व्हाट्सेप / लता अग्रवाल

Gadya Kosh से
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काफी दिनों बाद आज घर में छुट्टी बिताने का अवसर मिला, सोचा कहीं बाहर न जाकर घर में परिवार के साथ बैठकर किसी पिच्चर का आनंद लूँगा। हॉस्पिटल में नई-नई पोस्टिंग हुई है सो नए काम की थकन से कुछ रिलेक्स मिलेगा। मम्मी से मनपसंद नाश्ता बनवाया, छोटी बहन से अभी प्लानिंग कर ही रहा था कि डोर बेल बज उठी।

"अजय! बेटा! वह पड़ोस वाले भार्गवजी आए हैं, उनकी पत्नी की तबीयत खराब है। चाहते हैं कि तुम ज़रा चलकर उन्हें देख लो।" मम्मी ने ड्राइंग रूम में लौटते हुए कहा।

" कौन भार्गव जी मम्मी? मैंने दिमाग़ पर ज़ोर डालते हुए पूछा, नई सभ्यता के शिकार हम देश-विदेश की जानकारी रखने में बहुत रूचि रखते हैं किन्तु हमारे आस-पास कौन रहता है इसकी जानकारी ज़रूरी नहीं समझते।

"76 न। में रहते हैं।"

" मैं...! मगर मम्मी मैं तो चाइल्ड स्पेस्लिस्ट ...?

"कोई बात नहीं बेटा, बुज़ुर्ग भी तो बच्चे के समान ही होते हैं। माँ ने मुस्कुराते हुए कहा।"

"किन्तु मैं तो उन्हें ठीक से जानता भी नहीं।" मैंने टालने की दृष्टि से कहा। पद पाते ही हम भूल जाते हैं कि हमने सदा अपने कार्य के प्रति निष्ठावान रहने एवं बिना भेदभाव के कार्य करने की क़सम खाई हैं।

"डॉक्टर के लिए ज़रूरी नहीं कि पेशेन्ट से कोई रिश्ता हो बेटा! ज़रा उनका मन रखने के लिए ही उनके साथ चला जा, बड़ी उम्मीद लेकर आए हैं।"

" अच्छा ..., मैंने सोचा शायद उम्र के अनुसार ब्लडप्रेशर वगैरह होगा जाकर देख आता हूँ,

" चलिए अंकल। मैं उनके साथ हो लिया। कोई 6-7 घर छोड़कर आलीशान बंगला था भार्गव अंकल का, जो हमेशा मेरे आकर्षण का केन्द्र था। अक्सर आते-जाते झूले पर इस दंपति को बैठे देख सोचता था कितने लकी है भव्यता के बीच मजे से अपना बुढ़ापा बीता रहे हैं। संपन्नता! सुख-दुख को नापने का एक यही पैमाना तो बना रखा है हमने, उस संपन्नता के तले दिल में कितने गहरे पेबंद है हमें कहाँ दिखाई देते हैं। हमारी नज़र भी हमारी शिक्षा की भांति भोथरी हो गई है। यूँ भी व्यस्तता ने न केवल हमारे घर आँगन को समेट दिया... हमारी संवेदनाएँ भी सिमट गई हैं। दोनों के घरों के बीच की दूरी पार करते हुए इतना ही जान पाया कि भार्गव अंकल आंटी को लेकर काफ़ी फिक्रमंद हैं। कोई सीरियस मेटर लगता है। हम सीधे उनके बेडरूम में पहुँचे जहाँ मिसेस भार्गव लेटी हुई थीं। बाल बेतरतीब बिखरे से, कपड़े सल से भरे, चेहरे पर ज़माने की उदासी समेटे, उन्हें देखकर कहीं भी उनकी भव्यता का आभास नहीं हो रहा था। एक नज़र में जाहिर हो रहा था कि मरीज अपने प्रति कितना बेपरवाह है। बाहर से खूबसूरत-सी दिख रही ज़िन्दगी की आँखों में कई सवाल थे।

मैंने औपचारिकतावश उन्हें नमस्कार किया जिसका उन्होंने कोई स्वागत योग्य जवाब नहीं दिया। बदले में भार्गवजी की ओर शिकायत भरी दृष्टि से देखने लगीं। मानो शिकायत कर रही हो क्यों ले आए डॉक्टर ...? मुझे उलझन हुई लगा जबरदस्त लाकर खड़ा कर दिया गया हूँ। फिर कर्तव्यबोध जागा, ' मैंने भी उसी औपचारिकता भाव से पूछा,

"क्या हो रहा है आंटी आपको ...?"

"कुछ नहीं, यही तो रोना है कुछ नहीं होता मुझको..."

"ये कैसा उत्तर था ...मैं समझ नहीं पाया, मैंने अंकल की ओर देखा ...जहाँ मुझे लाचारी दिखाई दे रही थी। फिर भी आंटी, कुछ तो बताइए"

"बस मन कुछ ठीक नहीं है, किसी काम का मन नहीं करता ...काम क्या ...जीने का भी मन नहीं करता। वे एक सांस में सब कह गई मानो कोई बोझ है अंदर जिसे जल्द ही उतार देना चाहती हैं।"

बड़ी विचित्र-सी बात है इतनी सुख-सुविधाएँ, ऐसा फिक्रमंद पति...फिर समस्या कहाँ होगी मैं अपना डॉक्टरी दिमाग़ लगाने लगा। क्या आंटी को कोई बड़ा रोग है...? हो सकता है...अक्सर बड़े लोगों को ही बड़ी बीमारियाँ होती हैं। मेरे लिए चुनौती थी कैसे एक्ज़ामिन करूँ पेषेन्ट को...? जो ख़ुद कोई सपोट ही नहीं कर रहा। मगर अपने छात्र जीवन में मैं सदैव नवीन शोध हेतु उत्सुक माना जाता था। मगर यह शोध का विषय मेरे लिए एकदम नया था। चुनौती थी, मेरे सामने जो शख़्स है वह तो मुझे दिल का बीमार लगता है...और मैं तो चाइल्ड..., फिर भी जीवन में ऐसा क्या है जिसकी वज़ह से वे इतनी निराष हैं? मैंने उनका ब्लडप्रेशर देखा, नार्मल से कुछ नीचे था मगर कुछ ख़ास चिंताजनक नहीं। कुछ देर बात करने पर जो कुछ समझ पाया उसके अनुसार अंकल से बात करना ही उचित लगा। सोचा उन्हें एन्टीडिप्रेशन का हल्का डोज़ दे देता हूँ जिससे वे ठीक से सो जाएंगी तो शायद आराम महसूस करेंगी।

"अंकल आइए मैं आपको कुछ दवाई दे देता हूँ, यह तो बहाना था, रास्ते में मैंने कहा, मुझे नहीं लगता आंटी को कोई बीमारी है बस उनके भीतर कुछ है जो उन्हें ठीक नहीं होने दे रहा।"

"जानता हूँ बेटा,"

मैं चौक पड़ा आप ...जानते हैं आंटी को क्या टेंशन है! "

"हाँ!"

फिर उनका इलाज़ क्यों नहीं कराते "

"कोई इलाज़ हो तब न करूँ।"

"मतलब!"

"अकेलेपन का कोई इलाज़ हो तब ना!"

"क्यों! फेमिली में कोई और नहीं है क्या?"

"हैं ना दो बेटे हैं हमारे।"

"फिर क्या परेशानी है, क्या आप मुझसे शेयर कर सकते हैं?"

"ज़रूर' , बेटे डॉक्टर से क्या छिपाना, दरअसल शिवानी शादी के पहले एक मल्टी नेशनल कम्पनी में अच्छे पद पर कार्यरत थी किन्तु बड़े बेटे के जन्म के बाद उसने मातृत्व मोह में एक पल का विचार न करते हुए अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। फिर दूसरा बेटा हुआ और शिवानी ने अपनी दुनिया को इन्हीं दोनों बच्चों के आस-पास क़ैद कर लिया उनका खान-पान, पढ़ाना, स्कूल में विभिन्न प्रतियोगिताओं में उनकी भागीदारी रखना। उन्हें हर फील्ड में सक्सेस देखना उसकी ज़िन्दगी का मकसद बनकर रह गया। वह बच्चों में इतनी मसरूफ हो गई कि धीरे-धीरे बाहर की दुनिया से कटने लगी। उस वक़्त उसे अपने जॉब छोड़ने का कोई ग़म भी न था।"

"ठीक है ना अंकल, बच्चों को अच्छा जीवन देना माता-पिता का फ़र्ज़ होता है।" यह बात संभवतः मेरे भीतर का युवा कह गया। तभी अंकल ने मेरी बात पर गंभीर होते हुए कहा-

"तुम ठीक कहते हो बेटा! कि माता-पिता द्वारा बच्चों के लिए किया दायित्व फ़र्ज़ होता है और बच्चे से यदि कुछ अपेक्षा करें तो वह कर्ज़ क्यों बन जाता है?"

"बात पते की कही थी, मेरे पास कोई जवाब नहीं था, फिर भी मैने उन्हें सहज करने की दृष्टि से कहा-" अंकल वक़्त बदल गया है उसके साथ इंसान की प्रायरटीज़ भी बदल गई हैं, हमें इन बातों को इग्नोर करना होगा। "

" मैं मानता हूँ वक़्त बदल गया है और वक़्त के साथ हमारी प्रायरटीज़ भी, किन्तु उस माँ का क्या जिसने अपनी सारी प्रायरटीज़ छोड़ अपनी दुनिया बच्चों के आस पास समेट दी। बाजारवाद एवं देश दुनिया से बेख़बर रोज़ इसी ताने-बाने में रहती रोहित को क्या पसंद है...आज राहुल की क्या फरमाइश है, उनके स्कूल के आने का वक़्त हो गया है, उन्हें होमवर्क कराना है, रात को सोते वक़्त कहीं चादर तो नहीं सरक गई बच्चों पर से। बच्चों को ऊँचे मुकाम पर ले जाना उसका फ़र्ज़ था जो शिवानी ने शिद्दत से पूरा किया। देानों विदेश में अच्छे पद पर आसीन हो गए।

"फिर क्या परेशानी है...? आंटी को तो खुश होना चाहिए।"

तुम ठीक कहते हो हमें खुश होना चाहिए था। तब शिवानी को भी यह अपनी सफलता का प्रमाणपत्र लगा। हम जिन्हें प्यार करते हैं न चाहते हुए उनसे न चाहते हुए भी उम्मीद तो बंध ही जाती है। जब यह उम्मीद छिन जाती है तो इंसान गिरकर टूट जाता है। रात-दिन बच्चों की फ़िक्र में चहकती शिवानी की ममता अब पूरी तरह ख़ामोश हो गई है। एक माँ बेटों के सिर पर अपने हाथों सेहरा बाँधने, बहुओं को मुँह दिखाई करने के सपने देखने लगी। अफ़सोस! उसकी अभिलाषा अधूरी रह गई। वह नहीं जानती थी कि ये वासनाएँ हैं जिनका कभी अंत नहीं। एक माँ अपने दिल से हार गई। "

"आप सच कह रहे हैं अंकल, इन्हीं वासनाओं की बेडियों में उलझे हमारे पैर उन चंद साँसों का बोझ लिए ज़िन्दगी भर बदहवास से दौड़ते रहते हैं। इसी दौड़ में मिली सक्सेस को हम अपना जूनून बना लेते हैं।"

"सही कहा तुमने बच्चे भी अपनी सक्सेस में माँ की ममता को नज़र अंदाज़ कर गए। बहुत सदमा लगा उसे जब दोनों बेटों ने उसे सरप्राइज दिया, विदेश से अपना जीवन साथी चुनकर वहीं विवाह भी कर लिया। बस वही सदमा उसे भीतर ही भीतर खा रहा है।"

" ओह! ...अंकल ये जीवन के छोटे-छोटे हादसे हैं, इनकी वज़ह से हम जीना तो नहीं छोड़ सकते, वक्त हर जख़्म पर मरहम लगा देता है। अब आगे सोचना है।

"शायद तुम्हारी बात सही हो, किन्तु शिवानी बच्चों के प्रति जितनी पजेसिव थी अब उतनी ही नाराज है, उनसे सम्बंध तोड़ लिए और ख़ुद को इन चारदीवारी के बीच क़ैद कर लिया। मानो स्वयं से बदला ले रही है।"

"मैं समझ पा रहा हूँ कि एक माँ की ममता आहत हुई हैं, किन्तु यह भी सच है अंकल कभी-कभी माता-पिता का बच्चों के प्रति अधिक पजेसिव होना भी नुकसानदायक होता है। हमारी उम्मीदें बढ़ने लगती है, ज़रूरी नहीं कि बच्चे उन उम्मीदों पर खरे उतरें। ऐसे में वही स्थिति बनती है जो आज हमारे सामने है।"

"मैंने भी उस समय कई बार शिवानी को समझाने की कोशिश की थी मगर वह पुत्र मोह में आकंठ डूबी हुई थी उस वक़्त उसे बच्चों के अलावा कोई नज़र नहीं आता था।"

"ममता के छले जाने और अरमानों के टूटने का ग़म है आंटी को मुझे आंटी की बीमारी समझ आ गई और यह बात भी कि कोई दवा उन पर असर नहीं करेगी।"

"मैं जानता हूँ, किन्तु कोई और चारा भी तो नहीं मेरे पास।"

"आप आंटी को कहीं बाहर घूमने फिरने क्यों नहीं ले जाते, लोगों से मिलेंगी बातें करेंगी तो ख़ुद को हल्का महसूस करेंगी।"

"कई बार कोशिश कर चुका हूँ मगर वह कहीं जाने को तैयार ही नहीं।"

उस दिन तो उन्हें रिलेक्स फील कराने के लिए टेबलेट दे दी, मगर सोचता रहा ममता के दर्द से लाचार इस मरीज का इलाज़ कैसे किया जाय...? दूसरे दिन मैं उनके हालचाल पूछने पहुँचा और कहा आंटी मैं आपको फ़ोन पर कुछ टिप्स दूँगा आपको उन्हें फालो करना होगा।

" फ़ोन पर ...हाँ स्मार्ट फ़ोन होगा ना आपके पास...अंकल ने फौरन अपना स्मार्ट फ़ोन मेरी ओर बढ़ा दिया। ...आंटी के चेहरे पर प्रश्न वाचक मुद्रा उभर आई... । मैंने आंटी की ओर बढ़ाते हुए कहा ये हैं तो क्या ग़म है।

"क्या करना है इसका ...किससे बात करनी है ...मेरी तो किसी से दोस्ती भी नहीं।"

"तो क्या हुआ अब हो सकती है दोस्ती..." दूसरे पल मैंने आंटी को व्हाट्सएप में जानबूझकर एक ऐसे यूथ सोशल ग्रुप से जोड़ दिया जो लोगों को सकारात्मक नज़रिया प्रदान करते हैं। जाहिर है आंटी पढ़ी-लिखी है उन्हें समझाने में मुझे ज़्यादा परेशानी नहीं हुई।

"हाय मैं रीमा! ...हैलो मैं मानव! ..., मैं रीतू शर्मा! ...हैलो मैं शिवानी! एक दिन में अनगिनत दोस्त बन गए। दोनों ओर से सवाल-जवाब चलने लगे। कहीं कोई कविता में बात कहता, कोई शायरी के अंदाज़ में ... तो कोई नेता बन भाषण देता...कोई अपनी व्यथा बताता। ।मुझे विश्वास था कि मैंने अपने मरीज का इलाज़ खोज लिया है। अब मैं करीब एक हफ्ते बाद वहाँ पहुँचा तो देखा आंटी में काफ़ी बदलाव था उनकी बातों के विषय बदल गए, हमेशा बच्चों की अवहेलना और स्वयं को कोसने वाली-वाली आंटी अपने मित्रो के बारे में बताती...बीच-बीच में कविता की पंक्तियाँ कह जातीं। मन ठीक हो तन में सुधार अपने आप हो ही जाता है। अब तो वे अपनी डी.पी. बदलना भी सीख गईं। आए दिन आंटी की स्टाइलिश डी.पी. चेंज होती फिर उस पर कमेंट्स का इंतज़ार रहता उन्हें। मैं जानता हूँ कि यह तकनीकी का बहुत अच्छा प्रयोग नहीं...फिर भी एक डॉक्टर होने के नाते अपने मरीज की भलाई के लिए मुझे उस समय यह उपाय सही लगा। कभी जिन्हें सलाह की आवश्यकता थी आज वह अपने युवा साथियों को सलाह दे रही थीं सरसों का साग ऐसे बनाओ... उडद की दाल में हींग का झौंका लगाओ। ...अरे! ...बच्चे को खाँसी है...अदरक का रस शहद के साथ काला नमक मिलाकर चटवा दो।" देखते ही देखते वे ग्रुप में सबकी चहेती हो गईं। अपने भीतर भरी सारी ममता अपने व्हाट्सएप के मित्रो पर उढ़ेल देतीं। ख़ुद को तन्हाँ मानने वाली आंटी मित्रो की भीड़ से घिर गई। वैसे भी हम तन्हा होते कहाँ है यह तो मन की तनहाई है वरना इंसान भीड़ में तन्हा क्यों कर होता। उन्हें अब फिर से अपने जीवन से प्रेम हो गया था। उन्हें तैयार देख मैं अक्सर उन्हें छेड़ते हुए कहता-

"क्या ...आंटी डी. पी. की तैयारी है।" वे हल्के से मुस्कुरा देतीं।

मुझे उनके चेहरे की यह मुस्कुराहट किसी मासूम बच्चे-सी लगी। माँ ठीक कहती थी बुज़ुर्ग भी बच्चे की तरह होते हैं मेरी डॉक्टरी सफल हुई।

न्यू ईयर करीब था मुझे आउटिंग के लिए बाहर जाना था, मैंने कहा-

"आंटी मुझे 8-10 दिनों के लिए बाहर जाना है अपना ख़्याल रखिएगा, कुछ आवश्यकता हो तो..." मैं कुछ कहता उससे पहले ही वह बोल पड़ी-

"डोन्ट वरी ...तुम एन्जॉय करो मैं डियर कुछ प्रोब्लम हुई तो मोबाइल है ना..."

31 दिसम्बर की रात को पार्टी से फ्री हुआ तो अपना मोबाइल खोला देखा आंटी का मेसेज था-"

"नए साल का सूरज नई रोशनी दे तुमको / चाही हर खुशियाँ दे रब तुमको / मिले अनंत आशीष / नए साल की खुशियाँ मुबारक हो तुमको...हैप्पी न्यू ईयर मेरे बच्चे! ..."

मेरा विश्वास और गहरा हो गया कि एक माँ अधिक दिनों तक अपने बच्चों से नाराज नहीं रह सकेगी।