विदेशों में महंगी शूटिंग का दर्द / जयप्रकाश चौकसे

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विदेशों में महंगी शूटिंग का दर्द
प्रकाशन तिथि : 05 सितम्बर 2013


इस समय फिल्म उद्योग के सारे बड़े निर्माता इस छातीकूट में लगे हैं कि अब विदेश में शूटिंग करना महंगा हो जाएगा, क्योंकि एक डॉलर के लिए पैंसठ रुपए देने होंगे और भव्य फिल्मों के इन निर्माताओं को रत्तीभर भी फिक्र इस बात की नहीं है कि आम आदमी को पेट्रोल के लिए अधिक धन देना पड़ेगा। यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि मनोरंजन व्यवसाय का सारा धन आम आदमी के फिल्म देखने से प्राप्त होता है और उन्हें उस आदमी की कोई चिंता ही नहीं है। फिल्मकार और उनके लेखक वातानुकूलित कक्षों में पिज्जा खाते हुए विचार करते हैं कि कौन-सा धांसू संवाद उनसे तालियां बजवाएगा और मजे की बात है कि हम तालियां बजाते भी हैं। अजीब बात यह भी है कि आम आदमी की क्या कहें, भव्य पांच सितारा होटल और सात सितारा क्लब फिल्म सितारे के जन्मदिन की दावत में उनसे नाममात्र को धन लेते हैं या मुफ्त भी कर देते हैं। इस तरह की दावत पर अधिकतम खर्च पांच लाख रुपए आ सकता है, परंतु मीडिया इन दावतों की खबर छापता है, टेलीविजन कवर करता है, जिससे होटल या क्लब को जो प्रचार मिलता है, वह पांच लाख से कई गुना अधिक का है।

बहरहाल, महंगी विदेश शूटिंग पर छातीकूट करने वाले यह भी भलीभांति जानते हैं कि विदेशों में उनकी सितारा जडि़त फिल्में खूब डॉलर कमाती हैं, अत: शूटिंग पर आए अधिक खर्च की भरपूर भरपाई हो जाती है। इन आंसुओं पर तो मगरमच्छ भी शर्मिंदा हो जाएगा। ज्ञातव्य है कि इंदिरा गांधी के दौर में यह नियम था कि विदेश में शूटिंग के लिए निर्माता द्वारा लिए गए डॉलर की दुगुनी राशि विदेश से कमाने पर ही भारत में फिल्म प्रदर्शित हो सकती है। अत: उस दौर में निर्माता विदेश क्षेत्र के वितरक से डॉलर में ही कीमत वसूल करता था। आज ऐसा कोई नियम नहीं है, अत: अधीर और उतावला निर्माता रुपए में ही कीमत ले लेता है। कुछ वर्षों या दशकों में यह बात सामने आएगी कि भारत को आर्थिक उदारवाद से हानि हुई है और नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था ही इस देश के लिए ठीक थी।

आज करोड़ों में खेलते सितारा और फिल्मकारों को यह चिंता नहीं सताती कि देश की आर्थिक हालत इतनी बिगड़ चुकी है कि विदेशी अपनी पूंजी यहां से वापस लेने का उपक्रम कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के जिस एफडीआई पर इतना हंगामा हुआ, संसद के अनेक सत्र विपक्ष ने बर्बाद किए, उसके पास होने के बाद एक भी विदेशी कंपनी भारत नहीं आना चाहती। हमारी बिखरी हुई व्यवस्था, ढीले कानून और अपराधियों को आश्रय देने से विदेशी पूंजी निवेश के लिए घबरा रहे हैं। चीन ने अपने देश के युवा आक्रोश और असंतोष पर लोहे की तानाशाही चादर डाली हुई है, इसलिए उसके अविश्वसनीय होने के बावजूद उसे विदेशी पूंजी मिल रही है। हॉलीवुड के डिज्नी कंपनी के विशेषज्ञों का आकलन था कि भारत थीम पार्क के लिए तैयार नहीं है और चीन के साथ साझेदारी में वहां थीम पार्क बनाया, जबकि भारत के मनमोहन शेट्टी ने इसे चुनौती की तरह लेकर मुंबई से मात्र सत्तर किलोमीटर की दूरी पर 'इमेजिका थीम पार्क' की रचना की। अब उन भारतीय धनाड्यों का क्या करें, जो सिंगापुर, हांगकांग थीम पार्क देखने जाते हैं। दरअसल, वही देश टिका रहता है, जो अपने परिश्रम, प्रतिभा और पूंजी से अपना विकास करे और भारत की तरह कोई देश विकास के मॉडल का आयात भी नहीं करता।

'पहल' के ताजा अंक में विष्णु खरे की कविता 'एवेन्डंड' अत्यंत महत्वपूर्ण है। दरअसल, इसमें हमारे संभावित भविष्य का संकेत है और यह एक 'परित्यक्त संस्कृति' का संकेत भी है। देखिए कैसे एक शब्द से महाकाव्य जैसा प्रभाव पैदा होता है - 'रेल के डिब्बे या बस में बैठे तुम सोचते हो, लेकिन वे लोग कहां हैं जो इन सब छोड़े गए ढांचों में तैनात थे या इनमें पूरी गृहस्थी बसाकर रहे, कितनी यादें तजना पड़ी होंगी उन्हें यहां, क्या खुद उन्हें भी आखिर में तज ही दिया गया?' इसमें 'तैनात' विचारों के रेजीमेंटेशन या तानाशाही व्यवस्था के एक-से विचार का सारगर्भित संकेत है।