन का संचार चिरस्थायी हो सके। उन्नति का मार्ग पर्वतमाला कि कठिन चढ़ाई से होकर जाती है तो वहीँ पतन का मार्ग सरलता से फिसलता हुआ समाप्त हो जाता है।