वेद क्या‍ है? / बालकृष्ण भट्ट

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आर्य संतान हिंदू मात्र में कौन ऐसा होगा जो वेद का आदर न करे और इस बात का अभिमान न करता हो कि हमारे धर्म का मूल वेद है। पुराण और तंत्रों ने वैष्ा्र व, शैक, शाक्त आदि भिन्नय-भिन्नर संप्रदाय चला कर देश में यद्यपि बहुत अधिक भेद और अनैक्यन फैला दिया पर वेद के मानने में सब एक हो जाते हैं। और सब लोग अपने-अपने संप्रदाय का मूल वेद ही को मानते और कहते हैं। राष्ट्री यता (Nationalism) का तो वेद आधार है। जब तक हम वैदिक पथ का अनुसरण करते रहे हिंदू जाति बराबर प्रबल रही। उधर बौद्ध और जैनियों का उभड़ना इधर पुराण और तंत्रों के प्रचार ने देश में ऐसी भेद बुद्धि पैदा कर दी कि हम बराबर क्षीणसत्वध और क्षीणबल होते गए।

वेद के संबंध में अब यहाँ तीन प्रश्न एक साथ उठते हैं। वेद शब्दल की व्युशत्पित्ति क्यार है? वेद का लक्षण क्यां है? और स्विरूप उसका क्याह है?

“विद्यंते ज्ञायंते लभ्यंरते वा एभिर्धर्मादिपुरुषार्था: असौवेद:”

अर्थात धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों पदार्थ जिससे जाएँ या जिसमें पाए जाएँ वह वेद है। प्रत्य क्ष अनुमान उपमान और आगम इन चार प्रमाणों में आगम वेद ही हैं। ऋग्वेँद भाष्य की भूमिका में सायनाचार्य ने वेद को अपौरुषेय अर्थात किसी का बनाया नहीं सिद्ध किया है। अनिष्टदनिवारण पूर्वक इष्टर प्राप्ति के अलौकिक उपाय को जाने वह वेद है। प्रत्यहक्ष और अनुमान दोनों जहाँ गिर जाते हैं और उनसे काम नहीं चलता वहाँ उस वस्तुक को हम वेद ही से जान सकते हैं। इसी से वेद की वेदता है और उस वस्तु के जानने की इच्छाो रखनो वाला वेद का अधिकारी है।

अब वेद का स्वसरूप क्याु है। इसे बौधायन आदि ऋषियों ने यों लिखा है -

“मंत्राब्राह्मणयोर्वेदनामधे यम्”

मीमांसा दर्शन के प्रवर्तक महामुनि जैमिनी ने भी ऐसा ही लिखा है -

“मंत्रब्राह्मणात्म क: शब्दीराशिर्वेद:”

मंत्र और ब्राह्मण के शब्दोंह का समूह वेद है। जिसका विनियोग किया जाय अर्थात यज्ञ आदि कर्मों में जो लगाया जाय या जिससे काम लिया जाय वह मंत्र है और जो काम उन मंत्रों से लिया गया उसके विधि की प्रशंसा जिसमें हो वह ब्राह्मण है। उन मंत्रों के इस भाँति विभाग किए हैं ऋग् सोम और यजु जो मंत्र पाद अर्थात श्लोरक की तरह है वह ऋग् है, जो गान के रूप में है वह साम है और जो गद्य रूप में है वह यजु है।

अब दूसरा प्रश्न यहाँ यह उठता है वेद की उत्पहत्ति का समय हम लोग निश्चनय कर सकते हैं या नहीं? निश्च य नहीं कर सकते सो क्यों या निश्च य कर सकते हैं सो किस भाँति? कालिदास आदि ग्रंथकारों का समय लोगों ने निर्णय कर लिया है और उससे भी प्राचीन लोगों का समय ताम्रपत्र तथा भूगर्भ के द्वारा बुद्धिमानों ने निश्चलय कर लिया है तो सिद्ध हुआ कि बुद्धिसंपन्न मनुष्योंि ने वेद के समय के निरूपण में भी यत्नन अवश्यय किया होगा। किंतु जब हमें यह स्म रण होता है कि मीमांसकों ने वेद को अपौरुषेय माना है और यह वाक्यय स्मृकति का याद आता है-

“अग्निवायुरविभ्य स्तुय त्रयं ब्रह्मसनातनम। दुदोह यज्ञसिध्ययर्थ ऋग्यसजु: सामलक्षणम्।।”

यज्ञ की सिद्धि के लिए ऋग्, यजु, और साम को अग्नि, वायु और सूर्य से दुहा। वेद में जो शब्दव मिले उन्हींी से हर एक गिनती अलग-अलग आदि में बनाई गई।

“वेदशब्देभ्यंर एवादौ पृथक् संख्यादश्चग निर्ममे।”

अर्थात जैसा अग्नि, वायु, सूर्य प्राकृतिक हैं, तद्वत, वेद भी प्राकृतिक हैं किसी के बनाए नहीं हैं। मान लो मनुष्यकृत भी हैं तो किस युग में ये बने इसका बतलाना अति कठिन है इससे यही कहना युक्ति संगत है कि कब वेदों की उत्पनत्ति की गई यह नहीं जान सकते।

यह आर्यो का धर्मग्रंथ है और धर्मग्रंथ जितने हैं उन्हेंं अवश्यैमेव किसी ने बनाया है। तब वेदों को भी किसी ने बनाया ही होगा। हाँ, यह ठीक है किंतु वेद हिंदुओं ही का धर्म ग्रंथ नहीं है किंतु यह तो तब का है तब आर्य, अनार्य, हिंदू तथा म्लेतच्छु आदि संज्ञा रही ही नहीं और यह सार्वभौमिक अर्थात संसार भर के लिए है। केवल धर्म ही का विषय इसमें प्रतिपादित हो सो भी नहीं। अपिच कौन सी ऐसी बात है जिसकी संज्ञा का ज्ञान या पहले-पहल जिसका नाम हमें वेद से नहीं मालूम हुआ। वादी यहाँ पर अब यह कहेगा कि वेद में यज्ञादि के विधान हैं तब यह केवल धर्म ग्रंथ नहीं तो और क्याह है? उत्तार में कहा जाता है कि वादी को पहले तो यही भ्रम है जो वह यज्ञ के अर्थ अग्नि में होम या पूजा पाठ समझ रहा है किंतु यज्ञ के वास्तेव में तात्पोर्य किसी बडे़ काम (Enterprise) के हैं। बहुत से मनुष्य एक मन हो किसी बड़े काम को कर गुजरे, वह यज्ञ है जैसा इस समय कांग्रेस इत्याnदि किए जाते हैं। 'यज्ञ' के जिससे यज्ञ शब्द बना है, देवपूजा, संगतिकरण, दान आदि बहुत से अर्थ लिखे हैं। इसी से वेद मनुष्यमात्र के लिए कहा जा सकता है न केवल आर्य या हिंदू ही मात्र के लिए। आर्य संज्ञा तो तब से हुई जब संसार में बहुत से मनुष्य सब ओर फैल गए तब जिनका उत्तम आचरण रहा वे आर्य हुए और जो निकृष्टम काम में लगे वे म्ले च्छ , असुर, दस्यु आदि नाम से कहलाए (Philologist) बहु-भाषा विद् जब शब्दोंे के (Root)जड़ का पता लगाने लगते हैं और उसमें हिंदी की चिंदी निकालते हैं, जब लेटिन ग्रीक आदि में (Root) जड़ का पता नहीं लगता तब लाचार हो संस्कृहत में उसे ढूँढ़ते हैं। जैसा (Lvory) हाथी दाँत जिसके माने हैं। जब कहीं पता न लगा तब संस्कृसत 'इभ' की ओर झुके। जितने प्राकृतिक शब्दि हैं जिनसे प्राकृतिक पदार्थों का ज्ञान होता है सब वेद की भाषा में पाए जाते हैं। शब्दै ज्ञान का विषय इतना गहन और दुर्गम है कि यास्का आदि निरुक्तिकारों ने बहुत कुछ छानबीन किया उपरांत पाणिनि, पतंजलि और कात्याायन आदि कितने वैयाकरण व्या डि, शाकटायन, शाकल्यप आदि न जानिए कितनों ने शब्द, वारिधि में गाते मार-मार शब्दन मौक्तिकों को निकाला जिनसे इस समय की यावत सभ्यन जाति भाषा के ज्ञान में उठा रही है।

ईसाई जो बाइबिल को धर्म पुस्तकक कहते हैं और दावा करते हैं कि समग्र संसार के लिए ईसाई धर्म है और बाइबिल ही सच्चीम पुस्ततक है उसमें भी वेद की चोरी का पता लगता हैं। यहुन्ना की इंजील के प्रारंभ में आयत है - Words were in the beginning and word was God. प्रारंभ में शब्दनसमूह ही थे और शब्द ही ईश्वसर था। पहले हम लिख आए हैं कि 'मंत्र और ब्राह्मण के शब्द समूह का नाम वेद है।' अब यहाँ पर यह कहना अप्रासंगिक न होगा कि पुराणों से वेद को क्याल धक्काा पहुँचा। इसमें संदेह नहीं पुराणों में वे प्रतिपादित अर्थ बहुत ही बहुत बढ़ाए गए बल्कि भक्तिमार्ग जिसकी वेदों में कहीं-कहीं केवल झलक मात्र पाई जाती है उसका विस्ताबर पुराणों में इतना अधिक किया गया कि एक शास्त्रह बन गया। सैकड़ों ग्रंथ भक्तिमार्ग के पोषण में बन गए। इसका एक विशेष कारण यह भी ध्यातन में आता है कि ईश्वरर में भक्ति खुदापरस्ती तथा पर काल के बनाने की चिंता भी कौम कमजोरी की निशानी है। जब तक कौम उरूज पर और देश उन्नतत दशा में रहता है तब तक ईश्वररनिष्ठा और भक्ति भाव नहीं सूझता। यह तो प्रत्यहक्ष है कि भक्तिमार्ग के अनेक उत्तमोत्तम ग्रंथ तथा भक्तिमार्ग प्रवर्तक आचार्य महाप्रभु कृष्णझ चैतन्यह महाप्रभु, बल्लकभाचार्य, मध्व' और रामानुज स्वाथमी निंबार्क आदि मुसलमानी राज्यु में हुए। जब देश स्वा धीन और लोग स्वगतंत्र न थे भगवद्गीता के अतिरिक्तक कोई ग्रंथ भक्ति के न थे। दूसरे एक यह भी मालूम होता है कि संसार के लोगों की झुकावट दो ओर मालूम होती है Material and Immaterial - पंच भौतिक और अपंच भौतिक। यूरोप के देशों की प्रवृत्ति पंच भौतिक पदार्थ की ओर है। अनेक तरह के नए-नए विज्ञान निकालते जाते हैं। तरह-तरह की कल, भाप, और बिजली के द्वारा जो काम कर रहे हैं उसे देख लोग अचंभे में आ जाते हैं। हमारे वेद का भी समय पहले-पहल निरा Materialism पंचभौतिक विज्ञान का था उस समय के हमारे आदिम ऋषि लोग कोई विज्ञान या विद्या नहीं बची जिनका सूत्रपात वे नहीं कर गए। उपरांत Immaterialism आध्याजत्मिक या अपंचभौतिक तत्वों् की गवेषणा आरंभ हुई उसमें भी वैदिक ऋषि सम्यtक् पारगामी हुए। मुसलमानों के विजयी होने पर जब से हिंदू जाति अपनी स्वईतंत्रता खो बैठी तब से इनकी असाधारण मानसिक शक्ति तथा शौर्य, वीर्य आदि उदार गुणों के स्रोत पर डाट सी लगा दी गई। बहुधा लोग भकुआ मालाधारी भक्त बन गए। स्वाीर्थ लंपट और भीरु प्रकृति के हो अपनापन सर्वथा खो बैठे। भक्तामाल के भक्तत सब इसी समय हुए। अब समय सुशिक्षा का नवजीवन पाय हम बहुत दिनों का भूला हुआ अपनापन फिर लाना चाहते हैं तथा अपने पैरों खड़े होने की कोशिशें कर रहे हैं वही राजविद्रोह समझा जाता है अस्तुह, जिससे वेद को अधिक धक्का पहुँचा और उसका तत्वाैर्थ ढँप गया वह पुराणों का अलंकारिक वर्णन हैं। जैसा वृत्रासुर का इतिहास, इंद्र और अहल्याच की कथा। इंद्र एक नाम परमैश्वार्य युक्त् परमेश्वृर का है, अहल्याद का अर्थ यास्की ने निरुक्त में रात्रि का लिखा है, जार के अर्थ क्षय के हैं। समस्तप तेजयुक्त सूर्य ही इंद्रपद वाच्यय यहाँ है। सूर्य के उदय होने पर रात्रि का क्षय होता है यही वास्त विक अर्थ इंद्र के अहल्या जार का हुआ। इसी को रोचक और भयानक के क्रम पर पुराणों के क्रम पर पुराणों में इंद्र को अहल्याय का जार बनने के लिए एक रूपक खड़ा कर दिया गया। ऐसी ही प्रजापति का स्वणकन्याकनुगमन वाली कल्प ना भी कल्पित की गई है। ऐतरेय ब्राह्मण 3-3-9 प्रपाठक हैं।

'प्रजापतिर्वै स्व-दुहितरमभ्य ध्याअयत्'

प्रजा के पालन का अधिकार सूर्य का है इसलिए कि सूर्य गरमी से अन्नु उपजाता है फल सब पकते हैं। सूर्य उदय होते ही ऊषा (Dawn) पौफट होने लगता है। ऊषा का जन्मत तभी होता है जब अरुणोदय होने लगता है। तो सिद्ध हुआ ऊषा मानो सूर्य की दुहिता 'कन्या।' रूप हुई स्त्रीर और पुरुष के संयोग सदृश अरुण रूप किरण बीज के समान सूर्य उसमें निक्षेप करते हैं। इस कथा को अत्यंत अनर्गल और भ्रष्ट कर पुराणकारों ने वर्णन किया है। 'काम' कितना भयानक है कि प्रजापति को भी अपने वश कर लिया इससे काम को दबाना ही कल्या्ण का मार्ग है यह इससे उपदेश निकाला। इत्या दि, जितने रूपक इतिहास के क्रम पर पुराणों में गढ़ दिए हैं सबों का ऐसा ही एक-एक तात्पइर्य निकलता है। वृत्रासुर की कथा, समुद्रमंथन आदि इतिहास सब रूपक में विस्ताशर के साथ रोचक कर ऐसा दिखाए गए हैं कि वास्तकविक अंश उनका बिलकुल छिप गया। इन ऐतिहासिक रूपकों में ऐसे कोई भी न निकलेंगे जिनमें कोई अच्छार उपदेश न निकलता हो।

अस्तुल, वेद क्याप है इस बात की टटोल हमारे पढ़ने वालों को कुछ न कुछ अवश्यन हो गई होगी। एक विशेष बात वैदिक साहित्यच (Vedic Literature) की ओर भी ध्यांन देने के लायक है कि वेद के जिस भाग को विचारो चाहे वह आध्यायत्मिक विषय का हो चाहे आमुष्मिक राष्ट्री यता का भाव सब ओर चुआ पड़ता है। जिसमें अपने देश का योगक्षेम और आर्य जाति को उत्केर्षता सर्वोपति स्थिर रहे यही वैदिक ऋषियों के सिद्धांत का सारांश है और उसी को वे सबसे अधिक और मुख्यर धर्म मान गए हैं इसी से यह कहना अनुचित न होगा कि स्वीराज के लिए वेद महोपकारी है।