विरोध विचार / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

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भाव
विरोध विचार / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

रस विरोध तीन दृष्टियों से हो सकता है-

(1) आश्रय की दृष्टि से,

(2) आलम्बन की दृष्टि से और

(3) श्रोता की दृष्टि से।

साहित्य ग्रंथों में जो नैरंतर्यकृत विरोध कहा गया है उसे श्रोता की दृष्टि से समझना चाहिए। उसका अभिप्राय यही है एक भाव को रसरूप में ग्रहण करने के उपरांत ही तुरंत श्रोता के सामने ऐसे भाव की व्यंजना न की जाय जिससे उसे अपनी मानसिक स्थिति में सहसा बहुत अधिक परिवर्तन करना पड़े। ऐसे दो विरूद्ध भावों की पूर्वापर स्थिति होने से दो में से एक का भी प्रभाव पूर्ण रूप से हृदय पर नहीं हो सकता। मुक्तक में तो इस नैरंतर्यकृत विरोध की संभावना बहुत ही कम होगी क्योंकि एक पद्य में प्राय: एक ही पूर्ण रस की व्यंजना की जाती है। उसमें आश्रय और आलम्बन के एक से अधिक जोड़े की गुंजाइश नहीं होती। प्रबन्धकाव्यों में इस प्रकार के विरोध की आशंका हो सकती है। पर जो प्रबन्धपटु कवि होगा वह एक भाव की पूर्ण (रस में) व्यंजना हो जाने पर प्रसंग की स्वाभाविक गति के अनुरोध से दूसरे विरूद्ध भाव के आने के पहले कुछ अंतर आप से आप डालेगा। इस दृष्टि से नैरंतर्यकृत विरोध का विचार एक प्रकार से अनावश्यक ही समझिए। अत: आगे जो कुछ कहा जायगा उसे साहचर्यकृत विरोध के संबंध में ही समझना चाहिए।

पर एक ही रस की व्यंजना के विरूद्ध भाव की व्यंजना न होने पर भी श्रोता की दृष्टि से विरूद्ध सामग्री घुस सकती है। यह वहाँ होगा जहाँ किसी भाव के उत्कर्ष आदि की व्यंजना करते समय कवि जाने या अनजाने में ऐसी वस्तुओं का उल्लेख कर जायगा जो विरूद्ध भाव का आलम्बन या उद्दीपन हो सकती हैं। जिस पात्र के मुख से ऐसी वस्तुओं के नाम कहलाए जायँगे वह तो अपने भाव के वेग में उन नामों के संकेत पर, संभव है, ध्याान न दे पर उन शब्दों द्वारा वस्तु और व्यापार का जो चित्र (Imagery) श्रोता के अंत:करण के सामने खड़ा होगा उसका विचार रखना परम आवश्यक है क्योंकि रससंचार प्रधानत: उस चित्र पर अवलंबित होगा। हमारे यहाँ के प्राचीन कवियों ने इस बात का विचार रखा है कि एक रस के वर्णन के भीतर उसी रस की उत्कर्ष व्यंजना के लिए भी ऐसी सामग्री सामने न आने पावे जो विरूद्ध भाव का आलम्बन हो सके। श्रृंगार के वर्णन में ऐसी वस्तुओं का उल्लेख न मिलेगा जिनके सामने आने से भय या विरक्ति उत्पन्न हो। विप्रलंभ श्रृंगारमें भी विरहिणी के ताप का कमल, आदि के द्वारा शमन न होना आदि ही वर्णन किया गया है-कलेजे में ऑंवले पड़ना, जख्म का मुँह खुलना, मवाद बहना आदि नहीं।

फारसी उर्दू की शायरी में उपस्थित चित्र (Imagery) का कुछ भी ध्यामन नहीं रखा गया है, भाव के उत्कर्ष और मुहावरे के जोर पर ही ज्यादा जोर दिया गया है, जैसे-

(क) बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का,

जो चीरा तो एक कतरए खूँ निकला। -आतिश

(ख) जख्म के भरने तलक नाखुन न बढ़ आयँगे क्या? -गालिब

(ग) ऐ हुमा! क्या मुँह है तेरा पोस्तकंद मुझसे सुन

उस्तख्वाँ मेरे हैं सब वक्फे सगाने कुए दोस्त।

यह तो एक ही रस के भीतर विरूद्ध भाव की सामग्री मात्र आ जाने की बात हुई। पर कहीं-कहीं एक ही पद्य के भीतर दो रसों या भावों का भी आश्रय आलम्बन भिन्न-भिन्न रखकर समावेश हो सकता है। ऐसे स्थलों में श्रोता ही की दृष्टि से विरोध का विचार करना होगा। भावों का जो दो वर्गों में विभाग किया गया है देखिए वह कहाँ तक इस विचार में काम देता है। उक्त वर्गविधान के अनुसार प्रथम चतुष्टय के आनंदात्मक भाव परस्पर सजातीय और द्वितीय चतुष्टय के दु:खात्मक भाव परस्पर सजातीय होंगे। पर द्वितीय चतुष्टय का कोई भाव प्रथम चतुष्टय के प्रत्येक भाव का विजातीय होगा। इस दृष्टि से करुण, रौद्र, भयानक और बीभत्स चारों में से प्रत्येक श्रृंगार, हास, वीर और अद्भुत में से प्रत्येक का विरोधी ठहरता है। पर युद्ध वीर के साथ रौद्र, भयानक और बीभत्स प्राय: लगे रहते हैं। इसका कारण आलम्बन की अनेकरूपता है। पहले कह आए हैं कि युध्दोत्साह का आलम्बन युद्ध कर्म ही होता है जिसके भीतर रौद्र, भयानक और बीभत्स व्यापारों का समावेश होता है। यह युद्धकर्म श्रोता के भाव का भी आलम्बन होता है यह फिर से कहने की आवश्यकता नहीं, अत: श्रोता अपने आलम्बन के स्वरूप के भीतर ही इन सब भावों का रसरूप में अनुभव करता है जिससे वीरोत्साह का रसरूप अनुभव और भी तीव्र होता है। युध्दोत्साह असाधारण उत्साह है। जो कर्म साधारणत: लोगों के भय, संकोच, दु:ख आदि के विषय हुआ करते हैं वे असाधारण लोगों के प्रवृत्तयात्मक आनंद के विषय होते हैं। घोर साहस, कष्टसहिष्णुता आदि युक्त असाधारण उत्साह-ऐसे कर्मों के प्रति उत्साह जिनमें प्राण जाने पर भारी हानि पहुँचने की संभावना होती है-ही वीर रस के मूल में रखा गया है, साधारण उत्साह नहीं (जैसे मित्र की अभ्यर्थना की तैयारी आदि की तत्परता, जिसमें थोड़ा शरीर का आराम या आलस्य ही छोड़ा जाता है)। उत्साह के असाधारणत्व की प्रतीति उत्पन्न करने के लिए-कर्म की भीषणता या कठिनता स्पष्ट करने के लिए-भयानक, रौद्र और बीभत्स वीर रस के साथ लगा दिये जाते हैं। सामान्य उत्साह के साथ इन विजातीय भावों का विरोध ही रहेगा।

अब अद्भुत रस को लीजिए। सजातीय विजातीय के विचार से रौद्र, भयानक, बीभत्स और करुण के साथ इसका विरोध होना चाहिए। क्योंकि आश्चर्य आनंदात्मक भावों के अंतर्गत रखा गया है। पर अद्भुत रस के विरोधी भाव साहित्यग्रंथों में गिनाए ही नहीं गए हैं। जान पड़ता है कि साहित्य मीमांसक लोग यह देखकर हिचके हैं कि प्रत्येक भाव का आलम्बन अद्भुत हो सकता है और चमत्कारवादियों के अनुसार तो होना ही चाहिए। पर यहाँ आलम्बन के किसी स्वरूप की सत्ता मात्र से प्रयोजन नहीं है। उसके प्रति आश्रय या श्रोता के हृदय में किन भावों का उदय हो सकता है यह निश्चय करना चाहिए। शोक, क्रोध, भय या घृणा के अनुभव की दशा में क्या चित्त को इतना अवकाश मिल सकता है कि वह किसी वस्तु या व्यापार की लौकिकता अलौकिकता की ओर जाय? मैं समझता हूँ, नहीं। इसी से अद्भुत रस के जो उदाहरण पाए जाते हैं वे करुण, रौद्र, बीभत्स और भयानक के साथ नहीं मिलते। अद्भुत भीषणता, अद्भुत क्रोध आदि में अद्भुत की सत्ता का हमें अलग अनुभव नहीं हो सकता। कामदेव को भस्म करने के लिए शिव के तृतीय नेत्र से निकली हुई ज्वाला का वर्णन सुनते ही श्रोता को रौद्र रस का ही अनुभव होगा, व्यापार की अलौकिकता की ओर उसका ध्यारन तत्काल न जाएगा।


आश्रयगत विरोध

कुछ रसों में विरोध उनके भावों के एक ही आश्रय में दिखाए जाने से होता है। परस्परविरूद्ध भावों को एक ही आश्रय में एक साथ दिखाना दोनों को किसी काम का न रखना है। जैसे क्रोध और उत्साह के साथ भय का भी एक ही आश्रय में होना अयुक्त है। युद्ध के प्रति उत्साह प्रकट करनेवाला वीर यदि साथ ही भय भी प्रकट करे तो उसकी वीरता कहाँ रह जाएगी ? इसी प्रकार क्रोध दिखाने के साथ-ही-साथ कोई भय भी दिखाता जाय तो उसका क्रोध दर्शक या श्रोता में रौद्र रस का संचार नहीं कर सकता।


आलम्बनगत विरोध

बहुत से भाव ऐसे होते हैं जो एक ही आलम्बन के प्रति एक साथ नहीं हो सकते जैसे जिस व्यक्ति के प्रति कोई रति भाव प्रकट कर रहा है उसी के प्रति उसी अवसर पर वीर भाव या जुगुप्सा का भाव नहीं प्रकट कर सकता। अत: रति के साथ युद्धवीर का भाव सजातीय होने पर भी एक ही आलम्बन के प्रति होने से विरूद्ध हो जायगा। भिन्न-भिन्न आलम्बनों के प्रति ये दोनों भाव एक साथ रखे जा सकते हैं, जैसे-

सीय गौर कपोल पुलकित लखत बारंबार ही।

दनुज कलकल सुनत राघव जटा बाँधि सँभारही॥1

यहाँ एक ही राम में इन दोनों भावों का समावेश दूषित नहीं। एक ही आलम्बनगत होने से जितने भाव परस्पर विरूद्ध होते हैं उतने और किसी प्रकार नहीं। सजातीय भाव भी कभी-कभी एक ही आलम्बन के प्रति होने से परस्पर विरूद्ध हो जाते हैं। जो प्रेम का पात्र दिखाया जा रहा है वह उसी अवसर पर अवज्ञापूर्ण उपहास और युध्दोत्साह का आलम्बन नहीं बनाया जा सकता। उसी प्रकार जो क्रोध का आलम्बन है वह साथ ही भय का भी आलम्बन नहीं दिखाया जा सकता। पर जिस हास्य का विरोध श्रृंगार के साथ कहा गया है वह अवज्ञापूर्ण हास है। विनोदपूर्ण हास रति भाव के साथ आ सकता है। शिव के विचित्र वेश पर हास्य की व्यंजना भक्तिभाव के साथ बराबर की गई है। रामचरितमानस में शिव की बरात का वर्णन ही लीजिए।

पहले कहा जा चुका है कि भावों के अनेक भेद भिन्न-भिन्न आलम्बनों के स्वरूप की भावना के कारण निर्दिष्ट हुए हैं। इसी भेदव्यवस्था के अनुसार एक ही आलम्बन में परिस्थितिभेद से कुछ नए स्वरूप की भी योजना हो जाती है। जैसे, रति भाव का आलम्बन नायिका यदि कुछ दु:ख या पीड़ा में है तो उसे उस स्वरूप के अतिरिक्त कुछ स्वरूप प्राप्त हो जाता है जो रति भाव का आलम्बन है। ऐसी दशा में कोई भाव यदि इतना स्थायी है कि आलम्बन के परिस्थितिभेद से उत्पन्न कोई अन्य भाव विजातीय होने पर भी उसे दबा नहीं सकता और संचारी भी नहीं कहला सकता तो दोनों भाव एक ही आलम्बन के प्रति एक साथ दिखाए जा सकते हैं। एक उदाहरण कल्पित कीजिए-

शिलाखंड सों अढुकि सिय गिरी चोट अति खाय।

नयन नीर भरि पुलकि प्रभु लियो अंक में लाय॥

यहाँ पर रति भाव और करुण एक ही आलम्बन के प्रति विरूद्ध नहीं हैं। जिसे आचार्यों ने श्रृंगार का विरोधी कहा है वह मरणजन्य आदि पूर्ण शोक है जो अत्यंत दारुण होता है। अल्प कारण से उत्पन्न साधारण करुणा विजातीय होने पर भी रति भाव की विरोधी नहीं। बहुत से कुशल उपन्यासकारों ने किसी आलम्बन के प्रति करुणामिश्रित प्रेमभाव की उत्पत्ति बड़ी सहृदयता से दिखाई है।

ऐसे स्थलों में करुणा में विरोध की मात्रा कुछ भी नहीं होती। विरोध की मात्रा का निर्णय दो भावों की प्रवृत्तियों के मिलान से हो सकता है। जैसे, रति भाव

आलम्बन को प्यार से प्रसन्न करने के लिए, प्रवृत्त करता है, क्रोध आलम्बन को पीड़ित


1. मिलाइए, 'लोभ और प्रीति', निबंध।

करने के लिए, जुगुप्सा और भय उससे दूर हटने के लिए, करुणा उसके हितसाधन या प्रबोध के लिए। अत: रति भाव के साथ क्रोध, भय और जुगुप्सा का विरोध अत्यंत अधिक है। रति भाव के साथ साधारण करुणा की प्रवृत्ति का विरोध नहीं है। श्रृंगार के साथ करुणा का जो विरोध कहा गया है वह आश्रय की दृष्टि से-इस विचार से कि रति भाव की भावदशा एक प्रकार की आनंद दशा है। उस दशा के भीतर पूर्ण शोक की दशा आकर बाधाक हो सकती है। तात्पर्य यह कि पूर्ण रस की दशा में ही श्रृंगार और करुण परस्पर विरोधी होंगे, 'उदबुद्धमात्र' भाव के रूप में नहीं।

अविरोध के कुछ स्थल साहित्य ग्रंथों में गिनाए गए हैं। जहाँ विरोधी भाव केवल स्मरण किया जाता है, या सादृश्य मात्र दिखाने के लिए लाया जाता है वहाँ विरोध नहीं माना जाता, जैसे-

पुलकित तनु जाके सहित कीन्हे बिबिधा बिहार।

सो सुरपुर हा! कहति यों मोचति लोचन धार॥

इसी प्रकार यदि रौद्र रस का वर्णन आलंकारिक चमत्कार लाने के लिए ऐसे शब्दों में किया जाय जो श्रृंगारपक्ष में भी लग सकते हों तो रीति के अनुसार विरोध नहीं कहा जायगा। शब्दकौतुक की ओर रुचि बढ़ जाने के कारण ऐसे स्थलों पर विरोध चाहे न कहा जाय पर रस का अच्छा संचार ऐसे वर्णनों से हो नहीं सकता। किसी रस का संचार उसी के स्पष्ट शब्दों में वर्णन करने से पूर्णतया हो सकता है। रस यदि श्रोता के हृदय पर पड़ा हुआ प्रभाव है-यदि वह भिन्न-भिन्न भावों का भिन्न-भिन्न आस्वाद रूप है-तो भिन्न भाव के शब्दों में किसी भाव के कहे जाने से उसका ठीक-ठीक परिपाक नहीं हो सकता। कोई सहृदय ऐसा वर्णन पसंद नहीं करेगा।

यदि विरूद्ध भाव किसी दूसरे भाव या रस के अंग होकर आवें तो वे एक साथ रह सकते हैं। जैसे-

मूर्च्छित लखनहिं लखत नीर नयनन भरि लावत।

सम्मुख निसिचर निरखत ही कोदंड उठावत॥

राघव की वा अवसर की छवि छटा निहारत।

मोहित ह्वै सुर गगन बीच तन मन निज वारत॥

यहाँ 'शोक' और 'उत्साह' दोनों विरोधी भाव रामविषयक रति भाव के अंग होकर आए हैं, इसमें दोष नहीं। अंत में यह फिर कह देना आवश्यक है कि विरोध का उपर्युक्त विचार केवल वहाँ के लिए है जहाँ कवि का उद्देश्य पूर्ण रस की व्यंजना हो। प्रबंध के भीतर बराबर ऐसे अवसर आते हैं जिनमें पात्र दो विरोधी भावों की खींचतान में पड़ा दिखाई देता है। ऐसी भावसंधि के अवसर पर विरोध का विचार नहीं किया जाता। वहाँ तो विरोध में ही चमत्कार दिखाई पड़ता है।