विज्ञान फंतासी में मानवीय करुणा / जयप्रकाश चौकसे

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विज्ञान फंतासी में मानवीय करुणा
प्रकाशन तिथि : 30 अक्तूबर 2013


राकेश राकेश रोशन की 'कृश-3' एक ऐसी विज्ञान कथा है जिसमें पिता-पुत्र संबंध और पारिवारिक भावनाएं कूट-कूट कर भरी हैं तथा फिल्म बच्चों को संबोधित करती है। कथा का मूल मंत्र अच्छाई है और विश्वास से कहा गया है कि विज्ञान तथा टेक्नोलॉजी से अर्जित असीमित शक्ति को भी वह मनुष्य अपनी सीमाओं में रहकर भी पराजित कर सकता है जो सत्य व न्याय के लिए लड़ रहा है। गोया कि नेक नीयत अपने आप में एक महाशक्ति है। फिल्म का संदेश है कि हर व्यक्ति नायक है, अगर वह सत्य के लिए लड़ता है। इरादों की बुलंदगी को इस तरह प्रस्तुत किया गया है कि सस्पेंस बना रहता है और खलनायक के जन्म का रहस्य आखिरी रील में ही उजागर होता है।

विज्ञान फंतासी में यह दार्शनिक विचार हमेशा बुना रहता है कि मशीनों पर आधारित जीवनशैली में मनुष्य अपनी संवेदना खो सकता है तथा मशीनों में मानवीय हृदय धड़क सकता है। इस फिल्म में कंगना रनावत अभिनीत पात्र काया मशीन मानव है और नायक की संवेदनाओं के स्पर्श से उसका काया पलट होता है तथा वह अपने को बनाने वाले खलनायक के खिलाफ नायक की सहायता करती है। कुछ पात्रों की रचना देवकीनंदन खत्री के 'चंद्रकांता' के अंदाज में नित भेेष बदल सकने वाले अय्यार के रूप में हुई है।

बच्चों की मासूमियत से रची विज्ञान फंतासी में यह संकेत भी स्पष्ट रूप से उभरा है कि अजूबे रचने वाला विज्ञान लालची लोगों के हाथ में जाने से समस्त मानवता को कष्ट हो सकता है और शायद लंबी ज़बान चलाने वाले दैत्य भी इसी लालच के प्रतीक स्वरूप गढ़े गए हैं।

विज्ञान फंतासी के पुरोधा एच.जी. वेल्स को भी यह शंका थी कि किसी दिन मनुष्य मशीनों का दास हो सकता है। लालच के खूनी पंजों में फंसकर टेक्नोलॉजी घातक स्वरूप ग्रहण कर सकती है। राकेश रोशन गहन गंभीर विचार भी बच्चे तक समझ सकें ऐसी सफलता से प्रस्तुत करते हैं। रितिक रोशन ने बूढ़े पिता की भूमिका गहरी संवेदना के साथ बाल सुलभ मासूमियत से प्रस्तुत की है। फिल्म में दो विपरीत रितिक हैं और अदायगी ऐसी है कि यकीन भी हो जाता है कि अलग-अलग व्यक्ति भूमिका कर रहे हैं। इसी तरह अय्यार कंगना भी दोनों पहचान का निर्वाह सहजता से करती हैं। काया के चमड़ी से चिपके चमड़े की वेशभूषा पहनना काफी कठिन रहा होगा।

रितिक भी पिता की भूमिका में कष्ट उठाते हैं और मेकअप करने वालों ने घोर परिश्रम किया है। विवेक ओबेरॉय के रूप में एक अत्यंत दंभी एवं निर्मम खलनायक रचा गया है और वह नरसंहार की बात इतनी सहजता से करता है मानो यह उसका सहज दैनिक कार्य है। राकेश रोशन ने इस पात्र को कहीं भी हिस्टीरीकल नहीं होने दिया। हमेशा सहज ढंग से विध्वंस करता है और क्लाइमैक्स में उसके सामने एक साहसी अबोध बालक खड़ा कर दिया है। इस बालक पात्र को पहले ही स्थापित कर दिया है।

धार्मिक आख्यानों एवं विज्ञान फंतासी में समान ढंग से तर्क के परे अजूबे गढ़े होते हैं। ऐसे भी विज्ञान पूर्व सदियों में दी गई कल्पना को यथार्थ स्वरूप दे रहा है। धार्मिक आख्यानों का घटनाक्रम आशीर्वाद एवं श्राप के पहियों पर चलता है जिसे विद्वान फंतासी में वादे और इरादों से स्थानापन्न किया जाता है परंतु राकेश रोशन धार्मिक आख्यानों के संकेतों का इस्तेमाल अपनी विज्ञान फंतासी में सहजता से करते हैं जैसे ओम की ध्वनि, उगते सूर्य की किरणें, काया, माया और काल इत्यादि का इस्तेमाल। वे कृष्ण को भी स्थापित करते हैं और अपने नायक कृश को उसी स्वरूप में ढालते हैं। अंतिम संवाद में आशीर्वाद का भी इस्तेमाल किया है और जीवन-मरण के अनवरत घूमते हुए चक्र की बात भी करते हैं।