शफ़ाखाना, दवाखाना, तहखाना / जयप्रकाश चौकसे

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शफ़ाखाना, दवाखाना, तहखाना
प्रकाशन तिथि : 11 जुलाई 2019


अपनी आगामी फिल्म में सोनाक्षी सिन्हा अभिनीत पात्र के पुरखे खानदानी शफाखाना संचालित करते रहे हैं और अब यह उसका उत्तरदायित्व है कि वह इसे सक्रिय रखे। पुरुषों की कमजोर नस का इलाज इस शफाखाने में किया जाता है परंतु किसी स्त्री के हाथ पुरुष अपनी नब्ज़ दे यह बात पुरुष शासित समाज को हजम नहीं होती। इसी ताने-बाने में एक प्रेमकथा भी गुंथी हुई है। 'विकी डोनर' के बाद सामाजिक लिहाफ के नीचे छुपी बातें सिनेमा के परदे पर प्रस्तुत की जा रही हैं। दक्षिण भारत में बनी एक फिल्म का हिंदी संस्करण आनंद एल. राय ने 'शुभ मंगल सावधान' के नाम से बनाया था। हास्य प्रस्तुतीकरण के कारण भद्र समाज को कुछ भी अभद्र नहीं लगा।

दरअसल, जिस्म में खोजी जा रहीं ये बीमारियां अवचेतन की स्याह कंदरा में छुपी बैठी रही हैं। दीपा मेहता की फिल्म 'फायर' इस शृंखला की पहली फिल्म रही। प्रकाश झा की एक फिल्म में इसका सूक्ष्म संकेत दिया गया था। सदियों पूर्व वात्स्यायन की 'कामसूत्र' में इसका विवेचन किया गया है और उसी कालखंड में चीन में भी इसी तरह की किताब लिखी गई थी। लेखक सर रिचर्ड बर्टन ने 19वीं सदी के अंतिम चरण में लंदन में कामसूत्र संस्था के संगठन द्वारा धन एकत्रित करके कामसूत्र का अनुवाद अंग्रेजी भाषा में करवाया था और पश्चिम में इस विषय का 'सूर्योदय' हुआ था। कुछ दशक बाद अमेरिका में विधिवत अध्ययन प्रारंभ हुआ और किन्से रिपोर्ट ने तहलका मचा दिया, जिसके आणविक विकिरण का प्रभाव देर तक कायम रहा है। इस संबंध में त्रासद तथ्य है कि अधिकांश औरतें निर्मल आनंद से वंचित ही रह जाती हैं।

गौरतलब यह है कि इन गुप्त रोगों के तथाकथित इलाज के विज्ञापन प्राय: शहरों की दीवारों पर लिखे होते हैं गोयाकि हम सरेआम उजागर भी होते हैं तो सहम सहम कर ही। प्राय: जड़ी-बूटी के नाम पर प्लेसेबो ही दिया जाता है। प्लेसेबो का अर्थ यह है कि दवा के कैप्सूल को खाली करके उसमें शकर भर दी जाती है और मजे की बात है कि रोगी का उपचार भी हो जाता है, क्योंकि अधिकांश रोग विचार प्रक्रिया से ही आरंभ होते हैं परंतु कुछ रोग आनुवांशिक भी होते हैं। रोग से बड़ा रोग का हौवा होता है। ज़हालत की हद है कि जख्म पर गीली मिट्‌टी का लेप लगाया जाता है। शरीर में स्वयं को दुरुस्त करने की नैसर्गिक क्षमता है और सफलता का सेहरा किसी और के सिर बांधा जाता है। शरीर की गाड़ी का मैकेनिक स्वयं शरीर ही होता है। कुछ लोगों का जीवन ऐसी सड़क की तरह होता है, जिस पर मरम्मत होती रहती है और इसी दरमियान आवागमन भी जारी रहता है।

हमारे स्कूली पाठ्यक्रम में इसे विषय के रूप में शामिल नहीं किया गया है, जबकि कमसिन उम्र में ही अज्ञान का प्रहार मारक सिद्ध होता है। इसी विषय पर इरविंग वैलेस का उपन्यास 'सेवन मिनट्स' रोशनी डालता है। पश्चिम के लेखकों के दफ्तर में उसके निर्देश पर कुछ लोग सतत शोध करते रहते हैं। लेखक इस शोध से अपने काम की जानकारी को मनोरंजन ढंग से लिखता है। इतना ही नहीं 'बेस्ट सेलर' का भी विधिवत उत्पाद होता है। स्टीवन स्पिलबर्ग ने पहले 'जुरासिक पार्क' पर एक बहुत बिकने वाली किताब लिखवाई। बाद में बड़े समारोह में किताब के फिल्मांकन के अधिकार खरीदे। इस सबके साथ ही कारखानों में 'जुरासिक पार्क' फिल्म निर्माण साधनों के उत्पादन के साथ ही उसके खिलौनों का उत्पादन भी होता रहा ताकि फिल्म प्रदर्शन के समय ही जुरासिक खिलौने भी बाजार में उपलब्ध हो जाएं। इसी तकनीक का इस्तेमाल चुनाव आधारित राजनीति में भी हो रहा है। ठप पड़ी व्यवस्था को प्रचार के लिहाफ के नीचे छिपा दिया गया है और पहले ही यकीन करने पर तुले हुए अवाम को प्लसेबो से ही लाभ मिल रहा है। यह दीमक दिखाई नहीं देती परंतु जड़ों को खोखला बनाती है। सामूहिक अवचेतन के तहखाने में अंधविश्वास के जाले हैं, कुरीतियों की चमगादड़ उलटी लटकी हुई हैं। ये सब रात तहखाने में गुजारती हैं और दिन में गरिमामय भवनों के गलियारों में डोलती हैं, जिन्हें सामाजिक व्यवहार का मानदंड बनाकर अवाम को विचारहीन भीड़ में तब्दील किया जाता है। किसी डॉक्टर के नुस्खे से मरीज को आराम मिलता है तो कहते हैं कि डॉक्टर के हाथ में शिफा है।