विज्ञापन फिल्मों का मायावी संसार / जयप्रकाश चौकसे

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विज्ञापन फिल्मों का मायावी संसार
प्रकाशन तिथि :05 अगस्त 2015


साबुन की एक विज्ञापन फिल्म में रिक्शे से एक नवयुवती उतरती है, जिसके कपड़े साफ धुले हैं और उनमें चमक है। बैंक का मैनेजर इस युवती का स्वागत करता है, जो आज ही नौकरी प्रारंभ कर रही है। वह पूछता है कि आप रिक्शे से क्यों आईं तो वह युवती सगर्व रिक्शाचालक का परिचय कराती है कि वे उसके पिता हैं और उनकी दिन-रात की मेहनत से ही वह इतनी शिक्षित हो पाई। इसी समय पार्श्व ध्वनि गूंजती है कि यह चमक ही आपकी पहचान है। यह कपड़े धोने के साबुन का विज्ञापन आज के बाजारू दौर का परिचय दे रहा है कि चमक आपकी पहचान है जबकि प्रतिभा व सोच-विचार व्यक्ति की असली पहचान है। विज्ञापन अपनी चीजों को लोकप्रिय बनाने के काम के साथ जीवन मूल्यों को बदलने की चेष्टा करते हैं। जैसे ही विज्ञापन में 'दिल मांगे मोर' गूंजा वैसे ही फिल्म में गीत आया 'पप्पू कान्ट डांस साला'। आज हिंदुस्तानी गानों में अंग्रेजी शब्दों का बाहुल्य केवल भाषा की मिलावट नहीं है वरन् जीवन मूल्यों को तोड़ने का भी प्रयास है।

भारत में आर्थिक उदारवाद के पहले ही लंदन में उस कमेटी की बैठक हुई, जिसका काम ही अंग्रेजी भाषा का व्यापक प्रचार है और इस कमेटी में तय हुआ कि ग्रामर आधारित अंग्रेजी के व्यापक प्रचार के लायक धन उपलब्ध नहीं है अत: विज्ञापन एजेंसियों पर दबाव बनाएं कि वे अंग्रेजी शब्दों का बाहुल्य रखें तथा भारतीय जीवनशैली में अंग्रेजियत इस तरह ठूंस दी जाए कि हमें प्रचार पर खर्च न करना पड़े। इस संदर्भ में लगभग 175 वर्ष पूर्व की ब्रिटिश संसद के लॉर्ड मैकाले की गुलाम देशों में अंग्रेजी शिक्षा के प्रवेश के प्रस्ताव पर बहस के दरमियान अधिकांश सांसदों का ख्याल था कि अंग्रेजी के प्रवेश के बाद कुछ मेधावी भारतीय ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज में शिक्षा पाकर अपने देश में स्वतंत्रता की अलख जगाएंगे। इस बात पर लॉर्ड मैकाले का कथन था कि हर गुलाम देश किसी न किसी दिन आजाद हो जाएंगा परंतु भारत में अंग्रेजी शिक्षा के कारण अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजियत भारत के स्वभाव या डीएनए में शामिल हो जाएंगी। अत: सांसदों ने बिल को मंजूरी दे दी। यह लेख अंग्रेजी भाषा के खिलाफ नहीं परंतु भारत में भारतीयता को अक्षुण्ण रखने का छोटा-सा प्रयास है। यहां भारतीयता से तात्पर्य संकीर्ण राजनीति में उसके इस्तेमाल से नहीं है और न ही आधुनिकता का अर्थ तर्क सम्मत विचार की मुखालिफत है। कूपमंडूकता ही भाषा और संस्कृति का विरोध करती है। विज्ञान और टेक्नोलॉजी की सारी किताबें अंग्रेजी भाषा में हैं, यहां तक कि सिनेमा शास्त्र की किताबें भी अंग्रेजी में हैं। अंग्रेजी पर अधिकार जमाते हुए भी भारतीयता अक्षुण्ण रखी जा सकती है। अब तक के तमाम नेताओं में अंग्रेजी भाषा पर सबसे अधिक अधिकार नेहरू और आंबेडकर जी का था और दोनों ने अपनी भारतीयता को भी अक्षुण्ण रखा। आज के सभी नेताओं के अवचेतन में नेहरू और आंबेडकर ही समाएं हैं परंतु वे इसे सरेआम कैसे स्वीकार करें और महात्मा गांधी की नकल संभव नहीं है, इसलिए वे उनके अवचेतन में नहीं हैं। एक व्यक्ति ने भोंडा प्रयास किया था गांधी बनने का और आज वह हाशिये पर पड़ा है।

बहरहाल, विज्ञापन फिल्मों को गौर से देखना चाहिए। खुशबू के एक विज्ञापन में स्क्रीन पर तीन डिओडेरेन्ड के छोटे सिलेंडर स्क्रीन पर उभरते हैं और किसी महिला की सुंदर ऊंगलियां पहले दो सिलेंडर स्पर्श करती हैं तो वे सिकुड़ जाते हैं, लुंज पड़ जाते हैं परंतु तीसरा सिलेंडर स्पर्श से खूब बड़ा आकार ग्रहण करता है। पुरुषों के लिए डिओडेरेन्ड का यह विज्ञापन अश्लील है परंतु सेंसर तो केवल कथा फिल्मों में ही अश्लीलता खोजता रहता है। इस समय देश में विज्ञापन पर कोई सेंसर नहीं है परंतु विद्वानों पर सेंसर का पंजा सख्त है। एक शेर हैं 'ये जिंदगी ख्वाबे कायनात है, डूबते जाते हैं तारे भीगती जाती है रात' इसे बदल कर कहें कि जिंदगी पर अनजान भय छाया है, आशाएं मिट रही हैं और ऊर्जा गल रही है। कई बार यह खयाल आता है कि उत्पाद के प्रचार के भव्य बजट को कंपनियां घटा दें तो कम दाम में उत्पाद बेचकर भी वही मुनाफा कमाया जा सकता है। विज्ञापन फिल्में देखकर कम लोग ही वस्तुएं खरीदते हैं। केवल एक विज्ञापन यथेष्ट है कि विज्ञापन खर्च काटकर वस्तु इतने काम दाम में उपलब्ध है। यह संभव नहीं है, क्योंकि विज्ञापन महज उत्पाद का प्रचार नहीं, विचार प्रक्रिया बदलने का षड़यत्र है। व्यवस्था विचारहीनता पर टिकी है।

शैलेंद्र की पंक्तिया हैं, 'जो दिन के उजाले में न मिले, दिल ढ़ूंढे ऐसे सपने को, इसे रात 'बाजार' की जगमग में मैं ढूंढ़ रही हूं अपने को। इठलाती हवा नीलम सा गगन, कलियों पर बेहोशी की नमी, ऐसे में भी क्योंकि बेचैन है दिल, जीवन में न जाने क्या है कमी'। विज्ञापन से यह कमी नहीं भरेगी।