शरतचंद्र का स्त्री दृष्टिकोण / संगीता नाग

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उन्नीसवीं शताब्दी में भारतीय नवजागरण ने सामाजिक महत्त्व के कई प्रश्नों को उठाया था जिनमें स्त्री-शिक्षा और उनके जीवन और अधिकारों से जुड़े विभिन्न प्रश्न भी एक महत्त्वपूर्ण आयाम के रूप में हमारे समक्ष रहा। राजा राममोहन राय द्वारा ‘सती प्रथा’ के विरोध में चलाए गए आन्दोलन से नारी जागरण का सूत्रपात हुआ। इसके पश्चात नारी स्वाधीनता और उनके अधिकारों के संदर्भ में कई आवाजें उठीं। इन आंदोलनों को बल देने के लिए अनेक रचनाकारों ने भी साथ दिया और नारी-जीवन की विडम्बनाओं को दूर करने का प्रयास भी किया गया। नारी अधिकारों के आंदोलनों से प्रभावित होकर भारत में जो एक प्रगतिशील वर्ग तैयार हुआ था, शरतचंद्र भी उसकी एक कड़ी थे। बंगाल में उनके पहले रविंद्रनाथ ने भी स्त्री अधिकारों और उनकी समस्याओं को लेकर बेजोड़ रचनाएँ की थींl किन्तु स्त्री जीवन के कई आयामों को मुखरित करने में अधिक नहीं गएl शरतचंद्र बांग्ला साहित्य के उन लोगों में से थे जिन्होंने भारतीय साहित्य में नारी जीवन और उनके अधिकारों को लेकर सबसे पहले मुखरता दिखाई। उन्होंने नारी-मुक्ति की परिकल्पना को विस्तृत रूप प्रदान किया तथा उसे सही मायनों में सामाजिक और राजनीतिक धरातल से जोड़ कर देखा। उनका मानना था कि “औरतों को हमने जो केवल औरत बनाकर ही रखा है, मनुष्य नहीं बनने दिया, उसका प्रायश्चित स्वराज्य के पहले देश को करना ही चाहिए। अत्यंत स्वार्थ की खातिर जिस देश ने जिस दिन से केवल उसके सतीत्व को ही बड़ा करके देखा है, उसके मनुष्यत्व का कोई ख्याल नहीं किया, उसे उसका देना पहले चुका देना ही होगा।” शरतचंद्र की स्त्री जीवन की परिकल्पना बहुत ही प्रगतिशील है। उन्होंने स्त्री को केवल स्त्री बने रहने से अलग मनुष्य बनने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने हमेशा यह प्रयास किया है कि स्त्री का अपना अलग अस्तित्व समाज में बने, वह पराश्रित न दिखे। उन्होंने ‘नारी मूल्य’ नामक निबंध में स्त्री मुक्ति के संदर्भ में विभिन्न देशों की संस्कृतियों और इतिहास के हवाले से विस्तृत विवेचन करते हुए जिन गंभीर विचारों को सामने रखा है उसने न सिर्फ हमारे साहित्य में हलचल मचा दी बल्कि उसे अप्रतिम ढंग से समृद्ध भी किया।

उन्होंने नारी जीवन की विभिन्न समस्याओं का सम्यक् चित्रण किया है और उसके शोषण का खुलकर विरोध किया है। अपनी आरंभिक रचनाओं में उन्होंने स्त्री अधिकारों के प्रश्न जरूर उठाए, किन्तु नवीन समाज की अपनी परिकल्पना को चित्रित करने में पूरी तरह सफल नहीं हुए। ‘पल्ली समाज’ में उन्होंने ‘रमा’ नामक चरित्र के माध्यम से एक उच्च-वर्गीय स्त्री के जीवन की विभिन्न विडम्बनाओं और कुंठाओं को जरूर सामने रखा लेकिन उसकी समस्याओं और कुंठाओं का कोई समाधान देने की ओर अग्रसरित नहीं हुए। समाधान अगर अभिप्रेत न भी हो तो भी रमा के जीवन की त्रासदी को जिस उदासीन ढंग से समाप्त कर दिया गया वह संतुष्ट नहीं कर पाता। लेकिन अपने परवर्ती उपन्यासों में शरतचंद्र स्त्री को और अधिक तर्कशील और प्रगतिशील छवि प्रदान करते हैं। परवर्ती उपन्यासों में उनकी स्त्रियाँ समाज के कई रुग्ण बंधनों को तोड़ते हुए दिखाई देती हैं। इन चरित्रों में ‘शेष प्रश्न’ नामक उपन्यास की ‘कमल’ एक सशक्त स्त्री है जो समाज की हर किस्म की प्रतिगामी रूढ़ियों को तोड़ती हुई दिखाई देती है। इतना ही नहीं, वह स्त्रियों के लिए एक नवीन समाज की परिकल्पना रखते हुए भी दिखाई देती है। कई आलोचकों ने कमल की आलोचना करते हुए यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि कमल प्रत्येक बंधन से अपने आप को मुक्त कर लेना चाहती है। मन्मथनाथ गुप्त लिखते हैं कि “शेष प्रश्न में नारी का यह विद्रोह रूढ़ि-विशेष या व्यवस्था-विशेष के विरुद्ध नहीं है, बल्कि इसकी लपटें सर्वबंधनमुक्त होकर दसों दिशाओं में दौड़ पड़ती है।” किन्तु मन्मथनाथ गुप्त के इस तर्क से सहमत होना कठिन है। वास्तविकता यह है कि कमल ने प्रत्येक स्थान पर उस दौर में कायम एकतरफा मूल्यों का ही विरोध किया है। वह प्रगतिवादी चिंतन से युक्त है रूढ़ियों का विरोध करने के लिए अन्यथा वह अपने जीवन में कई भारतीय आदर्शों को अपनाए हुए दिखाई देती है। उसे दूसरों के प्रति सेवा भाव, त्याग, परोपकार जैसे गुणों से लगातार संपृक्त दिखाया गया है। मन्मथनाथ गुप्त के इन विचारों के पीछे तद्युगीन पुरुषप्रधान समाज की सोच का ही असर लगता है जो वे कमल को इस रूप में देखते हैं। शरतचंद्र ने इस उपन्यास में परंपरा से चली आ रही रुढ़िवादी सोच से मुक्ति की कल्पना की है। पारंपरिक दृष्टि एक स्त्री को केवल स्त्री बना के रखती है, उसे मनुष्य नहीं बनने देती और अपनी अलग पहचान गढ़ने देने के प्रति उदासीन दिखाई देती है। उपन्यास की एक प्रमुख स्त्री पात्र नीलिमा कहती है कि “स्त्रियों की मुक्ति, स्त्रियों की स्वतंत्रता तो आजकल हर स्त्री-पुरुष की जबान पर है लेकिन वह जबान आगे एक कदम भी नहीं बढ़ती। सो क्या? जानती है? जब मालूम हुआ कि स्वाधीनता तत्व विचार से नहीं मिलती, न्याय धर्म की दुहाई देने से भी नहीं मिल सकती। सभा में खड़े होकर पुरुषों के साथ झगड़ने से भी नहीं मिलती। वास्तव में स्वाधीनता लेने-देने की वस्तु नहीं। कमल ने स्पष्ट कहा है कि यह स्वाधीनता हमारी अपनी पूर्णता से स्वयं आती है। बाहर से अंडे का छिलका तोड़ कर भीतर का जीव मुक्ति नहीं पाता। बल्कि मर जाता है।” स्त्री जीवन और स्त्री-मुक्ति के विषय को लेकर रचना करने वाले प्रत्येक रचनाकार के लिए ‘शेष प्रश्न’ अनिवार्य है। यह रचना परवर्ती रचनाकारों को नई दिशा और नए विचारों को समग्रता में अर्जित करने में पृष्ठभूमि की तरह है।

शरतचंद्र ने अपनी परवर्ती रचनाओं में परंपरा से चली आ रही पितृ-सत्तात्मकता मान्यताओं पर प्रहार करते हुए स्त्री-पुरुष की समानता की बात कही है। उनका यह मानना था कि जब तक स्त्री को समाज में पूर्ण मुक्ति और समान अधिकार नहीं मिल जाता तब तक देश का उत्थान नहीं होने वाला। शरतचंद्र कहते हैं कि “जिस चेष्टा, जिस आयोजन में देश की लड़कियों का हाथ नहीं है, सहानुभूति नहीं है, उन्हें घर के कोने में बंद कर, केवल चरखा कातने के लिए बाध्य करके इतनी बड़ी वस्तु को प्राप्त नहीं किया जा सकता। लड़कियों को हम लोगों ने केवल लड़की बना रखा है, आदमी नहीं बनने दिया है।” उनके परवर्ती कई स्त्री पात्र कहीं भी पुरुषों से कमतर नहीं हैं, बल्कि पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक प्रबल और प्रभावित करने वाली हैं। आज बंगाली समाज में अगर शरतचंद्र इतने स्वीकार्य हैं तो इसी कारण की बंगाल की स्त्रियाँ आज भी उनकी रचनाओं में अपने जीवन की उधेड़बुन को देख पाती हैं। अपनी मुक्ति की कामना लिए, युगों से अपने पैरों में बँधी बेड़ियों को तोड़ने की छटपटाहट वे इन रचनाओं को पढ़कर और शिद्द्त से महसूस करती है।

शरतचंद्र की रचनाओं में स्त्री की विभिन्न छवियाँ आलोकित होती हैं। उन्होंने स्त्री जीवन के विभिन्न प्रश्नों और पहलुओं को सजगता के साथ अपनी रचनाओं में उठाया है। उन्होंने स्त्री के आदर्शवादी रूप के साथ ही सामाजिक दृष्टि से उनके पतित और कलंकित समझे जाने वाले स्वरूप का भी सृजन किया है। हर तरह के स्त्री चरित्रों को चित्रित कर शरतचंद्र ने अपनी गहरी स्त्री संवेदना का परिचय दिया है। शरतचंद्र हमेशा से यह मानते थे कि सतीत्व ही नारीत्व नहीं होता। उन्होंने समाज में पतित मानी जाने वाली स्त्रियों में भी त्याग, ममता, सेवा भावना से प्रेरित गुणों को दिखाया है और यह केवल उन्होंने कल्पना के आधार पर नहीं किया। अपने जीवन में वे समय-समय पर ऐसी स्त्रियों के संपर्क में आते रहे जिन्हें सभ्य समाज भले ही पतित मानता हो लेकिन जिनमें मानवीय गुणों की कोई कमी नहीं थी। अगर उनके पास ऐसे स्त्री पात्र हैं जो ममता, त्याग और बलिदान की भावना से ओत-प्रोत हैं तो ऐसे भी स्त्री पात्र हैं जो पतनशील और चरित्रहीन हैं।

स्त्री जीवन के संदर्भ में शरतचंद्र का साहित्य निरंतर परिपक्वता की ओर ही आगे बढ़ता गया है। उनका साहित्य मूलतः नारी मन की संवेदनाओं, उनके जीवन के विविध पक्षों, उनके उत्थान और उनके अधिकारों के चित्रों से भरा पड़ा है। ये चित्र किसी एक वर्ग की स्त्रियों के नहीं हैं बल्कि विभिन्न वर्गों और समुदायों से आने वाली स्त्रियों के हैं। उनकी कथाओं में नारी मन की कुंठाओं और द्वन्द्व का जो वर्णन है वह बेजोड़ है। नारी मन की विभिन्न परतों को इतनी गहराई से जानने वाला रचनाकार निःसंदेह विश्व-साहित्य में भी मिलना विरल होगा। उनके व्यक्तिगत जीवन में ऐसी स्त्रियाँ समय-समय पर आईं जिनके स्त्रीत्व को समझने में समाज विफल रहा। यह भी एक वजह है कि उनके स्त्री पात्र सामाजिक बंदिशों को तोड़ने की छटपटाहट से भरे रहते हैं। उनका स्पष्ट मानना था कि जब तक स्त्री को समाज में पूर्ण रूप से मुक्ति नहीं मिलती तब तक समाज का उत्थान नहीं होने वाला।

कहना न होगा की स्त्री अधिकारों और संवेदनाओं को विस्तृत रूप में चित्रित करने के साथ-साथ उनके कुछ विचारों में द्वंदात्मक चिंतन को भी देखा जा सकता हैl अपने अधिकतर रचनाओं में उन्होंने विधवा जीवन का जिस के साथ चित्रण किया है वह अद्वितीय है, शरतचंद्र ने नारी के अधिकारों के पक्ष में और उनके प्रति हो रहे अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठायी है और समाज में उनके समान अधिकार की बात करने वाली रचनाएँ की हैं। किन्तु अपने समय और समाज की सीमाओं से उबर पाना रचनाकार के लिए हमेशा कठिन होता है और उसे गहरे आत्मसंघर्ष और द्वंद्व से गुजरना पड़ता है। स्त्री संबंधी कुछ प्रश्नों के संदर्भ में शरतचंद्र में भी समय-समय पर अंतर्विरोध से भरे हुए द्वंद्व दिखाई देते हैं। उदाहरण के लिए, विधवा विवाह के संदर्भ में शरतचंद्र में स्पष्ट अंतर्विरोध दिखाई देता हैं। विधवा विवाह के समर्थक होते हुए भी अपनी रचनाओं में इस विषय के प्रति इनके भीतर थोड़ी उदासीनता दिखाई देने के पीछे यह द्वंद्व ही है। शरतचंद्र ने इस संदर्भ में स्वीकारोक्ति भी रखी है। एक पत्र में उन्होंने लिखा हैं कि “...सत्रह वर्ष की उम्र में विधवा हुई है, उसे क्या अपने लम्बे जीवन में और किसी से प्यार करने या ब्याह करने का अधिकार नहीं? क्यों नहीं? जरा सोचने पर पता चल जायगा कि इसमें यही संस्कार छिपा हुआ है कि स्त्री पति की वस्तु है। स्त्री के रूप में नारी की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है।... लेकिन मैंने कहीं भी विधवा-विवाह नहीं करवाया है, यह बात तुम्हें विचित्र लग सकती है।” किन्तु शरतचन्द्र ने आजीवन अपने हृदय में एक बाल विधवा निरुपमा देवी को विराजमान रखे हुए थे। इसके साथ ही, अपने अंतिम दौर के एक बहुचर्चित उपन्यास ‘शेष प्रश्न’ में उन्होंने एक विधवा कमल का पुनर्विवाह भी दिखाया है। जैसा कि बताया गया इन द्वंद्वों के बावजूद इन शरतचंद्र की प्रगतिशीलता पर प्रश्न खड़ा करना अनुचित होगा। शरतचंद्र का पूरा साहित्य ही कम-ओ-बेश नारी जीवन और उनके अधिकारों के ही इर्द-गिर्द नज़र आता है। उस दौर में उन्होंने ‘नारी का मूल्य’ जैसा गंभीर निबंध रचकर विश्व की भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में नारी के शोषण के इतिहास को बताकर समाज में व्याप्त कुसंगतियों को प्रंश्नांकित किया है। और भारतीय साहित्य को ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य को मार्ग दर्शन दिया हैंl