विलायत यात्रा / प्रताप नारायण मिश्र

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

न जाने क्या दुर्दशा आई है कि लोगों को सब विलायती पदार्थ ही अच्‍छे लगते हैं। कदाचित् इसका कारण पश्चिमीय शिक्षा हो। लोग बाल्‍यावस्‍था में ही उन स्‍कूलों में भेज दिए जाते हैं जहाँ वही अँगरेजी गिटपिट से काम पड़े। …चाहे कश्‍मीरी, खत्री आदि की भी संतति हों, पर अपने को ब्‍लैक कहने में आदर समझें। चाहे महाराष्‍ट्र वीरों के पुत्र भी हों पर वही कि हममें अँगरेजी की-सी फुर्ती कहाँ से आई, इत्‍यादि। यह सब बातें लिखें तो लेख बढ़ जाएगा। हमें तो केवल यह दिखाना है कि काल के परिवर्तन से जो लोग विलायत गमन के लिए कहीं वेद से लेकर पुराण, कुरान आदि के श्‍लोक वा आयत छाँट-छाँट के छपा दें, कहो सहस्त्र युक्तियाँ निकाल के यह सिद्ध कर दें कि वहाँ की-सी जलवायु कहीं नहीं है, वहाँ की रहन-सहन, बोलचाल, शिष्‍टता-मिष्‍टता कहीं नहीं। वहाँ हमारे पूर्वज तो सब जाते थे। बिना वहाँ के खाद्याच्‍छादन किए हमारी ब्‍लैकनेस (श्‍यामता) जा सकती है, न गौरांग देवों की भी पूजार्चा मिल सकती है। अरे भाई एक ब्राह्मण चाहे सो बके, पर तुम्‍हारी समझ में नहीं आएगा।

पर यदि हमीं श्‍वेत लेप लगा लें और अपना नाम भी रेवरेंड मिस्‍टर P. Naroyegem Messur ए.बी.सी.डी.ई… जेड रख लें तो तुरंत आप हमारे बंगले पर आ के हमसे साक्षात् करके कर स्‍पर्श करने को उत्‍सुक होंगे। आप अपनी पाकेट से रुमाल निकाल के झुकेंगे कि हमारा बूट पोंछ दें। पर हम कहेंगे "ओ हट जाओ सूअर काला।" झट से आप सिटपिट करके हट जाएगे। आप अँगरेजी में किटपिट करके हमें शांत करना चाहोगे, पर हमें वही "सुनटा नहीं हम चला जाएगा टुम वाडमास" सूझेगा। लाख खुशामद करोगे हम एक न सुनेंगे। हम जो कुछ लिखेंगे, आप यदि हिंदू हैं तो वेदवाक्‍य समझेंगे, यदि मुसलमान हैं तो आयातेकुरान से भी अधिक मानेंगे, अगर नेटिव क्रिश्चियन हैं तो अपने प्रीचिंगज में नीम के नीचे खड़े हो करके हमारे लेख को भी, सच मानिए, अपनी बाइबिल के प्रमाणों में मिलाने लगेंगे। ऐसे समय पर कहीं हम बिलायत-यात्रा निषेध पर कुछ लिखें तो विद्युत समाचार की नाईं समस्‍त भूमंडल पर फैल जाए। हमको भी राजा, सर, …श्री ईसाई (C.S.I.) की पदवी मिल जाए। पर भैय्या! …हम तुम्‍हें यह समझाते हैं कि साहिब लोगों के ही क्या रक्‍तमला (सुर्खाब) का पंख लगा है जो उनके लेक्च और आर्टिकलों को बिना मीमांसा ग्रहण कर लेते हों। इसमें तुम्‍हारा कल्‍याण नहीं है। 'यथा राजा तथा प्रजा' का अर्थ यह नहीं है कि साहिब लोगों की नाईं आप की लड़की भी मिसें हो जाएँ। आपकी रहन-सहन में खड़े हो के पयश्राव त्‍याग करना सभ्‍य समझा जाए। आप जो इतने प्रमाण श्री महाभारतादि वृहदितिहासों और श्रीमद्भागवतादि महापुराणों से छाँटते हैं कि हमारे पूर्वज बिलायत जाते थे, हमने माना, किंतु यह तो समझिए कि उन महापुरुषों ने जा के क्या-क्या किया था। किसी ने जा के अपनी व्‍यवहारविद्या फैलाई थी। आप उलटे वहीं की रीति-नीति सीख आते हैं।

उन लोगों ने वहाँ जा के अपने सनातन धर्म को विस्‍तृत किया था। आप वहाँ से ईसाई हो के लौटते हैं। आपके पूर्वपुरुष झट से अन्‍य देशस्‍थ मनुष्‍यों को विडालाक्ष, कालयन, मयदानव नाम धर लेते थे। आप ब्‍लैक, डैमड फूल बन के फूल से खिल जाते थे कि इन अधरों से भला इतना तौ भी सुना। अभी तो आप इस बात पर हँसते होंगे कि हम भी किस मुल्‍क में उत्‍पन्‍न हुए जहाँ के लोग जहाज पर नहीं चढ़ते, जहाँ खड़े हो के नहीं मूतते, जहाँ लोग हाइड्स पार्क की सैर नहीं करते, जहाँ स्‍त्री स्‍वच्‍छंद नहीं विचरतीं, जहाँ कागज का एक काम तो लोगों को विदित ही नहीं, केवल लिखने, छापने, टोपी बनने आदि के ही काम में आता है इत्‍यादि। पर यह न समझते होंगे कि हमारे देश की एक-एक रीति पर चाहे और देश के आदमी असभ्‍यता का दोष आरोपण करें, किंतु कुछ नहीं, कहीं धूलि के उड़ने से भानु प्रतापहीन होते हैं।

हाँ इतना तो हो तो जाता है कि भानु दिखाई न दें। पर ज्‍योंही धूलि हटी त्‍योंही भगवान् वैसे के वैसे ही। सिविल सर्विस है तो सर्विस ही न, फिर क्‍यों उसके लिए बिना बुलाए अपनी लक्ष्‍मी को समुद्र प्रांतों में भेजें। एक सिविल सर्विस के लिए जितना रुपया व्‍यय किया जाता है और एक साल जितने मनुष्‍य परीक्षा देने विलायत जाते हैं, उतने रुपयों के यदि हमारे देश में कोई सद्व्‍यय होने लगे तो क्या ही आनंद का विषय है। सिविल सर्विस में रुपए व्‍यय करके जब लौटौगे तौ मिलैगी वही नौकरी। हमारा अभ्रिपाय यह नहीं है कि नौकरी करो ही मत, न करोगे तो जियोगे कैसे? किंतु यह अभीष्‍ट है कि ऐसा उद्योग करो कि जिससे देश का धन देश ही में रहे। राज्‍य दूसरों का है, कुछ न कुछ धन तो अवश्‍य ही विदेश जाएगा। यह बात तो पत्‍थर की लकीर ही है। पर ऐसा उद्यम करो, जिससे यथोचित द्रव्‍य के अतिरिक्‍त एक कौड़ी भी विदेश को न जाए। यदि सैर ही के प्रयोजन से विलायत जाते हो तो तनिक चेत करके देखिए तो हमारे वैसे दिन नहीं रहे। यदि ऐसी ही इच्‍छा है तो श्री वृंदावनादि तीर्थों को रमणीय करने की चेष्‍टा कीजिए। नहीं तो यह पवित्र स्‍थान एक तो वैसे ही पूर्वापेक्षी कुछ न्‍यूनतर रमणीय हो गए हैं, दूसरे तुम और कर दोगे।

मुसलमानों के अत्‍याचार से तो मंदिर भग्‍न हुए, अब तुम्‍हारे विलायत आदि जाने के व्‍यय में अकेले तीर्थ ही क्या तुम्‍हारे सब ग्रहादि प्राणरहित देह के समान हो जाएँगे। जिस दिन तुम बिलायत में जाकर अपने आचार-व्‍यवहार फैलाओगे, और जैसे अन्‍य देशियों की रीति-नीति तुम सीखते हो वैसे दूसरों को भी अपनी नीति सिखाओगे, उस दिन तुम्‍हें कोई बुरा न कहेगा और कोई जातिभ्रष्‍ट न कहेगा।

बोल श्री नंदनंदन की जै