वैराग्य का परिपाक / कमलेश कमल

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अनुभूत सत्य है कि वैराग्य की संकल्पना सिर्फ़ सिद्धों, संतों को ही नहीं, अपितु सामान्य साधकों, सज्जनों, सद्गृहस्थों को भी सदा से लुभाती रही है। किसी पर्णकुटी, गिरा-गह्वर में धुनी रमाता कोई योगी हो अथवा दुनियादारी की चकरघिन्नी में घूमता कोई व्यक्ति, वैराग्य के पक्ष या विपक्ष में राय की पोटली अवश्य रखता है, किञ्चित् वह इससे असम्बध्द या उदासीन रह ही नहीं सकता।

सामान्य शब्दों में देखें, तो वैराग्य को राग की व्यतिरेकी संकल्पना समझा जाता है। राग है आसक्ति, अतिशय जुड़ाव, लगाव, बंधन आदि। वैराग्य है किसी लगाव का, बंधन का न होना, कोई मोह न होना। इस अर्थ में देखें, तो यह राग की विरोधी नहीं, उसकी अनुपस्थिति है। इससे निष्पत्ति यह निकलती है कि वैराग्य कोई नकारात्मक या निषेधात्मक स्थिति नहीं, वरन् सकारात्मकता का संधान है, बंधनमुक्ति का विधान है।

वैराग्य सीमा नहीं, सीमातीत है; मोह के पिंजड़े से अनन्त आकाश की उड़ान है। एक दक्ष शल्य-चिकित्सक भी अपने रोगग्रस्त पुत्र की शल्यक्रिया स्वयं करने में घबड़ाता है, क्योंकि वह मोहासक्त है, प्रेम के बंधन से बंधा है। यही राग की सीमा है। अगर शल्यक्रिया के लिए समुपस्थित व्यक्ति से उसका कोई सम्बंध न हो, तो वह गीत गुनगुनाते हुए भी इसे पूरा कर लेता है। यही रागरहित होने का लाभ है, वैराग्य जैसी अवस्था का प्रतिफलन है।

एक प्रश्न उठता है कि वैराग्य का फल क्या है? वैराग्य घटित हो गया, तो क्या होगा? वैराग्य के लाभ क्या हैं? इस विषय पर शास्त्रों में अनेक सूत्र मिलते हैं। सत्य के अन्वेषी साधक से यह अपेक्षा कि जाती है कि इनकी अवगाहना से अपनी मुमुक्षत्व को शांत करे। भगवान् आदि शंकराचार्य ने विवेक चूडामणि में इस हेतु एक महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया है-

वैरागस्य फलं बोधो बोधस्योपरतिः फलम्।

स्वानन्दानुभवाच्छान्तिरेषैवोपरते: फलम्॥

इसका शाब्दिक अर्थ है-वैराग्य का फल बोध है और बोध का फल उपरति अथवा विषयों के प्रति उदासीनता है। उपरति का फल है कि आत्मानन्द के अनुभव से चित्त शान्त हो जाए!

यहाँ इस सूत्र के अर्थउद्धाटन से हमें अनेक दिव्य-रश्मियाँ प्राप्त होती हैं जो जीवन के महासमर में सारथी-सदृश हमारा मार्गदर्शन कर सकती हैं।

वैराग्य से मिलता है बोध! बोध क्या है? बोध है सही परिचय। बोध है वास्तविकता का ज्ञान। बोध है सत्यासत्य का ज्ञान। बोध है प्रकृति की अनुभूति। क्या अच्छा है और क्या बुरा-इसका परिचय। यह सूत्र कहता है कि वैराग्य से मिलता है बोध। इसका अर्थ हुआ कि वैराग्य से ही हम किसी व्यक्ति, वस्तु अथवा स्थिति का सही परिचय पा सकते हैं। बिना किसी विशेष रंग के चश्में से, मोह-माया से विरत होकर या रागरहित होकर देख सकते हैं।

वैराग्य से मिलने वाला बोध उस शल्यचिकित्सक का बोध है जो शल्यक्रिया के लिए समुपस्थित व्यक्ति से किसी तरह सम्बद्ध नहीं है। प्रेमीजन से प्रेम का बंधन अथवा किसी विरोधी से विरोध का बंधन उसकी दॄष्टि और उसकी कार्यक्षमता को प्रभावित कर सकती है। जब कोई बंधन नहीं, तभी वह व्याधि का सही बोध और समुचित निदान कर सकता है। तो, वैराग्य से उत्पन्न होता है बोध अर्थात् सही-सही देख और समझ पाने की शक्ति।

वैराग्य से बोध हुआ। बोध होने से क्या होगा? बोध होने से होगी उपरति। उपरति शब्द बड़ा महत्त्वपूर्ण है। उपरति है रति के अभाव की अवस्था। रति है रत रहने की अवस्था, लगे रहने की अवस्था, संलग्नता, संलिप्तता कि अवस्था। उपरति का अर्थ है कोई जुड़ाव न रहा-न सकारात्मक न नकारात्मक। बोध से होती है उपरति।

उपरति का अर्थ है लिप्तता न रही। लिप्तता शब्द स्वयं लिप् धातु से निष्पन्न है। लिप् धातु से ही लेपन, लिपि, लिपाई जैसे शब्द बने हैं। घर की हम लिपाई करते हैं। जिस वस्तु (रंग, लेप) से किसी पर लेपन हो जाता है, उसी का आवरण हो जाता है। तो, अगर आपमें मोह का लेपन हो गया, क्रोध का हो गया, काम का हो गया, मद का हो गया, तो आप उसमें लिप्त हो गए, आपकी संलिप्तता उसमें हो गई। यह ठीक ऐसे ही है जैसे सार्थक ध्वनि या शब्द जिस लिपि (आकृति) में लिखे जाते हैं, उसी का गुण-दोष लेते हैं।

हमने देखा कि उपरति हुई अल्पित होना, निर्लिप्त होना, संलिप्त न होना, विषयों से विमुख होना, विषयों के आकर्षण के प्रति उदासीन होना। इस तरह सूत्र का पहला वाक्य पूर्ण हुआ-वैराग्य से होता है बोध और बोध से होती है उपरति। दूसरे शब्दों में कहें, तो वैराग्य से सही, स्पष्ट और भेदभावरहित समझ बनती है, जो जैसा है उसे वैसा ही देखने की क्षमता उत्पन्न होती है और जब यह दुर्लभ क्षमता उत्पन्न हो जाती है, तब व्यक्ति अपने-आप तटस्थ और बन्धमुक्त रहना सीख लेता है, जिसे उपरति कहा जाता है।

अब दूसरा अंश देखते हैं-उपरति होने से आत्मानंद का अनुभव और चित्त की शांति। उपरति क्या है? यह है संलिप्तता का अभाव या निर्लिप्तता। जब हम किसी व्यक्ति, वस्तु या स्थिति से जुड़े ही नहीं हैं, तो दुःख क्या और सुख क्या? जिस खेल से जुड़े ही नहीं, उसमें कोई जीते, कोई हारे-हमें क्या? एक ही घर में टेलीविजन पर चल रहे मैच से दो लोग जुड़े हैं। एक व्यक्ति टीम 'अ' के पक्ष और टीम 'ब' के विपक्ष से जुड़ा है, जबकि दूसरा व्यक्ति टीम 'ब' के पक्ष और 'अ' के विपक्ष से जुड़ा है। अगर टीम अ जीतती है, तो पहला व्यक्ति आनन्द से भर जाता है, जबकि दूसरा व्यक्ति उदास हो जाता है। इसके विपरीत अगर टीम ब जीतती है, तो दूसरा व्यक्ति प्रसन्न और पहला व्यक्ति उदास हो जाता है। मैच कहीं और हो रहा है और खेलने वाले खिलाड़ी इन दोनों में से किसी को भी नहीं जानते। ये दोनों भी बस टेलीविजन पर देखकर ही खेल में संलिप्त हो गए हैं और चित्त दुःखी या सुखी हो रहा है-बस शांत नहीं हो रहा है। उसी घर के तीसरे सदस्य को इस मैच से कोई मतलब नहीं है, कोई संलिप्तता नहीं है इसलिए कोई दुःख-सुख भी नहीं है। तीसरा व्यक्ति यह देख भी लेता है कि कहीं दूर कोई मैच हो रहा है जिसमें दो टीमें भाग ले रही हैं। वह उदासीन है। कोई जीते, कोई हारे-उसके लिए बस एक सूचना है। वह बाहर नहीं टिका है, मैच में या टेलीविजन में नहीं अटका है। वह तो स्वयं में है और इसलिए उसका चित्त उस विषय में शान्त है।

अब यह भी सम्भव है कि तीसरे व्यक्ति की संलिप्तता इसमें हो कि चुनाव में उसके पसंद की पार्टी सरकार बनाए। तभी टेलीविजन के नीचे फुटर में उसे ब्रेकिंग न्यूज लिखा मिलता है कि विपक्षी पार्टी की सरकार बन रही है। अब इस ख़बर से उसे दुःख मिल रहा है, उसका चित्त अशान्त हो रहा है। खेल की ख़बर से वह निर्लिप्त रहा, तो चित्त शांत रहा, लेकिन यहाँ उसकी संलिप्तता ने दुःख की मनोदशा को जन्म दे दिया और अगर मूल में देखें, तो वैराग्य नहीं रह, राग रहा, जुड़ाव रहा जिससे बोध ख़त्म हो गया और बोध के न रहने से चित्त अशान्त हो गया। जब चित्त अशान्त होता है तो इस पर उसकी छाप रहती है जिससे यह जुड़ा होता है, जिसमें यह लिप्त रहता है, इस पर जो लिपि अंकित रहती है। ऐसे में स्वाभाविक है कि इसमें अंदर का आनंद नहीं, बाहर का व्यवधान ही प्रभावी रहता है, आत्मानन्द नहीं, विषयानन्द रहता है, या विषय पीडा प्रभावी रहती है।

इस तरह हम देखते हैं कि वैराग्य का परिपाक बोध में मिलता है और बोध की परिणति उपरति में होती है जिससे चित्त की प्रशान्त-अवस्था का प्राकट्य होता है जो आत्मानन्द से नाभिनाल सम्बद्ध है।