शब्द- चितेरे : चन्द्र कुँवर बर्त्वाल/ कविता भट्ट

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(हिन्दी साहित्य में गढ़वाली लेखन के विशेष सन्दर्भ में)

संस्कृत के कोई विद्वान् अत्युत्तम लिख गए हैं –

जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः ।

नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम् ॥

अर्थ-सत्कर्म करने वाले ,काव्यशास्त्र में कुशल और कवियों में श्रेष्ठ , वे ही व्यक्ति सही जीवन जीते हैं और विजयी होते हैं; जिन्हें अपने यश तथा शरीर की चिन्ता नहीं होती है और न ही वृद्धावस्था और मृत्यु का भय होता है। उपर्युक्त उक्ति गढ़वाल की हरी-भरी पर्वत-शृंखलाओं का गौरव हिंदी साहित्य जगत में स्थापित करने वाले हिंदी के रससिद्ध कविवर श्री चन्द्र कुँवर बर्त्वाल के जीवन पर सटीक है। श्रीमती जानकी देवी तथा श्री भूपाल सिंह के सुपुत्र कविवर चन्द्र का जन्म 20 अगस्त, 1919 को गढ़वाल के (तत्कालीन चमोली. गढ़वाल उ प्र), वर्तमान रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड की तल्ला नागपुर पट्टी के ग्राम मालकोटी में हुआ। इनके पिता अध्यापक एवं माता गृहिणी थी। इनकी प्राथमिक शिक्षा प्राथमिक विद्यालय उमडांडा से तथा इन्होने नागनाथ पोखरी से मिडिल उत्तीर्ण किया। इनका काव्य-लेखन इसी समय प्रारंभ हो चुका थाय जिसने कालांतर में इन्हें प्रकृति के चितेरे एवं शृंगार के उत्कृष्ट कवि के रूप में प्रतिष्ठित किया। गढ़वाल के मध्यमवर्गीय परिवार से होते हुए भी ये उस समय अपनी शिक्षा के प्रति जागरूक थे। इसी कारण इन्होंने हाईस्कूल म्यासमौर पौड़ी और इण्टरमीडिएट डी. ए. वी. कॉलेज, देहरादून से उत्तीर्ण किया, तत्पश्चात इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय का वातावरण साहित्यिक एवं विद्वत्तामय था, जिस कारण ये अनेक विद्वानों के संपर्क में आए। इस प्रकार इनकी बौद्धिक एवं शैक्षिक संवेदनशीलता का और भी अधिक विकास हुआ। साहित्य जगत के प्रसिद्ध कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला और प्रसिद्ध कथाकार यशपाल जी इनके सबसे अच्छे मित्रों में थे। भारतीय दर्शन, इतिहास और ज्योतिष में इनकी विशेष रुचि थी। इतिहास विषय में स्नातकोत्तर करने हेतु इन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया: किन्तु उसी समय इन्हें क्षय रोग हो गया। मैदानी भाग की जलवायु गर्म थी और उससे इनके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा था; इसीलिए ये अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर अपने जन्मस्थान लौट आए ।

उस समय गढ़वाल में बहुत कम विद्यालय थे इसलिए गढ़वाल लौटने के उपरांत अपनी बौद्धिक क्षमता का परिचय देते हुए इन्होंने अपने क्षेत्र के गरीब बच्चों के लिए विद्यालय की स्थापना की। इस विद्यालय में वे प्रधानाध्यापक के रूप में कार्य कर रहे थे तथा उनके कुछ साथी भी शिक्षण और प्रबंधन में उनका साथ दे रहे थे। नैतिक सिद्धांतों का अनुपालन करने वाले चन्द्रकुँवर का प्रबंधन कार्य में अपने साथियों से मतभेद हो गया, जिसके कारण इन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। इस विचार भिन्नता को अपनी कविता में इन्होंने इस प्रकार व्यक्त किया.

अब पुराना साथ छूटा काल ने मुझको अहा! इस तरह लूटा,

अब जुटे कैसे अनोखे साथ वाले, कर्म काले और जिनके हृदय काले।

इनकी अस्वस्थता को देखते हुए इनके पिता ने इनके लिए रुद्रप्रयाग शहर से 32 किलोमीटर दूर मन्दाकिनी नदी के दाहिने किनारे पर पँवालिया नामक स्थान पर निर्मित करवाया। इसी समय इनकी बहिन की क्षयरोग के कारण मृत्यु हो गई। इस दु:खद घटना पर इनका कवि-हृदय रो पड़ा और इन्होंने लिखा-

तुम मलिन क्यों हो गयी प्रिय चंद्रिके!

आज तुमको देख पता खेतों में खड़ी।

किस व्यथा से इस तरह धुँधली पड़ी,

मैं व्यथा से मलिन मन हूँ चंद्रिके।

वंशानुगत इस क्षय रोग के कारण इनके अंतिम दिन पँवालिया में ही गुजरे। ये इनके जीवन के अंतिम दिन थे; किन्तु हिंदी साहित्य जगत को सबसे स्वर्णिम रचनाएँ इन्होंने इसी अंतिम समय में दी। इसी समय इन्होंने अपने प्रिय मित्र यशपाल को पत्र लिखा, “ मैं मृत्यु शय्या पर पड़ा हुआ हूँ, 26-27 दिन में जो भी लिख सकूँगा ,आपको भेज दूँगा।” इस प्रकार 14 सितम्बर 1947 को भरपूर जवानी में हिमालय-वाटिका और हिंदी साहित्य की फुलवारी का यह अधखिला फूल इस कठोर और नश्वर जगत को छोड़कर चला गया। यह फूल अपनी अनंतकाल तक प्रसारित सुगंध छोड़ गया। यह फूल अपने पीछे छोड़ गया गीतों और कविताओं का अतिसुगन्धित पुष्पहार। इस गीतमाला को आज भी प्रबुद्धवर्ग एवं जन सामान्य गुनगुना रहा है। बहुत छोटे से जीवन में इन्होंने अपने व्यक्तित्व को विराट बना देने वाले गीतों की रचना की ,जो इनके सुकोमल हृदय से परिचित करवाती हैं-

मुझे प्रेम की अमर पुरी में अब रहने दो

अपना सबकुछ देकर कुछ आँसू लेने दो।

मेरे पास इतना आज इतना धन है देने को

नए फूल हैं पाँवों के बीच बिछने को

नए मेघ हैं, नई चाँदनी है नव यौवन

निर्मल मन है और स्नेह से छल-छल लोचन

प्रेम में विरह सहकर आँसू-आँसू बहने दो

मुझे प्रेम की अमर पूरी में अब रहने दो

चन्द्र कुँवर संगीत में भी गहरी रुचि रखते थे। ये सितार और बाँसुरी बहुत अच्छी बजाते थे। इन्होंने अपनी शिक्षा-दीक्षा के ही समय से से ज्योतिष का भी गहन अध्ययन किया। उस समय गढ़वाल क्षेत्र में ज्योतिष केवल ब्राह्मणों की ही धरोहर माना जाता था; किन्तु ऐसा होते हुए भी इनके पास गढ़वाल क्षेत्र के कोने-कोने से सैकड़ो लोग जन्मकुंडली दिखवाने आते थे, जबकि ये क्षत्रिय जाति के थे। ऐसी किंवदंती है कि इन्होने अपनी कुंडली में अल्पायु योग देख लिया था; इसलिए इन्होने विवाह नहीं किया, जबकि इनकी कोई प्रेमिका थी ,जो लोगो के लिए अज्ञात थी। इनकी कविताओं में इस अज्ञात प्रेमिका की झलक इस प्रकार मिलती है.

खिलने को है व्याकुल होता इन प्राणों में कोई

अहा! एक दिन कितने निकट सरस वह मुख था

अपने प्रेम को वे निम्नांकित शब्दों में व्यक्त करते हैं-

व्यक्त मैं यदि प्रेम करता, तुम्हें जीवन रुदन होता

जब तुम्हारे वक्ष में मैं किसी मधुमती निशा में

प्राण अपने छोड़ देताए तुम्हे जीवन रुदन होता

वक्ष में छिपाए रहा अपनी व्यथाएँ.

कविवर कुँवर पर अंग्रेजी कवि कीट्स और शैली का प्रभाव भी था। हिंदी साहित्य जगत में प्रकृति प्रेम पर आधारित सुमित्रानंदन पन्त जैसी ही उत्कृष्ट रचनाएँ करने वाले चंद्रकुँवर का जीवन काल यद्यपि अत्यंत छोटा था, तथापि उन्होंने अत्यंत सुन्दर भावाभिव्यक्ति और उत्कृष्ट भाषा।-शैली में अनेक रचनाएँ हिंदी साहित्य जगत को दी। निराशाजनक पक्ष यह है कि वे अपने जीवन काल में वह प्रसिद्धि प्राप्त नहीं कर सके, जिसके वे सच में अधिकारी थे। उनका उदार, सहिष्णु, संकोची, सत्यनिष्ठ, कर्मयोगी तथा तटस्थ स्वभाव इसके लिए उत्तरदायी था। साथ ही वे चाटुकारिता के द्वारा प्रसिद्धि में विश्वास नहीं रखते थे। वे लिखते थे और अपने साथियों को पढ़ने के लिए भेज देते थे। कभी भी स्वयं से इन्होंने अपनी रचनाओं को प्रकाशित नहीं करवाया। हिमालय की चमकती हुई पर्वत- शृंखलाओं और नदियों-झरनों-झींगुरों के स्वर से गुंजायमान हरी-भरी घाटियों का अपनी कविताओं में मनोरम शब्द-चित्र इन्होंने अपनी कविताओं में प्रस्तुत किया। इनकी कविताएँ इतनी मनोहारी थीं कि पाठक सम्बन्धित वर्णन का भाग बन जाता था। अर्थात पाठक को ऐसा प्रतीत होता था की वह हिमालय के पवित्र, शांत और सुखद स्थानों में स्वयं बैठा हो। इनकी रचनाओं के कारण गढ़वाल को साहित्य जगत् में विशेष प्रसिद्धि प्राप्त हुई। उड़ते हुए बदलों का निम्न चित्र प्रस्तुत है -

जिन पर मेघों के नयन गिरे

वे सबके सब हो गए हरे

पतझर का सुनकर करुण रुदन

जिसने उतर दिए वसन

लख जिन्हें गगन के नैन भरे

वे सबके सब हो गए हरे

एक और सुन्दर शब्दचित्र इस प्रकार है-

वही गीत सुनसान पर्वत शिखरों पर

कहता नव समीर सा बदल पर फैलाकर

शून्य घाटियों में मधुरस की वर्षा करता

अपने स्वर से मूक हिमालय मुखरित रखता

सादा जीवन और उच्च विचार जैसे आदर्श का पालन करने वाले कवि सम्राट ‘चन्द्र’ भावुक हृदय के थे। कर्मभूमि नामक पत्रिका में उनके किसी मित्र द्वारा (जिनको पढ़ने के लिए उन्होंने अपनी कविता दी थी) उनकी पहली कविता 5 जून सन 1939 को प्रकाशित हुई। उन दिनों गढ़वाल में डोला पालकी और सड़क आन्दोलन चल रहे थे, जबकि देश की जनता अंग्रेजों के अत्याचारों और द्वितीय विश्वयुद्ध के दुष्परिणामों से दुखी थी। इन्होंने उस पीड़ा को अपनी कविताओं में बहुत सुन्दर भावों के साथ प्रकट किया , साथ ही इनकी कविताओं ने जनमानस में एक विशेष जोश भर दिया। इनका मन अपने देश की जनता के भूखे प्यासे और दरिद्र जीवन को देखकर व्याकुल हो उठता था। इन्होंने अपने हृदय की पीड़ा को निम्न शब्दों के द्वारा व्यक्त किया-

बलि दूँगा जननी मैं बलि दूँगा

तुम्हें मुक्त करने को मैं सौ बार मरूँगा

थाम चक्र पीड़न का मैं अपनी छाती पर

उसे क्षीण कर दूँगा, उससे मैं न डरूँगा

व्यर्थ बहेगा नहीं रक्त मेरा पृथ्वी पर

रक्त उषा से मैं रवि को उत्पन्न करूँगा

बलि दूँगा जननी मैं बलि दूँगा

इस महान् कवि के मन में अपनी काव्य कला का रत्ती भर भी गर्व नहीं था; किन्तु अपने क्षेत्र पर इन्हें नित्य ही गौरव रहा। यहाँ से निकलने वाली और सम्पूर्ण राष्ट्र को जीवन एवं गति प्रदान करने वाली गंगा का भी इन्होंने अपनी कृतियों में वर्णन किया। इसके अतिरिक्त गर्मियों के जेठ महीने में पहाड़ों में लगने वाली दावानल, जो आज भी पहाड़ के लिए एक भयावह समस्या बनी हुई है, इसको भी इन्होंने अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया। इस शब्दचित्र को देखने पर पहाड वासियों की इस समस्या को सहज ही समझा जा सकता है-

मैं सूने शिखरों से आया

दावानल ने सुलग जिन्हें तरु की बाहों से रहित बनाया

मेरे आँसू ग्रहण करो माँ

किसी योग्य नहीं, किन्तु तुम मुझको बाहों के बीच धरो माँ

मुझे गोद में धर पृथ्वी की नगर-नगरियों में विचरो माँ

मेरे माथे पर करुणा की वर्षा बनकर झरो माँ

प्रकृति प्रेम के साथ ही ये शृंगार रस में भी कालजयी रचनाएँ रच गए- कहीं कोई प्यार मुझको कर रहा है

किसी के आपीत अंगों की छठा

पवन मेरे शून्य गृह में भर रहा है

किसी के गीले दृगों से उठ सजल

मेघ मेरे हृदय तल पर जहर रहा है

कहीं कोई प्यार मुझको कर रहा है

पहाड़ों में सुविधाओं के अभाव में विवाहित स्त्रियाँ अपना कष्टपूर्ण जीवन यापन कैसे करती हैं, इस असीम पीड़ा को भी उन्होंने अपनी कविताओं में पिरोया-

फिर भी न भूल पाती मैं बचपन अपना

आँखों में आँसू भर आते…नदियाँ बहती पंछी गाते

मैं इसे देखती जैसे हो यह सपना

जब मुझको सावेश हृदय पर धरते

मैं हो जाती सुख से विह्वल

गिर जाता मेरा यह अंचल

पशु-पक्षी प्रेम और जीवन की दौड़ में लगे मनुष्य का सुन्दर लाक्षणिक चित्रण भी इन्होने अपनी कविताओं में किया-

अब उसने जीवन में थी

विजय प्राप्त कर ली! रोटी के टुकडों के लिए

न मार सहेगा वह सौ-सौ डंडों की

अन्तकाल में लेट गया था गहन मृत्यु के

दीन-हीन प्रांगण में

नंदिनी इनका सबसे प्रसिद्ध कविता संग्रह है, इसके अतिरिक्त गीत माधवी, जीतू, पयस्विनी, प्रणयिनी, इतने फूल खिले, नाट्य-नंदिनी, कंकड़-पत्थर, विराट.ज्योति, वसुंधरा, विराट हृदय, मानस मन्दाकिनी और सुन्दर-असुन्दर आदि इनकी प्रसिद्ध रचनाएँ हैं। साररूप में कविवर चन्द्र कुँवर बर्त्वाल मात्र प्रकृति चित्रण ही नहीं शृंगार, सौन्दर्य, पहाड़-प्रेम, देश-प्रेम, करुण रस और यथार्थ के महान कवि थे। इनकी आभा हिंदी साहित्य जगत के साथ ही सम्पूर्ण उत्तराखंड और गढ़वाली समाज को जगमगाती रहेगी। अपने जीवन के अंतिम दिनों में विह्वल होकर इन्होंने अपनी विदाई का चित्र इन्होंने निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया-

आज विदा की विकल बाँसुरी से गूँजी नगरी

आज उमड़ आई नयनों में प्रेम वेदना गहरी

इनकी रचनाओं के रूप में हमारे मध्य अनंत काल तक उपस्थित रहेंगे, उनकी कभी मृत्यु नहीं हो सकती। उनके शब्दों में ही उनके लिए श्रद्धांजलि इस प्रकार है-

जीवन का है अंत प्रेम का अंत नहीं

कल्पवृक्ष के लिए शिशिर हेमंत नहीं

कविपुष्प के मुरझाने के पश्चात् भी हिंदी साहित्य- जगत् में व्याप्त इनकी सुगंध युगों-युगों तक सुधिजनों के मानस-व्योम को सुरभित करती रहेगी। इनकी मृत्यु के उपरांत इनके निवासस्थल पँवालिया और मालकोटी में बंजर पड़ी इनकी भूमि को राजकीय स्तर पर विकसित किए जाने हेतु गम्भीर प्रयास किए जाने चाहिए। वहाँ पर हिंदी साहित्य के पठन-पाठन-अध्ययन-शोध हेतु संस्थान तथा पुस्तकालय आदि प्रतिस्थापित करके इनको श्रद्धांजलि अर्पित की जाए तो यह इनकी सार्थक रचनाओं और हिंदी के प्रसारण की दिशा में एक सार्थक प्रयास होगा । -0-