विपात्र / गजानन माधव 'मुक्तिबोध' / पृष्ठ-2

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
गजानन माधव 'मुक्तिबोध' » विपात्र »

जगत के मन में राव साहब के सम्बन्ध में जो गुत्थी थी उसे मैं ख़ूब समझता था। दोनों आदमी दुनिया के दो सिरों पर खड़े होकर एक-दूसरे को टोकते नज़र आ रहे थे। दोंनो एक-दूसरे को अगर बुरा नहीं तो सिरफिरा ज़रूर समझते थे। अगर मन-ही-मन दी जानेवाली गालियों की छानबीन की जाए तो पता चलेगा कि राव साहब जगत को आधा पागल या दिमाग़ी फ़ितूर रखनेवाला ख़ब्ती ज़रूर समझते थे। इसके एवज में जगत राब साहब को कुंजी रट-रटकर एम.ए. पास करनेवाला कोई गँवार मिडिलची मानता था। राव साहब जगत के हैमिंग्वे, फॉकनर और फर्राटेदार अंग्रेज़ी को अच्छी नज़रों से नहीं देखता था और उधर जगत राव साहब की गम्भीरता, अनुशासनप्रियता, श्रम करने की अपूर्व शक्ति और धैर्य के सामने पराजित हो गया था।