विराट / स्टीफेन ज़्विग

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स्टीफेन ज़्विग जर्मनी के प्रख्यात लेखकों में से हैं। उनकी रचनात्मक उपलब्धियों ने उन्हें विश्व के महान लेखकों की श्रेणी में पहुँचा दिया है। यह उनकी ‘विराट-दी अनडाइंग ब्रदर’ कहानी का संक्षिप्त रूपान्तर है। यह विराट की कहानी है, जिसे उस समय की जनता ने बहुत सम्मान दिया था। लेकिन अब उसका नाम न तो विजेताओं के इतिहास में मिलता है और न सन्त या ऋषियों की सूची में। लोगों को उसकी याद तक नहीं है।

बहुत पहले की बात है। तब महान गौतम बुद्ध भी धरती पर नहीं आये थे और न उनका महान सन्देश ही किसी ने सुना था। उन पुराने दिनों में राजपूताना के बीरवाघ राज्य में एक विमल और सच्चरित्र व्यक्ति रहता था। उसका नाम था विराट। वह तलवार-बहादुर के रूप में विख्यात था। वह विकट योद्धा था, पर प्रकृति से बहुत शान्त। उसे किसी ने गुस्से में चीखते या बिगड़ते नहीं देखा था। वह अतिशय राजभक्त भी था और पंचनदियों के प्रदेश में अपनी न्यायबुद्धि के लिए भी प्रख्यात था। विद्वान उसके घर के पास से गुजरते तो सम्मान में माथा झुकाते थे और बच्चे उसकी भोली चमकदार आँखों को देखकर खुश होते।

एक दिन बीरवाघ के महाराजा पर विपत्ति पड़ी। महाराजा का साला, जो आधे राज्य का राज्यपाल भी था, बिगड़ खड़ा हुआ। उसकी नीयत बिगड़ गयी। वह स्वयं महाराजा बनने का सपना देखने लगा। उसने विद्रोह कर दिया। उसने कूटनीति से महाराजा के विश्वासपात्र योद्धाओं और सेनापति को भी अपनी ओर मिला लिया और विद्रोह का झण्डा बुलन्द कर दिया।

ऐसी विकट परिस्थिति में महाराजा को अपने अनन्यभक्त विराट का ध्यान आया। विराट फौरन हाजिर हुआ और महाराजा ने दुश्मनों-विद्रोहियों को कुचल देने के लिए विराट को सेनापति नियुक्त किया। विराट ने राजभक्ति की शपथ ली और दुश्मनों को नेस्तनाबूद कर देने की प्रतिज्ञा करके उसने बची-खुची फौज को लेकर कूच किया।

विद्रोही सेनाएँ राजधानी से कुछ दूर नदी पार डेरा डाले हुए थीं। उनकी निर्माण-टुकड़ियाँ जंगलों से पेड़ काट रही थीं। ताकि नदी पर पुल बनाया जा सके और राजधानी पर शीघ्र-से-शीघ्र आक्रमण करके राज्य को जीता जा सके। विराट को उस भीषण बीहड़ प्रदेश का भूगोल पता था। वह शिकार के लिए इन जंगलों में आता रहा था। उसे मालूम था कि एक जगह नदी बहुत सँकरी और उथली है। उसने यही तय किया कि रात के अँधेरे में वहीं से नदी पार करके वह विद्रोहियों पर आक्रमण करेगा।

बीरवाघ राज्य की एक विशिष्टता थी-उसके राज्यचिह्न थे दो जीवित बकुल पक्षी! प्रजा का विश्वास था कि जब तक यह बकुल पक्षियों का जोड़ा राज्य में है तब तक कोई विघ्नबाधा नहीं आ सकती। और यह भी कि बकुल पक्षी जिसके आधिपत्य में हैं - वही राजा है!

विद्रोहियों ने राज्य चिह्न के जीवित प्रतीक उन बकुल पक्षियों को भी हस्तगत कर लिया था इसलिए प्रजा भी विद्रोहियों का विरोध नहीं कर रही थी। ऐसी विषम परिस्थिति में विराट ने रात के अँधेरे में ही नदी पार करके आकस्मिक हमला किया और भीषण मारकाट मच गयी।

विराट स्वयं सबसे आगे था। उसके भक्त सैनिकों ने विद्रोहियों के शिविरों में रक्त की नदियाँ बहा दीं। विराट युद्ध करता हुआ उस तम्बू तक पहुँचा, जहाँ बकुल पक्षी रखे गये थे। अन्ततः उसने वहाँ के सारे रक्षक योद्धाओं को मार गिराया और जीवित राज्यचिह्न बकुलों पर अधिकार करके विजय का उद्घोष कर दिया।

जब सुबह हुई और सूरज निकला तो विराट उन शवों को देखने निकला जो रात में मार गिराए गये थे। चारों तरफ अंग-भंग, क्षत-विक्षत सैनिक पड़े थे। उन्हें देखकर विराट के मन में करुणा भी जागी। वे मुण्ड जैसे अब भी खुली आँखों से उसे देख रहे थे। वह मृत पर खुली आँखों का यह दृश्य देखकर भीतर से काँप उठा। मृत योद्धाओं की पलकें बन्द करता हुआ जब वह एक कटे मुण्ड के पास पहुँचा तो उसे पहचानकर दहल उठा - वह विराट के अपने भाई का मुण्ड था जो बकुल पक्षियोंवाले तम्बू के द्वार पर पड़ा था और मृत खुली आँखों से उसे ताक रहा था।

विराट को यह पता नहीं था कि उसका भाई विद्रोहियों के साथ हो गया था। अपनी ही तलवार से उसने यह वध किया है-यह सोचकर वह बेहद उदास हो गया। मृत भाई की आँखें उसने बन्द कर दीं और अपने विजयी सैनिकों को आदेश दिया कि दुश्मन के मृत योद्धाओं की विधिवत अन्त्येष्टि की जाए ताकि पुनर्जन्म के लिए उनकी आत्माएँ पवित्र हो सकें।

विजयी सैनिकों को आश्चर्य हुआ कि उनके सेनापति विराट विद्रोही और षड्यन्त्र करनेवाले सैनिकों की आत्माओं की इतनी चिन्ता कर रहे हैं। वे विराट की करुणा का कारण नहीं समझ पाये।

महाराजा को जब विजय की सूचना मिली तो वे खुद ही सेनापति विराट का स्वागत करने चल पड़े। वे चाहते थे कि विराट को स्थायी रूप से सेनाधिपति बना दिया जाए। जब वे शाही शान से उस जगह पहुँचे, जहाँ लौटते हुए विराट रुकनेवाले थे, तो मिलते ही महाराजा ने अपनी इच्छा प्रकट की कि विराट सेनाधिपति का पद स्वीकार करें।

“महाराज! मैं एक विनती करना चाहता हूँ!” विराट ने कहा।

“विनती? तुम जो इच्छा करोगे, वह तुम्हें मिलेगा... यह मेरा वचन है!” महाराजा ने विराट के इच्छा प्रकट करने के पहले ही वचन दे दिया था।

तब विराट ने करबद्ध होकर कहा, “महाराज! मेरी यह विजयिनी तलवार शस्त्रागार में रख दी जाए, क्योंकि मैंने प्रण किया है कि अब कभी तलवार नहीं उठाऊँगा, क्योंकि इस तलवार से मैंने अपने सगे भाई की हत्या की है... मेरी यह इच्छा स्वीकार की जाए!”

विराट की यह इच्छा सुनकर महाराजा बड़े चकित हुए। पर वह वचन दे चुके थे, अतः बोले, “ठीक है, तुम तलवार मत उठाना, पर सेनाधिपति का पद स्वीकार करो... क्योंकि तुम्हारे शौर्य से यह राज्य जगमगाता रहे और किसी का साहस इस राज्य की ओर देखने का न हो!”

इस पर विराट ने कहा, “महाराज! यह तलवार शक्ति का प्रतीक है और शक्ति सच्चाई की विरोधी है। जो भी तलवार से मारता है, वह स्वयं अपराधी है। मेरी इच्छा नहीं है कि मैं अपने पद से लोगों में भय पैदा करूँ, अतः मैं शक्ति और पद से दूर रहना चाहूँगा।”

महाराजा चिन्ता में पड़ गये। फिर बहुत सोचकर बोले, “मैं सोच नहीं सकता कि तुम्हारे जैसे सच्चरित्र और राजभक्त सेवक के बिना मैं कैसे राज्य चला सकूँगा। तुम न्यायप्रिय हो, अतः तुम राज्य के महा न्यायाधीश का पद ग्रहण करो ताकि मेरे राज्य में न्याय का राज हो!”

विराट ने यह पद स्वीकार किया। और बीरवाघ राज्य में सत्य और न्याय का डंका बजने लगा। विराट की न्यायप्रियता और करुणा की कहानियाँ देश-देशान्तर में फैलने लगीं। विराट अपराधी की आत्मा में पैठकर न्याय करता था। मृत्युदण्ड उसने बन्द कर दिया, क्योंकि विराट की दृष्टि में मृत्युदण्ड देने का अधिकारी वही हो सकता था जो जीवन भी दे सकता हो। अपराधी उसकी अदालत से दण्ड ग्रहण कर भी प्रसन्न हो जाते थे। कभी किसी ने उसके निर्णय पर संशय नहीं किया।

एक दिन विराट की अदालत में पास के जंगली राज्य से एक युवक हत्यारा लाया गया। उसने ग्यारह हत्याएँ की थीं क्योंकि वह एक लड़की से प्रेम करता था। लड़की के पिता ने उसका विवाह किसी और से कर दिया था। यह बर्दाश्त न कर पाने के कारण युवक ने लड़की के घरवालों और उसके पति के घरवालों को मार डाला था।

बहुत सोच-विचार कर विराट ने निर्णय किया - “इस युवक को मृत्युदण्ड तो नहीं दिया जाएगा क्योंकि वह ईश्वर के अधीन है पर इसे कारागार में पाँच वर्ष बन्दी रखा जाए और हर महीने सत्तर कोड़े इसको लगाये जाएँ!”

यह निर्णय सुनकर हत्यारा युवक हिकारत से चीख उठा - “तुम्हें क्या हक है कि मेरी जवानी को यों बर्बाद करो! मुझे अन्धे कारागार में रखो... देना है तो मृत्युदण्ड दो, नहीं तो मुझे यों जीते जी मृत के समान कर देने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है! यह यातना मृत्यु से भी जघन्य है!”

वह युवक तो चीखता हुआ चला गया पर विराट का मन विचलित हो उठा। वह युवक के कथन पर रात भर विचार करता रहा। बहुत उद्विग्न भी हुआ। उसे अपने न्याय पर शंका होने लगी। दूसरी रात वह कारागार गया। उस युवक की अन्ध कोठरी में पहुँचा और उसकी यातना का आत्मानुभव करने के लिए उसने युवक से कहा कि तुम मेरे कपड़े पहनकर निकल जाओ। एक महीना मैं तुम्हारा दण्ड भुगतूँगा ताकि मैं इस यातना का साक्षात्कार कर सकूँ, जो न्याय के नाम पर दी जाती है और जान सकूँ कि कहीं यह न्याय अन्याय तो नहीं है! पर एक महीने बाद तुम लौट जरूर आना... यह वचन देकर तुम जा सकते हो!

वह युवक वचन देकर कारागार से निकल गया। विराट कैदी के कपड़े पहनकर अन्धकोठरी में रह गया। दूसरे ही दिन कारागार के अधिकारी आये, उन्होंने विराट को ही कैदी समझकर सत्तर कोड़ों का मासिक दण्ड पूरा किया। विराट कोड़े खाकर बेहोश हो गया और जब उस अन्धकोठरी में वह कई घण्टों बाद होश में आया तो उसने अनुभव किया कि उस अँधेरे, सन्नाटे, एकाकीपन और शरीर में हो रहे दर्द को लेकर वह जी नहीं पाएगा। एकाएक विराट बहुत घबराने लगा कि यदि उस युवक ने वचन भंग किया और उसे स्वयं ही पाँच वर्ष यह यातना भोगनी पड़ी तो यह मृत्यु से भी बड़ी यातना होगी। वह छटपटाने लगा। वह मुक्त होने के लिए अकुलाने लगा। पर अट्ठाईस दिन अभी और बाकी थे।

और जब तीसवें दिन विराट ने आँखें खोलीं तो उसे अन्धकोठरी की ओर आते हुए कदमों की आहट सुनाई दी। फिर लौहकपाट खुले और रोशनी की चमक आयी। और तब विराट ने आँखों पर जोर डालकर देखा - महाराजा सामने खड़े थे। महाराजा ने कहा - विराट! तुम जो सत्य का प्रयोग कर रहे हो, उसकी सूचना मुझे मिली! तुम महान हो! तुम न्याय ही नहीं देते रहे, बल्कि न्याय के न्याय की खोज-बीन भी करते रहे... तुम सत्पुरुष हो और यह राज्य तुम्हारे जैसा सत्पुरुष पाकर धन्य हुआ है!”

“महाराज,” विराट विनीतभाव से बोला, “अब मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि जो न्याय देने का दम्भ करता है वह न्याय ही सबसे बड़ा अन्याय है! मेरे न्याय के अन्याय से पीड़ित तमाम कैदी यहाँ पड़े यातना भुगत रहे हैं... महाराज, मुझे इस पद से मुक्त किया जाए। मैं अब न्याय के अन्याय को समझ सका हूँ। दण्ड देना केवल भगवान का काम है, हमारा नहीं। मैं अब इस पाप से अपने जीवन को दूर रखना चाहता हूँ... मुझे मुक्त करें!”

“ठीक है, यदि तुम यही चाहते हो तो यही सही!” महाराजा ने कहा, “पर मैं तुमसे सहमत नहीं हूँ!”

“महाराज!” विराट बोला, “मुझे शक्ति और पद मत दीजिए। शक्ति से क्रिया जन्म लेती है। यानी शक्ति सम्पन्न होने के नाते मैं जो भी कहता हूँ वह तत्काल कार्य रूप में बदल जाता है। वह कार्य दुखों और यातना का कारण बन जाता है, जो मेरी शक्ति के बाहर है। अतः मैं केवल निष्क्रिय बनकर रहना चाहता हूँ ताकि मेरी कोई क्रिया पाप का कारण न बने और मेरी आत्मा भौतिक सन्ताप से मुक्त रह सके। अब मैं अपने आप में अकेला होकर अपने घर पर रहूँगा। आप आज्ञा दें!”

महाराजा ने आज्ञा दी और विराट अपनी पत्नी-पुत्रों के पास जाकर विदेह की भाँति रहने लगा। निष्क्रिय और अनासक्त। विराट ने अनुभव किया कि आनन्द का यही रूप हो सकता है। कई वर्षों तक वह विदेह की तरह अपने घर-परिवार में रहता रहा। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि राय देना आज्ञा देने से बेहतर है। और निर्णय देने से बेहतर है ध्यान में मग्न रहना। छः वर्षों के बाद सहसा उसकी यह शान्ति भंग हुई जब एक दिन उसने अपने घर में मारकूट की आवाज सुनी। देखा कि उसके लड़के एक नौकर को पीट रहे हैं। विराट बहुत दुखी हुआ, क्योंकि उसकी दृष्टि में यह अत्याचार था। उसने अपने लड़कों को रोका और सेवक को मुक्त कर दिया।

लड़कों ने विरोध किया कि इस तरह सब सेवक कामचोर हो जाएँगे और एक दिन इस हवेली में एक भी सेवक नहीं रहेगा। विराट ने सेवक को तो मुक्त करा दिया पर पुत्रों की आँखों में विरोध की आग देखकर रात भर मनन करता रहा। फिर उसने पोथियों को खोला और अपना सही कर्तव्य उनकी शिक्षा की मदद से निर्धारित करना चाहा। और वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि स्वतन्त्रता ही आदमी की सबसे बड़ी और सबसे सच्ची कामना है, अतः किसी को भी परतन्त्र रखना पाप है। परतन्त्रता विचारों और इच्छाओं की भी होती है... यानी हमें यह अधिकार नहीं है कि हम दूसरे व्यक्ति को अपनी इच्छाओं या विचारों का दास बनाएँ!

और इस नतीजे पर पहुँचते ही विराट ने तय किया कि वह अब इच्छाओं और विचारों का अत्याचार भी किसी पर नहीं करेगा... अतः घर-परिवार त्यागकर वह वन में रहेगा ताकि उसकी आत्मा परम पवित्र रह सके, इस पाप से भी मुक्त... कि किसी की इच्छाओं को दबाने का अप्रत्यक्ष पाप भी उसे न लगे!

और विराट दूसरे दिन प्रातःकाल घर छोड़कर जंगल की ओर चला गया। वन में उसने अपनी कुटिया बनायी। धीरे-धीरे जंगल के पशु-पक्षी उसके मित्र हो गये। चिड़ियों ने उसके छप्पर में घोंसले बना लिये, एक बन्दर उसका सहचर हो गया। वह प्रकृति के साथ एकाकार हो गया। धीरे-धीरे विराट के पापमुक्त वनवास की चर्चा गाँवों में फैलने लगी। नदी पार से ग्रामीण उसके दर्शन करने आते। और तब महाराजा को भी पता चला कि विराट कहाँ है। वे नदी के रास्ते नाव पर विराट से मिलने आये और बोले, “मैं केवल यह देखने आया हूँ कि एक सत्पुरुष-ऋषि कैसे रहता है! दर्शन से पुण्य मिलता है! मैं तुमसे कुछ शिक्षा लेने आया हूँ!”

सुनकर विराट ने कहा, “महाराज, मैंने यही सीखा है कि लोगों के साथ रहने की आदत को कैसे भूला जाए... ताकि मैं पापमुक्त रह सकूँ। एकाकी व्यक्ति केवल स्वयं को शिक्षा दे सकता है और किसी को नहीं। मैं अब इस दुनिया के मोह से मुक्त हो गया हूँ। न मुझे कुछ किसी को देना है न लेना है। अब मेरे पास कुछ भी ऐसा नहीं है जो मैं किसी को दे सकूँ... क्योंकि मैं एकाकी हूँ अतः महाराज मेरे पास आपका आना व्यर्थ है!”

यह सुनकर महाराज चले गये। पर वे प्रसन्न थे कि एक ज्ञानी ऋषि उनके राज्य में रहता है जो मोहमुक्त है, पापमुक्त है और प्रभावमुक्त है!

कई वर्ष बीत गये। एक दिन विराट जंगल में घूम रहा था कि एक मृतदेह उसे दिखाई दी। वह एक पुरुष का शव था। विराट ने सोचा इसका दाहकर्म कर दिया जाए ताकि इसकी आत्मा पुनर्जन्म के लिए पवित्र हो सके। अतः उसने चिता बनायी पर अब तक विराट स्वयं इतना दुर्बल हो चुका था कि उस शव को उठाकर वह चिता पर नहीं रख सका। कुछ लोगों की मदद लेने के लिए वह नदी पार करके गाँव में गया। गाँव के लोग विराट को वहाँ आया देख धन्य हो गये। वे उसकी चरणरज लेने लगे और श्रद्धा व्यक्त करने लगे। और कुछ लोगों को लेकर जब वे चलने लगे तो उन्होंने देखा - एक कच्चे घर के दरवाजे पर बैठी औरत उसे घृणा से देख रही थी। वह उसकी आँखों की घृणा का कारण नहीं समझ पाया तो उसके पास गया और पूछा, “माता! आपकी आँखों में मेरे लिए इतनी घृणा क्यों है? मैंने तो आपको कभी देखा तक नहीं... कष्ट तो क्या पहुँचाया होगा... फिर यह घृणा...”

वह औरत बिफर उठी - “तुमने मेरा सर्वनाश किया है! तुमने अपना उदाहरण दुनिया के सामने रखा कि आदमी कैसे पापमुक्त हो सकता है, कैसे निष्क्रिय हो सकता है... और तुम्हारे उदाहरण से प्रभावित होकर मेरा पति भी शान्ति की खोज में घर छोड़कर चला गया... उसके जाने से मेरे जीवन में घोर अँधेरा छा गया। मैं टुकड़े-टुकड़े के लिए मोहताज हो गयी। भूख और गरीबी से मेरे तीन बच्चे मर गये... मेरा सर्वनाश हो गया! मैं तुम्हें घृणा से नहीं देखूँगी तो क्या श्रद्धा से देखूँगी!”

विराट का चेहरा काला पड़ गया। वह धीरे से पर आहत स्वर से बोला, “ओह! मुझे नहीं मालूम था कि मेरा उदाहरण भी किसी को चालित कर सकता है! मैं तो समझता था कि जो कुछ भी कर रहा हूँ वह मैं सिर्फ अपने लिए कर रहा हूँ... माँ, तुमने मुझे आज एक और पक्ष दिखाया है... मैं बहुत दुखी हूँ।”

और यह कहकर विराट वहाँ से चला गया। उसने सोचा - सच्चाई शायद पापमुक्त होने में नहीं, कर्म का दंश भोगने में है कि अभी तक वह एक वृत्त में घूमता रहा है जो कहीं नहीं पहुँचाता, जिसकी अपनी परिधि है... निष्क्रियता भी एक क्रिया है। अतः निष्क्रिय रहकर भी पाप से परे नहीं रहा जा सकता। अपनी इच्छाओं को मारकर भी व्यक्ति दूसरे की इच्छाओं के लिए उदाहरण बन जाता है। वह स्वयं चालित न होकर भी दूसरों को चालित करता है... अतः स्वतन्त्र आदमी भी स्वतन्त्र नहीं है, क्योंकि अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, वह दूसरे के लिए परतन्त्रता का जाल बुनता है। किसी के दुख का कारण बन जाता है... इसलिए स्वतन्त्र वही है जो कर्म के अधीन है... जो अपनी इच्छाओं को, अपने कर्तव्य और दायित्व को कर्म के हवाले कर देता है... कर्म के छोरों पर रहना उचित नहीं है। हम कर्म के मध्य में ही जी सकते हैं...

यह सोचकर विराट महाराजा के पास गया और उसने अपना अन्तर्द्वन्द्व प्रकट करके इच्छा की कि उसे कोई मामूली काम दे दिया जाए। एक सत्पुरुष और सर्वज्ञानी का यह रूप देखकर महाराजा बहुत खिन्न हुआ और उसने विराट को अपने जंगली कुत्तों की रखवाली का काम सौंप दिया।

और उस दिन से विराट - जो राज्य भर में सेनाधिपति, महान्यायाधीश, सत्पुरुष, ज्ञानी, ऋषि, पापमुक्त के रूप में जाना जाता था - जंगली कुत्तों के रखवाले के रूप में सामान्य जीवन जीने लगा। विराट ने अपना कार्य हमेशा ईमानदारी और दक्षता से किया। धीरे-धीरे महल, राजधानी और राज्य के लोग विराट को भूल गये। महाराजा का भी देहान्त हुआ। जो नया राजा हुआ, वह विराट को जानता तक नहीं था।

कई वर्ष बाद विराट की मृत्यु हुई... उसे मामूली सेवक की तरह श्मशान में जला दिया गया। कोई रोने नहीं आया। किसी ने उसकी मृत्यु पर शोकगीत नहीं लिखा। श्रद्धांजलि अर्पित नहीं की। सिर्फ वे जंगली कुत्ते दो-चार दिन उसके वियोग में रोते रहे। और इस तरह विराट ने एक सत्य हमें दिया, पर जिसका नाम कहीं विजेताओं के इतिहास में नहीं लिखा गया... न ऋषियों या धर्म-प्रवर्त्तकों की सूची में शामिल किया गया।