विश्वास / राजनारायण बोहरे

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बाबू हरकचंद का ज़िंदगी भर का विश्वास एकाएक ढह गया।

वे जब से म्युनिसपिल कमेटी की नौकरी में आये थे, ऐसा कभी नहीं हुआ था। उन्होंने अपनी सारी ज़िंदगी शान से गुजारी है। बाज़ार में कभी किसी व्यापारी ने उनकी बात नहीं टाली। लेकिन आज सेठ गहनामल ने उनके विश्वास को एक ही झटके में गहरे से तोड़ दिया।

उन्हे याद आया कि जब उनकी म्युनिसिपिल-कमेटी के पास चुंगी नाके लगाने का अधिकार हुआ करता था तब कमेटी में हरक चंद जी ऐसी कुरसी पर थे कि वे नाकेदारों के कामकाज पर सीधे निगाह रखते थे। महसूल वसूली का काम उनके ही पास था। इसी वजह से क़स्बे के सारे व्यापारी उनका ख़ास ख़्याल रखा करते थे। उन्होने भी इस क़स्बे के हर व्यापारी पर खूब अहसान किये हैं।

चोरी-छिपे पूरा ट्रक भरके माल ले आये दुकानदारों को फाइल से उनने वे कागज-पत्तर कई बार बताए हैं, जिनके कारण दुकानदारों पर हजारों रुपया महसूल लग सकता था। जानकारी मिल जाने पर दुकानदारों ने कागज-पत्तर में लिखी चीजें अपने यहाँ दर्ज करलीं। सो दुकानदारों के हजारों रूपये बच गये, पर बदले में हरक बाबू ने कभी किसी से कोई अपेक्षा नहीं की। जिसने जो दिया प्रेम से ले लिया। नहीं दिया तो भी कोई पच्चड़ नहीं की। हाँ, इन सब कामों की वज़ह से बाज़ार में उनका इतना सम्मान ज़रूर था कि वे यदा-कदा बाज़ार से निकलते, दुकानदार उन्हे आवाज़ देकर बुला लेता और खूब मान देता। खुद उठ के उन्हे अपनी गद्दी पर बिठाता और नाश्ता-चाय-पान के बिना आने न देता। वे जब घर-गृहस्थी की कोई चीज़ खरीदते, मुंह से माँग के कोई उनसे सामान का मोल न लेता ़़़़़़़़ ़ ़फिर भी वे न मानते, कम-ज्यादा थोड़े बहुत दाम देकर ही उठते। बस इतने से ही खुश थे वे कि बाज़ार का महाजन सम्मान दे रहा है यही बहुत है।

कुछ बरस पहले सरकार ने सड़क यातायात को बिना बाधा चलने देने के लिये जब कुछ सुधार किये, तो सबसे पहले म्युनिस्पिलटी के चुंगीनाके बंद कर दिये। अब सरकार को क्या पता कि म्युनिसपिल कमेटी के लिए नाके कितने ज़रूरी है? ज़रूरी क्या ़़़ हरक बाबू यह मानते हैं कि ़वे तो प्राणवायु थे, इन कमेटीयों के लिए. नाके क्या बंद हुये, नगरपालिका वालेां के दिन फिर गये। बुरे दिन आ गये-कर्मचारियों के भी और संस्थाओं के भी।

नाकेदारों और किरानीयों के सारे ज़लवे खत्म हो गये। पहले बज़ट कम होना शुरू हुआ फिर दफ्तर में दरिद्रता के नजारे प्रकट हुये-घिसे-पुराने परदे, फटे-मेजपोश, आधा-अधूरा उज़ाला और दिन में आने वाली चाय के घटते कपों से बाहर के लोग भी अंदाज़ा लगाने लगे कि म्युनिसपिल कमेटी की माली हालत इन दिनों पतली हो चली है। फिर तनख्वाह बंटना अनियमित हुआ और वेतन न मिलने का क्रम कई-कई माह तक चलने लगा।

भीतर-ही-भीतर हरकचंद ने अनुभव किया कि वे दुकानदार जो हरकचंद को अपना परिजन औेर आदरणीय माना करते थे, यकायक उनसे कन्नी काटने लगे हैं। चाय-पान की दुकान पर कोई व्यापारी खड़ा होता और हरकचंद वहाँ पहुंच जाते, तो वहाँ खड़ा आदमी आँख बचा के वहाँ से खिसक लेता। रास्ते में आते-जाते भी व्यापारी यह कोशिश करते कि हरकचंद से दुआ-सलाम न करना पडे़ या तो मंुह फेेर के खड़े हो जाते, या वहाँ से दबे पांव किसी गली में खिसक लेते। जैसे नमस्कार कर लेने से कुछ घट जायेगा या लेना-देना पड़ जायेगा।

वे घर के लिए कोई ज़रूरी सामान खरीदने किसी दुकान पर अब जाते, तो दुकानदार नमस्कार तो करता, पर उनसे कभी बैठने या चाय-पानी लेने का आग्रह न करता। वे जो चीज़ ख़रीदना चाहते या तो सीधे-सीधे दुकानदार बाज़ार रेट से ज़्यादा क़ीमत बताता, या कह देता कि फलां चीज तो मेरे पास घटिया दरजे की है, आपके लायक नहीं है ़-़ ़ ़। मजबूर हरकचंद वह चीज़ दुकानदार के बताये ऊंचे दाम में खरीद लाते। सौदेबाजी या मोलभाव उन्होने ज़िन्दगी में कभी नहीं किया था, दुकानदार खुद ही पहले उन्हे बाज़बी दाम लेकर चीजें देते रहे थे, सो वे अब भी उनसे मोलभाव नहीं करते थे। लेकिन चीजें महगीं आती तो घर पर पत्नी चिनमिन करने लगती थी। व्यापारियों का बदला हुआ रूप देख कर हरकचंद को बड़ा दुख हुआ-जिनके लिए वे रात दिन चिन्ता करते रहे, जिनके लिए अपने विभाग से उन्होने विश्वासघात किया, वे लोग भी इस तरह आँख फेर लेंगे, ऐसी आशा न थी उन्हे।

नगरपालिका का बज़ट घटा तो विकास कार्य प्रभावित हुयेे, नेता जागे। उनने फिर से नाके खोले जाने या म्युनिस्पिल कमेटी को ज़्यादा बजट देने की माँग की। नेताओं और संस्थाओं की तमाम लिखा-पढ़ी के बाद राजधानी ने नगरपालिकाओं की फरियाद सुनी। फाइलें पहले धीमें चली, फिर दुलकी चाल चलीं और यह खबर जब कस्बों-तहसीलों में स्थित कमेटियों तक पहुंची तो वहाँ से जीवनीशक्ति आना शुरू हुयी और फाइलें दौड़ने लगीं। बाद में तो ज़रूरत पड़ने पर फाइलों ने हवाई सफर भी किया। अंततः कमेटियों को दुबारा महसूल वसूलने की ताकत दे दी गयी। कमेटियों में ज़ोश जाग उठा।

हालांकि कमेटियों को सिर्फ़ आयात-निर्यात शुल्क वसूलने की छूट मिली थी। निर्देश आये थे कि वे नाका लगा दें पर किसी वाहन को रोकें नहीं, व्यापारी स्वयं आकर जानकारी देगा। धीरे-धीरे काम शुरू हुआ, मंडी से बाहर जाने वाले माल की जानकारी से लेकर, फैक्ट्रीयों से भेजे गये माल की भी जानकारीयाँ, प्रायः कमेटी में आने लगीं और हरकचंद ने देखा कि व्यापारियों को भूले-बिसरे सम्बंध याद आने लगे। अब वे हरकचंद को दुबारा अपना आदमी मानने लगे। फिर वैसा ही मान-सम्मान और फिर वैसे ही सम्बंध दिखने लगे थे। वे फिर से आत्मीय हो गये। अब वे भूले-भटके किसी दुकान पर पहुंच जाते, तो दुकानदार उनका माँगा हुआ माल बाद में देते, चाय-पानी से सत्कार पहले करते।

हरकचंद मन के बड़े साफ थे, उनने बीच के समय में आयी दुकानदारों की बेरूख़ी और अपरिचय को भुला दिया और फिर से सामान्य हो कर जीने लगे। सबकी तरह नगरसेठ गहनामल भी जो पिछले कई दिनों से हरकचंद को भुला चुका था, अब ज़्यादा आत्मीयता से हरकचंद से मिलने लगा। वे जहाँ भी दिख जाते, गहनामल उनके गले लग-लग जाता, उन्हे खूब सम्मान देता। हरक चंद ने अनुभव किया कि इसका कारण शायद वे कई-कई किराना, कपड़ा और कनफैक्शनरी की दुकाने हैं, जो अपनी जेवर दुकानके अलावा गहनामल के परिजनों ने पिछले दिनों खोली हैं और जिनमें बिना हिसाब-किताब का अनाप-शनाप माल दूसरे प्रदेश से आता रहता है। दूसरा कारण तो गहनामल का शायद वह कारखाना भी होगा, जो रोज के रोज ढेरों जालियाँ, दरवाजे, खिड़की वगैरह लोहे का सामान उगलता है, और जिसे प्रतिदिन मैटाडोर-टैम्पो में भर के प्रदेश के बाहर भेजा जाता है। लेकिन सब कुछ जानते-बूझते भी हरकचंद ने अपने मन में कोई बात नहीं रखी और वे पूर्ववत गहनामल समेत सबसे प्रेम से मिलने लगे।

अचानक फिर व्यवस्था बदली और प़द्धति में परिवर्तन आया। खेत में खड़े बिजूका से वे बेजान नाके भी हट गये। योंकि अब महसूल फिर से दुकानदारों की दया पर निर्भर हो गया था सो व्यापारियों का व्यवहार भी बदलने लगा था। बस कुछ दिन पहले की ही बात है यह।

तभी यह घटना घटी.

उनके ऑफिस में कई सालों से यह परंपरा थी, कि दीपावली के त्यौहार के उपलक्ष्य में पूरे स्टाफ को चांदी के सिक्के उपहार में दिये जाते थे। ये सिक्के पहले तो कमेटी के कमाऊ-पूत नाकेदारों से अनुदान वसूल कर बाज़ार से क्रय किये जाते थे, फिर नाके बन्द हुए और नाकेदार कमजा़ेर हो गये तो उनने हाथ उठा दिये। इस कारण अभी बाद के बरसों में स्टाफ के सब लोग मिलजुलकर कुछ चन्दा इकट्ठा करने लगे थे और उस एकत्र धन में से एकमुश्त चांदी के सिक्का खरीद लाया करते थे। इस महीने दिवाली का त्यौहार था। दीपावली की अमावस्या महीने के आखिरी सप्ताह में पड़ रही थी, और म्युनिस्पिल-कमेटी घाटे में थी, सो किसी कर्मचारी को एक तारीख को तनख्वाह नहीं मिल सकी। अब स्थिति यह बनी कि बीते हुए कल को यह सिक्के बंटना थे और उस दिन किसी की गांठ में फूटी-कोैड़ी तक न थी, सो सब चिंतित थे। तब किसी ने सलाह दी, कि फिलहाल गहनामल की दुकान से उधारी में सिक्के उठवा लिये जायें और उपहार समारोह संपन्न कर लिया जाये। बाद में जब तनख्वाह आ जायेगी तो उधारी चुक जायेगी। अब समस्या यह थी कि गहनामल के पास उधारी का संदेश कौन भेजे? सबने एक मत से निर्णय लिया कि बाबू हरकचंद ही अपने नाम से यह संदेश भेजें, तो बाबू हरक चंद ने चपरासी मुन्नालाल को सिक्के लेने गहनामल की दुकान पर भेज दिया था। हालांकि हमेशा की तरह यूनियन सेक्रेटरी सिंग बाबू ने इस बात का विरोध किया था कि कर्मचारियों के किसी सार्वजनिक काम में किसी व्यापारी का अहसान क्यों लिया जाये। लेकिन उनकी बात किसी ने नहीं सुनी और मुन्ना चपरासी को भेज दिया गया।

मुन्नालाल उल्टे पांव वापस लौटा। हैरानी से सबने पूछा-काहे मुन्ना, क्या हुआ भाई!

मुन्ना बहुत नाराज था, बोला-'आयंदा कृपा करना। मुझे अपनी बेइज़्ज़ती कराने वहाँ मत भेजना। पचास ग्राहकों के सामने गहनामल ने सिक्के देने से साफ इन्कार कर दिया। बोले, हमारे यहाँ उधार नहीं मिलता!'

हरकचंद को काटो तो खून नहीं। भला ऐसा कैसे संभव है! उनने असमंजस की मानसिकता में गहनामल के यहाँ फोन लगाया। फोन पर गहनामल ही मिले। ताज्जुब कि फोन पर भी उनका यही जवाब था-'माफ करना यार, अपन ने उधारी बंद कर दी है।'

हरकचंद ने समझाने की कोशिश की-'अरे यार कौन साल दो-साल के लिये उधारी करना है, दो-तीन दिन में सारा रुपया चुका देंगे। न हो तो मेरे नाम से लिखलो तुम ये रकम। मुझ पर तो विश्वास है न!'

पर गहनामल साफ नट गया 'क्षमा करना भाई, हमने तय किया है कि उधार करना ही नहीं है।'

यह सुनकर बाबू हरकचंद को करारा झटका लगा। वे खड़े न रह सके, टेलीफोन रखके पास रखी कुरसी पर बैठ गये।

सिंग बाबू बगल में खड़े थे, वे सारा माज़रा समझ गये। उनने चपरासी से पानी मंगाया और हरक बाबू से बोले-'छोड़ो ये उपहार-पुपहार का झमेला। मैंे तो बहुत पहले से कह रहा हूँ कि इस तरह चन्दा करके आपस में सिक्के बांट लेना बिलकुल उचित नहीं है। काहे का उपहार है यह! ये तो वह ही किस्सा हुआ कि कोई बूढ़ा शेर किसी सूखी हड्डी को चचोरके अपना खून निकाल ले और खून के खारे पन में उसी सूखी हड्डी से निकले खून के स्वाद की कल्पना करके व्यर्थ ही खुश होता रहे। ़-़ ़़ ़और दिल छोटा मत करो, हो सकता है गहनामल तुम्हारी आवाज पहचान न पाया हो।'

बाबू हरक चंद का मन पहले तो झटके से बुझ-सा गया था, लेकिन अब सिंग की इस बात ने उन्हे बड़ा दिलासा दिया। उनने शांति से ठण्डा पानी पिया और चुप बैठ गये।

कार्यालय के दूसरे लोग सक्रिय हुए. पता नहीं कहाँ से कैसे बंदोबस्त हुआ, पर शाम तक सिक्के भी आ गये और बाकायदा बांट भी दिये गये। हरकचंद शाम को घर लौटे तो उनका उदास चेहरा देखके, पड़ौसिनों से घिरी बैठी पत्नी तत्परता से उठके उनके पास आगयी-'काहे विनोद के पापा, क्या हुआ?' -'कुछ नहीं' वे उदास बने बोले। -'नहीं कुछ तो हुूआ है। आप ऐसे कभी नहीं रहते। गली में घुसते ही मोहल्ले पड़ौस के लोगों से बोलते-बतियाते घर आते हो और आज सूटमंतर बने चले आये। तुम्हे हमारी सोंह, सही बताओ! क्या हुआ?'

मजबूर हरकचंद ने गहनामल वाली घटना सुनाई और रूआंसे हो के बोले-मुझे गहनामल के बदल जाने का दुःख नहीं है, बस इत्ती-सी तकलीफ है कि जिस नौकरी से हमारे पेट भरते हैं, हम इन टुच्चे व्यापारियों के लिये बिना किसी बड़े लालच के, उसी रोजी-रोटी से दग़ा करते रहे। ' -' काहे की दगा? अरे आपने कौन कमेटी का लाख दो-लाख का हरजाना कर

दिया? बस, केवल हजार, दो-हजार का महसूल ही तो घटा होगा। ये क्यों नहीं सोचते कि तुम्हारी इसी कमेटी के चेयरमैन और बडे अफसर तो म्युनिस्पिल-कमेटी के लाखों रुपया डकार जाते हैं। ' -' अरे तुम भी, आदमी को अपना काम देखना चाहिए. ' -' बस अपना दी देखते रहो। दूसरों की तरफ से आँख मूंद लो। ' -' वो नहीं कह रहा। ' -' तो क्या कह रहे हो, चलो ये मन खराब करने की बातें मत करो, उठके हाथ मुंह धोओ, चाय पियो '-कहती पत्नी ने उनका हाथ पकड़ के उन्हे उठा लिया था। लेकिन हरक बाबूू के मुंह पर कल से मुसकान ऐसी गायब हुई कि लौटी नहीं।

आज भी वे उदास से बैठे थे।

उनकी कुरसी बड़े हॉल में है, भीतर आने वाले हरेक आदमी की सबसे पहले उन्ही पर नज़र पड़ती है। हर साल सर्दियों में जड़ी-बूटी बेचने के लिये आने-वाले बड़े साफे वाले आदिवासी सरदारसिंह मोगिया ने यकायक दफ्तर मंे प्रवेश किया और आते ही जोरदार स्वर में उसने हरक बाबू को सम्बोधित किया-'बाबूजी, जै राम जी की!'

फीके से स्वर में हरक बाबू ने अभिवादन का जवाब दिया। फिर जाने किस प्रेरणा से बोल उठे-'आज तुम जाओ भैया, यहाँ किसी आदमी को तनख्वाह नहीं मिली है, सब पैसे-धेले को परेशान हैं। कोई तुम्हारी दवाई कहाँ से खरीदेगा?'

सरदार मोगिया ऐसे मौके कई जगह झेल चुका है, वह हँसते हुए बोला-'आपसे रुपया कौन माँग रहा है बाबूजी! हर बरस की तरह इस बार भी पूरी दवाई उधार दे दूंगा, आप चिन्ता क्यों करते हैं?'

'हर बार सिर्फ़ महीने भर की बात होती थी, इस बार त्यौहार का समय है, सो हरेक के पास ख़र्च ज़्यादा है। अबकी बार चुकारा लम्बा खिंच जायेगा।'

'तो भी कोई बात नहीं है बाबूजी. आप लोग कहाँ भागे जा रहे हैं?' सरदार आज दवा बेचने की क़सम खाके आया था।

'अरे यार ़़़़ ़-़ ़ ़-़ तुम तो पीछे ही पड़ गये।'

'नहीं बाबूजी, आपके बच्चे हैं हम! आप जैसे बड़े लोगों के भरोसे ही तो हमारा सारा कारोबार चलता है। हम तो अरज कर सकते है, पीछे काहे पडें़गे!' कहता सरदार विनम्रता की मूर्ति बन गया था।

हरक बाबू फीकी-सी हँसी हँस के बोले-'दे दे यार जो तुझसे दवा लेना चाहे।'

फिर तो ऑफिस के दर्जन भर से ज़्यादा लोगों ने सरदार से जड़ी-बूटियाँ लीं और वह प्रसन्न मन से पुड़िया बांधता चला गया। हरक बाबू ने हिसाब पूछा तो पता चला कि कुल मिला के पांच हजार रूपये की उधारी हो गयी है।

वे चौंके-गहनामल से तो सिर्फ़ हम सिर्फ़ एक हजार रूपये की उधारी माँग रहे थे, फिर भी उसे विश्वास न हुआ और यह बेचारा ख़ानाबदोस आदमी बिना हिचक के पांच हजार की उधारी बांट रहा है।

यह छोटी-सी बात कई वृत्त बनाती हुई उनके मन के ताल में फैलती जा रही थी और उन्हे ठीक से समझ में आ रहा था कि सेठ गहनामल बाज़ार में बैठा है, वह हर चीज़ बाज़ार की नज़र से देखता है, कर्मचारी उसके दोस्त नहीं टूल हैं, जिनके मार्फत वह अपने काम लायक तंत्र को खोलता है और काम चला लेता है। जबकि सरदार जीवन से जुड़ा आदमी है, हर काम वह नफा-नुकसान की नजर से नहीं देखता। बाज़ार और घर में यही फर्क है।

मनुश्यता पर से उठ गया उनका यकीन जैसे फिर बहाल हो रहा था।