विज्ञापन फिल्मों पर गाज गिरी / जयप्रकाश चौकसे

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विज्ञापन फिल्मों पर गाज गिरी
प्रकाशन तिथि : 14 मई 2013


विज्ञापन उद्योग तेजी से प्रगति कर रहा है और सरकार को मनोरंजन उद्योग की तरह इस उद्योग से भी कर के रूप में मोटी रकम मिलती है। टेलीविजन पर प्रदर्शित विज्ञापन फिल्मों की आय के कारण ही सेटेलाइट पर फिल्म प्रदर्शन की कीमत करोड़ों हो गई है और टेलीविजन पर कार्यक्रम प्रसारण का आर्थिक आधार भी यही है। भारत के फैलते हुए बाजार में नए ब्रांड आ रहे हैं और उन्हें स्थापित करने के लिए टेलीविजन पर विज्ञापन सबसे कारगर है। भारत की जानलेवा गर्मी में क्रिकेट का खेल शीतल पेय के विज्ञापन के दम पर ही चल रहा है। यह क्रिकेट तमाशा अब इतना बड़ा उद्योग हो गया है कि पानी की कमी, बिजली का आवश्यकता से कम उत्पादन जैसी गंभीर राष्ट्रीय समस्याएं भी हाशिये में डाल दी गई हैं। यहां तक कि एक भी सांसद ने कभी सवाल उठाना भी मुनासिब नहीं समझा। इसी क्रिकेट तमाशे से जुड़ा है इसका सट्टा, जिसमें करोड़ों का लेन-देन हो रहा है और यह काले धन का स्रोत बन गया है। दुनिया के कई देशों में क्रिकेट पर सट्टा जायज है और यह हमारे यहां करने से न केवल सरकार की आय बढ़ेगी वरन काले धन का एक स्रोत भी बंद हो जाएगा।

बहरहाल, टेलीकॉम रेग्युलेटरी अथॉरिटी ने आदेश जारी किया है कि प्रतिदिन १२०० विज्ञापन स्लॉट को लगभग ५०० स्लॉट सीमित कर दिया जाए और प्रतिघंटे विज्ञापन समय बारह मिनट सीमित कर दें, अभी यह २५ मिनट है। इस आदेश को जारी करने का उद्देश्य यह है कि इतना अधिक विज्ञापन दर्शक के टीवी देखने के अनुभव को प्रभावित करता है। बहरहाल, इस आदेश से न केवल विज्ञापन उद्योग प्रभावित होगा वरन टेलीविजन उद्योग की आय और कार्यक्रमों के लिए दिया गया बजट भी प्रभावित होगा। इस तरह से जिस उद्योग के तीस हजार करोड़ तक पहुंचने का अनुमान था, वह जाने कहां रुक जाए जिसका परोक्ष प्रभाव टेलीविजन निर्माण कंपनियों पर भी पड़ेगा।

विज्ञापन से दर्शक कितना प्रभावित होता है? कई क्षेत्रों में प्रभाव व्यापक है। एक मोटरसाइकिल अपने क्षेत्र में आखिरी नंबर पर थी और सबसे अधिक लोकप्रिय सितारे की विज्ञापन फिल्मों के प्रदर्शन के बाद शिखर से केवल कुछ दूरी पर पहुंच गई है। अनेक माताएं अपने बच्चों की सेहत की खातिर उनके दूध में विज्ञापित वस्तु का प्रयोग करती हैं। एलोपैथी की दवाओं में विज्ञापित घटकों की जांच होती है। कुछ समय पूर्व ही सुप्रीम कोर्ट ने एक विदेशी दवा के नुस्खे को नया मानने से इनकार करते हुए उसे कॉपीराइट के लाभ लेने से रोक दिया। आयुर्वेद के नाम पर प्रचारित दवाओं के घटकों की जांच नहीं होती। देश में आंवले की पैदावार से दोगुनी का प्रयोग एक पुराने नुस्खे में होने की बात लगभग उसी तरह है कि जितनी ब्लैक लेबल शराब भारत में बिकती है, उतनी स्कॉटलैंड में बनती भी नहीं। आयुर्वेद शंका के परे है, परंतु जंगलों के नाश के साथ ही जड़ी-बूटियां भी नष्ट हो गईं और उसके नाम पर संदिग्ध चीजें विज्ञापित होती हैं। सबसे अधिक विज्ञापन साफ-सफाई की वस्तुओं के हैं, परंतु देश में गंदगी अनेक स्तरों पर फैलती ही जा रही है।

बहरहाल, इस समय विज्ञापन उद्योग में सृजन करने वाले अनेक आला दर्जा दिमाग सक्रिय हैं और कुछ विज्ञापनों में सामाजिक सोद्देश्यता भी कथा फिल्मों से अधिक देखी जा सकती है। मसलन इस समय पंखे की एक विज्ञापन शृंखला का थीम वाक्य है कि (परिवर्तन) ताजा हवा चल रही है। एक विज्ञापन में वृद्धों के आश्रम में एक दंपती प्रवेश करते हैं और संचालिका उनसे कहती है कि बिना शंका के वे अपने वृद्धोंं को उनकी देखभाल में छोड़ सकते हैं। तब दंपती का कहना है कि उनके परिवार में कोई बुजुर्ग नहीं है, वे तो किसी बुजुर्ग को लेने आए हैं। इसी की दूसरी कड़ी में शादी के दफ्तर में एक युवा जोड़े में पति कहता है कि उसकी पत्नी अपना सरनेम नहीं बदलेगी, वह स्वयं का सरनेम बदलेगा। इस तरह तीसरी कड़ी में बच्ची का धर्म लिखाने से इनकार करते हैं कि हिंदू-मुसलमान की यह बच्ची बड़ी होकर स्वयं अपना धर्म चुनेगी। हम इस पर कुछ थोपना नहीं चाहते।

इसी कंपनी के वायर के विज्ञापन हमेशा ही सुरुचिपूर्ण ढंग से बनाए गए हैं। ताजा कड़ी में एक व्यक्ति टेलीविजन पर एक नेता का भाषण सुन रहा है, जो देश में फैली जाति-पांति भेद और अन्य समस्याओं की आग की बात करते हुए पूछता है कि देश को कौन बचाएगा? उस व्यक्ति का बेटा वायर पर तिरंगा लेकर कहता है कि देश को बचा लिया। बच्चे ही बचाएंगे देश को। इसी तरह कपड़े धोने के साबुन के एक विज्ञापन में बच्चे एक-दूसरे को बचाने के लिए कीचड़ में सन जाते हैं और कहा गया है कि ऐसे दाग अच्छे हैं। यह भी सच है कि अनेक विज्ञापन भ्राक हैं और कुछ तो अश्लील भी हैं, जैसे एक परफ्यूम का विज्ञापन जिसमें स्त्रियों को बेकाबू होते दिखाया गया है। टेलीकॉम अथॉरिटी इस मामले में खामोश है। बदलते हुए भारत की छवियां कथा फिल्मों से अधिक विज्ञापन फिल्मों में देखी जा सकती हैं। यह आकलन नहीं किया जा सकता कि विज्ञापन फिल्मों का कितना असर होता है, परंतु सामाजिक सोद्देश्यता वाली फिल्मों का असर नजर नहीं आता। समाज अभी जड़ ही बना हुआ है। इस तथ्य के बावजूद सार्थक प्रयास जारी रहना चाहिए। विज्ञापन देखने वाले के अवचेतन पर कुछ असर तो डालते ही हैं। अनेक दशक पूर्व अमेरिका में एक विज्ञापन पर आरोप था कि हर पांचवें फ्रेम में एक अश्लील तस्वीर है, जो परदे पर क्षणांश के लिए उभरती है और सामान्य तरीके से देखने पर अनदेखी रह जाती है, परंतु अवचेतन में वह दर्ज हो जाती है। बहरहाल, विज्ञापन उद्योग में कल्पनाशील और सृजनशील लोग सक्रिय हैं। इसकी तुलना में कथा फिल्में अर्धशिक्षितों के हाथ में ही हैं।