विभाजन-विभीषिका सम्बन्धी हिन्दी-साहित्य / लालचंद गुप्त 'मंगल'

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पाठकबन्धु, आप-स्वयं इस तथ्य के साक्षी हैं कि अपने भारत-राष्ट्र के 75वें स्वाधीनता-दिवस के पावन-पर्व पर, 15 अगस्त 2021 को, लाल किला की प्राचीर से, राष्ट्र के नाम अपने सम्बोधन में, प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने यह उद्घोषणा की थी कि भविष्य में, प्रतिवर्ष, 14 अगस्त का दिन, 'विभाजन-विभीषिका स्मृति-दिवस' के रूप में मनाया जाएगा। यह उद्घोषणा सुनते ही मेरी आँखों के सामने विभिन्न भाषाओं (हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, अंगरेज़ी, बांङ्ला आदि) में अब तक रचित और अनूदित वह सारा साहित्य घूम गया, जो अहिंदीभाषी सर्वश्री सआदतहसन मण्टो, कृश्नचन्दर, कुर्तुल-एन-हैदर ('आग का दरिया') , फ़िक्र तौंसवी ('छठा दरिया') , इंतज़ार हुसैन ( 'बस्ती' ) , खुशवंतसिंह ('ट्रेन टु पाकिस्तान') , मुस्तफ़ा अरबाब ('उदास नज़्म') , फैज़ अहमद 'फैज़' , साहिर लुधियानवी, जाँ निसार अख़्तर, इस्मत चुगताई, कुलदीप नैयर, विभूतिभूषण, ताराशंकर वंद्योपाध्याय, अमिताभ घोष ('द शौडो लाइन्स'-1988) , बप्पी सिधवा ('आईस कैंडी मैन'-1989) , झुम्पा लाहिड़ी ('शॉर्ट स्टोरी: इंटरप्रेटर ऑव मैलोडीज़'-1999) , शौनासिंह बाल्डविन ('व्हाट बॉडी रिमेम्बर्स'-2001) , रोहिंटन मिस्त्री ('ए फाईन बैलेंस'-2001) , शंख घोष ('सुपुरिबोनेर सारी') , आतिया हुसैन ('सनलाइट ऑन ए ब्रोकन कॉलम') और सुनंदा सिकदर ('दयामयीर कथा') आदि, तथा हिन्दी-पंजाबीभाषी यशपाल, राही मासूम रज़ा, अमृता प्रीतम ( 'पिंजर' , 'अज आखाँ वारिसशाह नूँ') , भीष्म साहनी, कर्तारसिंह दुग्गल, गुरुदत्त ('देश की हत्या') , यज्ञदत्त, बलराज मधोक, देवेन्द्र सत्यार्थी ( 'कठपुतली' ) , बलवंतसिंह ('काले कोस') , कृष्णा सोबती, चन्द्र त्रिखा और रघुवेन्द्र तँवर प्रभृति साहित्यकारों / विद्वानों ने, भारत-विभाजन की विभीषिका और विस्थापन की त्रासदी को लेकर, लिखा है। इस साहित्येतिहास-सम्पदा में से जितना-कितना मैं सुन-देख-पढ़ पाया हूँ, उससे सुपरिचित कराना ही प्रस्तुत आलेख का उद्देश्य है।

भारत-पाक विभाजन और शरणार्थियों के पुनर्स्थापन की समस्या, भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास की, एक अत्यंत संवेदनशील एवं अभूतपूर्व त्रासदी है, जिसमें लाखों-लाख लोग मारे गए थे, करोड़ों परिवार अपनी जड़ों से उखड़ गए थे और लगभग एक लाख स्त्रियों को अपहरण व बलात्कार की पाशविकता से गुज़रना पड़ा था। निस्संदेह, यह दुनिया का सबसे बड़ा 'मजबूरी में पलायन' और 'माइग्रेशन' था। "मानवता के इतिहास में, इससे पहले, कभी-भी, इतनी विषम परिस्थितियों और इतने कम समय में, इतनी बड़ी आबादी का स्थानांतरण नहीं हुआ था" (रघुवेन्द्र तँवर) । बकौल खुशवंतसिंह, "यह एक ऐसा 'सर्जिकल ऑप्रेशन' था, जो बिना किसी 'एनस्थीसिया' के सम्पन्न किया गया था और पाँच दरियाओं की धरती वाला पूरा पंजाब मानवीय रक्त की धाराओं में बदल गया था।" गोपीचन्द भार्गव (तत्कालीन मुख्यमंत्री, पंजाब) का निष्कर्ष था-"हम ऐसी परीक्षा से गुज़रे हैं, जैसी दुनिया में किसी व्यक्ति ने पहले नहीं देखी। इसने हमें बर्बाद कर दिया है, इसने हमें कुचल दिया है।" विभाजन-पूर्व, विभाजनकालीन और विभाजन-पश्चात् के इसी परिवेश को दृष्टि-पथ में रखकर ही प्रस्तुत साहित्य लिखा गया है।

अहिन्दीभाषी क्षेत्रों में सआदतहसन मंटो एक-ऐसा जाना-पहचाना नाम है, जिनके बारे में यह सर्वस्वीकार्य मान्यता प्रचलित है कि वे विभाजन कालीन साहित्य-लेखन के शिखर पर विराजमान हैं। विभाजन के दिनों में महिलाओं के उत्पीड़न को आधार बनाकर जितना मंटो ने लिखा है, उतना शायद अन्यत्र नहीं लिखा गया। इस कसौटी पर उनकी 'खुदा की कसम' और 'माई नानकी' लघुकथाओं का कोई प्रतिद्वन्द्वी नहीं है। 'चचा सैम के नाम' लिखे गए उनके ख़तों का एक-एक शब्द विभाजन के दर्द और आक्रोश को उघाड़कर रख देता है। उनकी 'टोबा टेकसिंह' कहानी विश्व कहानी-साहित्य की सृजनशीलता का एक कालजयी उदाहरण तो है ही, यह भारत-पाक विभाजन के समय करोड़ों लोगों द्वारा भोगे गये कटु-यथार्थ का एक प्रामाणिक दस्तावेज़ भी है।

हिन्दी-पट्टी में प्रथम स्थान पर हैं यशपाल और उनका महाकाव्यात्मक उपन्यास 'झूठा-सच'। दो खंडों-'वतन और देश' (1958) तथा 'देश का भविष्य' (1960) -में प्रकाशित 'झूठा-सच' में विभाजन कालीन अभूतपूर्व-भयावह दृश्यों और धर्मोन्मादी प्रालेय-ताण्डवों का प्रामाणिक, यथार्थ और मार्मिक आलेखन हुआ है। लूट-पाट, हत्या-मारपीट और आगजनी-बलात्कार का ऐसा अटूट सिलसिला चला कि देखते-ही-देखते वतन और देश अलग-अलग हो गए। इससे देश की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था तो क्षतिग्रस्त हुई ही, सांस्कृतिक अवस्था भी परिवर्तित हो गयी; जिसका दुष्प्रभाव देश के भावी निर्माण पर पड़ा। उपन्यास के दूसरे भाग में शरणार्थियों की समस्याओं को केन्द्र में रखकर, खण्डित देश के गहरे घावों के आलोक में, नए आर्थिक-सामाजिक एवं राजनीतिक-सांस्कृतिक संकटों और देशव्यापी भ्रष्टाचार को उजागर किया गया है। ध्यातव्य है कि इस अन्धकारपूर्ण सर्वनाश में सब-कुछ स्वाहा हो जाने पर भी, लेखक, मानवीयता की चिनगारी को बचा ही लेता है।

सन् 1966 में राही मासूम रज़ा-कृत 'आधा गाँव' उपन्यास प्रकाश में आया। यह शिया-मुसलमानों की ज़िन्दगी पर लिखा गया पहला उपन्यास है, जिसमें भारत-विभाजन से पहले और बाद की ज़िन्दगी को रेखांकित किया गया है। यहाँ, गंगोली गाँव के माध्यम से, भारतीय मुसलमानों के जीवन और संस्कारों में आ रहे बदलावों को तो उकेरा ही गया है, अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है, साम्प्रदायिक दंगों के फलस्वरूप अल्पसंख्यकों की मानसिकता और असुरक्षा-भावना के राष्ट्रीय प्रभाव का भी बखूबी आकलन किया गया है।

भीष्म साहनी ने बँटवारे के समय तथा बाद की साम्प्रदायिक त्रासदी को अत्यंत-निकट से देखा था। फलस्वरूप उनका 'तमस' उपन्यास (1973) और अनेक कहानियाँ उस त्रासदी को जीवंत-रूप में प्रस्तुत करने में सफल रही हैं। 'तमस' में समाहित कथा, काल-विस्तार की दृष्टि से, भले ही पाँच दिनों की है, लेकिन इन पाँच दिनों में जो प्रसंग, संदर्भ और निष्कर्ष उभरते हैं, उनके कारण यह पाँच दिवसीय कहानी बीसवीं सदी के भारत की कथा बन जाती है। स्थान-स्थान पर, मजहब से ऊपर उठकर, मानवीयता की जो उथली-गहरी प्रशस्य लकीरें खींची गई हैं, वे भीष्म साहनी के शाश्वत जीवन-दर्शन की परिचायक हैं। 'तमस' के अतिरिक्त, इसी मुद्दे पर, साहनी द्वारा रचित 'अमृतसर आ गया है' , 'जहूरबख्श' , 'सरदारनी' , 'पाली' , 'आवाजें' और 'नौसिखुआ' कहानियाँ भी अपनी अमिट छाप छोड़ती हैं। 'अमृतसर आ गया है' साक्षी है कि मनुष्य में जातीय संस्कार दबे रहते हैं, जो अनुकूल परिवेश पाकर साम्प्रदायिक रूप ग्रहण कर लेते हैं।

स्वाधीनता-प्राप्त्यर्थ किए गए संघर्ष, आन्दोलन और विभाजनकालीन त्रासदी को आँखों-देखने और स्वयं-जीने वाली प्रख्यात कथाकार कृष्णा सोबती ने, समूची कचोट को, उसकी समूची भयावहता के साथ, रूपायित किया है। एतद्विषयक उनके दो उपन्यासों के अतिरिक्त उनकी 'बादलों के घेरे' , 'डरो मत' , 'मेरी माँ कहाँ है' , 'मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा' और 'सिक्का बदल गया' आदि कहानियाँ तथा इनमें आये कामदार भीखमलाल, लामा, माँ, बुआ व दादी अम्मा सरीखे पात्र हमेशा जीवित रहकर उक्त कालखण्ड की विभीषिका को जीवन्त रखेंगे। 'ज़िन्दगीनामा' (1979) कृष्णा सोबती का पहला उपन्यास है, जो उनकी 'सिक्का बदल गया' कहानी का ही महाविस्तार है। यह केवल विभाजन और विस्थापन की ही पीड़ा का उपन्यास नहीं है, बल्कि ज़िन्दादिली का भी उपन्यास है। यह कृति उन कारणों की खोज करने में समर्थ है, जिन्होंने अमन-चैन से एक-साथ रह रहे दो समुदायों के बीच एक स्थायी दरार-दीवार उत्पन्न कर दी थी। लगभग चालीस वर्ष पश्चात् प्रकाशित दूसरा आत्मकथात्मक उपन्यास 'गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान' (2017) है, जिसके सारे घटनाक्रम और पात्र सच्चे-असली हैं। स्वाभाविक है कि कृष्णा सोबती ने विभाजन की भुक्तभोगी त्रासदी को पूरी शिद्दत से वर्णित-विश्लेषित-मूल्यांकित किया है।

कमलेश्वर, जीवन-भर, साम्प्रदायिकता से लड़ते रहे-इस लड़ाई को उन्होंने अपना मिशन बना लिया था। आन्तरिक स्तर पर होने वाले दंगा-फसाद पर आधारित उनका उपन्यास-'लौटे हुए मुसाफिर' (1961) -एक विशिष्ट-अप्रतिम कृति है। उनकी 'सोलह छतों का घर' साम्प्रदायिक सद्भाव और सामासिक संस्कृति की एक अनोखी कहानी है। कहानी में दंगा, पृष्ठभूमि में है, सामने नहीं। इस कथा की उपलब्धि यह है कि दंगों की अमानुषिकता के बीच भी मानवीयता पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाती-यह कहीं-न-कहीं अवश्य बची रहती है। कमलेश्वर की प्रौढ़ रचनात्मक प्रतिबद्धता का प्रतिफल और जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है 'कितने पाकिस्तान' (2000) । इस उपन्यास में, समूचे संसार की समस्त सभ्यताओं में चलने वाले संघर्षों तथा अलगाववादी-आतंकवादी आन्दोलनों के प्रामाणिक इतिहास-प्रस्तुति की पृष्ठभूमि में, भारतवर्ष के वर्त्तमान कालखंड में, हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष तथा पाकिस्तान के रूप में देश-विभाजन आदि घटनाओं को सविस्तार चित्रित किया गया है और इसके माध्यम से, देश के उज्ज्वल भविष्य को देखने की भरपूर कोशिश की गयी है; क्योंकि कमलेश्वर आशावाद का दामन कभी नहीं छोड़ते-उनकी मनुष्य की अदम्य संघर्षशीलता और गहन प्रेम-भावना में अटूट आस्था है।

परिमाण एवं परिणाम, दोनों धरातलों पर, डॉ. चन्द्र त्रिखा ने सर्वाधिक इन आठ ग्रन्थों का प्रणयन किया है-"वे 48 घंटे'(2014) ,' विभाजन-गाथा'(2015) ,' वे दिनः वे लोग'(2016) ,' साँझे पुल'(2019) ,' विभाजनः एक काला अध्याय (2019) , 'रिफ़्यूजी' (2019) , 'विभाजन बनाम विस्थापन' (2020) और 'बिछुडे़ लोग' (2023) । एक ही विषय पर, एक-के-बाद-एक, आठ ग्रन्थ लिखने के बाद भी, संभवतः, एतद्विषयक लेखन का यह सिलसिला जारी रहेगा, क्योंकि, बकौल डॉ. त्रिखा, "अभी भी लगता है, बहुत-कुछ शेष है, जो कलमबन्दी का मोहताज है। विश्व के सबसे बड़े जनसंख्या-तबादले, भीषण नरसंहार और विस्थापन की पीड़ा को एकाध सदी में भुला पाना संभव नहीं है। इतने समय में तो शरीर के नासूर भी नहीं भरते, फिर ये नासूर तो रूहों से जुड़े थे। (विभाजन बनाम विस्थापन, पृ। 7) लगभग डेढ़-हज़ार मुद्रित पृष्ठों और सहस्राधिक चित्रों में समाहित डॉ. चन्द्र त्रिखा के उक्त आठों ग्रन्थों का सार-संक्षेप और निष्कर्ष निम्नवत् है-

"भारत-पाक विभाजन के समय लगभग 44 लाख हिन्दुओं एवं सिक्खों ने भारतीय क्षेत्र में प्रवेश किया था,जबकि 41 लाख मुस्लिम भारतीय-क्षेत्रों से पाकिस्तान में प्रविष्ट हुए थे। वैसे विभाजन के समय के आँकड़ों के बारे में अभी भी विवाद है। कुछ विद्वानों एवं इतिहासज्ञों का दावा है कि लगभग डेढ़ करोड़ लोग घरों से उजड़े थे। सरकारी आँकड़ों में दर्ज़ संख्या सिर्फ उनकी है, जिन्होंने मुआवज़ों या राहत के लिए अपना नाम दर्ज़ कराया था। लाखों लोग ऐसे भी थे, जो दंगों में मारे गए या हाशिए पर ही अपने उजड़ने की दास्ताँ दोहराते रहे।" (उजड़े दयारों में लोबान की खुशबू, पृ। 7)

विभाजन की इस त्रासदी में "आठ से दस लाख लोग नृशंस क़त्लोग़ारत का शिकार हुए। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, लगभग नब्बे हज़ार स्त्रियों को अपहरण व बलात्कार की पाशविकता से गुज़रना पड़ा।" (वे 48 घंटे, पृ। 176)

"अभी भी अंतिम आँकड़ा तय नहीं है कि कितनी लाख लाशें बिछी थीं, कितने बेघर हुए थे, कितनी औरतें अपहृत हुईं। अनुमान यही है कि 10 से 15 लाख तक इन्सान मरे थे और लगभग ढाई करोड़ लोग उजड़े थे।" (विभाजन बनाम विस्थापन, पृ। 10)

"कभी-कभी लगता है कि 14-15 अगस्त को स्वाधीनता-दिवस के साथ उसी शाम पूरे उपमहाद्वीप में पश्चात्ताप-दिवस भी मनाया जाना चाहिए, ताकि उन करोड़ों परिवारों की नियति को याद किया जाए और इतिहास की आत्मा से भविष्य के लिए सद्बुद्धि की दुआएँ की जाएँ। अब अनेक राजनीतिक विश्लेषक एवं इतिहासकार मानते हैं कि यदि उस समय के राजनीतिक नेतृत्व ने अपने चिन्तन का दायरा सत्ता के गलियारे से बाहर तक फैलाया होता, तो यह त्रासदी टल सकती थी।" (वे 48 घंटे, पृ। 18-20)

"ढेरों सवाल हैं, जो उपजे हैं, दक्षिण-एशियाई उपमहाद्वीप की उस विभीषिका से, जिसने 1946 से 1948 तक एक कोहराम का माहौल पैदा किया। यह एक ऐसा कोहराम था, जिसकी जवाबदेही किसी एक व्यक्ति-विशेष या किसी एक जाति-विशेष, किसी एक मज़हब-विशेष या किसी एक दल-विशेष पर नहीं डाली जा सकती।" (वे 48 घंटे, पृ। 174)

"हम किसे कठघरे में खड़ा करें, यह तय नहीं है। अभियुक्तों की फ़हरिस्त में तो जिन्नाह, नेहरू, पटेल, लियाकत, माउंटबेटन, सभी आते हैं। हमने सारे आरोप चंद दंगाइयों के माथे चस्पाँ किए और सत्ता-सुख भोगने में लग गए-लम्बे स्वाधीनता-संग्राम की आखिर थकान भी तो उतारनी थी।" (रिफ़्यूजी, पृ। 4)

" मानवीय इतिहास की इस सर्वाधिक पाशविक गाथा में सभी धर्मों, मज़हबों, सम्प्रदायों के अनुयायियों की, किसी-न-किसी स्तर पर, शिरकत थी। पशुता का कोई धर्म या मज़हब नहीं होता। ऐसे वीभत्स इतिहास की बुनियाद पर बने दो राष्ट्र अपने इस दाग़दार अतीत की संतप्त स्मृतियों से तभी मुक्त हो पाएँगे, जब अच्छे पड़ोसियों की तर्ज़ पर जीने का सलीका अपनाएँगे। ...

इतिहास कठघरे में भी खड़ा करता है और क्षमा भी करता है, बशर्ते कि दोनों पक्ष, एक-दूसरे की पीड़ा, आवश्यकता और सर्वधर्म-समभाव का भाव, अपने भीतर तक उतार सकें। " (वे 48 घंटे, पृ। 176)

"इतना तो सुनिश्चित बनाना ही चाहिए कि अब भविष्य में इस उपमहाद्वीप में कोई रिफ़्यूजी न हो।" (रिफ़्यूजी, पृ। 6)

"पुरानी कहावत है कि दोस्त बदले जा सकते हैं, मगर पड़ोसी नहीं। जब नियति यही है, तो पड़ोस से सुखद बयारों का आना ज़रूरी है। अब तक की हताशा के बावज़ूद उम्मीद करनी चाहिए कि जो काम अब तक नहीं हो पाया, वह आने वाली नस्लें कर डालेंगी।" (विभाजन बनाम विस्थापन, पृ। 9)

"राजनीतिक या भौगोलिक हकीकतों से भी शायद ज़्यादा-बड़ी है संवेदनाओं और जड़ों की हक़ीक़त। बहरहाल, दोनों मुल्क अपनी-अपनी जगह पर मौजूद हैं। उन्हें तोड़ने की बात महज़ शायरी में हो सकती है, हक़ीक़त में नहीं। मगर बेहतर होगा कि खोए हुए विश्वास की बहाली के लिए थोड़ी ईमानदाराना मशक्कत हो। पीरों, फ़कीरों, सूफियों, संतों, गुरुओं और मन्दिरों की घंटियों व मस्जिदों की अज़ानों से सुर तो यही निकलते हैं-मानस की जात सबै एकि पहचानबो।" (वे 48 घंटे, पृ। 10)

"... एक तथ्य बार-बार उपजा है कि सामान्य आवाम दोनों तरफ सौहार्द के लिए दीवाना है। वे, घावों व नफ़रत को भुलाकर, फिर से बगलगीर होने के लिए व्यग्र हैं। उन्हें लगता है, आँसुओं से आपसी हिकारत व नफ़रत धुल जाती है।" (वे 48 घंटे, पृ। 175)

"इन 48 घण्टों (14 व 15 अगस्त, 1947) में, जहाँ एक ओर नफ़रत, हिकारत, खून-खराबा, बलात्कार, वहशियत व साम्प्रदायिक संकीर्णता की घिनौनी इबारतें वक़्त की दीवार पर लिखी गईं, वहाँ आपसी भाईचारे, रिश्तों की पाकीज़गी, मानवीय मूल्य और करुणा की भी इबारतें दर्ज़ हुईं।" (वे 48 घंटे, पृ। 14)

डॉ. त्रिखा बताते हैं कि 'फोर्ड फ़ाउण्डेशन' के सहयोग से, दिल्ली में शोध की एक दस-वर्षीय परियोजना-'रिकन्स्ट्रक्टिंग लाइव्स: मैमायर्स ऑव पार्टीशन'-बनी थी, जिसमें 1947 के भारत-पाक विभाजन के मध्य हज़ारों लोगों के साक्षात्कारों के संचयन का लक्ष्य रखा गया था। यह भी ज्ञात हुआ है कि यह कार्य अत्यन्त धीमी गति से चल रहा है-अभी तक मात्र सहस्राधिक भुक्तभोगियों के ही साक्षात्कार लिपिबद्ध हो सके हैं; जबकि, हम-सब जानते हैं, भुक्तभोगियों की उस पीढ़ी के अधिकतर सदस्य संसार छोड़ चुके हैं या छोड़ने वाले हैं; इसलिए, इस दिशा में, शीघ्रातिशीघ्र ठोस-प्रयास किए जाने की महती आवश्यकता है, क्योंकि "भारत-पाक विभाजन के प्रामाणिक तथ्यों का सभी स्तरों पर संकलन, दस्तावेजीकरण और प्रकाशन आने वाली नस्लों को एक बहुत-बड़ा सबक भी देगा और भुक्तभोगी परिवारों के लिए एक व्यापक 'कथारसिस' भी सिद्ध होगा।" (विभाजन: एक काला अध्याय, पृ। 260)

प्रसन्नता का विषय है कि भारत-विभाजन की विभीषिका के दस्तावेजीकरण को लेकर अब एक अत्यंत-महत्त्वपूर्ण इतिहास-ग्रंथ प्रकाश में आ चुका है। प्रख्यात इतिहासकार पद्मश्री प्रोफ़ेसर रघुवेन्द्र तँवर द्वारा रचित 'भारत-विभाजन की कहानी' (प्रकाशन विभाग, भारत सरकार; 2021) नितांत "स्पष्ट, निष्पक्ष और विश्वसनीय स्रोतों पर आधारित" है, जिसे विशाल-आकारीय 236 पृष्ठों, 103 उपशीर्षकों, 240 दुर्लभ छायाचित्रों, समाचारपत्र-रिपोर्टों और उद्धरणों द्वारा प्रमाणपुष्ट किया गया है। आशा रखनी चाहिए कि एतद्विषयक अज्ञात-अल्पज्ञात-ज्ञात सामग्री के सर्वेक्षण-संकलन, विवेचन-विश्लेषण और मूल्यांकन-निष्कर्षण का यह साहित्यिक-ऐतिहासिक सिलसिला आगे भी चलता रहेगा।

उपर्युक्त साहित्य-सम्पदा के पारायण और पर्यालोचन से यह स्पष्ट है कि भारत-पाक विभाजन का निर्णय और उसका परिपालन जिन्नाह-नेहरू सरीखे कतिपय 'बड़े' नेताओं की नासमझी का दुष्परिणाम था, जिसकी असहनीय मार और मर्मांतक पीड़ा करोड़ों बेकसूर-लोगों को भुगतनी पड़ी और आज भी, रह-रहकर, उसका दंश दोनों देशों के लोगों को सालता रहता है। हमारे साहित्यकारों ने उस कालखण्ड की कटु सच्चाइयों, यथार्थताओं, असंगतियों, विसंगतियों, विषमताओं, विरूपताओं और कुरूपताओं का स्थूल-सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए, अंततः, यही सुझाव / संकेत दिया है कि जो होना था, सो हो चुका। "अप्रिय यादें इतिहास बनने से नहीं रुकतीं और न उन्हें रोका जा सकता है" (रघुवेन्द्र तँवर) । अतः, भारत और पाकिस्तान, दोनों देशों का हित इस बात में है कि आपसी दुश्मनी-व्यवहार का परित्याग करके, एक अच्छे पड़ोसी की तरह, यथासंभव सद्भाव और सहयोग के साथ, रहने की आदत डालें। इससे पुराने छिले-छाले भी शांत होंगे और जनता-जनार्दन को सुकून भी मिलेगा। -0-