वीर चन्द्र सिंह ‘गढ़वाली’: / कविता भट्ट

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हिमालय-प्रसूत विभिन्न छोटी-बड़ी जलधाराओं के अभाव में पतितपावनी गंगा की विशाल जलराशि एवं अविरलता की कल्पना करना भी निरर्थक है; किन्तु यह खेदपूर्ण है कि गंगास्नान तथा गंगा-गुणगान करते हुए जनसामान्य द्वारा उन सभी जलधाराओं का योगदान विस्मृत कर दिया जाता है। अनगिनत पहाड़ी जलधाराएँ पर्वतों के कठोर हृदय को चीरती, विशाल शिलाओं से संघर्ष करती हुई; जब अपना अस्तित्व स्वाहा कर गंगा में विलीन हो जाती हैं; तभी भागीरथी की सूक्ष्म धारा गंगा बनकर भारतभूमि को शस्यश्यामला बना पाती है। ये धाराएँ स्वयं में इतनी प्रबल होती हैं कि पहाड़ों को चीरती हुई गर्जन-ध्वनि के साथ अपना मार्ग गहरी घाटियों के रूप में विकसित करती हैं। इनके प्रवाह को रोकना किसी के बस की बात नहीं।

भारतवर्ष का स्वतन्त्रता संग्राम भी एक पुण्य-प्रवाह ही था; जिसमें लाखों राष्ट्रभक्तों ने असीम संघर्ष करते हुए अपने अस्तित्व को स्वाहा कर दिया था। क्षेत्र, धर्म एवं जाति की परिधियों से रहित यह अनुष्ठान वस्तुतः मात्र नेतृत्व का नहीं; अपितु लिखित-अलिखित समस्त राष्ट्रभक्तों की अगाध श्रद्धा युक्त राष्ट्रभक्ति का पुण्य-प्रसाद था। इसके श्रेय के नाम पर एक दो व्यक्तियों या नेतृत्व-विशेष का महिमामण्डन उन समस्त पुण्यधाराओं रूपी राष्ट्रभक्तों का अपमान होगा; जिन्होंने अत्याचारों एवं शोषण रूपी कठोर एवं अकाट्य शिलाओं की परवाह किए बिना निस्वार्थ भाव से अपना समस्त जीवन समाप्त करके राष्ट्र को स्वतन्त्र करवाया। राष्ट्रभक्ति की इस पुण्यसलिला को प्रवाह देने वाली अनेक धाराएँ राष्ट्र के विविध भागों से प्रवाहित हुई; जिनमें से अनेक हिमालयीय धाराएँ भी उल्लेखनीय थी; ऐसी ही प्रबल धारा थे- पहाड़ के अमर सपूत वीर श्री चन्द्र सिंह (भण्डारी) गढ़वाली। निज स्वार्थ से विमुख एवं राष्ट्र को सर्वोपरि मानने वाले इस साहसी सैनिक की वीरगाथा का उल्लेख हिंदुस्तान, पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान के वर्तमान रिश्तों के सन्दर्भ में अत्यंत प्रासंगिक हो जाता है। ऐसा इसलिए चूँकि तत्कालीन विकट परिस्थितियों में हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे एवं एकता का जो उदाहरण उन्होंने प्रस्तुत किया, वह हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी संस्कृति के संरक्षण तथा पड़ोसी देशों को आईना दिखाने के लिए निरंतर पटल पर रहना आवश्यक है। यह बारम्बार स्मरण करवाना आवश्यक है कि किस प्रकार एक हिन्दू जननायक ने अपने मुसलमान भाइयों के लिए अपना सारा जीवन समर्पित कर दिया और किस प्रकार जेल की कठोर यातनाएँ सहीं। परतन्त्र भारतवर्ष के इतिहास में पेशावर कांड के नाम से प्रसिद्ध यह ऐतिहासिक घटना ‘न भूतो न भविष्यति’ जैसी थी; चूँकि अंग्रेजी सेना में हवलदार होते हुए भी अंग्रेजी अफसरों के आदेश की अवहेलना करना अत्यंत दुस्साहसी निर्णय था। अंग्रेजी शासन फूट-डालो और राज करो की रणनीति अपनाकर हिन्दू-मुसलमान का लड़वाने पर ही आधारित था। ऐसे में मुसलमानों की विशाल जनसभा को तितर-बितर करने हेतु गढ़वाल रायफल की पलटन को जब पेशावर ले जाया गया, उससे पूर्व ही गढ़वाली जी द्वारा पूरी योजना बना ली गई थी कि किस प्रकार अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिलानी हैं। उल्लेखनीय है कि उन्होंने निहत्थे मुसलमानों पर गोली चलाने से इन्कार कर दिया था एवं अपने साथी गढ़वाली सैनिकों को आदेश दिया कि कोई भी गोली नहीं चलाएगा। ऐसा माना जाता है कि ‘आजाद हिन्द फौज’ हेतु वैचारिक नींव यहीं से पड़ गई थी। बैरिस्टर मुकुन्दीलाल ने स्पष्ट रूप से कहा कि आजाद हिन्द फौज का बीज चन्द्र सिंह गढ़वाली ने ही बोया। आई0एन0ए0 के जनरल मोहन सिंह ने भी यह माना कि पेशावर विद्रोह ने ही हमें आजाद हिन्द फौज को संगठित करने की प्रेरणा दी। गांधी जी ने नतमस्तक होकर गढ़वाली की वीरता के सम्बन्ध में कहा था कि यदि हमारे पास गढ़वाली जैसा एकमात्र भी और वीर होता, तब भी हम अपने देश को कई वर्ष पूर्व ही स्वतन्त्र करवा चुके होते।

वर्तमान परिदृश्य में जब तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों हेतु राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को मानवाधिकार एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता कहकर राष्ट्र का अपमान किया जाता है; तो निश्चित रूप से अमर सपूत वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली जैसी अनेक बलिदानी राष्ट्रभक्तों की आत्मा रो पड़ती होगी। जिन्हें सिर कटाना राजनीतिक चाटुकारिता के लिए सिर झुकाने से अधिक प्रिय था। गढ़वाली के स्वाभिमानी स्वभाव के कारण उनके साथ ऐतिहासिक षड़यन्त्र किया गया और इतिहास के पन्नों में उन्हें वह सम्माननीय स्थान कभी प्राप्त नहीं हो सका जिसके वे वास्तविक अधिकारी थे। यह तथ्य भारतवर्ष के प्रथम प्रधानमंत्री पं, जवाहर लाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू ने उस समय स्वीकारा था; जब वे मृत्युशय्या पर पड़े थे। सम्मान तो बहुत दूर की बात; अपितु उनको अपने जीवन के अन्तिम दिनों में अत्यंत संघर्षयुक्त जीवन निर्वाह करना पड़ा। स्वतन्त्रता के पश्चात् जब अनेक लोग झूठे-सच्चे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी बनकर मलाई चाट रहे थे; अपने जीवन के अन्तिम दौर में गढ़वाली अपने सैनिक साथियों की पेंशन हेतु संघर्ष कर रहे थे। यह लज्जायुक्त तथ्य है कि जिस अमर सपूत ने अपना जीवन दे्श के नाम लिख दिया, उसको औपचारिक रूप से डाक टिकट एवं कुछ मार्गों के नामकरण तक समेट दिया गया। यह अत्यंत गम्भीर एवं चिंतनीय प्रश्न है कि अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध राजद्रोह की पहली बुलंद आवाज को इतिहास में वह स्थान क्यों नहीं दिया गया; जो दिया जाना चाहिए। इतिहास वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली के साहस को क्यों भूल गया? इस जननायक को गुमनामी के अँधेरों में धकेलने की कोशिश क्यों की गई? उन्होंने जो राष्ट्रवादी विचार प्रस्तुत किए थे और राष्ट्रीयता की जो परिभाषा गढ़ी थी, वह तब-तब ध्वस्त होती है; जब-जब भारतवर्ष में ओछी राजनीति चमकाने हेतु राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को मानवाधिकार एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का नाम दिया जाता है।

किसी अमर बलिदानी का औपचारिक स्मरण किया जाए अथवा न किया जाए, अथवा इनके स्मरण को धर्म, जाति, क्षेत्र और सम्प्रदाय के संकीर्णताओं में उलझाकर वाद-विवाद का विषय बना दिया जाए; अथवा निज स्वार्थों हेतु कितनी भी कुत्सित राजनीति होती रहे; तथापि मातृभूमि को समर्पित इन वीरों की बलिदान-गाथा स्वतन्त्र भारत की हवाओं में अनन्तकाल तक तरंगित एवं गुंजायमान रहेगी। भारतवर्ष के जनसामान्य को निरन्तर यह स्मरण रहना चाहिए कि राष्ट्रभक्ति मात्र ओछे नेतृत्व से सुर्खियों में रहने का नाम नहीं; अपितु राष्ट्रोत्थान हेतु समर्पित उन भावों एवं प्रयासों का नाम है; जो अतिसामान्य व्यक्ति से भी सम्बद्ध हैं। प्रत्येक नागरिक द्वारा निर्धारित कर्त्तव्य को स्वार्थरहित होकर एवं समर्पित भाव से किया जाय; व्यक्तिगत उन्नति के साथ ही राष्ट्र की उन्नति पर भी ध्यान केन्द्रित किया जाय; यही सर्वाेत्कृष्ट राष्ट्रभक्ति है। साथ ही जब राष्ट्र को आवश्यकता हो तो व्यक्तिगत हितों से पूर्व राष्ट्र के हितों की प्राथमिकता का चयन करते हुए; उसके लिए स्वयं को मिटा देने तक का भाव रखे। इस प्रकार का ही भाव था; भारतमाता के उन अमर सपूतों में जिन्होंने निजस्वार्थ से विमुख होकर अपने जीवन का प्रत्येक क्षण राष्ट्र को समर्पित कर दिया। इन्हीं भावों एवं प्रयासों से भरपूर अमर सपूत वीर चन्द्र सिंह गढवाली के विराट व्यक्तित्व को इस लेख के माध्यम से संक्षेप में समझने का प्रयास करते हैं।

गढ़वाली का जन्म पौष शुक्ल, 15, सम्वत् 1948 तदनुसार 25 दिसम्बर, 1891 ई0 में विषम भौगोलिक परिस्थितियों से युक्त वर्तमान उत्तराखण्ड के पौड़ी गढ़वाल (तत्कालीन गढ़वाल) थलीसैंण तहसील के ग्राम मासी-रौणीसेरा, पट्टी चौथान में साधारण किसान श्री जाथली सिंह भण्डारी के घर में हुआ। उत्तराखण्ड के गढ़वाल क्षेत्र में जन्म लेने, गढ़वालियों की विशेष शूरवीरता तथा गढ़वाल रायफल का प्रतिनिधित्व करने के कारण इन्हें गढ़वाली कहा गया। उल्लेखनीय है कि गढ़वाल का कुछ क्षेत्र अंग्रेजों के अधीन था एवं कुछ राजे-रजवाड़ों के अधीन था। जनता का उत्पीड़न एवं शोषण साम्राज्यतन्त्र एवं राजतन्त्र दोनों शासन-व्यवस्थाओं में चरम पर था। चन्द्रसिंह बचपन से ही क्रान्तिकारी एवं निर्भीक स्वभाव के थे और जनसामान्य के अधिकारों हेतु संघर्षरत रहे। वे अनेक असम्भव से प्रतीत होने वाले लक्ष्यों को भी अपने संकल्पों द्वारा पूर्ण कर लेते थे। उस समय राजा के सेनापतियों को गढ़वाली भाषा में ‘भड़’ कहा जाता था; जिसे हिन्दी में ‘भट्ट’( योद्धा=वीर) कहा जाता है। इस प्रकार चन्द्रसिंह को इनके शौर्य एवं वीरता के कारण राष्ट्र के जनमानस द्वारा इन्हें ‘वीर’ उपाधि से अलंकृत किया गया। इस प्रकार इनका पूरा नाम हुआ ‘वीर’ चन्द्र सिंह गढ़वाली। गढ़वाल की विषम भौगोलिक परिस्थिति एवं गरीबी के कारण वे औपचारिक शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाए ; लेकिन स्वाध्याय के द्वारा उन्होंने खूब ज्ञान अर्जित कर लिया था। वे आजीविका के लिए किशोरावस्था के दौरान श्री बदरीनाथ-केदारनाथ के यात्रियों के साथ गुमाश्ता (गाइड) का कार्य करते थे।

यह लिखना प्रासंगिक है कि उस दौरान गोरखा एवं गढ़वाल रायफल को उनकी वीरता हेतु जाना जाता था। सन् 1815 में गोरखाओं एवं अंग्रेजों के बीच हुए युद्ध के पश्चात् सतलुज से लेकर काली नदी तक का हिमालयी भूप्रदेश अंग्रेजों के धीन हो गया था; कुछ राजे-रजवाड़े जो थे भी वे अंग्रेजों की ही दया पर थे। इस युद्ध के पश्चात् अंग्रेजों को गोरखाओं की वीरता का अनुमान हो चुका था; इसी कारण अल्मोड़ा में प्रथम गोरखा रायफल को पलटन की तरह संगठित किया गया। 108 गोरखा बटालियनें अंग्रेजों की सेना में थी; प्रारम्भ में इन्हीं में गढ़वालियों को भी भर्ती किया जाता था; यह लगभग 80 वर्ष तक चलता रहा। उसी शताब्दी के अन्त में गढ़वालियों की सैन्य महत्ता को देखते हुए अंग्रेजों ने सन् 1897 में गढ़वालियों को गोरखा पलटन से निकालकर उनकी अलग पलटन बनाई; पलटन का नामकरण किया गया- गढ़वाल रायफल। इसका प्रशिक्षणस्थल एवं मुख्य कार्यालय था- लैंसडाउन, पौड़ी गढ़वाल; जिसे गढ़वाली में काल़ौंडांडा कहा जाता था; जिसका अर्थ होता है- पहाड़। सन् 1912 के आस-पास प्रथम विश्वयुद्ध की छाया पड़ने लगी। गढ़वाली जी के गृहजनपद में गढ़वाल रायफल का प्रशिक्षणस्थल होने के कारण इनके गाँव एवं जनपद से अनेक सैनिक पलटन में भर्ती हो गए थे और बड़े रौब से गाँव में जाया-आया करते थे। गढ़वाली में भी सेना के प्रति आकर्षण हो गया और वे 11 सितम्बर, 1914 को गढ़वाल रायफल में भर्ती हो गए।

उस समय सैनिकों को कोई भी सुविधा नहीं थी; उन्हें दासों या जानवरों के समान उपयोग में लाया जाता था; सैनिकों की भावनाओं एवं इच्छाओं का कोई भी महत्त्व नहीं था। भूखे-प्यासे सैनिकों को मालगाड़ियों में भेड़-बकरियों के समान ठूँस-ठूँसकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजा जाता था। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान 1 अगस्त, 1915 में अंग्रेजों द्वारा मित्र राष्ट्रों की ओर से युद्ध करने हेतु अनेक सैकड़ों गढ़वाली सैनिकों के साथ ही गढ़वाली को भी फ्रांस भेज दिया गया। 1 फरवरी, 1916 को ये वापस लैंसडाउन आए। 1917 में अंग्रेजों ने इन्हें मेसोपोटामिया, 1918 में बगदाद भेजा गया। इनकी वीरता से प्रभावित होकर अंग्रेजों ने इनकी पदोन्नति करते हुए इन्हें हवलदार बना दिया गया; किन्तु प्रमुख युद्धों के समाप्त होते ही पदावनति करते हुए पुनः इन्हें सैनिक बना दिया गया। इससे इन्होंने सेना छोड़ने का मन बना लिया; किन्तु उच्चाधिकारियों के समझाने पर ये कुछ समय का अवकाश लेकर सेना में बने रहे। इसी दौरान ये महात्मा गांधी के सम्पर्क में आए। गढ़वाली जी उस समय गोरखा टोपी पहनकर गांधीजी की सभा में गए और उन्होंने इनकी गोरखा टोपी पर चुटकी ली। तब गढ़वाली ने कहा कि इस टोपी के स्थान पर यदि आप स्वयं मुझे स्वयं गांधी टोपी पहनाएँ, तो मैं जीवन भर उस टोपी के मूल्यों को बनाने हेतु जान की बाजी लगाता रहूँगा। तब गांधीजी ने स्वयं ही इन्हें गांधी टोपी पहनाई और गढ़वाली ने सौगन्ध ली कि वे इसके मूल्यों की रक्षा करेंगे।

कुछ समय पश्चात् इनकी बटालियन को बजीरिस्तान भेजा गया और पुनः इनकी पदोन्नति करते हुए इन्हें मेजर-हवलदार बना दिया गया। उस समय पेशावर भी स्वतन्त्रता संग्राम का महत्त्वपूर्ण केन्द्र बना हुआ था और प्रायः पठानों की जनसभाएँ यहाँ पर हुआ करती थी। अंग्रेज इन आन्दोलनों को कुचलने के लिए पूरा प्रयास कर रहे थे। हिन्दुओं और मुसलमानों को आपस में लड़वाने के लिए वे गढ़वाल रायफल के गढ़वाली हिन्दू सिपाहियों को रणनीति के तहत पेशावर ले जाया गया था। अंग्रेज कमांडेंट द्वारा चन्द्रसिंह गढ़वाली एवं नारायण सिंह गुसाई आदि को बार-बार यही समझाया गया था कि 2 प्रतिशत मुसलमान 98 प्रतिशत हिन्दुओं के देवी-देवताओं को गाली देते हैं, उनकी बहू-बेटियों की इज्जत लूटते हैं, और हिन्दू उसे सहन करते हैं; इसलिए गढ़वाल रायफल द्वारा मुसलमानों का सफाया करने के लिए गढ़वाल रायफल को वहाँ ले जाया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि पेशावर कांड मात्र एक भावुकताजन्य सैन्य-विद्रोह नहीं अपितु चन्द्र सिंह गढ़वाली एवं नारायण सिंह गुसाईं जैसे साहसी व्यक्तियों का योजनाबद्ध प्रयास से उपजा एक ऐसा विद्रोह था जिसने अंग्रेजी साम्राज्यवाद की नींव हिला दी थी और यह बता दिया था कि यदि हिन्दू-मुसलमान एकता के होते हुए वे भारत को अब अधिक समय तक अपने कब्जे में नहीं रख सकेंगे। इस विद्रोह के लिए चन्द्र सिंह गढ़वाली ने खतरों से खेलते हुए एक लम्बी तैयारी की थी और अंग्रेजों की ही सेना में नौकरी करते हुए उन्हीं को सेंध लगा दी थी। इसके लिए चन्द्रसिंह गढ़वाली एवं नारायण सिंह गुसाईं छिपकर बार-बार स्वतन्त्रता सेनानियों की सभाओं में कही गई बातें सुनकर तथा तदुपरान्त विमर्श करके विद्रोह की रणनीति तैयार करते रहे। वैसे भी 1929-30 राजनीतिक हलचल का वर्ष था। 1929 में रावी के तट पर पूर्ण स्वराज्य की घोषणा की गयी। सविनय अवज्ञा आन्दोलन चल रहा था। लाहौर जेल में भारतीयों ने 63 दिन से भूख-हड़ताल की हुई थी तथा यतीन्द्रदास के बलिदान से देश उबल रहा था। भगतसिंह, राजगुरु एवं सुखदेव को फांसी दे दी गयी थी। चटगाँव में क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजों के हथियार लूटकर, दिल्ली में वायसराय की गाड़ी को बम से उड़ाने की कोशिश आदि जैसी घटनाओं से अंग्रेजों को खुली चुनौती मिली थी। 12 मार्च, 1930 को गांधी के डांडी मार्च ने देश भर में उबाल ला दिया था।

इन्हीं सब घटनाओं के बीच जब 23 अप्रैल, 1930 को गढ़वाली सहित 72 गढ़वाली सैनिकों को कैप्टेन रिकेट के नेतृत्व में पेशावर भेजा गया। वहाँ पर खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में एक आम जनसभा हो रही थी; जिसमें बड़ी संख्या में पठान उपस्थित थे। ये सभी गांधी जी और मलंग बाबा की गिरफ्तारी का विरोध कर रहे थे। अंग्रेज इस सभा में एकत्र आंदोलनकारियों को बल प्रयोग करके तितर-बितर करना चाह रहे थे। चन्द्र सिंह गढवाली कैप्टेन की बगल में ही खड़े थे। कैप्टेन ने सभा में उपस्थित निहत्थे पठानों पर गोली चलाने का आदेश दिया, ‘गढ़वाली फायर’; लेकिन ठीक उसी समय चन्द्र सिंह गढ़वाली ने गरजते हुए कहा, ‘गढ़वाली सीज फायर’। गढ़वाली जी ने अपनी पलटन के सैनिकों को पहले से ही समझाया हुआ था कि निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोली मत चलाना। उनका आदेश मानते हुए सैनिकों ने अपनी बन्दूकें नीचे कर ली। कैप्टेन को डाँटते हुए चन्द्र सिंह गढ़वाली ने कहा, ‘’हम निहत्थों पर गोली नहीं चलाते।” यह अंग्रेजों के साम्राज्यवाद को किसी भारतीय सैनिक की खुली चेतावनी थी; वे आग-बबूला हो गए। 13 जून, 1930 को मिलिट्री कोर्ट की एबटाबाद स्थित छावनी के फैसले के उपरान्त; राजद्रोह का अभियोग लगाकर हवलदार चन्द्र सिंह गढ़वाली को मृत्युदण्ड दिया गया। इस केस की पैरवी गढ़वाल के तत्कालीन प्रसिद्ध वकील बैरिस्टर मुकुन्दीलाल ने की थी; उन्होंने दलील दी कि चन्द्र सिंह गढ़वाल के जननायक हैं; यदि उन्हें फाँसी दी गयी तो विरोधस्वरूप गढ़वाल में क्रान्ति हो जाएगी। उनकी इस पैरवी से इस सजा को 14 वर्ष के आजीवन कारावास में बदल दिया गया। इन्हें अपमानित करते हुए इनके शरीर से फाड़-फाड़कर वर्दी को अलग किया गया। गढ़वाली की पूरी सम्पत्ति भी जब्त कर ली गयी। उनकी पूरी पलटन को पेशावर के एबटाबाद में नजरबंद कर दिया गया। गढ़वाली पलटन के सभी सैनिकों का कोर्ट मार्शल करके लम्बी सजाएँ दी गईं। गढ़वाली को तुरन्त एबटाबाद जेल भेज दिया गया। चन्द्र सिंह गढ़वाली ऐबटाबाद, डेरा इस्माइल खान, बरेली, नैनीताल, लखनऊ, अल्मोड़ा एवं देहरादून की जेलों में बन्द रहते हुए असीम यातनाएँ झेलते रहे। इसी दौरान उनकी भेंट नैनी सेन्ट्रल जेल में राजबंदियों एवं लखनऊ जेल में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस से हुई; नेताजी भी गढ़वाली से अत्यंत प्रभावित हुए। गढ़वाली अत्यंत निर्भीक थे एवं कहते थे कि बेड़ियाँ तो मर्दों का जेवर होती हैं। इस प्रकार कठोर यातनाएँ झेलते हुए 11 वर्ष, तीन महीने एवं 18 दिन जेल में रहने के बाद; उन्हें 26 सितम्बर, 1941 को रिहा कर दिया गया। रिहाई के बाद वे गांधीजी आदि के साथ इलाहाबाद, वर्धा आदि स्थानों पर रहे। 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान उत्साही नौजवानों द्वारा इन्हें अपना कमाण्डर इन चीफ नियुक्त किया गया। इनके साथ गढ़वाल के डॉ0 कुशलानन्द गैरोला को डिक्टेटर बनाया गया। इस आन्दोलन के दौरान पुनः इन्हें गिरफ्तार करके सात वर्षों के लिए जेल भेज दिया गया। अंग्रेजों ने विशेष रणनीति के तहत इन्हें 1945 में ही छोड़ दिया गया; किन्तु गढ़वाल में इनका प्रवेश प्रतिबन्धित कर दिया गया। इसी दौरान वे आर्यसमाजी हो गए तथा कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित रहने के कारण कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के रूप में सामने आए।

यह आश्चर्यजनक एवं दुःखद है कि परतन्त्र भारतवर्ष में जो व्यक्ति अंग्रेजों के साम्राज्यवाद से लड़ता रहा हो; उसे देश की स्वतन्त्रता के बाद भी अपनी क्रान्तिकारी विचारधारा का खमियाजा भुगतना पड़ा। स्वतन्त्रता के उपरान्त उन्होंने गढ़वाल क्षेत्र में प्रवेश किया तो आम जनमानस ने अनेक स्थानों पर उनका भव्य स्वागत किया गया; किन्तु जब उन्होंने जब जिला बोर्ड का चुनाव लड़ना चाहा तो भारत सरकार ने उन पर पेशावर कांड में सजायाफ्ता होने का आरोप लगाकर उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया। क्या एक स्वाधीनता सेनानी का यही हश्र था। जब ये रिहा हुए तो इन्होंने पौड़ी विधानसभा से चुनाव लड़ा ;लेकिन कांग्रेस से हार गए। इन्होंने कभी भी किसी भी लाभ के लिए राजनीतिज्ञों की चाटुकारिता नहीं की, न ही किसी के आगे झुके; जिसका प्रतिफल यह हुआ कि इन्हें स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भी जेल जाना पड़ा। जनसामान्य के अधिकारों के लिए ये हमेशा लड़ते रहे। टिहरी जनपद को राजशाही से मुक्त करवाने के आंदोलन में भी इनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। गढ़वाली ने एक अलग पहाड़ी राज्य का सपना भी सँजोया था। उत्तराखण्ड उसी विचारधारा से प्रसूत है; लेकिन उनके सपनों का उत्तराखण्ड शायद ही बन पाए। इस प्रकार आजीवन राष्ट्र को समर्पित इस योद्धा का अत्यंत संघर्षमय स्थितियों में 1 अक्टूबर, 1979 को निधन हो गया।

आतंकवाद एवं वैमनस्य से जूझते हिंदुस्तान के भीतरी-बाहरी-पड़ोसी-वैश्विक जनमानस के लिए गढ़वाली का जीवन सौहार्द के सुरभित झोंके के समान है। उनके जीवन से प्रेरणा लेकर धर्म, जाति, क्षेत्र एवं सम्प्रदाय के गर्म तवे पर रोटी सेंकने वाले राजनेताओं को वास्तविक राष्ट्रभक्ति की परिभाषा समझनी चाहिए। उन्हें आत्म-विश्लेषण करते हुए; तोड़ने की राजनीति से ऊपर उठकर देशहित के लिए सोचने का भाव विकसित करना चाहिए।

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