वेदांत के लिए लौटे मंसूर खान / जयप्रकाश चौकसे

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वेदांत के लिए लौटे मंसूर खान
प्रकाशन तिथि : 21 मार्च 2013


अभिनेता इमरान खान निर्माता नासिर हुसैन की सुपुत्री के पुत्र हैं और आमिर खान उनके मामा हैं। इमरान खान की पत्नी का भाई वेदांत फिल्म अभिनेता बनना चाहता है। उनका परिवार एक प्रसिद्ध मनोरंजन कंपनी से जुड़ा है। यह कोई नई बात नहीं है कि फिल्म उद्योग में प्राय: परिवार के लोग उससे जुड़ते रहते हैं और उद्योग की सत्ता चंद खानदानों में बंटी हुई है। विशेष बात यह है कि नासिर हुसैन के सुपुत्र मंसूर खान वेदांत के फिल्म प्रवेश में सक्रिय भूमिका निभाने जा रहे हैं। ज्ञातव्य है कि मंसूर खान ने आमिर की प्रवेश फिल्म 'कयामत से कयामत तक' तथा 'जो जीता वही सिकंदर' और 'जोश' बनाई थी। 'जोश' के समय उन्हें महसूस हुआ कि अब वे एकाग्रता से काम नहीं कर पा रहे हैं। उनके मन में अनजानी-सी बेचैनी थी। उन्हें धन इत्यादि की कोई समस्या नहीं थी। उनके पिता नासिर हुसैन ने दर्जनभर सफल फिल्में बनाकर कई पुश्तों का जीवन मजे से कट जाए, इतना धन और जायदाद छोड़ी थी। सारांश यह कि मंसूर खान की उलझन का अभावों से कोई संबंध नहीं है। उनके पारिवारिक रिश्तों में भी कोई गठान नहीं थी, वह शारीरिक रूप से भी पूरी तरह तंदुरुस्त थे। वह रुहानी बेचैनी भी नहीं थी, उन्हें मोक्ष की कोई कामना नहीं थीं, न ही वे सूफी होना चाहते थे।

कभी-कभी कुछ लोगों को इस तरह की बेचैनी होती है। प्राय: साहित्यकार इस तरह की उलझन से जूझते हैं और यह उनकी सृजन प्रक्रिया का हिस्सा हो सकता है। आज उपभोगवाद के दौर में भी कुछ लोग ऐसे हैं, जिन्हें अन्याय आधारित समाज और दीमक लगी व्यवस्था की सड़ांध के कारण भी बेचैनी महसूस होती है, जबकि उनकी अपनी कोई निजी शिकायत नहीं है। सुख-सुविधा के जलसाघर में न्याय, आदर्श, समानता इत्यादि की हवा न आने पाए, इसीलिए इस वातानुकूलित माया महल में कोई खिड़की खुली नहीं होती, परंतु जाने कैसे अपनी सुख-सुविधा से अपराधबोध पैदा होता है और बेचैनी की लहर किसी छोटे-से सुराख से भीतर आ जाती है, जैसे दो पत्थरों के जुड़ाव की खफीफ-सी जगह में कोई कोंपल उग आती है। इतिहास में अनेक महान घटनाएं इसी अनजान बेचैनी के कारण घटी हैं। यह बेचैनी सकारात्मक और सृजनशील होती है। कई बार इसके नकारात्मक स्वरूप भी सामने आते हैं। वियाना का अधिकृत दरबारी संगीतज्ञ कैलेरी मोजार्ट की विलक्षण प्रतिभा से इतना बेचैन हो गया कि उसने मोजार्ट को प्रतिभा देने वाले ईश्वर को चुनौती दी कि मोजार्ट को नष्ट कर देगा ताकि दोयम दर्जे के लोग शर्मिंदा न हों। वह दौर ही चला गया, जब लोग शर्मसार होते थे।

बहरहाल, मंसूर खान का कहना है कि उस अनजान बेचैनी के दौर में अगर वे फिल्में बनाते रहते तो बुरी और असफल फिल्मों के बनने की संभावना प्रबल थी। अत: उन्होंने दक्षिण भारत के एक शांत स्थान पर अपनी पत्नी के साथ कई वर्ष सादगी से बिताए। यहां हम केवल एक अनुमान लगा सकते हैं कि इस बेचैनी के दौर के पहले उन्होंने नर्मदा बांध के विस्थापितों के जीवन का कुछ अध्ययन किया था और डूब में आने वाले हरे-भरे क्षेत्र के सैकड़ों चित्र भी एकत्रित किए थे। शायद वे एक पटकथा के लिए सामग्री एकत्रित कर रहे थे।

हॉलीवुड की तीन दशक पूर्व की फिल्म है 'एमराल्ड आईलैंड', जिसमें एक बांध के निर्माण के कारण डूब में नष्ट होने वाले जंगल में रहने वाली जनजातियां हताशा में इंजीनियर के तीन वर्षीय बालक का अपहरण कर लेती हैं। पुलिस खोज नहीं पाती। सरकार के पलटने के कारण बांध का काम रोक दिया जाता है और पंद्रह वर्ष पश्चात शहरों में बिजली की कमी के कारण नई सरकार बांध पर काम शुरू कर देती है, परंतु इस बार ठेका प्राइवेट कंपनी को दिया गया है। इस कंपनी ने अनुभवी इंजीनियर की सेवाएं ली हैं और वह जनजातियों के बीच एक गोरे-चिट्टे नीली आंखों वाले युवक को देखकर समझ जाता है कि यह उसी का पुत्र है। जनजाति का सरगना भी स्वीकार करता है। अब वह जंगल में पले अपने पुत्र को शहर लाता है, जहां पुत्र को जीवन अच्छा नहीं लगता। वह जनजातियों में लौट जाता है। पिता भी समझ लेता है कि आजाद परिंदे को सोने के पिंजरे में भी चैन नहीं मिलेगा। शहरी इंजीनियर अपने बेटे से मिलने जाता है और बूढ़ा जनजाति का आदमी कहता है कि घनघोर बारिश होने वाली है और पूरी बस्ती को पहाड़ की कंदरा की ओर कूच करना चाहिए। बूढ़ा कहता है कि बादलों के स्याह रंग भी कई प्रकार के होते हैं और तालाब से मेंढक भी भाग रहे हैं। जनजातियों के लोग प्रकृति के संकेत को मौसम विभाग से बेहतर समझते हैं। एक और घटना में बेटा अपने पिता को बताता है कि कंपनी के दलालों ने आदिवासी लड़कियों को अपहरण किया है और उन्हें शहर में बेचने के लए ले जाने वाले हैं और ये ही दलाल बांध पर काम करने वाले श्रमिकों का शोषण भी करते हैं। अपहरण की गई लड़कियों में पुत्र की प्रेमिका भी है।

उसे छुड़ाने के बाद पिता इस नतीजे पर पहुंचता है कि शहरों की अय्याशी के लिए बिजली बनाने का यह उपक्रम बहुमूल्य वृक्षों को डूब क्षेत्र में नष्ट कर देगा, अत: वह लगभग तैयार बांध को बारूद से उड़ा देता है। पुत्र और प्रकृति के लिए पिता शहीद हो जाता है। यह अकारण अनजान उदासी मनुष्य के अवचेतन में दफन कवि की सांसें हैं और विज्ञान के परे है यह मामला। 'आम्रपाली' के लिए शैलेंद्र लिखते हैं- 'तड़प ये दिन रात की, कसक ये बिन बात की/भला ये रोग है कैसा, सजन अब तो बता दे।/ बिना कारण उदासी क्यों, अचानक घिर के आती है। थका जाती है क्यों मुझको, बदन क्यों तोड़ जाती है।'