विदेशी धन के साथ और क्या आयेगा / हरिशंकर परसाई

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इन दो शालों में जो विदेशी कर्ज लिया है, उसके बारे में जितनी तीव्र प्रतिक्रियाएँ हुई हैं, वैसे पिछले चालीस सालों में नहीं हुईं। अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में कर्ज का लेन-देन होता ही है। भारत उन दो संगठनों का सदस्य है, जिनसे वह कर्ज ले रहा है-विश्वबैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोश। भारत कर्ज लेने वाला भी है और देने वाला भी। पर इन संगठनों पर अमेरिका और पूँजीवादी (पहले साम्राज्यवादी भी) यूरोप का कब्जा है। अधिक वास्तव यह है कि अमेरिका का कब्जा है। हम कमजोर देश ही माने जाते हैं। हमारी अर्थ-व्यवस्था की जाँच के लिए अमेरिका के विशेषज्ञ इंस्पेक्टर आते हैं। बताते हैं-यह गड़बड़ है, यह नीति गलत है, पैसा गलत जगह लगा रहे हो। पिछले तीन महीनों में अमेरिका के तीन आर्थिक इंस्पेक्टर आ चुके। भारत का कोई विशेषज्ञ न अमेरिका जाता, न बुलाया जाता, वहाँ के हालात की जाँच करने। कारण ? हम सदस्य होकर भी भिखारी हैं। और जाँच भिखारी की की जाती है। गरीब की की जाती है-इसकी हैसियत है भी या नहीं ? यह भी देख जाता है कि इसे कर्ज दिलाकर अपनों का कितना लाभ कराया जा सकता है ? क्या शर्ते यह मान लेगा ? जवाहरलाल नेहरू कहते थे कि वी विल एक्सेप्ट एड विदाउट स्ट्रिक्ज (हम बिना शर्तों की मदद स्वीकार करेंगे)। एक नेता ने अभी संसद में यह कहा है। किसी दूसरे नेता ने कहा है-मदद इंदिरा गांधी भी लेती थीं, मगर झुककर नहीं।