शंकर-जयकिशन की जोड़ी और शारदा / जयप्रकाश चौकसे

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शंकर विवाहित थे, परंतु उनका दांपत्य जीवन बेसुरा था। अत: सुंदर शारदा पार्श्वगायिका बनने उनसे मिली तो दोनों के बीच अंतरंगता हुई।

सलीम खान साहब का कहना है कि शंकर जयकिशन की कुंडली में शुक्र की दशा इतनी मजबूत थी कि उन्होंने इक्कीस साल तक शिखर पद नहीं खोया। ‘बरसात’ (1949) से ‘मेरा नाम जोकर’ (1979) तक वे एकमात्र जोड़ी थी जो नायक से अधिक धन संगीत के लिए पाते थे। उन्होंने लोकप्रियता के साथ अभूतपूर्व माधुर्य गढ़ा। उन्होंने सिनेमा संगीत में ऑर्केस्ट्रा संयोजन में नई दिशा दी और भारतीय माधुर्य को पश्चिमी ऑर्केस्ट्रा से ऐसा जोड़ा कि उनकी धुनें देश-विदेश में गूंजी और ‘र्शी 420’ के गीत की एक पंक्ति को सार्थकता दी ‘दसों दिशाएं दोहराएंगी हमारी कहानियां’।

जब उन पर उनके खिसयाए हुए प्रतिद्वंद्वी ने कानाफूसी की कि यह सब पश्चिमी है तो शंकर-जयकिशन ने ‘बसंत बहार’ में ऐसी कमाल की शास्त्रीय धुनें दी कि नौशाद को उनके ही खेल में मात दे दी। बसंत बहार का ‘मनमोहना’ और ‘केतकी गुलाब जूही चमक बन..झूमो’ सदाबहार गीत हैं और यही शास्त्रीय करिश्मा उन्होंने ‘आम्रपाली’ में दोहरा भी दिया।

शंकर का जन्म 15 अक्टूबर 1922 को हैदराबाद में हुआ और गीत रचना में कई बार वे तेलगू शब्दों का प्रयोग भी करते थे जैसे ‘रम्मया वस्तावैया ये दिल मैंने तुझको दिया’ ‘श्री 420’ शंकर कभी स्कूल नहीं गए, परंतु उन्होंने कमसिन उम्र में ही ख्वाजा खुर्शीद अनवर से शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली और तबला वादन में वे पारंगत हुए। एक किस्सा यूं है कि बदनाम गली से गुजरते हुए उन्होंन तबायफ के कोठे से बेसुरे तबेले की ध्वनी सुनी और आव देखा ना ताव धड़धड़ाते वहां पहुंचे। तबायफ को ये नागवार गुजरा और उसने चुनौति दी कि वे तबला बजाएं तथा तबायफ नाचेगी। देखें कौन थकता है और शंकर ने ऐसा तबला बजाया कि चंद मिनट बाद ही तबायफ ने उनके पैर पर गिरकर माफी मांगी। कुछ ऐसा ही प्रकरण तुलसीदास के साथ भी हुआ जैसा कि अमृतलाल नागर के अमर उपन्यास ‘मानस का हंस’ में आप पढ़ सकते हैं।

एक तबायफ के कोठे पर तबला वादन के कारण स्वयं से खिन्न शंकर मुंबई आ गए। जहां सत्यनारायण और हेमवती की नाटक मंडली में तबला वादक बन गए और हेमवती के साथ ही पृथ्वी थियेटर आ गए। शंकर ही इत्तेफाक से गुजरात से आए हारमोनियम वादक जयकिशन से मिले तथा उसे भी उन्होंने पृथ्वी थियेटर में काम दिला दिया। इसी जगह राज कपूर ने उन दोनों से मुलाकात की और स्वयं संगीत में पारंगत होने के कारण राज कपूर ने उनकी प्रतिभा को आंका। राज कपूर की पहली फिल्म ‘आग’ का संगीत राम गांगूली ने दिया था और गीत लोकप्रिय भी हुए थे। अपनी दूसरी फिल्म ‘बरसात’ के लिए उन्होंने राम गांगूली के साथ एक धुन फाइनल की, परंतु कुछ दिनों बाद जब उन्हें मालूम पड़ा कि राम गांगूली ने वह धुन किसी और निर्माता को दी है तो उन्होंने राम गांगूली को हटाकर शंकर-जयकिशन के नाम की घोषणा की ‘आग’ बॉक्स ऑफिस पर साधारण रही थी और राम गांगूली लोकप्रिय ब्रान्ड था। अत: उनकी जगह दो युवा अनाड़ियों को लेने पर लोगों को लगा कि यह आत्महत्या करने की तरह है। परंतु ‘बरसात’ के गानों ने वह धूम मचाई की पूरी फिल्म की लागत संगीत रॉयल्टी से निकल गई।

उस दशक में लोकप्रियता का आंकलन अमीन सयानी द्वारा प्रस्तुत बिनाफा गीतमाला से होता था और ‘श्री 420’ तथा ‘चोरी चोरी’ के दौर में 16 में से 12 गीत शंकर-जयकिशन के होते थे। उन्होंने शम्मी कपूर से विभिन्न शैली का संगीत रचा। राजेन्द्र कुमार के लिए अलग किस्म की रचनाएं कीं। मेहमूद के लिए ‘काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं’ बनाया। उन्होंने अनेक बार प्रार्थना के बाद भी शशि कपूर के लिए संगीत नहीं दिया, क्योंकि उनके भारी मेहनताने को शशि कपूर अभिनीत फिल्म सहन नहीं कर सकती थी। बाद में ‘कन्यादान’ में संगीत दिया।

शंकर विवाहित थे, परंतु उनका दांपत्य जीवन बेसुरा था। अत: सुंदर शारदा पार्श्वगायिका बनने उनसे मिली तो दोनों के बीच अंतरंगता हुई और शारदा का गाया ‘तितली उड़ी’ सफल भी रहा, परंतु जयकिशन को शंकर की यह जिद पसंद नहीं थी कि शारदा को अधिक अवसर दें। वे दोनों तो इतने व्यावहारिक थे कि उनकी जो धुनें सोमित रेन्ज वाले उनके परम मित्र मुकेश नहीं गा सकते थे। उन्होंने असीमित प्रतिभा के धनी मन्नाडे को दी। यहां तक कि राज कपूर के लिए भी पार्श्व गायन मन्ना डे ने किया। मुकेश और राजकपूर के समझाने के बाद भी शंकर, शारदा के मोह से मुक्त नहीं हुए तो यह तय हुआ कि शंकर और जयकिशन अलग-अलग धुनें बनाएं। परंतु रिकॉर्डिंग पर दोनों मौजूद होंगे, ताकि बाजार की निगाह में जोड़ी बनी रहे। इस एक बेसुरे नोट के कारण एक महान धुन अधूरी-सी रह गई।

बहरहाल, सन 79 में जयकिशन की मात्रा 42 वर्ष की वय में निधन के बाद शंकर मानसिक संतुलन खो बैठे और ‘जोकर’ की असफलता के बाद उन्होंने राज कपूर की कटु आलोचना की कि वह फिल्म बनाना भूल गया। नतीजा यह हुआ कि ‘बॉबी’ में राज कपूर में लक्ष्मी प्यारे को लिया। शारदा के कारण घर में कलह का ऐसा वातावरण बना कि तन्हा शंकर की मृत्यु की सूचना पत्नी ने किसी को नहीं दी। 26 अप्रैल 87 को एक संजिदे से खबर मिलते ही राज कपूर शंकर के घर गए। उनकी अंतिम यात्रा की तैयारी उन्हीं के कर्मचारियों ने की। उस महान व्यक्ति की शव यात्रा में केवल दो सितारे आए। राज कपूर और राजेंद्र कुमार। यह आश्चर्य की बात है कि शवयात्रा जहां से गुजर रही थी, वहां किसी दुकान पर जयकिशन का बनाया अंतिम गीत ‘जिंदगी एक सफर है सुहाना’ बज रहा था। शंकर को इस तरह मरने के बाद भी जयकिशन ने आदरांजली दी।