विज्ञापन और अंतराल सीरियल किलर / जयप्रकाश चौकसे

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विज्ञापन और अंतराल सीरियल किलर
प्रकाशन तिथि : 29 जुलाई 2019


यह मान्यता रही है कि आधे घंटे के एक एपिसोड में 8 मिनट के विज्ञापन होंगे और कंटेंट 22 मिनट का होगा, परंतु आजकल विज्ञापनों की भरमार है और अंतराल का हाल यह है कि सीरियल से किसी पात्र के संवाद पूरा होते ही विज्ञापन दिखाए जाते हैं। इसके साथ ही चैनल पर आगामी कार्यक्रम की झलकियां भी बार-बार दिखाई जाती हैं। इस तरह कथा गौण होती जा रही है। इतना ही नहीं, हर ब्रेक के बाद पहले ही दिखाए गए दृश्य का अंतिम भाग पुनः दिखाया जाता है। दर्शक की 'प्यास' बनी रहती है।

दरअसल, यह रस भंग की चेष्टा मानी जानी चाहिए। यह सही है कि विज्ञापन द्वारा अर्जित धन से ही चैनल अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं, परंतु अतिरेक हमेशा बुरा ही होता है। शराब की बात तो छोड़िए अधिक मात्रा में पानी का सेवन भी एक नशा ही है। दरअसल, भोजन करने के तुरंत बाद पानी नहीं पीना चाहिए, क्योंकि यह पाचन के लिए शरीर में उत्पन्न अम्ल को ही बेअसर कर देता है। यह इस तरह हो रहा है कि दूध में पानी नहीं मिलाते हुए पानी में ही दूध मिलाया जा रहा है। दर्शक की पाचन शक्ति का मखौल बनाया जा रहा है। इंटरनेट पर मनोरंजन उपलब्ध है और वहां विज्ञापन व अंतराल भी नहीं हैं। सोप ऑपेरा के साबुन में अब झाग घटता जा रहा है। ऊब का मारा दर्शक ऊब की अंतहीन घाटी में फेंका जा रहा है। इस तरह का रस भंग दर्शक को सिनेमाघरों की ओर भेज रहा है परंतु सिनेमाघरों की संख्या घट रही है। सरकार सिनेमाघर निर्माण के सदियों पुराने नियम बदलने को तैयार नहीं है। सीरियल बनाने वालों का कहना है कि लेखकों का अभाव है। सच यह है कि प्रतिभा के रास्ते में आपने रोड़े खड़े कर दिए हैं। इसके साथ यह भी सच है कि प्रतिभाशाली लेखक मनोरंजन विधा को सीखना ही नहीं चाहते।

वे अपनी साहित्य में अर्जित ख्याति के संगमरमरी गुंबद में कैद हैं। एक दौर में पुणे फिल्म संस्थान में प्रतिभा का परिमार्जन होता था परंतु आज संस्थाओं के विघटन के दौर में वहां फाख्तें ही उड़ रही हैं। स्कूल के पाठ्यक्रम में फिल्म आस्वाद एवं निर्माण को कम से कम एक विषय तो बनाया जा सकता है, परंतु उसके लिए शिक्षक खोजना आसान काम नहीं है। दिल्ली स्थित फिल्म विधा सिखाने का दावा करने वाली एक संस्था में इतिहास में एमए पास व्यक्ति अभिनय सिखा रहा है और भूगोल पढ़ा व्यक्ति सिनेमैटोग्राफी पढ़ा रहा है। जो व्यक्ति दो दूनी पांच कहता है उस व्यक्ति को निर्देशन कला सिखाने का काम सौंपा गया है। इन विषम हालातों में भी 'पिंक','मुल्क', 'पीकू' और 'भाग मिल्खा भाग' जैसी फिल्में बनाई जा रही हैं, क्योंकि इस विधा में किसी एकलव्य का अंगूठा नहीं काटा गया है। जीवन की पाठशाला भी सिने विधा का ज्ञान प्रदान करती है।

ऊब उन महान भवनों में भी पसरी हुई है, जहां से हुकूमत की जा रही है। इन भवनों के खामोश गलियारों में सामूहिक ऊब आप सुन सकते हैं। अब ऊब ने एक यथार्थ हैसियत प्राप्त कर ली है। ऊब की विशाल चादर ने सारी जमीन ही नहीं आकाश तक अपने को फैला लिया है। छोटे परदे पर पुरातन स्थानों से प्रेरित कार्यक्रमों की भरमार है। यह तथाकथित पुरातन आख्यान भी कुछ समय पूर्व ही रचे गए। 'शोले' के प्रदर्शन के दौर में सितारा रहित येन केन प्रकारेण बनाई फिल्म 'संतोषी मां' ने लागत के हिसाब से 'शोले' से अधिक धन कमाया था। उस फिल्म के प्रदर्शन के बाद घर-घर संतोषी मां की पूजा की जाने लगी। इस तरह सिनेमा ने अपनी मायथोलॉजी भी रची। उसका प्रारंभ भी मायथोलॉजी प्रेरित कथाओं से ही हुआ था। इस तरह हमने अपने इतिहास को भी रोमांटिसाइज कर लिया है। इस तरह की फिल्म भी बनाई जा सकती है कि हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप ही विजयी हुए थे। हम आत्ममुग्ध लोग हैं। दशों दिशाओं से अपनी जय जयकार हम सुनते हैं और यह हमारी अपनी मौलिक खोज है। हम स्वयं ही अपने अभावों का विज्ञापन बन चुके हैं और निरंतर प्रवाहित समय में अंतराल की तरह मौजूद हैं। सीरियल में कथा को अनावश्यक रूप से लंबा खींचने का आर्थिक पक्ष यह है कि मुख्य सेट की कीमत प्रति एपिसोड कम होती जाती है। मसलन प्रमुख सेट की लागत 50 लाख है और केवल 50 एपिसोड शूट किए तो प्रति एपिसोड एक लाख होगा परन्तु एपिसोड की संख्या बढ़ने पर यह घटती जाती है। आर्थिक पक्ष के कारण कथा रबड़ की तरह खींची जाती है। विज्ञापन और अंतराल भी बढ़ते जाते हैं।