शतरंज / लाल्टू

Gadya Kosh से
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जावेद ने काला घोड़ा उठाया और 'चेक' कहते हुए जैसे ही उसे वापस रखा, इलेक्ट्रानिक संगीत का धुन सुनाती घंटी बजी। शहनाज़ ने घंटी को अनसुना करते हुए नाऱाजगी प्रकट करते हुए कहा, “तुम फिर जीतने लगे, इस बार मुझे जीतना है।”

जावेद ने आगे बढ़कर शहनाज़ के कंधों पर अपनी बाहें रखीं और उसका माथा चूमते हुए बोला, “चलो, यह तो अब खत्म हो ही गया - कोई आया है, दरवाजा खोलते हैं, कह कर वह खुद ही दरव़ाजा खोलने गया।

शहनाज़ ने थोडी देर पहले रुआँसा सा चेहरा बनाने का नाटक जरूर किया था, पर वह खुश थी। कई दिनों बाद जावेद उसके साथ शतरंज खेलने बैठा था। इन दिनों बड़ी मुश्किल से वह शतरंज खेलने को राजी होता था। शहनाज़ ने गौर किया था कि वह किसी अजीब से तनाव में फँसा हुआ लगता था। शतरंज खेलते हुए उसे जावेद की निकटता का अहसास बहुत अच्छा लगता, इसलिए वह छुट्टियों के दिन हमेशा ज़िद करती कि वे शतरंज खेलें।

दरवाज़ा खोलते ही परिचित चेहरे देखकर जावेद ने कहा, “अरे, तुम लोग ! आओ, आओ !”

“हाँ, बस खाना खाकर सोचा कि ज़रा घूम आएं - इधर से निकल रहे थे तो सोचा कि देखें तुम लोग अँधेरा होने पर क्या बदमाशियाँ करते हो”, हँसते हुए सुकांत ने कहा। साथ में उसकी बीबी नवनीता खड़ी मुस्करा रही थी।

“चालिए, अच्छा हुआ, आप आ गए, नहीं तो ये साहब मुझे फिर मात देने वाले थे”, शहनाज़ ने नखरा करते हुए कहा।

“मात – क्या मतलब ?” नवनीता ने पूछा।

“अरे, खुद ही कहा कि चलो शतरंज खेलें, अब खुद ही शिकायत करती हो ! अजीब हो तुम भी ।” जावेद ने अपनी ओर से तर्क पेश किया।

“अच्छा, यह बात है, यानी आप लोग फिर शतरंज खेल रहे थे,” सुकांत हंसते हुए बोला। जावेद थोड़ा सा तन गया। सुकांत उसका बॉस है। वे दोनों नई बनाई गई शोध संस्था "नानलीनियर डायनामिक्स रीसर्च इंस्टीच्यूट” में काम करते हैं। दोनों विदेश में अध्ययन कर चुके हैं। सुकांत ने विदेश में ही शोधकार्य कर पी एच डी की डिग्री ली और फिर पाँच साल विदेशी शोध संस्थानों में नौकरी की, जबकि जावेद ने बंगलूर में ही डाक्टरेट का काम किया और इसके बाद दो साल विदेश में उच्चतर अध्ययन के लिए गया। वहां से लौटकर जब वह वापस आया तो सुकांत से परिचय हुआ। तब से दो साल बीत चुके हैं। इन दो सालों में सुकांत और जावेद के रिश्ते में काफी परिवर्तन आया है। दो साल पहले औपचारिकता केवल दफ्तर तक सीमित थी, अब वह दफ्तर के बाहर भी घर व परिवार तक घुस आई है, हालांकि दोनों ओर से ही मित्रवत् व्यवहार का दिखावा रहता है। जावेद को यह अच्छा नहीं लगता, पर विकल्प तो कुछ है नहीं। नई संस्था है, अभी अकादमिक स्टाफ में केवल बीस ही लोग हैं। रिहायशी मकानों का एक बड़ा कैंपस शहर के कोने में बीस एकड़ की जमीन पर विशेष तौर से उनकी संस्था के लिए बनाया गया है। उसमें एक ओर डायरेक्टर के बंगले में सुकांत रहता है। उससे थोड़ी दूर पर तीन मंजिला आठ मकान बने हैं, जिनमें जावेद और उसके साथी शोधकर्ता रहते हैं। दूसरे कोने में निचले तबके के कर्मचारियों के लिए आवास व्यवस्था है, जो संख्या में कुल पंद्रह हैं। ऐसे में चाहे अनचाहे हर दूसरे तीसरे दिन दफ्तर के बाहर पारिवारिक मुलाकातें होती ही रहती हैं।

“ अच्छा, तो यह थी हालत आपकी - भाई साहब, अभी भी शहनाज़ पीट सकती है! कहीं तुमने सचमुच तो नहीं समझ लिया कि तुमने शह दे ही दी ? सुकांत और नवनीता उनके बेडरूम में आ गए थे और पलंग पर बिछे शतरंज के मुहरों को देख रहे थे।”

“अरे नहीं ! मैं तो बस यूँ ही खेल रहा था। मुझमें जीतने की कोई मंशा ही नहीं थी”, जावेद झेंपते हुए बोला।

”ओ, कम आन यार, खेल तो जीतने के लिए ही खेले जाते हैं,” सुकांत बोला, “वैसे तुम शायद इन दिनों आसिलेशन वाले पेपर के बारे में ही हमेशा सोच रहे होंगे।”

जावेद मन ही मन कुढ़ने लगा। ऊपर उसने कोई प्रतिक्रिया न ज़ाहिर की। दर असल वह इसी के लिए इंतजार कर रहा था। अब धीरे धीरे सुकांत दफ़्तरी कामकाज के बारे में और पूछताछ करेगा। पर तुरंत इससे अधिक कुछ वह नहीं कहेगा। जावेद को लगता है कि सुकांत के ये "कैज़ुअल” सवाल दरअसल खोजी बाण हैं, जिससे उसे और गहराई से पता चले कि कौन कितने पानी में हैं, हालांकि संस्था के संचालक के रूप में उसका काम है सबको अच्छे काम के लिए प्रोत्साहित करते रहना और उनके शोधकार्यों के लिए उचित संसाधनों का इंतजाम करना।

जावेद यह सब सोचता हुआ भी मुस्करा रहा था। उसे मुस्कराते देख नवनीता बोली "इनको तो बस हर कोई अपने जैसा ही दिखता है। भला जावेद तुम्हारी तरह क्यों होने लगा - उसे अपनी बीबी का ख्याल हर वक्त रहता है। हर कोई तुम्हारे जैसा जड़ नहीं है।”

“ओ कम आन डीयर!” सुकांत ने मुंह बनाया।

”ऐसा है कि हम तो बिल्कुल नोविस हैं, बस यूँ ही खेल लेते हैं। खेल के नियम मालूम हैं, ठीक ठाक चालें चल लेते हैं; नहीं तो हम लोगों को हार जीत क्या .... इस पर तो ढंग से कभी सोचा तक नहीं है।”

”अरे, उस तरह के लोग तो बहुत कम ही होते हैं, जो इतनी गंभीरता से खेलते हैं; हमने भी कोई खास अध्ययन थोड़े ही किया है ! बस शौक से खेला करते हैं।

जावेद को मालूम है कि सुकांत यह सब सिर्फ औपचारिकता निभाने के लिए कह रहा है। उसने उनके घर शतरंज की किताबें देखी हैं। एक दफा जब अनुदान सम्बन्धी काग़जात पर चर्चा करने के लिए वह डायरेक्टर के कमरे पहुंचा तो सुकांत को किसी विदेशी पत्रिका में प्रकाशित शतरंज पहेली का हल करते हुए पाया। जावेद ने कभी भी शतरंज की चालों को दर्शाने के लिए बनाए चित्रों या उसकी भाषा को समझने की कोशिश नहीं की थी, इसलिए उसके लिए तो इस तरह का अभ्यास असंभव ही है। पर सुकांत की इसमें गहरी रुचि है। विदेश में कार्यरत समय में और बाद में भी सुकांत कई बार छोटी बड़ी अवधियों के लिए रूस और पूर्वी यूरोप गया है। वहां किस तरह उसने अलग अलग लोगों से शतरंज की चालें सीखीं, इसके किस्से भी जावेद सुकांत से कई बार सुन चुका है। जावेद में भी समय के साथ कई शौक पनपे, पर शतरंज और दूसरे घरेलू खेलों में उसका कभी भी गंभीर रुझान नहीं हुआ।

”आप लोग कॉफी पीएंगे ?” शहनाज़ ने अतिथ्य निभाते हुए कहा।

“नही, बस ... वैसे यह तो बतलाओ कि आमतौर से तुम लोगों में कौन अधिक जीतता है?” सुकांत का दिमाग शतरंज से हट नहीं रहा था।

“मैं ...” शहनाज़ ने हंसते हुए कहा। जावेद ने क्षणभर के लिए उसकी ओर गंभीरता से देखा। शहनाज़ की आँखों में शैतानी थी। नवनीता उन दोनों का यह नखरा देखकर मुस्करा रही थी।

”वैसे जावेद साहब ने कइयों को बड़ी आसानी से हराया है”, शहनाज़ ने मानो जावेद को खुश करते हुए कहा, ”तुम बतलाओ इन्हें कि हरवंत को कैसे चार ही चालों में तुमने मात किया था।"

“चार ही चालों में ? कैसे यार ?” सुकांत की उत्सुकता असली थी या नकली, कहना मुश्किल था। पर जावेद ने उत्साह से कहा, ”वैसे तो कम से कम तीन चालों में भी मात हो सकता है, बशर्ते दूसरा खिलाड़ी सावधान न हो।”

”हां, हां, इसे शायद फूल्स मेट कहते हैं। वैसे चार चालों वाला मूव क्या था तुम्हारा ?”

“बस यही - हाथी वज़ीर से तीन चालों में और....”, जावेद शतरंज के बोर्ड पर उंगलियों से चालें दिखाता हुआ बोला, “अगर हाथी की जगह घोड़े का उपयोग किया जाए तो एक चाल और बढ़ जाती है।

”अच्छा, अच्छा, यह भी एक प्रकार का फूल्स मेट ही है। इस तरह के कई मेट हो सकते हैं।"

“तो आप लोग खेलिए न एक गेम ! ” शहनाज़ ने सरलतापूर्वक कहा, पर जावेद को बड़ी कोफ़्त हुई। उसे मालूम है कि सुकांत के साथ खेलने का कोई मतलब नहीं है और सुकांत के साथ खेल हो सकता है? सुकांत के लिए तो हर खेल जंग ही है।

उसे उसके ओहदे, उसकी सत्ता ने बहुत पहले खा लिया है। अब वह केवल नम्र मुस्कानों और गर्दन हिलाने वाली अदाओं से प्रोग्राम किया हुआ एक यंत्रमानव है। मानवीय अगर कुछ उसमें है, वह केवल सोई हुई हिंसा, ईर्ष्या और स्पर्धा का मिला जुला स्वभाव है। ऐसा सोचते हुए जावेद न सिर झुका लिया। उसे अपने पुराने साथी अपरेश की बहुत याद आई, जो उसके साथ ही वैज्ञानिक डी पद पर नियुक्त हुआ था। सिर्फ इसलिए कि सुकांत के साथ उसके राजनैतिक विचार नहीं मिलते थे और इसके फलस्वरूप शोध कार्यों के विषय और दिशा के बारे में उनके मतभेद थे, सुकांत ने अपरेश को क्रमबद्ध ढंग से तंग करना शुरू किया। फिर एक दिन अपरेश के साथ टेबल टेनिस खेलते हुए सुकांत ने उसे बतलाया कि उसके लिए तय किए गए अनुदानों को रोका जा रहा है। अपरेश ने जावेद को यह सब बतलाते हुए कभी नपुंसक शेर जैसे विशेषणों से सुकांत का उल्लेख किया था। अपरेश साल भर सुकांत से लड़ता रहा, फिर शोध कार्य को तिलांजलि देकर वह एक स्वैच्छिक संस्था के साथ काम करने लगा था।

शहनाज़ के सुझाव को नम्रतापूर्वक स्वीकार करते हुए सुकांत ने कहा, ”हां, हां, क्यों नहीं ? !”

“मैं कॉफी बना ही लाती हूं ”, शहनाज़ रसोई की ओर चली गई। नवनीता ने किताबों की अलमारी से कोई किताब निकाल ली थी और ध्यान स उसके पन्नों को पलट पलट कर देख रही थी। सोने से पहले जावेद को कुछ देर पढ़ते की आदत थी, इसलिए किताबों की एक छोटी अलमारी इस कमरे में भी थी।

नवनीता की ओर देखते हुए जावेद ने मन ही मन सोचा - कैसी होगी नवनीता की जिंदगी? नवनीता एक स्थानीय कॉलेज में इतिहास पढ़ाती है, पर उसके साथ कभी भी कोई गंभीर चर्चा जावेद नहीं कर पाया। कभी कभी पूछने की कोशिश की है कि नवनीता का रुझान किस तरह के विषयों पर है, पर उसे सतही जवाब ही मिले हैं। उसकी तुलना में शहनाज़, जो महज़ अखबारों में लेख लिखती है, कितनी अधिक जागरूक और बौद्धिक रूप से सक्रिय लगती है।

”मैं भी इन दिनों तुम्हारे प्रॉबल्म के बारे में सोच रहा हूं; तुमने इस पर जो प्रपोज़ल तैयार किया था, उसे डीएसटी भेजना है ..।”

”आं.... हां ! “ जावेद को अचानक ख्याल आया कि उसे नवनीता की ओर इस तरह अभिभूत सा होकर एक टक देखना नहीं चाहिए था।

“... उसकी दस प्रतियां और बनवा लेना ...।”

शहनाज़ कॉफी ले आई। जावेद ने मन ही मन राहत महसूस की।

”अरे ! आप लोगों ने शुरू नहीं किया अभी तक ? ओ हो, चलिए शुरु कीजिए !”

जावेद ने एक बार फिर टालने की कोशिश की - ”क्यों पीछे पड़ी हो, जानती तो हो कि सुकांत खेल में माहिर है और मैं तो बस तुम्हारे साथ ही खेल सकता हूं।"

”ओ कम आन जावेद – बी ए स्पोर्ट !”

आखिरकार मुहरे शहनाज़ ने सजा दिए। जावेद भी अनमने ढंग से बैठ ही गया। सुकांत शुरू से ही गंभीर हो गया। नवनीता ने सुकांत के दाएँ कंधे से अपना सिर टिका दिया। वे सब पलंग पर बैठे थे। जावेद को अचानक वातावरण बड़ा नाटकीय लगने लगा। उसे एक मजाक सूझा - क्यों न इस पूरे खेल को एक मजाक बना दिया जाए। वह यूँ ही मुहरे आगे पीछे करने लगा। उसकी हर चाल पर सुकांत की भौंहें चढ़तीं। नवनीता भी अब सीधी बैठ गई । शहनाज बीच बीच में ”अरे ! प्यादा नहीं, घोड़ा बढ़ाओ... ” आदि कहती जा रही थी। नवनीता भी हल्की आवाज़ में सुकांत को सलाहें दे रही थी। जावेद को लगा जैसे भीड़ भरी शहर की एक सड़क पर वह अचानक लोगों के ऊपर से उड़ता जा रहा हो। उसे इस विनोद में इतना मज़ा आ रहा था, उसकी इच्छा हुई कि वह जोर से कोई गीत गा उठे। दरअसल उसके दिमाग में जमैका के एक 'रेगे' ग्रुप यू बी फार्टी का एक गीत गूंजने लगा, “ओ चीरी ओ, चीरी ओ बेबी ! डोंट यू नो आयम इन लव विद यू .... ?” उसने सोचा ज़िंदगी ऐसे ही जी जाती है। बस किसी को पता नहीं चलना चाहिए कि तुम नाटक कर रहे हो ! बड़ी सावधानी से अपने भावों को दबाता वह गंभीर मुद्रा में मुहरे हिलाते रहा।

अचानक उसने अपना एक हाथी ऐसी जगह रख दिया, जहां सुकांत उसे तुरंत मार सकता था। चाल चलने के तुरंग बाद जावेद को अपनी गलती का अहसास हुआ। शहनाज़ बोल उठी, “अरे ! अरे ! यह क्या किया तुमने ?”

जावेद ने एक बार अपने उस हाथी को देखा, जो अब थोड़ी ही देर में बोर्ड से उठने ही वाला था। उसे लगा कि सुकांत तुरंत उसे कहने वाला है कि चलो वापस ले लो... सुकांत उस हाथी की ओर देखकर कुछ सोच रहा था। जावेद को क्षणभर के लिए परेशानी सी हुई। मानो वह किसी भीड़ में फँस गया हो और निकल न पा रहा हो। उसने खुद को सँभाला और जल्दी से कहा, “कोई बात नहीं शहनाज़ ! चाल चली गई , अब नहीं उसको उठाते !”

सुकांत ने बिना कुछ कहे उस हाथी को अपने घोड़े से मार दिया। जावेद को बचपन में पढ़ी प्रेमचन्द की कहानी "गुल्ली डंडा” याद आ गई, जिसमें गांव का एक गरीब एक शहरी अफसर से गुल्ली डंडा खेतले हुए जानबूझ कर हार जाता है, सिर्फ इसलिए कि वह गरीब है और कमजोर है ! क्या जावेद भी जानबूझ कर हार रहा है, सिर्फ इसलिए कि सुकांत दफ़्तर में उससे अधिक ताकतवर है? इस ढंग से परिस्थिति को सोचते ही जावेद में भीतर कहीं विरोध की प्रबल भावना उमड़ने लगी। उसने सुकांत की चालों पर गंभीरता से ध्यान देना शुरू किया।

सुकांत ने जावेद की गलती का फायदा तो उठाया, पर वह वाकई कोई गलती थी या जावेद की कोई गहरी चाल - इसका अंदाजा लगाने में वह असफल रहा। अब तक जावेद के खेल से वह समझ नहीं पा रहा था कि जावेद आखिर कर क्या रहा है। शतरंज में जावेद निरा नासमझ होगा, ऐसा उसके दिमाग में एक बार भी नहीं आया।

“कास्लिंग कर लो अब तुम”, नवनीता बोली।

सुकांत जैसे यह सोच ही रहा था, उसने झट से अंतरराष्ट्रीय नियमों का फायदा उठाते हुए किलाबंदी कर ली। जावेद ने एक बार फिर अपनी पिटी हालत देखते हुए सोचा कि वह अब जल्दी मुहरों को इधर उधर कर किसी तरह सुकांत को शह मौका दे दे। तभी अचानक उसने अपने वजीर को दाएं कोने में तीसरी कतार के तीसरे खाने में खड़ा देखा। उसने मन ही में एक रणनीति बनाई और अपने बचे हुए हाथी को वजीर के पीछे खड़ा कर दिया।

इसके बाद फिर एक बार जावेद की चालों में पहले जैसी विश्रृंखलता दिखलाई पड़ने लगी। पर अब उसके दिमाग में एक स्पष्ट रणनीति थी। उसने मन ही मन सोच लिया था कि सारे अंग धीरे धीरे कट जाएं, जब तक दाएँ हाथ की उंगलियाँ सुरक्षित हों और हाथ में पिस्तौल थमी हो, तब तक वह मैदान में है। बस जरूरत यह है कि गोली को शिकार तक जाने का रास्ता चाहिए। उसके मुहरे एक एक कर गिरते जा रहे थे, वह निश्चिंत होकर अपने राजा का बचाव करता हुआ खेलता रहा। अचानक सुकांत ने देखा कि जावेद का एक प्यादा उसके, घोड़े को मारने वाला है - उसने जल्दी से वहाँ से घोड़ा हटा लिया। जावेद ने देखा कि उसके वजीर के आक्रमण के लिए रास्ता खाली हो गया था।

खेल जब खत्म हुआ, सुकांत जोर जोर से हंस रहा था। वह उठ खड़ा हुआ था और चलने की अदा में यूं खड़ा था जैसे खेल जब खत्म हो ही गया और बाकी तो कुछ है ही नहीं - अब चलना चाहिए। नवनीता झेंपती हुई मुस्करा रही थी। शहनाज़ बार बार "हाऊ डिड यू डू इट ?” चीख रही थी।

जावेद कुछ सोचता हुआ मुस्करा रहा था।

सुकांत ने कहा, “दैट वाज़ अनादर फूल्स मेट !”

दरवाजे पर जावेद को लगा कि सुकांत जाते जाते उस प्रपोजल पर फिर कुछ कह कर जाएगा - पर सुकांत ने सिर्फ एक बार उसकी आँखों में आँखें गड़ाई और वह और नवनीता "बाई” और "गुड नाईट” कह कर चले गए।

शहनाज़ अभी भी खिलखिलाकर हंम रही थी - “तुमने देखा, नवनीता किम तरह उसे सपोर्ट कर रही थी ?”

जावेद ने मकान के दूसरी ओर पार्क के किनारे लगे मोरछली के पेड़ों को देखा - पत्ते हवा में हिल रहे थे। उसे लगा शहनाज़ मोरछली के पीले फूलों की तरह सुंदर और साफ है। वह मुस्कराता हुआ अंदर मुड़ा और दरवाज़ा बंद कर शहनाज़ को बाँहों में लेते हुए बोला, “ तुम क्या मुझे सपोर्ट नहीं कर रही थी ?”

घंटे भर बाद बिस्तर पर शहनाज़ के बालों पर हाथ फेरते हुए जावेद खिड़की से बाहर ताक रहा था और सोच रहा था कि अगर सचमुच बेफिक्र होकर जिंदगी के सभी मुहरों को इंसान इच्छानुसार चला सकता, तो कितना बढ़िया होता। बाहर अंधेरे में मोरछली के पेड़ की डालियां हल्की हल्की हिल रही थीं।

अभी उसे वह रात बितानी थी, जिसमें उसे सुकांत के सात शोध अनुदान के लिए प्रपोज़ल पर बहसें करते सपने आने थे।