शकर लिपटी और सादी कुनैन / जयप्रकाश चौकसे

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शकर लिपटी और सादी कुनैन
प्रकाशन तिथि :26 फरवरी 2015


श्रीराम राघवन और राजकुमार हीरानी पूना संस्थान में अध्ययन करते समय गहरे मित्र हो गए थे। स्नातक होेने के बाद श्रीराम राघवन द्वारा किराए पर लिए छोटे से फ्लैट में हीरानी तथा उनके अन्य चार संघर्षरत साथी रहने लगे थे। मुंबई में कम पैसों में किसी तरह वड़ा पाव खाकर गुजारा हो सकता है परंतु सिर पर छत हासिल करने में पैर के नीचे से जमीन खिसक जाती है। लंबे संघर्ष के बाद हीरानी को पूना संस्थान के विधु विनोद चोपड़ा के यहां नौकरी मिल गई और चोपड़ा ने ही उनकी 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' का निर्माण किया। इसी तरह चोपड़ा पहले संजय लीला भंसाली को काम दे चुके थे। दरअसल, पूना संस्थान के छात्रों के बीच एक भाईचारा है। पूना फिल्म संस्थान नेहरू की पहल पर 1961 में खुला और तीन दशक तक वहां पढ़े छात्रों ने सार्थक सिनेमा रचा, जिसमें विनोद चोपड़ा, सईद तथा अजीज मिर्जा, कुंदन शाह, केतन मेहता इत्यादि कुछ लोग रहे हैं परंतु सुना है कि विगत कुछ समय से यह संस्था छात्रों की दलगत राजनीति की शिकार हो गई है। हाल इतना खराब है कि जब यहां के छात्र शिवेंद्रसिंह डूंगरपुर ने संस्था के आर्काइव के सेवानिवृत्त अधीक्षक के जीवन पर वृत्त चित्र बनाया तो संस्था ने सहयोग नहीं दिया! सोचिए कि जिस संग्रहालय का संवरण दशकों तक नायर ने किया, उन्हीं को वहां प्रवेश की अनुमति नहीं दी गई। शिवेंद्रसिंह के वृत्तचित्र को अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले।

श्रीराम राघवन को 'एक हसीना थी' और 'बदलापुर' में सफलता मिली है और बॉक्स ऑफिस से अधिक समालोचना के क्षेत्र में प्रशंसा मिली है परंतु उनके सहपाठी हीरानी की चारों फिल्में सफलतम सिद्ध हुई और प्रशंसित भी रहीं। एक ही संस्था में प्रशिक्षित और गहरे मित्रों का काम और परिणाम इतना जुदा-जुदा क्यों हैं? परिणाम के कारण इन दो गुणी मित्रों के बीच कोई जलन का भाव नहीं है। यह अंतर दोनों की विचारशैली का अंतर है। उनके तौर-तरीकों के बीच बहुत अंतर है परंतु दोनों का ही उद्‌देश्य बेहतर सिनेमा है। राघवन सिने कला की ग्रामर को महत्व देते हैं, जिसका यह अर्थ नहीं कि वे कहानी को नजरअंदाज करते हैं और हीरानी कहानी पर अधिक जोर देते हैं। हीरानी ऋषिकेश मुखर्जी के स्कूल के फिल्मकार हैं और उस कहानी को बेहतर तकनीक से बनाकर विधा का श्रेष्ठ रूप बनाने में उनकी रुचि नहीं है। उनका ध्यान इस पर है कि कथा मानवीय गुण दोष को रेखांकित करे। मानवीय मूल्य उनका परम उद्‌देश्य है। इसका यह अर्थ नहीं कि राघवन इन मूल्यों को अनदेखा करते हैं। वे मनुष्य हृदय में छिपे हुए नकारात्मक प्रभावों को पकड़ते हैं और इस अंधेरे पक्ष को रोशन करते हैं। 'बदलापुर' में कातिल जेल में सड़ रहा है, बदला लेने वाला बाहर तप रहा है तथा बदले की भावना वाला व्यक्ति कातिल हो जाता है गोयाकि बुराई के खिलाफ युद्ध में स्वयं बुरा हो जाता है और कातिल बदला लेने वाले द्वारा की गई हत्याओं का दोष अपने सिर पर ले लेता है। व्यक्तित्व का यह उलटफेर ही फिल्म की आत्मा है। यह कोई कम बड़े आदर्श का संकेत नहीं है। यह भी मूल्यों के हृदय में जन्म और विकास को रेखांकित करता है। लिओनार्डो दा विंची की महान पेंटिंग 'लास्ट सपर' में क्राइस्ट एवं शैतान के लिए कुछ वर्षों के अंतराल में एक ही आदमी ने मॉडलिंग की थी। यह यथार्थ ही मनुष्य के दोनों रूपों का प्रतीक है।

राजकुमार हीरानी शकर के घोल में लपेटकर कुनैन खिलाते हैं और राघवन कुनैन को चबाने और मुंह में रखने को कहते हैं। अत: हीरानी का सिनेमा बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सभी दर्शकों को पसंद है और राघवन के सिनेमा दर्शक का वयस्क होना, सोच के लिहाज से वयस्क होना आवश्यक है। सारे विश्व के अधिकतर दर्शकों की औसत दिमागी उम्र बालपन या किशोर अवस्था तक सीमित है। दरअसल, कुछ लोगों के मन में बचपन किशोर अवस्था ताउम्र साथ-साथ मौजूद होती है। इस तरह राघवन भी सबसे मुखातिब हैं। विधु विनोद चोपड़ा विधा के मास्टर रहे हैं परंतु प्रारंभ से उनका उद‌्देश्य ऑस्कर रहा है, फिल्मफेयर नहीं परंतु उन्होंने हीरानी को हमेशा प्रोत्साहित किया है।

इसी तरह चेतन आनंद और विजय आनंद के सिनेमा में अंतर रहा है और वैष्णव स्वभाव के विमल राय तो मानवीय कथा को बिना तकनीकी तामझाम के प्रस्तुत करते थे। आज के फिल्मकारों के आर्श विजय आनंद हैं। दरअसल, गूढ़ और गहरी समस्याअों का सरलीकरण भारतीय सिनेमा की मूल धारा रही है। यह कबीरनुमा सिनेमा है।