विद्या और वय / राहुल सांकृत्यायन

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यदि सारा भारत घर-बार छोड़कर घुमक्कड़ हो जाय, तो भी चिंता की बात नहीं है। लेकिन घुमकक्ड़ीछ एक सम्मा नित नाम और पद है। उसमें, विशेषकर प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ों में सभी तरह के ऐरे-गैरे पंच-कल्यााणी नहीं शामिल किए जा सकते। हमारे कितने ही पाठक पहले के अध्यायों को पढ़कर बहुत प्रसन्ना हुए होंगे और सोचते होंगे - “चलो पढ़ने-लिखने से छुट्टी मिली। बस कुछ नहीं करना है, निकल चले, फिर दुनिया में कोई रास्ता निकल ही आयगा।” मुझे संदेह है कि इतने हल्केछ दिल से घुमक्कड़ पथ पर जो आरूढ़ होंगे, वह न घर के होंगे न घाट के, न किसी उच्चा दर्श के पालने में समर्थ होंगे। किसी योग्यर पद के लिए कुछ साधनों की आवश्येकता होती है। मैं यह बतला चुका हैं, कि घुमक्कड़-पथ पर चलने के लिए बालक भी अधिकारी हो सकता है, नवतरुणों और तरुणियों की तो बात ही क्या? लेकिन हरेक बालक का ऐसा प्रयास सफलता को कोई गारंटी नहीं रखता। घुमक्कड़ को समाज पर भार बनकर नहीं रहना है। उसे आशा होगी कि समाज और विश्वक के हरेक देश के लोग उसकी सहायता करेंगे, लेकिन उसका काम आराम से भिखमंगी करना नहीं है। उसे दुनिया से जितना लेना है, उससे सौ गुना अधिक देना है। जो इस दृष्टि से घर छोड़ता है, वही सफल और यशस्वी घुमक्कड़ बन सकता है। हाँ ठीक है, घुमक्कड़ों का बीज आरंभ में भी बोया जा सकता है। इस पुस्तुक को पढ़ने-समझने वाले बालक-बालिकाएँ बारह वर्ष से कम के तो शायद ही हो सकते हैं। हमारे बारह-तेरह साल के पाठक इस शास्त्रै को खूब ध्यारन से पढ़ें, संकल्‍प पक्का करें, लेकिन उसी अवस्था में यदि घर छोड़ने के लोभ का संवरण कर सकें, तो बहुत अच्छा होगा। वह इससे घाटे में नहीं रहेंगे।

मेरे छोटे पाठक उपरोक्त पंक्तियों को पढ़कर मुझ पर संदेह करने लगेंगे और कहेंगे कि मैं उनके माता-पिता का गुप्त चर बन गया हूँ और उनकी उत्सुकता को दबाकर पीछे खींचना चाहता हूँ। इसके बारे में मैं यही कहूँगा, कि यह मेरे ऊपर अन्यासय ही नहीं है, बल्कि उनके लिए भी हितकर नहीं हैं। मैं नौ साल से अधिक का नहीं था जब अपने गाँव से पहले-पहले बनारस पहुँच था। मुझे अँगुली पकड़कर मेरे चचा गंगा ले जाते थे। मैं इसे अपमान समझता था और खुलकर अकेले बनारस के कुछ भागों को देखना और अपने मन की पुस्त।कें खरीदना चाहता था। मैंने एक दिन आँख बचाकर अपना मंसूबा पूरा करना चाहा, दो या तीन मील का चक्कार लगाया। नौ वर्ष के बालक का एक बहुत छोटे गाँव से आकर एकदम बनारस की गलियों में घूमना भय की बात थी, इसमें संदेह नहीं, लेकिन मुझे उस समय नहीं मालूम था, कि घुमक्कड़ी का अंतर्हित बीज इस रूप में अपने प्रथम प्राकट्य को दिखला रहा है। अगली उड़ान जो बड़ी उड़ानों में प्रथम थी, चौदह वर्ष में हुई, यद्यपि अनन्यल रूप से घुमक्कड़ धर्म की सेवा का सौभाग्य मुझे 16 वर्ष की उम्र से मिला। मैं अपने पाठकों को मना नहीं करता, यदि वह मेरा अनुकरण करें, किंतु मैं अपने तजर्बे से उन्हें वंचित नहीं करना चाहता। कुछ बातें यदि पहले ही ठीक करली जायँ, तो आदमी के जीवन के बारह वर्ष का काम दो बरस में हो सकता है। मैं यह नहीं कहता कि दो वर्ष के काम के लिए बारह वर्ष घूमना बिलकुल बेकार है, किसी-किसी के लिए उसका भी महत्वी हो सकता है, लेकिन सभी बातों पर विचार करने पर ठीक यही मालूम पड़ता है, कि घुमक्कड़ का संकल्पे तो किसी आयु में पक्काव कर लेना चाहिए, समय-समय पर सामने आते बंधनों को काटते रहना चाहिए, किंतु पूरी तैयारी के बाद ही घुमक्कड़ बनने के लिए निकल पड़ना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि मन को पहले रंग लेना चाहिए, शरीर पर रंग चढ़ाने में यदि थोड़ी देर हो तो उससे घबड़ाना नहीं चाहिए। ठीक है, मैं ऐसी भी सलाह नहीं देता, जैसी कि मुरादाबाद के एक सेठ की योजना में थी। उनकी बड़ी आराम की जिंदगी थी, गर्मियों में खस की टट्टी और पंखे के नीचे दुनिया का ताप क्या मालूम हो सकता था। लेकिन देखा-देखी 'योग' करने की साध लग गई थी। वह चाहते थे कि निकलकर दुनिया में बिचरें। उन्हों ने दस दरियाई नारियल के कमंडलु भी मँगवा लिए थे। कहते थे - धीरे-धीरे जब दस आदमी यहाँ आ जायँगे, तब हम बाहर निकलेंगे। न जाने कितने सालों के बाद मैं उन्हेंय मिला था। मेरे में उतना धैर्य नहीं था कि बाकी आठ आदमियों के आने की प्रतीक्षा करता। घुमक्कड़ ही अधीरता को मैं पसंद करता हूँ। यह अधीरता ऐसी शक्ति है, जो मजबूत-से-मजबूत बंधनों को काटने में सहायक होती है।

पाठक कहेंगे, तब हमें रोकने की क्या आवश्य।कता? क्यों नहीं - “यदहरेव विरजेत तदहरेव प्रव्रजेत्” (जिस दिन ही मन उचटे, उसी दिन निकल पड़ना चाहिए)। इसके उत्तर में मैं कहूँगा - यदि आप तीसरी-चौथी-पाँचवी-छठीं श्रेणी के ही घुमक्कड़ बनना चा‍हते हैं, तो खुशी से ऐसा कर सकते हैं। लेकिन मैं चाहता हूँ कि आप प्रथम और द्वितीय श्रेणी के घुमक्कड़ बनें इसलिए मन को रँगकर निकलने से पहले थोड़ी तैयारी कर लें। घुमकक्ड़ीर जीवन के लिए पहला कदम है, अपने भावी जीवन के संबंध में पक्काथ संकल्पल कर डालना। इसको जितना ही जल्दीा कर लें, उतना ही अच्छा। बारह से चौदह साल तक ही उम्र तक में ऐसा संकल्पप अवश्य हो जाना चाहिए। बारह से पहले बहुत कम को अपेक्षित ज्ञान और अनुभव होता है, जिसके बल पर कि वह अपने प्रोग्राम की पक्कीक कर सकें। लेकिन बारह और चौदह का समय ऐसा है जिसमें बुद्धि रखनेवाले बालक एक निश्च य पर पहुँच सकते हैं। प्रथम श्रेणी के घुमक्कड़ के लिए मेधावी होना आवश्येक है। मैं चाहता हूँ, घुमक्कड़-पथ के अनुयायी प्रथम श्रेणी के मस्तिष्क वाले तरुण और तरुणियाँ बनें। वैसे अगली श्रेणियों के घुमक्कड़ों से भी समाज को फायदा है, यह मैं बतला चुका हूँ। 12-14 की आयु में मानसिक दीक्षा लेकर मामूली सैर-सपाटे के बहाने कुछ इधर-उधर छोटी-मोटी कुदान करते रहना चाहिए।

कौन समय है जबकि तरुण को महाभिनिष्क्रमण करना चाहिए? मैं समझता हूँ इसके लिए कम-से-कम आयु 16-18 की होनी चाहिए और कम-से-कम पढ़ने की योग्य ता मैट्रिक या उसके आसपास वाली दूसरी तरह की पढ़ाई। मैट्रिक से मेरा मतलब खास परीक्षा से नहीं है, बल्कि उतना पढ़ने में जितना साधारण साहित्यढ, इतिहास, भूगोल गणित का ज्ञान होता है, घुमकक्ड़ीा के लिए वह अल्प तम आवश्यनक ज्ञान है। मैं चाहता हूँ कि एक बार चल देने पर फिर आदमी को बीच में मामूली ज्ञान के अर्जन की फिक्र में रुकना नहीं पड़े।

घर छोड़ने के लिए कम-से-कम आयु 16-18 है, अधिक से अधिक आयु मैं 23-24 मानता हूँ। 24 तक घर से निकल जाना चाहिए, नहीं तो आदमी पर बहुत-से कुसंस्का र पड़ने लगते हैं, उसकी बुद्धि मलिन होने लगती है, मन संकीर्ण पड़ने लगता है, शरीर को परिश्रमी बनाने का मौका हाथ से निकलने लगता है, भाषाएँ सीखने में सबसे उपयोगी आयु के कितने ही बहुमूल्यर वर्ष हाथ से चले जाते हैं। इस तरह 16 से 24 साल की आयु वह आयु है जब कि महाभिनिष्क्र मण करना चाहिए। इनमें दोनों के बीच के बीच के आठ वर्ष की आधी अर्थात् 20 वर्ष की आयु को आदर्श माना जा सकता है। इसका अर्थ यह है कि अल्पवतम अवसर के बाद भी आदमी चार वर्ष और अपने पर जोर डालकर अपनी शिक्षा में लगा रहे। यदि रखना चाहिए, प्रथम श्रेणी का घुमक्कड़ कवि, लेखक या कलाकार के रूप में संसार के सामने आता है। कवि, लेखक और कलाकार यदि ज्ञान में टुटपुंजिये हों, तो उनकी कृतियों में गम्भीारता नहीं आ सकती। अल्प श्रुति व्य क्ति देखी जानेवाली चीजों की गहराई में नहीं उतर सकते। पहले दृढ़ संकल्प कर लेने पर फिर आगे की पढ़ाई जारी रखते आदमी को यह भी पता लगाना चाहिए, कि उसकी स्वाभाविक रुचि किस तरह अधिक है, फिर उसी के अनुकूल पाठय-विषय चुनना चाहिए। मैट्रिक की शिक्षा मैंने कम-से-कम बतलाई और अब उसमें चार साल और जोड़ रहा हूँ, इससे पाठक समझ गये होंगे कि मैं उन्‍हें विश्व विद्यालय का स्नातक (बी.ए.) हो जाने का परामर्श दे रहा हूँ। यह अनुमान गलत नहीं है। मेरे पाठक फिर मुझसे नाराज हुए बिना नहीं रहेंगे। वह धीरज खोने लगेंगे। लेकिन उनके इस क्षणिक रोष से मैं सच्चीस और उनके हित की बात बताने से बाज नहीं था सकता। जिस व्यनक्ति में महान घुमक्कड़ का अंकुर है, उसे चाहे कुछ साल भटकना ही पड़े, किंतु किसी आयु में भी निकलकर वह रास्तात बना लेगा। इसलिए मैं अधीर तरुणों के रास्तेउ में रुकावट डालना नहीं चाहता। लेकिन 40 साल की घुमकक्ड़ी के तजर्बे ने मुझे बतलाया है, कि तैयारी के समय को थोड़ा पहले ही बढ़ा दिया जाय, तो आदमी आगे बड़े लाभ में रहता है। मैंने पुस्तहकें लिखते वक्तर सदा अपनी भोगी कठिनाइयों का स्मरण रखा। मुझे 1916 से 1932 तक के सोलह वर्ष लगाकर जितना बौद्ध धर्म का ज्ञान मिला, मैंने एक दर्जन ग्रंथों को लिखकर ऐसा रास्ताम बना दिया है, कि दूसरे सोलह वर्षों में प्राप्तन ज्ञान को तीन-चार वर्ष में अर्जित कर सकते हैं। यदि यह रास्ताष पहले तैयार रहता, तो मुझे कितना लाभ हुआ होता? जैसे यहाँ यह विद्या की बात है, वैसे ही घुमकक्ड़ीग के साधनों के संग्रह में बिना तजर्बे वाले आदमी के बहुत-से वर्ष लग जाते हैं। आपने 12-14 वर्ष की आयु में दृढ़ संकल्प कर लिया, सोलह वर्ष का आयु में मैट्रिक तक पढ़कर आवश्य क साधारण विषयों का ज्ञान प्राप्तय कर लिया है। आप दुनिया के नक्शेर से वाकिफ हैं, भूगोल का ज्ञान रखते हैं, दुनिया के देशों से बिलकुल अपरिचित नहीं हैं।

जब अपने संकल्पन कर लिया है, तो अगले चार-पाँच साल में अपने आसपास के पुस्तेकालयों या अपने स्कूपल की लायब्रेरी में जितनी भी यात्रा-पुस्त कें और जीवनियाँ मिलती हों, उन्हेंं जरूर पड़ा होगा। अच्छेड उपन्यातस-कहानी घुमक्कड़ की प्रिय वस्तुल हैं, लेकिन उसकी सबसे प्रिय वस्तु है यात्राएँ। आजकल के भारतीय यात्रियों की पुस्तहकें आपने अवश्य पढ़ी होंगी, फिर पुराने-नए सभी देशी-विदेशी यात्रियों की यात्राएँ आपके लिए बहुत रुचिकर प्रतीत हुई होंगी। प्राचीन और आधुनिक देशी-विदेशी सभी घुमक्कड़ एक परिवार के लगे भाई हैं। उनके ज्ञान को पहले अर्जित कर लेना तरुण के लिए बहुत बड़ा संबल है। मैट्रिक होते-होते आदमी को यात्रा-संबंधी डेढ़-दो सौ पुस्त कें तो अवश्य पर डालनी चाहिए।

घुमक्कड़ को भिन्नभ-भिन्नय भाषाओं का ज्ञान अपनी यात्रा में प्राप्तड करना पड़ता है। कुछ भाषाएँ तो 16 वर्ष की उम्र तक भी पढ़ी जा सकती है। हिंदी वालों को बँगला और गुजरती का पढ़ना दो-महीनों की बात है। अंग्रेजी अभी हमारे विद्यालयों में अनिवार्य रूप से पढ़ाई जा रही है, इसलिए अंग्रेजी पुस्तीकें पढ़ने का सुभीता भी मौजुद है। लेकिन दस-पंद्रह वर्ष बाद यह सुभीता नहीं रहेगा, क्योंीकि अंग्रेजी-संरक्षक श्वेीत-केश वृद्ध नेता तब तक परलोक सिधार गये होंगे। लेकिन उस समय भी घुमक्कड़ अपने की अंग्रेजी या दूसरी भाषा पढ़ने से मुक्तध नहीं रख सकता। पृथ्वीो के चारों कोनों में भाषा की दिक्कंत के बिना घूमने के लिए अंग्रेजी, रूसी, चीनी और फ्रेंच इन चार भाषाओं का कामचलाऊ ज्ञान आवश्य्क है, नहीं तो जिस भाषा का ज्ञान नहीं रहेगा, उस देश की यात्रा अधिक आनंददायक और शिक्षाप्रद नहीं हो सकेगी।

मैट्रिक के बाद अपने आगे की तैयारी के लिए चार साल यात्रा को स्थरगित रखकर आदमी को क्या करना चाहिए? घुमक्कड़ के लिए भूगोल और नक्शेा का ज्ञान अत्यंत आवश्योक है। मैट्रिक तक भूगोल और नक्शेि का जो ज्ञान हुआ है, वह पर्याप्तस नहीं है। आपको नई पुरानी कोई भी यात्रा-पुस्तकक को पढ़ते समय नक्शेअ को देखते रहना चाहिए। केवल नक्शा देखना पर्याप्त नहीं है, क्योंयकि उसमें उन्न‍तांश और ग्लेमशियार आदि का चिह्न होने पर भी उससे आपको ठीक पता नहीं लगेगा कि जाड़ों में वहाँ की भूमि कैसी रहती होगी। नक्शेत में लेनिनग्राड को देखने वाला नहीं समझेगा कि वहाँ जाड़ों में तापमान हिमबिंदु से 45-50 डिग्री (-24,-30 सेंटीग्रेड) एक गिर जाता है। हिमबिंदु से 45-50 डिग्री नीचे जाने का भी भूगोल की साधारण पुस्त-कों से अनुमान नहीं हो सकता। हमारे पाठक जो हिमालय के 6000 फुट से ऊपर की जगहों में जाड़ों में नहीं गये, हिमबिंदु का भी अनुमान नहीं कर सकते। यदि कुछ मिनट तक अपने हाथों में सेर-भर बर्फ का डला रखने की कोशिश करें, तो आप उसका कुछ कुछ अनुमान कर सकते हैं। लेकिन घुमक्कड़ तरुण को घर से निकलने से पहले भिन्नं जलवायु की छोटी-मोटी यात्रा करके देख लेना चाहिए। यदि आप जनवरी में शिमला और नैनीताल को देख आए हैं, तो आप स्वेकन-चंग या फाहियान की तुषार-देश की यात्राओं के वर्णन का साक्षात्काउर कर सकते हैं, तभी आप लेनिनग्राड की हिमबिंदु से 45-50 डिग्री नीचे की सर्दी का भी कुछ अनुमान कर सकते हैं। इस प्रकार तरुण यह जानकर प्रसन्ने होंगे कि मैं तैयारी की समय में भी छोटी-छोटी यात्राओं के करने का जोर से समर्थन करता हूँ।

भूगोल और इतिहास के साथ-साथ विद्यार्थी अब यात्रा-संबंधी दूसरे साहित्य का भी अध्यकयन कर सकता है। कालेज में अध्यरयन के समय उसे लेखनी चलाने का भी अभ्याेस करना चाहिए। यह ऐसी आयु है बल्कि हरेक जीवट वाले तरुण-तरुणी में कविता करने की स्वाभाविक प्रेरणा होती है, कथा-कहानी का लेखक बनने की मन में उमंग उठती है। इससे लाभ उठाकर हमारे तरुण को अधिक-से-अधिक पृष्ठे काले करने चाहिए, लेकिन यदि वह अपनी कृतियों को प्रकाश में लाने के लिए उतावला न हो, तो अच्छा है। समय से पहले लेख और कविता का पत्रों में प्रकाशित हो जाना आदमी के हर्ष को तो बढ़ाता है, लेकिन कितनी ही बार यह खतरे की भी चीज होती है। कितने ही ऐसे प्रतिभाशाली तरुण देखे गये हैं, जिनका भविष्यह समय से पहले ख्या ति मिल जाने के कारण खतम हो गया। चार सुंदर कविताएँ बन गई, फिर ख्याहति तो मिलनी ही ठहरी और कवि-सम्मेकलनों में बार-बार पढ़ने का आग्रह भी होना ही ठहरा। आज की पीढ़ी में भी कुछ ऐसे तरुण है, जिन्हेंल जल्दी ही प्रसिद्धि ने किसी लायक नहीं रखा। अब उनका मन नवसृजन की ओर आता ही नहीं। किसी नए नगर के कवि-सम्मेनलन में जाने पर उनकी पुरानी कविता के ऊपर प्रचंड करतल-ध्व्नि होगी ही, फिर नाम क्योंस एकाग्र हो नवसृजन में लगेगा? घुमक्कड़ को इतनी सस्ती कीर्ति नहीं चाहिए, उसका जीवन तालियों की गूँज के लिए लालायित होने के लिए नहीं है, न उसे दो-बार वर्षों तक सेवा करके पेंशन लेकर बैठना है। घुमकक्डील का रोग तपेदिक के रोग से कम नहीं है, वह जीवन के साथ ही जाता है, वहाँ किसी को अवकाश या पेंशन नहीं मिलती।

साहित्या और दूसरी जिन चीजों की घुमक्कड़ों की आवश्योकता है, उनके बारे में आगे हम और भी कहने वाले हैं। यहाँ विशेष तौर से हम तरुणों का ध्या न शारीरिक तैयारी की ओर आकृष्टा करना चाहते हैं। घुमक्कड़ का शरीर हर्गिज पान-फूल का नहीं होना चाहिए। जैसे उसका मन और साहस फौलाद की तरह है, उसी तरह शरीर भी फौलाद का होना चाहिए। घुमक्कड़ को पोत, रेल और विमान की यात्रा वर्जित नहीं है, किंतु इन्हीं तीनों तक सीमित रखकर कोई प्रथम श्रेणी क्या दूसरी श्रेणी का भी घुमक्कड़ नहीं बन सकता। उसे ऐसे स्थांनों की यात्रा करनी पड़ेगी, जहाँ इन यात्रा-साधनों का पता नहीं होगा। कहीं बैलगाड़ी था खच्चेर मिल जायँगे, लेकिन कहीं ऐसे स्थाथन भी आ सकते हैं, जहाँ घुमक्कड़ को अपना सामान अपनी पीठ पल लादकर चलना पड़ेगा। पीठ पर सामान ढोना एक दिन में सह्य नहीं हो सकता। यदि पहले से अभ्याास नहीं किया है, तो पंद्रह सेर के बोझे को दो मील ले जाते ही आप सारी दुनिया को कोसने लगेंगे। इसलिए बीच में जो चार साल का अवसर मिला है, उसमें भावी घुमक्कड़ को अपने शरीर को कष्ट क्षम ही नहीं परिश्रमक्षम भी बनाना चाहिए। पीठ पर बोझा लेकर जब-तब दो-चार मील का चक्कषर मार आना चाहिए। शरीर को मजबूत करने के लिए और भी कसरत और व्या-याम किए जा सकते हैं, लेकिन घुमक्कड़ को घूम-घूमकर कुश्तीक या दंगल नहीं लड़ना है। मजबूत शरीर स्वरूप शरीर होता है, इसलिए वह तरह-तरह के व्यायाम से शरीर को मजबूत कर सकता है। लेकिन जो बात सबसे अधिक सहायक हो सकती है, वह है मन-सवामन का बोझ पीठ पर रख कर दस-पाँच मील जाना और कुदाल लेकर एक साँस में एक-दो क्यारी डालना। यह दोनों बातें दो-चार दिन के अभ्यास से नहीं हो सकतीं, इनमें कुछ महीने लगते हैं। अभ्या स हो जाने पर किसी देश में चले जाने पर अपने शारीरिक-कार्य द्वारा आदमी दूसरे के ऊपर भार बनने से बच सकता है। मान लीजिए अपने घुमक्कड़ी-जीवन में आप ट्रिनीडाड और गायना निकल गये - इन दोनों स्थाहनों में लाखों भारतीय जाकर बस गये हैं - वहाँ से आप चिली या इक्वेटर में पहुँच सकते हैं। आप चाहे और कोई हुनर न भी जानते हों, या जानने पर भी वहाँ उसका महत्व न हो, तो किसी गाँव में पहुँचकर किसी किसान के काम में हाथ बँटा सकते हैं। फिर उस किसान के आप महीने-भर भी मेहमान रहना चाहें, तो वह प्रसन्नाता से रखेगा। आप उच्चआ श्रेणी के घुमक्कड़ हैं, इसलिए आपमें अपने शारीरिक काम के लिए वेतन का लालच नहीं होगा। आप देश-देश की यात्रा के तजर्बो की बातें बतलाएँगे, लोगों में घुल-मिलकर उनके खेतों में काम करेंगे। यह ऐसी चीज है, जो आपको गृहपति का आत्मी।य बना देगी। यह भी स्मरण रखना चाहिए, कि अब दुनिया में शारीरिक श्रम का मूल्य बढ़ता ही जा रहा है। हमारे ही देश में पिछड़े दस वर्षों के भीतर शरीर से काम करने वालों का वेतन कई गुना बढ़ गया है, यह आप किसी भी गाँव में जाकर जान सकते हैं। फिर दुनिया का कौन सा देश है, जहाँ पर जाकर समय-समय पर काम करके घुमक्कड़ जीवन-यापन का इंतजाम नहीं कर सकता?

शारीरिक परिश्रम, यही नहीं कि आपके लिए जेब में पड़े नोट का काम देता है, बल्कि वह आज ही मिले आदमी की घनिष्ठक बना देता है। मेरे एक मित्र जर्मनी में सत्रह वर्ष रहकर हाल ही में भारत लौटे। वहाँ दो विश्वकविद्यालयों से दो-दो विषयों पर उन्हेंर डाक्टार की उपाधि मिली, बर्लिन जैसे महान विश्‍वविद्यालय में भारतीय दर्शन के प्रोफेसर रहे। द्वितीय महायुद्ध के बाद पराजित जर्मनी में ऐसी अवस्थाव आई जबकि उनकी विद्या किसी काम की नहीं थी। वह एक गाँव में जाकर एक किसान के गायों-घोड़ों को चराते और खेतों में काम करते दो साल तक रहे। किसान, उसकी स्त्रीे, उसकी लड़कियाँ, सारा घर हमारे मित्र को अपने परिवार का व्यकक्ति समझता था और चाहता था कि वह वहीं बने रहें। उस किसान को बड़ी प्रसन्नपता होती, यदि हमारे दोस्ता ने उसकी सुवर्णकेशी तरुण कन्याी से परिणय करना स्वीकार कर लिया होता। मैं हरेक घुमक्कड़ होने वाले तरुण से कहूँगा, कि यद्यपि स्नेकह और प्रेम बुरी चीज नहीं है, लेकिन जंगम से स्थावर बनना बहुत बुरा है। इसलिए इस तरह दिल नहीं दे बैठना चाहिए, कि आदमी खूँटे में बँधा बैल बन जाय। अस्तु । इससे यह तो साफ ही है कि आजकल की दुनिया में स्वस्थह शरीर के होते शरीर से हर तरह का परिश्रम करने का अभ्या स घुमक्कड़ के लिए बड़े लाभ की चीज है।

अगले चार वर्षों तक यदि तरुण ठहरकर, शिक्षा में और लगता है तो वह अपने ज्ञान और शारीरिक योग्यचता को आगे बढ़ा सकता है। जहाँ एक ओर उसको यह लाभ हो सकता है, वहाँ उसे दूसरा लाभ है विश्वचविद्यालय का स्नातक बन जाना। घुमक्कड़ के लिए बी.ए. हो जाना कई अत्यंत आवश्यिक चीज नहीं है। उसका भाव होने पर यद्यपि बहुत अंतर नहीं पड़ता, लेकिन अभाव होने पर कभी-कभी घुमक्कड़ आगे चलकर इसे एक कमी समझता है और फिर विविध देशों में पर्यटन करते रहने की जगह वह बी.ए. की डिग्री लेने के लिए बैठाना चाहता है। इस एषणा को पहले ही समाप्तक करके यदि वह निकलता है, तो आगे फिर रुकना नहीं पड़ता। डिग्री का कहीं-कहीं लाभ भी हो सकता है। इसका एक लाभ यह भी है कि पहले-पहले मिलने वाले आदमी की यह तो विश्वाैस हो जाता है कि यह आदमी शिक्षित और संस्कृत है। जो तरुण कालेज में चार साल लगाएगा, वहाँ अपने भावी कार्य और रुचि के अनुसार ही विषयों को चुनेगा। फिर पाठ्य पुस्त कों से बाहर भी उसे अपने ज्ञान बढ़ाने का काफी साधन मिल जायगा। इसी समय के भीतर आदमी नृत्य, संगीत, चित्र आदि घुमक्कड़ के लिए अत्यंत उपयोगी कलाएँ भी सीख जायगा। इस प्रकार चार साल और रुक जाना घाटे का सौदा नहीं है। बीस या बाईस साल की आयु में यूनिवर्सिटी की उच्चक शिक्षा को समाप्तघ करके आदमी खूब साधन-संपन्न हो जायगा, इसे समझाने की आवश्यिकता नहीं। संक्षेप में हमें इस अध्या-य में बतलाना था - वैसे तो होश सँभालने के बाद किसी समय आदमी संकल्पश पक्काा कर सकता है, और घर से भाग भी सकता है, आगे उसका ज्ञान और साहस सहायता करेगा, लेकिन बारह वर्ष की अवस्थास में दृढ़ संकल्पल करके सोलह वर्ष की अवस्थाउ तक बाहर जाने के लिए उपयोगी ज्ञान के अर्जन कर लेने पर भागना कोई बुरा नहीं है। लेकिन आदर्श महाभिनिष्क्रेमण तो तभी कहा जा सकता है, जबकि घुमक्कड़ी के सभी आवश्यनक विषयों की शिक्षा हो चुकी हो, और शरीर भी हर तरह के काम के लिए तैयार हो। 22 या 24 साल की उम्र में घर छोड़ने वाला व्यक्ति इस प्रकार ज्ञान-संपत्ति और शारीरिक-श्रम-संपत्ति दोनों से युक्त होगा। अब उसे कहीं निराशा और चिंता नहीं होगी।

आर्थिक कठिनाइयों के कारण घर पर रहकर जिनको अध्यरयन में कोई प्रगति होने की संभावना नहीं है, उनके लिए तो -

“यदहरेव विरजेत तदहरेव प्रब्रजेत्”