विवशता जीवन तो नहीं / गोपाल चौधरी

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आखिर सब कुछ हो ही गया! राजनीतिक औडिटिंग पर किताब छप गई। इससे सम्बन्धित पेपर, जो एक मोडेल कि प्रस्तावना है इसको कार्यान्वित करने का, भी प्रकाशित हो गया। इसका प्रचार और लागू करवाने के लिए एक गैर-सरकारी संस्था भी बन गई और हमारा काम चल भी निकला। पर ये जिन परिस्थितियों, घटनाओ और व्यक्तियों के कारण संभव हो पाया वह कार्य कारण के अनंत और वृहत प्रकृति की पुष्टि करते से लगते। " उधो कर्मन की गति न्यारि...

अब भी याद है... जब पापा का देहांत हुआ था ... और मैं दिल्ली में था...भाइयों ने मेरे आने के पहले उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया... उनके—अपने प्यारे पापा का अंतिम दर्शन तो क्या...चिता की अग्नि भी नसीब नहीं हुई... दिल टूट-सा गया... जीवन में इतना बड़ा दुख नहीं देखा था...एक तो पापा के जाने का गम, उसपर उनका अंतिम दर्शन भी नहीं करने दी भाइयो ने... क्या कर सकता था... इस पहाड़ से लगते दुख को सहने के अलावा।

जैसे कि ये सब कम था, परिवार में धन जायदाद के बँटवारे को लेकर जंग-सी मच गई। अभी पापा की चिता की आग ठंडी भी नहीं होने पायी थी कि भाई लोग बेचैन हो गए अपने हिस्सा लेने को। मुझे बहुत खराब लगा। कैसे बेटे हैं? पर मुझे क्या पता था आज कल के बेटे ऐसे ही होते हैं या मैं वैसा बेटा नहीं था, इसलिए ऐसा लग रहा था। जो भी था वैसा ही था। पर ठीक नहीं था क्योंकि भाई लोग मेरे हिस्सा मारने के चक्कर में थे। इस रहस्य का पता भी बड़े रहस्तमय ढंग से हुआ।

पहले तो मुझे कुछ अटपटा-सा लगा। जब बहन ने घोषण की—चलो सबको माँ पा...बड़े भैया ने तुरंत एक अर्जेंट काम के लिए बुलाया। सभी तुरंत ड्राइंग रूम में आ जाइए ...

ऐसा भी क्या काम आ पड़ा, ये सोचते हुए वहाँ दाखिल हुआ। भाइयो, भाभियो और बहन-जीजा कि पूरी मंडली पहले से ही चौकड़ी मार कर बैठी थी। पापा के जाने के गम से बेहाल माँ को भी ले आए थे। वह भी बीच में बैठी थी और ऐसा लग रहा था जैसे मेरा ही इंतजार हो। उसी समय कुछ शक-सा हुआ था। दुष्टो–चाहे वह भाई बहन हो या कोई अपने सगे—की टोली बैठती है तो किसी न किस दुष्टता के काम को अंजाम देने के लिए।

सभी बोलने लगे। एक-एक कर। बड़े नपे तुले लहजे और अंदाज मे। जैसे सब सुनियोजित हो। पहले बड़े भैया, बड़ी भाभी, फिर मँझले भैया, भाभी, फिर छोटा भाई और बहू, फिर बहन और जीजा। उनके सारी बातों का, उनका मेरे लिए उमड़े प्यार और स्नेह, मेरी चिंता, मेरे घर परिवार कि चिंता का एक ही सबब था: मैं पागल हूँ। किस मनोचिक्त्सिक को दिखाना चाहिए।

जो डॉक्टर भैया भाभी... पूरी डॉक्टर की फेमिली, नर्सिंग होम, हॉस्पिटल। करोड़ो के पति तो हैं ही ऊपर से। अंदर से शायद खरबपति हों। पर जब एक डेन्टिस्ट को दीखाने को कहा तो मुकर गए सब। कमिशन और कट बैक का लंबा जाल होता है डॉक्टर और हॉस्पिटल का। एक बार फंसे तो फंसे ही रहेंगे इस टेस्ट से उस टेस्ट के बीच में तक।

और अब मुझे मनोचिकित्सीक से दिखना चाहते हैं। वह भी बिना मेरे कहे। कहने पर दिखाया नहीं। डॉक्टर लोग कभी कमिशन के साथ सम्झौता नहीं करते! घोडा कहीं घास से दोस्ती कर सकता है भला। सब कुछ कट कमिसन पर चलता है। जैसे नेता लोग वोट के लिए अपने सगे सम्बंधी को भी नहीं छोड़ते, वैसे ही डॉक्टर ही क्यों, सारे सेवा और गैर सेवा क्षेत्र के लोग, नहीं छोड़ते। सेवा में देश या इसके लोगों को लूट रहे है। —जीनियस और पागल में बस केवल कुछ डिग्री का फर्क होता है। अगर किसी को गुस्सा आता है या उसकी कोई कमजोरी जिसके बारे में उसे पता है। अगर वह अपनी इस कमी के बारे जानता है, जैसे कि मैं जानता हूँ, वह किसी भी तरह से अबनोरमल नहीं हो सकता है...

फिर थोड़ा रुक कर, —मुझे तो आप लोग पागल लगते हो। अभी पापा की अग्नि-चिता ठंडी भी नहीं हुई है आप लोग मेरा हिस्सा हड़पने के लिए मुझे पागल घोषित करवाना चाहते हो मानो चिक्त्सिक के पास भेज कर...

वहाँ से फटाफट उठ चला। अपने सामान बैग में रखे और निकाल गया वहाँ से। वहाँ नहीं रहना जिसे घर कहते हैं जहाँ ऐसे भाई बहन रहते हैं। जो भाई कम कसाई ज्यादा हैं। कसाई भी इनसे अच्छा, वह अपने पेट के लिए धंधा करता है। जब की ये लोग अपने लालच, अहम और अपने झूठी शान और बड़प्पन के लिए। निकल चलो यहाँ से। घर केवल चहरदीवारी से नहीं बनता, रहने वालो से बनता है। जब सब ऐसे ही हैं, तो क्या करना।

वापिस दिल्ली आ गया। पर बिलकुल टूट गया था। घर का माहौल भी खराब हो रहा होता! सासु माँ ने बीबी को भड़का दिया। जीवन में अजीब-सी मनहूसियत और अर्थहीनता-सी छायी लगती होती! ऐसी स्थित आ गयी: जीने की वजह तलाशना जरूरी लगाने लगा। ताकि जिंदा रहा जा सके!

कुछ सामाजिक राजनीतिक गतिविध या कार्य की तलाश में होता। उस समय राजनीतिक औडिटिंग की अवधारणा बहुत प्रारम्भिक अवस्था में होती। इस दिशा में कुछ करने की सोच रहा होता।

तभी उससे मिला था: कनुप्रिय से। नहीं मिल कर, बिछड़ कर फिर मिला था! या वह आ मिली।

उन दिनो नॉर्थ ब्लॉक में हमारी पोस्टिंग हुआ करती। उससे अंतिम बार मिला था सात आठ साल पहले। जब हम एक साथ एक अमेरीकन मैगज़ीन में काम करते होते। बाद में मेरा कारतीय सूचना सेवा में चयन हो गया और कनु का काहारा कारत टीवी से। उस पत्रिका में कनू 1-2 साल पहले ही आई, हमारे ऑफिस मे। वास्तविकता में उसे लाया गया होता!

हुआ यूं कि कनू जहाँ काम कर रही होती, वहाँ मैं भी रहा था। पर कनू को मालिक के बेटे से थोड़ी नहीं बहुत समस्या हो गयी थी। उसने कुछ ऐसा बोला था या प्रस्ताव रखा कि कनू को थप्पड़ मारना पड़ा। सही किया था उसने, जब सुना तो मुझे अच्छा लगा। वह था ही वैसा और जैसे को तैसा मिल ही जाता है। कैन टीवी के मालिक, के-के कैन साहब को, जो हमारे मैगज़ीन के फ्रैंचाइज़ मालिक भी थे, एक टीवी उद्घोषिका चाहिए होता। खोज-खोज कर हार चुके थे वे और उनके कारिंदे। पर कोई उन्हे मिली नहीं। मिली भी तो कैन टीवी का इतना नाम बदनाम होता कि शायद ही कोई आना चाहे।

तब मुझे याद किया गया और मैंने कनू को बुलाकर उनसे मिलवा दिया। बाकी का काम कनू ने खुद कर लिया था। पहली बार जब उससे मिला तभी से प्यार हो गया। उसे बताया नहीं। पर उसने भी भाँप लिया अपने लिए प्यार को, जो आंखो से छलकी जा रही होती।

सुंदर लड़की! अच्छी कद काठी। कोइ भी उससे मिलकर उसका दीवाना हो जाएगा, ऐसी सुंदरता। तभी उसके आते और काम शुरू करते ही सभी उसे चाहने लगे। जीएम से ले कर चपरासी तक! उस पर लाइन मारने लगे।

एक दिन हम अपने डेस्क पर बैठे काम कर रहे होते। कानू उदास-सी खोयी-खोयी कहीं। आंखे बंद किए डेस्क पर सिर को रख कर! क्या हुआ? मैंने पूछा। -कुछ नहीं... फिर थोड़ा रुकते हुए। ...तुम्हें कहीं खराब तो नहीं लग रहा है कि मैं तुम्हें यूज कर रही हूँ? मेरा बॉयफ्रेंड है और मैं तुम्हें वह नहीं दे सकती जो तुम... हल्लो क्या कहा ... यूज करना...पर ये कहाँ से आ गया... मुझे टॉप बॉस ने बोला और तुम कही काम नहीं कर रही थी... । मुझे पता चला और मैंने... बस इतना...अगर देखा जाय तो मैं तुम्हें यूज कर रहा हूँ... हें... कनू थोड़ा नॉर्मल हुई। सुंदर से चेहरे पर एक पल के लिय मादक और मनमोहक हंसी मोतियाँ की तरह बिखर कर फिर कहीं गुम हो गई... फिर नज़रे थोड़ा झुकाते हुए बोली—पर तुमने नौकरी दिलाई.। और मैं तुम्हें बदले में कुछ दे भी नहीं सकती...मेरा बॉयफ्रेंड है... तो उससे क्या? मुझे एक काम बोला गया टीवी न्यूज़ रीडर लाने का ... मैंने वह कर दिया... इसमे तुम्हारी मदद भी हो गयी और नौकरी भी मिल गई.। तो इसमे लेने देने का सबाल कहाँ उठता है...

उसके लिए छलक आए प्यार को छिपाते हुए मैंने बोल तो दिया। पर कनू को पता चल गया था और उसके बाद दोस्ती की आड़ में घुट-घुट कर जीते प्यार का जो सिलासिला शुरू हुआ, वह आज तक जारी रही है और शायद वह अनंत सफर तक जारी रहे!

बीच में कई मौके आए। ऐसे भी मुकाम आए कि ये छिपा हुआ, घुट-घुट कर जीता प्रेम खुले में आ सकता था। शायद इसे खुले में लाने के लिए ही अस्तित्व ने किया हो। पहली बार वह मौका आया, कनू के हमारे संस्था में आने के एक महीने बाद ही।

ऑफिस आते ही कनू ने एक दिन बोला—चलो कहीं डेट पर चलते हैं? डेट...मेरे साथ...वो तेरे दुलहे मियाँ ... थोड़ा आश्चर्यचकित... थोड़े विस्मय के साथ बोला। ये क्या बोल रही कनू। कहीं अपने बॉयफ्रेंड से लड़ कर तो नहीं आई। मैंने उससे पूछा भी। वह कुछ नहीं बोली और मैंने बोला—बाद में कभी चलेंगे जब तेरा गुस्सा शांत हो जाएगा। वह उदास हो गयी थी। वह भी आया था। पर उसके साथ नहीं गयी। फिर कुछ दिनो बाद उसने बताया उससे समझौता हो गया।

मेरे एक दोस्त ने जब यह सब सुना तो उसने कहा:—तू न बस वही है वह उल्लू ...अरे वह तेरे को अपने बोयफ्रेड् बनाने का ऑफर दे रही थी। ये भी बता रही थी कि उसको छोड़ चुकी जिससे तू सोचता है वह प्यार करती है... पर तूने उसे ठुकरा दिया तो क्या करती वो! अपने छोड़े हुए बॉयफ्रेंड के पास वापिस चली गई।

मैं चुप रहा। अपने ही हाथों अपने प्रेम का गला घोट आया था। शायद अंजाने में ही। या अपनी बेवकूफी मे। मैं तो कुछ और ही समझ रहा होता। यही तो जिंदगी की पहेली है! सोचते कुछ है, होता कुछ और ही है। जो दिखता है वह होता नहीं और जो होता है दिखता नहीं।

बाद में कुछ-कुछ समझ में आया जब वह थोड़ा बदल गयी। दोस्त तो हमे बन ही गए थे। पर उसमे पेंच आ गया था। वह थोड़ा और कसता गया और अक्सर हमारे क्षण-क्षण बदलते समीकरण में परिलक्षित होने लगा।

एक दिन हम साथ-साथ बैठे होते न्यूज़ डेस्क पर। किसी रिपोर्ट का सम्पादन कर रहा होता। तभी देखा वह पेपर पर अपना नाम लिखे जा रही है। पता नहीं क्या हुआ कि अंत में उसके नाम के बाद अपने नाम लिख दिया। फिर उसने एक और नाम लिखा। मैंने देखना चाहा तो मना कर दिया। जब उससे छीनने कोशिश की, तो वह कागज को टेबलेट की तरह गटक गई।

फिर हम अलग हो गए। वह कहरा कारत टीवी जॉइन कर ली और मैं सरकारी नौकरी। बीच में 6-7 साल एक दूसरे के संपर्क में भी नहीं रह पाये। इसी बीच कनू ने अपने उसी बॉयफ्रेंड से शादी कर ली और अमेरिका चली गई। चार पाँच सालो के लिय।

फिर वह वापस कारत आ गए। तभी उसके बारे में पता चला। ऐसे ही अचानक एक दिन एक पत्रकार आए थे नॉर्थ ब्लॉक। उसी चैनल टीवी के होते जहाँ कनू काम करती ती। जब उसके बारे में जिक्र किया। तो उन्होने बताया कि वे थोड़े दिन पहले अमेरिका से आए हैं। उसने उस समय कनू से बात करा दी। क्या संयोग थे उससे पुनर्मिलन के। उससे बात भी हो गयी।

और कनू अगले दिन मुझसे मिलने भी आ गयी!

उन्ही दिनो हम राजनीतिक औडिटिंग सम्बंधी ग्रुप बनाने में लगे होते! कनू हमे हर तरह के सहयोग देने लगी। वह हमारी लिए प्रेरणा का केंद्र बन गयी। हम दोनों काफी लोगों से मिले। उसका पति कमल भी साथ जाता कभी कभी। हमने कश्मीर पर भी काम करने का निर्णय लिया। लेकिन ये सब बहुत ही प्रारम्भिक अवस्था में था।

एक शाम। कनू ड्राइव कर रही होती और मैं बैठा होता: आगे वाले सीट पर। हम दुनिया जहाँ की बाते कर रहे होते।

तभी कनू ने बोला—तुम पक्का बोलो तो सब कुछ छोड़ कर एक हो जाते है और ये सब काम करते हैं। तुम बोलो तो मैं आ जाती हूँ सब कुछ छोड़ कर!

ये तीसरी बार दबा हुआ, स्वीकार नहीं हुआ प्यार दोनों तरफ से! बाहर आने के लिए के लिय उद्धत सा। इशारा दे रही होती: इजहार भी कर रही होती। उस प्रेम का जो होते हुए भी न था! अंदर ही अंदर घुट रहा होता। पता नहीं कितने सालो से। दोस्ती की ओट में वह दबा हुआ प्रेम बाहर आने को कबसे मौका ढूँढ रहा होता मानो!

उस शाम: उसे बाहर आने का मौका मिला।

' इसकी अभी जरूरुत नहीं है... बाद मे। मैंने बोला और वह चुप हो गई।

उसके बाद से वह बहुत खतरनाक ढंग से कार चलाने लगी। मैं समझ गया। उसे अच्छा नहीं लगा। पर अब संभव नहीं... वह भी शादी शुदा और हम भी। उस पर से दोनों के अपनी-अपनी शादी से बच्चे भी हो चुके होते ।

पर कनू ने हिम्मत नहीं हारी और मैं भी। पर अब सब कुछ छोड़ कर नहीं आ सकता! जब सबने साथ छोड़ दिया। यहाँ तक की कनू ने भी। तब उसने सारे जमाने से लड़ कर भी साथ दिया! यही बात कनू को बताई भी। जब एक बार फिर डेट पर गए होते!

नहीं वह ले गयी। बहुत सुंदर लग रही होती। सुंदर तो है पर उस दिन और भी सुंदरत! मानो छलके जा ही हो। लेकिन उस दिन भी कुछ नहीं हुआ। कुछ किया तो नहीं! उलटे बीबी के शान में कसीदे कढ़ता रहा।

फिर कनू ने मिलना छोड़ दिया। मैं समझ गया उसे खराब लगा। फिर एक दिन सोचा: क्यों न वर्षो से दबे कूचले प्रेम को परवान ही चढ़ा दिया जाय। उसे मिलने गया और उससे कार सेक्स कर अपने प्यार को परवान करने को सोचा। पर इस बार उसने झिड़क दिया।

बहुत खराब लगा। तब पता चला: कनू को कैसा लगा होगा जब मैंने उसका दिल तोड़ा था। वह अपना सब कुछ अर्पण करने को तैयार होती। पर ठुकरा दिया। अब उसकी बारी थी। उसने फोन उठाना बंद कर दिया। मुझसे बात भी नहीं करती। ऐसा लगा उससे सम्बंध टूट गया।

उधर हमारा राजनीतिक औडिटिंग सम्बंधी दल भी नहीं बन पा रहा होता। और कनू जो मुख्य प्रेरणा स्रोत हुआ करती! वह भी नाराज हो गयी-सी लगती। फिर सोचा: पहले औडिटिंग की अवधारणा विकसित कर ली जाय। किसी मोडेल का प्रारूप बन जाय। किताब या पेपर ही लिख लिया जाय। । फिर संभव हो पाएगा ये अभियान। प्रजातन्त्र को मजबूत करने का मुहिम।

इस तरह से पॉलिटिकल औडिटिंग पर काम शुरु हो गया, लिखने का। । दो तीन साल लगे। इस बीच कनू से भी संपर्क बना रहा। औपचारिक ही सही और वह हमारी प्रेरणा स्रोत बनी रही। किताब के छपने से लेकर एनजीओ के बनने! अहम भूमिका निभाई कनू ने। उसे संस्था का अध्यक्ष भी बना दिया गया। हमारा काम चल पड़ा।

हम मिलते रहे। एनजीओ के काम सिलसिले मे। शायद हम दोनों के बीच अनहुआ-सा हुआ समझौता हो गया-सा लगता: अपने दबे हुए प्यार को दबे ही रहने देने का। शायद यही हमारे प्यार का हश्र था। एक बार फिर मैंने कोशिश की थी इस प्यार को बाहर लाने का। जब मैंने लिफ्ट में उसे कीस किया था। पर वह नाराज़ हो गयी थी। ऊपर ऊपर, पर उसका पूरा वजूद मिलन को आतुर हो रहा होता। पर उसने अपने आप को रोक लिया था।

क्यों? शायद उसका मन भुला नहीं था वह संमर्पण! जो एक स्मरण भर बन कर रह गया। वह भी कटु। पता नहीं क्या सोच रही होगी! पर उसके साथ ही क्यों, ऐसा तो हरेक के साथ होता आया है। ये सब तो शायद बहुत पहले से तय हुआ-सा लगता। यही रहा है प्यार ही क्यों, जीवन के हरेक पहलू का परिणाम: जब पाया तो खोया ही और जब खोया तो ही सब कुछ पाया!

बस इस तरह दबा हुआ प्यार दबा ही रह गया। पर अब भी ऐसा लगता है: एक दिन हम मिलेंगे। सब कुछ भूल कर और एक दूसरे को हो जाएंगे!

पर कब? लेकिन क्या हम मिले हुए नहीं? रूह तो मिली हुई है! पर शायद वजूद अपना हक़ मांग रहा है!