विजयबहादुर सिंह के नाम / भवानीप्रसाद मिश्र

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प्रिय भाई विजयबहादुर सिंह,

इस चिट्ठी में तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर दे रहा हूँ। पहला प्रश्न जन्म सम्वत्, समय, दिन और स्थान का है। मेरे पास मेरी जन्म कुण्डली थी, उसके सहारे समय आदि बताया जा सकता था, किन्तु वह मैंने नर्मदा में विसर्जित कर दी थी, इसलिए केवल जन्म तिथि २९ मार्च १९१३, गांव टिगरिया, तहसील सिवनी मालवा, जिला होशंगाबाद म.प्र. से काम चलाइए। दूसरी बात आपने मेरे कुल और निवास के बारे में पूछी है। मेरे पितामह बुन्देलखण्ड के हमीरपुर नामक कस्बे से मध्य प्रदेश में आ गए थे। उनकी जीविका मंदिर में पूजा करके चलती थी, उनके पाँच बेटे थे, बेटी एक भी नहीं। मेरे पिता पं० सीताराम जी सबसे छोटे भाई थे। वे और उनसे दो बड़े भाइयों ने अंग्रेजी शिक्षा पाई, बाकी के तीनों बड़े भाइयों को मेरे पितामह ने संस्कृत का ही अभ्यास कराया। बाद के दो भाइयों का संस्कृत में वैसा प्रवेश न देखकर पितामह ने उन्हें होशंगाबाद में रखकर अंग्रेजी पढ़ाई। दोनों ने मैट्रीकुलेशन किया और सरकारी नौकर हो गए। पहले तीन भाई पैतृक गाँव में ही पूजा, अर्चा और कथा-वाचन आदि से अपनी जीविका उपार्जित करते रहे। मुझे मेरे पितामह का कोई ध्यान नहीं आता। सुना जरूर है कि वे बड़े नैष्ठिक ब्राह्मण थे, धर्मभीरु थे और परोपकार उनके स्वभाव का अंग था। पिता जी के सबसे बड़े भाई वेणीमाधव जी युवावस्था में ही पत्नी की मृत्यु हो जाने के बाद विरक्त हो गए थे। उनके एक पुत्र और एक कन्या थी जिनका पालन पोषण सम्मिलित कुटुम्ब से होता रहा। वेणीमाधव जी ऊँचे पूरे इकहरे शरीर के एक सुन्दर व्यक्ति थे। परिव्राजक थे, यथासम्भव दो दिन से अधिक एक स्थान पर नहीं रुकते थे, और जहाँ तक बनता था, वाहनों से यात्रा करना बचाते थे, बैलगाड़ी, घोड़े, ताँगे पर वे कभी नहीं बैठे। बहुत जरूरत पड़ने पर अनिवार्य हो गया तो रेल की यात्रा की। वे जीवन भर नीरोग रहे और नब्बे वर्ष की अवस्था में ही एक दिन बीमारी के बाद शरीर छोड़ दिया। मंझले दादा पं.राजाराम तो संस्कृत के विद्वान ही थे और आसपास के गांवों में उनका बड़ा आदर था। उनके कोई संतान नहीं थी। उनका मुझ पर कुछ विशेष प्रेम था और वे चाहते थे कि मैं पिताजी के साथ न रहकर उनके साथ रहंू और संस्कृत का अभ्यास करके उनकी परम्परा को निभाऊं। प्राइमरी पास करने के बाद इस विचार से सहमत होकर पिताजी ने मुझे उनके पास भेज दिया था। किन्तु कुछ ही महीने के बाद मैं किसी कारण से पिताजी के पास गया और फिर वापस नहीं भेजा गया। मैंने भी क्रमश: सोहागपुर, होशंगाबाद, नरसिंहपुर और जबलपुर में पढ़ते रहकर जितना पढ़ना मुझे जरूरी लगता था, मैंने पूरा किया। सन् १९३४ या ३५ में मैंने बीए पास कर लिया था और इतना पढ़कर मेरे मन पर छाप यही पड़ी थी कि और ज्यादा पढ़ना आवश्यक है। मैं एम.ए. भी पास करूं ऐसी कई लोगों की इच्छा थी किन्तु ऐसी कई लोगों की इच्छा थी कि किंतु जाने क्यूं भय था कि एमए पास करके मैं सरकारी नौकर हो जाऊंगा सरकारी नौकरी की अप्रतिष्ठा स्वयं मेरे पिताजी सरकारी नौकर थे, मेरे मन पर स्पष्ट करते रहे थे। वे चाहते थे कि मैं कोई उपयोगी काम करूं पैसे की ओर दृष्टि न रखंू और चंूकि कॉलेज में मैंने हिन्दी,संस्कृत और अंग्रेजी तीन विषय लेकर बीए कियाथा,उनका यही विचार बना कि मुझे एकाध छोटा स्कूल खोलकर बच्चों को शिक्षा देनी चाहिए और प्रचलित शिक्षा में प्राचीन शिक्षण के वे तत्व भी मिलाने चाहिए जिनके बिना सामाजिक जीवनमें मूल्यों की अवनति दृष्टिगोचर हो रही थी।


मैं अपने बचपन के बारे में सोचता हंू तो ज्य़ादातर ख्याल आस पास के लोगों का नहीं आता बल्कि आस पास के पशुओं का आता है। जैसे हमारे घर में घोड़ा सदा रहा। पिताजी घोड़े की सवारी में निष्णात् थे। सदा दो सवारियां रखते, एक घोड़ा और एक जोड़ी बैल, बैलगाड़ी के लिए। वे शिक्षा विभाग में निरीक्षक थे और दौरा अपनी ही सवारी से करते थे। मौसम अच्छा हो तो दौरा घोड़े पर होता था और सर्दी गर्मी ज्य़ादा हो बैलगाड़ी से। वर्षा के दिनों में तो घोड़ा ही एकमात्र सहारा था क्योंकि उन्हें निरीक्षण के लिए ज्य़ादातर गांवों में जाना पड़ता था। रास्ते कच्चे होते थे और उन दिनों मध्यप्रदेश के जंगल पर्याप्त घने भी थे जैसे कुरूप और बिरले आज हो गए हैं। तब वे वैसे नहीं थे। बिल्कुल बचपन में पिताजी के पास घोड़ी भी थी उसका नाम चम्पी था। रंग सफेद, खासी ऊँची और लम्बी घोड़ी। स्वस्थ पिताजी उस पर बैठकर निकलते तो राहगीर रुक कर देखता था। मुझे याद है कि चम्पी के कदम की चर्चा घोड़े के शौकीन लोग करते थे। आस पास के शादी विवाहों में दूल्हे की सवारी और या उससे बढ़कर कभी-कभी नाचने के लिए चम्पी की पूछ हुआ करती थी। भागने में तेज और स्वभाव से शांत। इस घोड़ी पर पिताजी को प्यार था। वे खुद अपने हाथ से खरखरा करते और दाना-पानी खिलाते-पिलाते थे। हमारे घर में गायें भी थीं, घुड़साल और गाय-बैलों की सार साफ करने का काम मां का था। हम बच्चे उसमें उनके मददगार बनते थे। गायों का दुहना,बांधना,छोड़ना कभी-कभी नहलाना-धुलाना हम सब भाई-बहन खुशी से कर लेते थे। घोड़ों में चम्पी, मंगल, भौंरा और रोहिणी चार विशेष बारी-बारी से हमारे घर में आए और मृत्यु पर्यंत घर में रहे। बैल ज़रूर तबादला होने पर बेच दिए जाते थे। किंतु गाएं कभी बेची नहीं गईं। जहां तबादला हो जाता वहां रेल के डिब्बे में उस वक्त घोड़ा या घोड़ी और गायें होतीं थी दूसरी जगह भेजी जाती थी और प्राय: ऐसा होता था कि यात्रा में उनकी देखरेख के लिए एक आदमी के सिवाय मुझे साथ भेजते थे। पशुओं के आत्मीय भाव के कारण मैंने उनकी लीलाभूमि अर्थात् प्रकृति को भी बचपन से ही उसके वत्सल रूप में देखा था। हरे भरे खुले मैदान,जंगल या पहाड,झ़रने और नदी इन्ही के तुफैल से मेरे बने।कई बार तो मैं स्कूल चुका कर गायें चराने निकल जाता था। मेरे दो चार साथी भी ऐसे थे जो मेरा साथ देते थे। उनमें से दो एक तैरने और पेड़ पर चढ़ने में बहुत कुशल थे। मेरे मन में उनकी बराबरी करने की इच्छा तो होती थी किंतु न तो मैं खूबी के साथ पेड़ पर चढ़ पाया और न ही मुझे कभी अच्छा तैरना आया। अच्छे से मतलब दूरी से है। मैं थोड़ी दूर तक खूब साफ और खूबसूरती के साथ तैर लेता हूँ किंतु लम्बे तैरने का अभ्यास नहीं हो पाया। एकाध बार इस कमजोरी को दोस्त न जाने इसलिए उनके साथ नर्मदा में में लम्बा निकल गया और बचाने का भार उनके ऊपर आया। मेरे बड़े भाई साहब बहुत अच्छा तैरते हैं एक बार तो उन्होंने मुझे बचाया।बचपन की रुचियां कुछ खास नहीं थी। उन दिनों खेलों में गुल्ली-डण्डा, चकरी और भौंरा मुख्य थे। गुल्ली-डण्डा मैं ठीक खेलता था। चकरी और भौंरा भी खेलता था पर उसमें सफाई नहीं सधी थी। गोली खेलने चलन भी था, उसमें भी मैंने कभी ऐसी कुशलता कभी प्राप्त नहीं की कि चस्का लग जाता। वर्षान्त में गेड़ी पर चढ़ना और दूर-दूर तक कीचड़ में घूमकर आना एक शौक था। स्कूल में होने वाले खेलों में दिलचस्बी नहीं ली। फुटबाल में तो थोड़ा बहुत दौड़ लेता था। हॉकी में सन्नाती हई गेंद से बहुत डर लगता था और डण्डे से भी। बचपन से ही पिताजी के व्यायामशील होने के कारण अखाड़ों में जाने लगा था और कुश्ती का ठीक अभ्यास था। नागपंचमी पर खुले मैदान में प्रतिस्पर्धा की दृष्टि से उतर जाता था। कुश्ती लड़ कर लज्जित होने की याद नहीं आती। हमारे जमाने में बच्चों की रुचियों को माता-पिता आज की तरह से बारीकी से देखभाल कर बढ़ावा नहीं देते थे। आजकल तो कुरुचियों को भी बढ़ावा देने का चलन है। हम लोगों पर तो माता-पिता इतना ही ध्यान देते थे कि हमने ठीक घी-दूध-दही खा लिया या नहीं और हम आवश्यकता से अधिक घर से बाहर तो नहीं रहते। काम से तो हम लोग ही प्राय: बाहर भेजे जाते थे।


घर में नौकर या नौकरानियां नहीं थी। जानवरों के लिए घास-दाना खरीदना, घर के लिए साग सब्जी और ऐसे ही छोटे-मोटे सौदे ले आना हम लोगों को इसीलिए सध गया था। पिताजी ने मोल-भाव करने के कुछ 'गुर` भी बता दिए थे। जिनमें से एक यह था कि जो कुछ दाम बताएं उससे आधे में मांगो। यह गुर प्राय: काम दे जाता था एकाध बार कुछ बढ़ाना पड़े नहीं तो सफलता मिल जाती थी। पहली बार के सौदे की याद है। पिताजी बैलगाड़ी में दौरे पर गए और घोड़ा घर पर छोड़ गए। मैं तब तीसरी हिंदी में पड़ता था। घास खरीदने का काम मुझे सौंपा गया। घास अर्थात् हरी दूब। गुर वही कि घास वाली जो कुछ बताए उससे आधे से मांगों। बात सुहागपुर की है। नदी के पुल के किनारे घास का बाज़ार भरता था। मैं स्कूल से छूटकर शाम को सीधा वहीं चला गया और हरी घास के एक बड़े गट्ठर को देखकर उसका दाम पूछा। घास वाली ने कहा पांच आना। मैंने मन में उसके आधे करके कहा कि ढाई आने में दे दो। वह ढाई आने का अर्थ नहीं समझी और 'ना` कह दिया। बगल की घास वाली ने उसे समझाया अरी पगली दस पैसा। उन दिनों आने में चार पैसे होते थे इस हिसाब से ढाई आने का मतलब नहीं समझी। लेकिन जब दूसरी ने उसका मतलब बताया तो वह एकदम तैयार हो गई और मैं ठगा नहीं गया और उसे उसके पूरे दाम मिल गए। साग-सब्जी और कपड़े पर तो अभी तक यह नियम लागू करके देखता हंू और प्राय: सफलता मिल जाती थी। यों अब पहले से दाम बहुत ज्य़ादा बढ़ गए हैं। मैंने जो लिखा है यह फेरीवालों पर खास तौर से लागू हो जाता है। प्रायमरी शिक्षा सुहागपुर में और हाईस्कूल की शिक्षा होशंगाबाद और नरसिंहपुर में पूरी हूई। हाईस्कूल के आखिरी साल में मुझे होशंगाबाद से नरसिंहपुर जाना पड़ा, क्योंकि होशंगाबाद के हेडमास्टर साहब ने मेरे पिताजी को जो उन दिनों नरसिंहपुर में थे लिखा कि आप भवानीप्रसाद को अपने पास रखिए, यह आन्दोलनों में दिलचस्पी लेता है, जो ठीक नहीं है। उन दिनों असहयोग आन्दोलन का सिलसिला जारी था। पिताजी ने मुझे नरसिंहपुर बुलवा लिया और यह भी बताया कि हेडमास्टर साहब का ऐसा ख्याल है। मैंने इस ख्याल का विरोध नहीं किया और उन्हें बता दिया कि मुझे प्रभात फेरी आदि में जाना अच्छा लगता है। पिताजी ने मुझे अभयदान दिया कि मैं जाता रह सकता हूँ। सरकारी नौकर होते हुए भी उन दिनों ऐसी इजाजत दे देना और सो भी सहजभाव से, पिताजी के मन को जाहिर करता है। सहपाठियों में से आन्दोलन में दिलचस्पी लेने वाले कम थे। वे सब मेरे खेलकूद और ऊधम के साथी थे। मुझे कालेज से निकलते निकलते तक लड़ने झगड़ने में काफी मजा आता था। स्वभव आज भी क्रोधी है। इस पर बड़ी धीरज के साथ काबू पाया है। मेरे ज्यादातर साथी लट्ठमार और हँसोड़ किस्म के थे। हाईस्कूल में भी और कालेज में भी। संख्या इतनी ज्यादा रही कि नाम गिनना पक्षपात करना है। सब मुझे समान रूप से चाहते थे और शायद मैं भी समान रूप से सबको। किन्तु धीरे धीरे जीवन के प्रवाह में हम लोग दूर दूर जा पड़े। कुछ का साथ और हाथ अभी तक नहीं छूटा है। वे सब भी अपने मौलिक स्वभाव से काफी दूर हो गए हैं। जिनसे अभी तक जुड़ा हुआ हूँ उनके नाम हैं- महेशद मिश्र, भवानी प्रसाद तिवारी, रामचरण पाठक, छगनलाल पटेल, मोहनलाल बाजपेयी, आनन्दीलाल तिवारी, गौरीशंकर लहरी। ये सब पुराने दोस्त हैं। दोस्तों के मामले में मेरे बराबर भाग्यवान व्याक्ति कदाचित् ही मिले। नई पीढ़ी में भी कितने लोग हैं जो मुझे उम्र भूलकर स्नेह देते रहते हैं। इन सब लोगों का साथ कविता के कारण हुआ। मैं कविता लिखता चला जाऊँगा इसका अहसास तो मुझे किशोरावस्था में ही हो गया था। किन्तु साहित्यकारों से मिलना जुलना बहुत बाद में शुरू हुआ। १९४७ तक तो मैं एक या दो बार प्रान्त के बाहर निकल पाया होऊँगा। रवीन्द्र नाथ ठाकुर, प्रेमचन्द और निराला, प्रसाद इनके मैंने दर्शन ही नहीं किए। इस संयोग को क्या कहा जाए? प्रयत्नपूर्वक लोगों से मिलना जुलना स्वभाव में नहीं रहा- यह इसका एक कारण हो सकता है। संयोगवश जिनसे मुलाकात हो गई, उनसे घनिष्ठता भी होती चली गई। सम्बंध जो भी बने साहित्यिक कम, पारिवारिक अधिक बने। होने को अधिकांश मित्र साहित्य के मर्मज्ञ हैं किन्तु इसने बात साहित्य की कम साहित्ेतर ज्यादा होती है। राजनीतिज्ञों में भी जो मित्र हैं वे भी साहित्य मर्मज्ञ होने के नाते ही सम्पर्क में आए। मैं राजनीति के क्षेत्र में अंग्रेज सरकार से लड़ाई के दिनों तक ही रहा। स्वतंत्रता पाने की हद तक हाथ बंटाना मेरी विवशता थी। उसके बाद राजनीतिज्ञों पर निगाह जरूर रखता रहा और उनके काम मुझे तकलीफ देते रहे, उन्हें गलत कामों से विरत भी नहीं कर पाया, अनेक तो इनमें से मित्र ही थे। अनेक राजनीतिज्ञ मित्र गलत राजनीति के खिलाफ लड़ते रहे, मैं उसमें भी नहीं पड़ा, लेकिन लिखने के माध्यम से जो कर सकता था किया। मैंने माना कि कविता लिखना और राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय रूप से लड़ते रहना, साथ साथ नहीं चल सकता। राजनीति का क्षेत्र गांधी जी की राजनीति की तरह त्याग, और साफ सुथरेपन का क्षेत्र होता तो कविता वहाँ भी निखर सकती थी, किन्तु जब भारत की राजनीति भी संसार की राजनीति की तरह ही बनी रही तो मैं उसे अपना क्षेत्र कैसे मानता?


मैंने इसीलिए जीवन गांधी जी के विचारों के अनुसार शिक्षा देने के विचार से एक स्कूल खोलकर शुरू किया और उस स्कूल को चलाता हुआ ही सन् ४२ में गिरफ्तार होकर ४५ में छूटा। उसी वर्ष महिलाश्रम वर्धा में शिक्षक की तरह चला गया और चार पाँच साल वर्धा में बिताए। गांधी जी तो मेरे वर्धा जाने के कुछ समय बाद भारत के विभाजन से उत्पन्न परिस्थिति को सम्हालने के लिए वर्धा निकल गए थे। उनका सम्पर्क लगभग नहीं के बराबर रहा। अप्रत्यक्ष रूप से वे आज तक मेरे साथ हैं। प्रारम्भ की कुछ कविताएँ मेरे विकास की दिशा तो सूचित करती हैं। गांधी पंचशती में संग्रहीत सहसा नामक पहली कविता और उसके बाद की तीन चार कविताएँ इसका प्रमाण हैं। इन दिनों तक मैं हाई स्कूल में ही था। ठीक पहली कविता कौन सी थी यह कहना कठिन है और यदि किसी एक कविता को पहली मान लूँ तो उससे कोई बात नहीं बनती।


आपने पूछा है कि किन किन कवियों से प्रभावित रहा तो कह सकता हूँ कि सबसे अधिक तो बचपन में सुने हुए पिता जी द्वारा किए गए संस्कृत ग्रंथों के सस्वर पाठ छन्द देने में सहायक हुए। पिता जी को भी कविता पझऩे का चाव था। वे नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित पुराने कवियों की रचनाएँ और संग्रह आदि मांगते रहते थे। सबसे पहले काव्य ग्रंथों मेें जयद्रथ वध, भारत भारती, रायदेवी प्रसाद पूर्ण का पूर्ण संग्रह और लाला भगवानदीन का वीर पंचरत्न प्रमुख हैं। ये सब मुझे बहुत अच्छे लगते थे और इनके बहुत से अंश मुझे याद भी हो गए थे, जिन्हें मैं जहाँ तहाँ अवसर आने पर सुनाता भी था। मंच पर कविता पाठ करने की धड़क इस प्रकार किशोरावस्था से पहले ही खुल चुकी थी। प्राय: धार्मिक, राजनीतिक और साहित्यिक सभाओं में मुझसे इन कंठस्थ अंशों में से कुछ पढ़ने के लिए कहा जाता और मैं कुछ पढ़कर सुनाता था।


कविताएँ लिखना लगभग सन् ३० से नियमित प्रारम्भ हो गया था और कु कविताएँ पंडित ईश्वरी प्रसाद वर्मा के सम्पादकत्व में निकलने वाले हिन्दूपंच १ध्४कलक>ाा१ध्२ में हाईस्कूल पास होने के पहले प्रकाशित हो चुकी थी। हिन्दी लिपि १ध्४देवनागरी लिपि१ध्२ में कलक>ाा से ही ज्वालाद>ा शर्मा ने कुछ प्रसिद्ध उर्दू कवियों की कविताओं के संग्रह अच्छी भूमिकाएँ देकर प्रकाशित करवाए थे। दाग, मीर, जौक, मीर अनीस, सौदा और गालिब की चुनी हुई रचनाएँ इनके माध्यम से पढ़ने को मिलीं और इनमें से मुझे बहुत कुछ कंठस्थ हो गया। लिखने पर अनायास ही उर्दू की बोलचाल पूर्ण शैली मेरी रचनाओं में और भी निश्ंचित भाव से आने लगी। मेरे आदर्श कवि एक नहीं अनेक हैं। जिनमें हिन्दी, संसकृत, उर्दू, मराठी और बंगला के नये पुराने अनेक नाम शामिल हो जाते हैं। हिन्दी में तुलसी, कबीर सर्वाधिक प्रिय रहे, खड़ी बोली में थोड़ा बहुत असर सबका हुआ। मगर मेरे दुर्भाग्य से आदर्श के रूप में कोई मेरे सामने नहीं रहा। संस्कृत के कवियों में भी सबसे अच्छे मुझे तुलसीदास के वे श्लोक लगे जो रामायण में हैं। यह कहना कठिन है कि मैंने संस्कृत के कवियों को गहराई के साथ पढ़ा, लेकिन फिर भी मैंने जितना पढ़ा उसमें कालिदास ने सर्वाधिक आनन्द दिया। बंगला तो मैंने रवीन्द्रनाथ को पढ़ने के लिए ही सीखी। मराठी में ज्ञानेश्वरी और तुकाराम के अभंग मैंने परिश्रम के साथ पढ़े। इतने बड़े बड़े कवियों का असर तो होकर रहना ही था, चाहे जितनी परतों में सें छनकर क्यों न आया हो। मैं बहुत दिनों तक प्रकाशन के प्रति सचेष्ट नहीं रहा। पू० पं० माखनलाल जी चतुर्वेदी से सन् १९३२-३३ में परिचय हुआ और वे कभी कभी आग्रहपूर्वक कर्मवीर में मेरी कविताएँ प्रकाशित करते रहे। फिर भाई प्रभातचन्द्र शर्मा ने कलक>ाा से, श्री हेमचन्द्र जोशी के साथ एक पत्र निकाला था उसमें और बाद में स्वयं उनके पत्र 'आगामी कल` में मेरी रचनाएँ प्रकाशित हुईं। अज्ञेय जी आगामी कल में मेरी रचनाएँ पढ़कर उसकी ओर आकर्षित हुए और उन्होंने मुझे पहला सप्तक में लेना चाहा। किन्तु तब मैं जेल में बन्द था, इसलिए रचनाएँ उनके पास भेजी नहीं जा सकती थीं। सन् ४५ में कारावास से मुक्ति मिली तब श्री अमृतराय से परिचय हुआ क्योंकि वे जबलपुर में हमारे आत्मीय हो चुके थे। उनसे परिचय होने के बाद हंस में काफी कविताएँ छपीं और फिर अज्ञेय जी ने दूसरे सप्तक के लिए कविताएँ मांगीं। दूसरे सप्तक के प्रकाशन के बाद प्रकाशन कम ज्यादा नियमित होता रहा। संग्रह गीत फरोश १९५३ में आया और फिर बहुत दिनों तक मैंने परवाह नहीं की। बीमार होने के बाद कविताएँ पड़ी न रह जाएँ, ऐसा ख्याल उपजा और तब से साल में एक संग्रह दे देता हूँ।


मेरा जीवन बहुत खुला खुला बीता है। किसी बात की तंगी मैंने महसूस नहीं की। मेरे प्रति माता पिता और परिवार के सिवाय सभी लोग उदार रहे। एक तो मेरी इच्छाएँ ही बहुत कम हैं, जो हैं, वे बराबर पूरी होती रहीं। थोड़े से आनन्द के साथ जीना दरिद्र ब्राह्मण परिवार से विरासत में मिला। इसलिए ज्यादा पढ़ लिखकर पैसा कमाने की इच्छा भी मन में नहीं जागी। एक छोटा सा स्कूल चलाकर आजीविका प्रारम्भ की और जब वह स्कूल सरकार ने छीन लिया तो उसकी छाया में चला गया जो दुनिया के लिए छाया सिद्ध हुआ है। चार साल स्नेह और मुक्ति से भरे वर्धा के वातावरण में रहा। आश्रम के बाद कुछ समय तक राष्ट्रभाषा के प्रचार का काम किया। इसके बाद एक वर्ष तक आकाश वृि>ा के आनन्द लिए। वहाँ से एक कवि सम्मेलन में हैदराबाद गया और बद्री विशाल जी ने इतना स्नेह दिया कि तीन साल हैदराबाद में काट दिए। जब हैदराबाद से उखड़ा तो चित्रपट के लिए सेवाद लिखे और मद्रास के ए०बी०एम० में संवाद निर्देशन भी किए। मद्रास से बम्बई आकाशवाणी का प्रोड्यूसर होकर चला गया। वहाँ से आकाशवाणी केन्द्र दिल्ली पर आया। बम्बई के मुकाबले यहाँ काम बहुत थोड़ा लगा। काम जितने किए सब मन के किए और मन से किए। जिन कामों का स्वभाव थोड़ा बहुत विपरीत था, उन्हें भी अपने साँचे में ढाला, उनके सांचे में मैं नहीं ढला। इसे उन काम कराने वालों की भी खूबी माननी चाहिए कि वे मुझे बहुत हद तक मुक्त रखते थे। जीविका के सिलसिले में इस प्रकार घूमना भी काफी हुआ। कवि सम्मेलनों की पुकार पर दूर दूर तक आया गया। किंतु बड़े से बड़े शहर में रहकर भी शहर से असम्पृक्त रहा। शहर अर्थात् शहर के जीवन से। जैसे सिनेमा के संवाद लिखकर और संवाद निर्देशन करके भी चित्र लगभग नहीं देखे हैं। पिछले बीस सालों में तो कोई दो चित्र देखे होंगे। काफी हाउस या बड़े बड़े होटल साहित्यिकों के जीवन में बड़ा स्थान रखते हैं। मेरे जीवन में इनका स्थान शून्य है। दिल्ली के काफी हाउस में दो बाद गया हूँ। एक बार जब महेश भाई वहाँ मिलेंगे, इसका पता जब लगा तब, और एक बार जैनेन्द्र जी के साथ गपशप में। शहरों के आस पास की प्रकृति और शहरों में बसे हुए लाग मेरे आकर्षण के केन्द्र रहे हैं। उनके माध्यम से मैं अपनी कस्बाई और ग्रामीण प्रकृति को जगाए रखता हूँ। सन् ३३ तक मिल का बना कपड़ा पहनता था। उसके बाद खादी पहनने लगा।

तुम्हारा

-भवानीप्रसाद मिश्र