विरासत के प्रति हमारी उदासीनता का कहर / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
विरासत के प्रति हमारी उदासीनता का कहर
प्रकाशन तिथि :27 जुलाई 2017


भारतीय क्रिकेट टीम श्रीलंका के दौरे पर है। एशिया में फिल्म विरासत के काम से जुड़े शिवेंद्रसिंह डूंगरपुर 14 जुलाई को कोलंबो में डॉ. लेस्टर जेम्स पेरीज भाषण शृंखला में भाग लेने गए थे, जहां उनके फिल्म संरक्षण के प्रयासों को खूब सराहा गया। डॉ. लेस्टर जेम्स पेरीज 98 वर्ष के सबसे उम्रदराज फिल्मकार हैं और उनकी फिल्म 'निधन्या' वेनिस अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह में खूब सराही गई। शिवेंद्रसिंह डूंगरपुर का भाषण सुनने के लिए श्रीलंका के फिल्म उद्योग से जुड़े लगभग सारे लोग मौजूद थे। उस समारोह में शिवेंद्रसिंह डूंगरपुर को सम्मानित किया गया। फिल्म विरासत के संरक्षण के प्रति समर्पित शिवेंद्रसिंह डूंगरपुर पुणे फिल्म संस्थान से प्रशिक्षित स्नातक हैं और उनके द्वारा बनाया गया वृत्तचित्र 'द सैल्यूलाइड मैन' अंत्यत प्रशंसित एवं प्रदर्शित रचना है। शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर के संग्रहालय में फिल्म विरासत की अनमोल सामग्री है, जिसे उन्होंने वर्षों की साधना से प्राप्त किया है।

भारतीय लोग विरासत के प्रति प्राय: उदासीन ही रहते हैं। हमने कितने ग्रंथ, किले और ऐतिहासिक महत्व के भवन नष्ट होने दिए हैं। हुड़दंगी समानांतर सरकार ने जगह-जगह विरासत को नष्ट किया है, क्योंकि सत्तासीन दल की मौन स्वीकृति व समर्थन उन्हें प्राप्त है। इस पर हास्यास्पद दावा यह है कि वे भारतीय संस्कृति के पहरेदार व संरक्षक हैं। उन्हें नहीं मालूम की वे क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं। स्पेन में बुल फाइटिंग नामक खेल वर्षभर चलता है। जोया अख्तर की फिल्म 'ये ज़िंदगी नहीं मिलेगी दोबारा' में बुल फाइटिंग का दृश्य है। ज्ञातव्य है कि एक घेरे में एक मदांध बुल लाल कपड़े पर आक्रमण करता है और खिलाड़ी चपलता से अपने को बचाता हुआ बुल को चकमा देता है। ठीक इसी तरह एक विचारधारा भी लाल रंग पर आक्रमण करती रहती है। गनीमत है कि वे ट्रैफिक के लाल लाइट पर आक्रमण नहीं करते।

इस तरह के वातावरण में शिवेंद्रसिंह डूंगरपुर एक लगभग हारी हुई लड़ाई के योद्धा की तरह काम कर रहे हैं। कुरुक्षेत्र में अठारह दिन के युद्ध के समय उन विराट सेनाओं के भोजन की व्यवस्था और रणक्षेत्र में घायलों की सेवा किसने की इस विषय पर कोई प्रकाश नहीं डालता। मेरा अनुमान है कि एकलव्य व सुदामा ने यह काम संभाला होगा। कवि विष्णु खरे की 'लापता' नामक कविता में युधिष्ठिर कहते हैं कि एक अरब छियासठ करोड़ बीस हजार योद्धा मारे गए और चौबीस हजार एक सौ पैंसठ योद्धा लापता है। स्पष्ट है कि अधिक आबादी के मामले में हम हमेशा ही अग्रणी रहे हैं। भारतीय सिनेमा के इस लंबे कालखंड को अगर हम एक युद्ध मान लें तो यह कहना होगा कि शिवेंद्रसिंह डूंगरपुर ही हताहत फिल्मों के संरक्षण व लापता फिल्मों की खोज का कठिन काम कर रहे हैं। ज्ञातव्य है कि सत्यजीत राय को चेतन आनंद की 'नीचा नगर' की कुछ रीलें एक कबाड़ी की दुकान पर मिलीं थी। हर तरह की धरोहर का कबाड़ा कर देना हमारे चरित्र का एक हिस्सा है। हमारा अवचेतन भी एक कबाड़खाना ही है। जाने कितनी सदियों का कूड़ा-कचरा इसमें जमा है। विरासत को कबाड़े में बदलने में हमें आनंद प्राप्त होता है।

फिल्म 'श्री 420' में एक कबाड़ी की दुकान पर छोटे शहर से महानगर आया नायक इलाहाबाद में ईमानदारी के लिए मिले गोल्ड मेडल को गिरवी रखने के लिए आता है, जहां नायिका अपने उम्रदराज शिक्षक पिता के इलाज के लिए अपनी पुस्तकें गिरवी रखने आई हैं। स्पष्ट है कि हमने ईमानदारी व शिक्षा दोनों का ही कबाड़ा कर दिया है। भ्रष्ट होने के लिए पढ़ा-लिखा होना जरूरी है, क्योंकि फाइलों में हेरा-फेरी करनी होती है। अनपढ़ आदमी यह काम नहीं करता। पढ़े-लिखे मध्यम वर्ग ने जीवन मूल्यों को ध्वस्त किया है। शिक्षा संस्थानों से मिली डिग्री को डेगर (खंजर) बनाया है हमने।

ज्ञातव्य है कि फिल्मकार दीपा मेहता को हुड़दंगियों ने बनारस में शूटिंग नहीं करने दी तो उन्होंने अपनी फिल्म 'वॉटर' की शूटिंग श्रीलंका में की थी। महान फिल्मकार डेविड लीन ने 'ब्रिजेस ऑन रिवर क्वाई' की शूटिंग भी श्रीलंका में की थी। इस छोटे देश में सीमित दर्शक संख्या के बावजूद फिल्में बनाई जाती रही हैं, विदेशी फिल्मकारों को सुविधाएं ी जाती हैं और हमारे हुड़दंगी देशी-विदेशी फिल्मकारों को शूटिंग नहीं करने देते। संजय लीला भंसाली को अपनी फिल्म 'पद्‌मावती' की शूटिंग न राजस्थान में करने दी गई, न ही महाराष्ट्र में दी गई। यह भी गौरतलब है कि राजस्थान के डूंगरपुर का नाम पहली बार पूरे भारत और दुनिया ने तब जाना जब राजसिंह डूंगरपुर मध्यम तेज गति के गेंदबाज के रूप में जाने गए परंतु उनकी भूमिका क्रिकेट बोर्ड के अधिकारी के रूप में और चयनकर्ता के रूप में याद रखी जाएगी। सुनील गावसकर की यशस्वी पारी को उन्होंने ही संभव बनाया। आज शिवेंद्रसिंह के कारण फिल्म बनाने वाले हर देश में डूंगरपुर का नाम गूंजता है। कुछ लोग अपने जन्मस्थान की वजह से जाने-जाते हैं और कुछ लोगों के कारण उनका जन्म स्थान जाना जाता है। अदब की दुनिया में शायर अपने जन्मस्थान को ही अपना सरनेम भी बना लेते हैं जैसे साहिर लुधियानवी, राहत इंदौरी इत्यादि।

जाने सिंहली भाषा में 'निधन्या' का क्या अर्थ है परंतु सच तो यह है कि तमाम लड़कियां ही गरीब हैं। इस निर्मम समाज में कन्या सबसे अधिक दमित व शोषित है। भारतमाता का हाल भी किसी से छुपा नहीं है।

बहरहाल, फिल्म विरासत के संरक्षण का एक कोर्स 7 अक्टूबर से 14 अक्टूबर तक चेन्नई में होने जा रहा है, जिसके लिए आवेदन-पत्र www filmheritagefoundation.co.in से प्राप्त हो सकते हैं।