वैचारिक ऊर्जा / मृदुल कीर्ति

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आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः यजुर्वेद २५,४

सभी दिशाओं से हमें शुभ विचार प्राप्त हों।

जिसके पास अच्छे विचार नहीं, उसके पास कुछ नहीं।

बिना अच्छे विचारों के आप अच्छे हो ही नहीं सकते।

जब हम खाते अच्छा हैं, पहनते अच्छा हैं तो विचार अच्छे क्यों नहीं रखते?

विचार स्रोतः ” माननेन मनुष्यः” जो मनन कर सकता है वही मनुष्य है। मन से मनुष्य का आदि-अंत रहित , आंतरिक सम्बन्ध होता है, जो सदा था और सदा रहेगा। विचार, ब्रह्माण्ड का बृहत्तम-सूक्ष्मतम ब्रह्म अंश है जो, ” अणु-अणियाम, महतो – महियाम ” है. (कठोपनिषद १.२.२०.) किन्तु केनोपनिषद में जिज्ञासा, व्याकुल और अन्वेषी होकर प्रश्नायित होती है।

ॐ केनेषितं पतति प्रेषितं मनः (केनोपनिषद १.१ )

है कौन मन का नियुक्ति कर्ता, कौन संचालक यहाँ ?

"तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ” (केनोपनिषद १.५.)

परब्रह्म शक्ति के अंश से, मन में मनन सामर्थ्य है।

परब्रह्म की मीमांसा को बुद्धि मन असमर्थ है।

जैसे बीज में चैतन्य छुपा हुआ है वैसे ही विचारों में समग्र जीवन दर्शन समाहित है। यह समग्र जगत और जीवन मन के संकल्पों और विकल्पों का खेल है। सब कुछ जहाँ का तहाँ ही तो रहता है, केवल विचारों से सब रूपांतरित होता रहता है। दृश्यमान जगत से अधिक वास्तविक वैचारिक जगत है। सारा दृश्य अदृश्य से ही तो सृजित है । वैचारिक जगत स्थूल जगत से अधिक वास्तविक है। स्थूल शरीर के पीछे सूक्ष्म शरीर है, सूक्ष्म शरीर के पीछे कारण शरीर है और कारण शरीर के पीछे ‘वैचारिक शरीर’ है। आपने देखा होगा कि कोई व्यक्ति स्वभाव से उदार (पर्याप्त धन न भी हो तो भी) होता है, कोई कृपण और अनुदार ( धन होने पर भी ) होता है, कोई क्रोधी तो कोई शांत आदि विभिन्न चारित्रिक स्वभाव होते हैं। इसके पीछे स्व-भाव (अपना भाव ) ही वस्तुतः स्वभाव है, स्वयं के स्वरुप में स्थित भाव ही स्वभाव है, जिसे हम बहुधा आदत के रूप में लेते है। पर इसका संकेत स्व -भाव की ओर ही है। जब बात अहंता में बैठ जाती है तो वह भूलती नहीं, इसके पीछे कोई अभ्यास या प्रयास नहीं केवल मन की स्वीकृति है जो हमारा स्वभाव बन जाती है। यही वह मूल प्रवृति है जो हमारे जीवन में व्यवहार में स्वभाव बन कर हमें संचालित करती है और यही वैचारिक प्रधानता हमारे ‘वैचारिक शरीर ‘का निर्माण करती है और यही हमारे जन्म निर्धारण का आधार भी है। जिसे श्री कृष्ण गीता में अर्जुन से कहते है।

शरीरं वायुर्गंधानिवाशयात : गीता १५-८

यहि तत्व गहन अति सूक्षम कि,

जस वायु में गंध समावत है।

तस देहिन देह के भावन को,

नव देह में हू लई जावत है।

यह देह का भाव ही ‘वैचारिक शरीर ‘है अथ सत्य का केंद्र भीतर है। मन में अमोघ शक्ति है। यदि सही दिशा में लग जाए तो ब्रह्म से मिला दे। मन में ही पाँचों इन्द्रियां हैं। इन्द्रियों में मन नहीं है। मन में सब इन्द्रियों का निवास नित्य है, तब ही तो स्वप्न में भी इन्द्रियों के विषयों का आभास होता है। मन की चार अवस्थाएं हैं, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। अथ सजग रहना है कि मन को वश करना, निर्मल करना और जड़ों तक निर्मल करना। सदा दिव्य भाव में रहो, ईश्वरीय चेतना में रहो, वैचारिक चिंतन ही हमारे भाव, भाषा और भावना में भावित होते हैं, भवितव्य बनाते हैं, वर्तमान संवारते है और सकल जीवन चक्र को निखारते है। हम सोते, जागते और सुषुप्ति तीनों ही अवस्थाओं में ‘शिव संकल्पित’ चित्त मन वाले हों।

ॐ यज्जाग्रतौ दूर मुदैति देवं तदु सुप्तस्य तथैवती, दूरं गमं ज्योतिसाम ज्योति रेकं, तन्मे मनः शिव संकल्प मस्तु  : यजुर्वेद

आज विश्व को यही शिव संकल्पित मन -चित्त की ऊर्जा चाहिए । विकारी मन तो विध्वंस की और अमानवीयता की सभी सीमाएं पार कर चुके हैं। मात्र शिव शुभ विचार ही विश्व में शांति ला सकते हैं। इतिहास साक्षी है कि कलिंग युद्ध के बाद ‘बुद्धं शरणम् गच्छामी’ विचार का ही परिणाम है।

विचार सृजनात्मक शक्ति है : विचार चैतन्य ऊर्जा है। संकल्पित मन जो चाहे कर सकता है। विद्युत् की गति १,८६,००० मील प्रति सेकेण्ड है। जबकि विचारों की गति का तो अनुमान ही नहीं लग सकता। समस्त विचारों की भीड़ में यदि एक महान विचार थाम लो वह सत्य केंद्र तक ले जाएगा।

विचार जीवंत ऊर्जा है, जिसमें अथाह शक्ति और सामर्थ्य है, यदि सही दिशा में लग जाए तो ब्रह्म से मिला दे, दूषित विषयों में लग जाए तो विनाश कर दे। हमारी शारीरिक, मानसिक और आत्मिक क्षमता , हमारे जीवन की सफलता और हर्ष जो हम अपने सानिध्य से दूसरों को देते हैं । यह सभी हमारे विचारों की गुणवत्ता पर ही तो आधारित हैं। विचारों से चारित्रिक दृढ़ता और शक्ति आती है। एक-एक शुभ विचार यदि हर किसी के मन में हों तो विश्व बदल जाए। विचार बदलते ही दुनियां बदल जाती है। विचारों से प्रेरित होकर हम कर्म करते है अथ हर कर्म पहले विचारों में सूक्ष्म रूप में घटित हो चुका होता है , स्थूल रूप में तो उसका अंतिम स्वरुप है। हर महान कर्म के पीछे एक महान विचार होता है। हर महान योजना के पहले उसकी परिकल्पना विचारक में घटित हो चुकी होती है, तदनुसार वह तो बस स्वरुप देता है।

भाषा में विभिन्नता है पर विचारों में मानसिक छवि सबकी एक है। विचार बदलते भी है , संक्रमित होते भी है और करते भी हैं। कितने ही संतों ने विचारों से युग बदले हैं, मानसिकताएं बदली हैं। राष्ट्रीय चेतनाएं कितनी ही क्रांतियों की साक्षी हैं, युग परिवर्तन की साक्षी हैं।

अब तो आत्म दृष्टा बन कर स्वयं की चिंतन शैली को ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः में’ रूपांतरित करने की युग की माँग है। कहीं जाना तो है ही नहीं बस स्वयं को जानना है विचारों के परिमार्जन, शुद्धिकरण और सर्व जन-हिताय में रूपांतरण होते ही भाषा, भाव, व्यवहार, आचरण, चरित्र और अंतस बाह्य सबका ही रूपांतरण हो जाता है। विचारों की अथाह शक्ति, ऊर्जा और सामर्थ्य चैतन्य का प्रसाद है।