शरीफ घरों की औरतें कहानियाँ नहीं लिखतीं / संतोष श्रीवास्तव

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पिछले दिनों अखबारों में छपी चौंकाने वाली खबर ने एक कड़वी हकीकत को जब दुनिया के सामने प्रकट किया तो लोगों के मुंह खुले के खुले रह गए। अपने साहित्य से युवा दिलों को झंझोड़कर रख देने वाले विलियम शेक्सपीयर वास्तव में पुरुष नहीं बल्कि एक महिला थी। यह दावा एक विशेषज्ञ ने किया है। विलियम शेक्सपीयर एक यहूदी महिला थी। शेक्सपीयर साहित्य के विशेषज्ञ जॉन हडसन के मुताबिक एलिजाबेथ प्रथम के जमाने में लंदन में महिलाओं का लेखन समाज में मंजूर नहीं था। लिहाजा अपना साहित्य प्रकाशित कराने के लिए यह महिला पुरुष नाम रखने के लिए मजबूर हुई।

एमिलिया बसैनी लैनियर नाम की इटली मूल की यह महिला इंग्लैंड में मरैनो नाम से रहती थी। इन्हें पहली ऐसी महिला के रूप में जाना जाता है जिनका कविता-संग्रह प्रकाशित हुआ था। शेक्सपीयर के साहित्य से मरैना कि ज़िन्दगी की परिस्थितियाँ काफी मेल खाती हैं। दोनों की रचनाओं में इस्तेमाल की गई भाषा कि तकनीकी समानता कि ओर ध्यान खींचती है। शेक्सपीयर के नाटकों में कई जगह यहूदी उपमाओं और मरैना के विभिन्न नामों का प्रयोग किया गया है जो यह साबित करता है कि शेक्सपीयर के नाटकों का रचयिता मरैना ही थी। जिस देश का शासन एक महिला के हाथ में हो और उस देश की लेखिका को अपनी रचनाएँ प्रकाशित करने के लिए पुरुष के नाम का सहारा लेना पड़े वह देश प्रगतिशील कैसे माना जाए?

न केवल लंदन (इंग्लैंड) बल्कि दुनिया के ऐसे बहुत सारे देश हैं जहाँ औरतों को लेखन के क्षेत्र में उतरने के लिए काफी जद्दोजहद का सामना करना पड़ा। परिवार वालों का विरोध सहना पड़ा बल्कि चेतावनी कि तुम्हारे लेखन से घर की एकता, अखंडता और शांति को नुकसान नहीं पहुँचना चाहिए। वरिष्ठ लेखिकाओं से लेकर नव लेखिकाओं तक अधिकतर औरतों के घर थर्राये हैं। उनके लेखन से न जाने क्यों? न जाने किस डर से? क्या कलम हाथ में आते ही पुरुषों की सारी हकीकत बयाँ हो जाएगी? इसी संदर्भ में भारत की दस भाषाओं की 150 लेखिकाओं की देश के कई भागों में कार्यशालाएँ आयोजित की गई। हिंदी, मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड, मलयालम और गुजराती की लेखिकाओं ने रोंगटे खड़े कर देने वाले अपने-अपने अनुभव खुलकर सुनाए और जिसकी उतनी ही मार्मिक रपट अंग्रेज़ी दैनिक हिंदू के 15 जुलाई 2001 के अंक में प्रकाशित की गई।

तमिल की एक जानी-मानी लेखिका हर बार अपनी रचना के प्रकाशित होने पर अपने पति से मार खाती थी। एक बार तो उसके पति ने इसी बात पर उसकी कलाई तोड़ डालने की हद तक मरोड़ी। हालांकि इन दोनों में तलाक हो चुका है, लेकिन अब भी जब कभी वह भीगी हुई इमली छानती है, उशकी कलाई दर्द से टीस उठती है। कन्नड़ की एक लेखिका जब भी लिखती है अपने परिवार से उसे नकारात्मक आलोचना ही मिलती है। अगर वह औरत से अलग हटकर लिखती है तो उसे पुरुष की तरह लिखने का तमगा पहना दिया जाता है। तेलुगु की दो लेखिकाओं ने एक जैसी बात कही। दोनों को ही औरत के प्रकृति प्रदत्त गुणों धर्मों पर सहज लेखन से उनके परिवार के द्वारा रोका गया। मराठी की लेखिका बड़े ही दर्द भरे स्वर में अपनी दास्तान बयाँ करती हैं कि वह जब तक हास्य व्यंग्य लिखती है तो उसे अपने घर से प्रशंसा मिलती है लेकिन अगर औरत की समस्याओं को लेकर कोई गंभीर लेखन करती है तो सबकी आंखें चढ़ जाती है। इसी पारिवारिक भय से वह अपनी बात खुलकर नहीं कह पाती। गुजरात के कच्छ इलाके की लेखिका कई वर्षों तक अपना लेखन पति से छुपाती रही क्योंकि वह उशी की आंखों के सामने उसका लिखा साहित्य जला डालता है। वह भयवश अपना ही लिखा, अपने नाम से नहीं बल्कि दूसरे के नाम से प्रकाशित कराने के लिए अभिशप्त है।

हैदराबाद में उर्दू की एक मशहूर शायरा हैं जिनकी गजलों, शेरों की एक भी किताब आज तक नहीं छपी... वजह... उन्हें उनके पति द्वारा मइसायरे में गजलें पढ़ने की इजाजत नहीं थी। एक दूसरी उर्दू की शायरा हैं जो कभी भी प्रथम पुरुष वाचक सर्वनाम मैं की शैली में गजलें नहीं लिख सकती, क्योंकि इससे उनकी लिखी गजलों के ग़लत मायने निकाले जाते हैं। उन्हें हमेशा वह के रूप में ही अपने दिल की आवाज बयाँ करनी पड़ती हैं। एक आधुनिक लेखिका जो कि कम्युनिस्ट है और कम्युनिस्ट पार्टी के लिए काम करती है, पार्टी के ही नवयुवक से शादी कर लेती है। जगजाहिर है कि हर कामरेड चाहे वह स्त्री हो या पुरुष बहुत स्वतंत्र विचारों के होते हैं और आपस में एक दूसरे को साथी सम्बोधित करते हैं लेकिन बकौल लेखिका अब मेरा पति साथी नहीं रहा। अब वह सभी लिबरल विचारों को मेरे प्रति त्यागकर पति के खांचे में फिट हो गया। हिन्दी की एक लेखिका का कहना है कि उसके लेखन पर जब परि रूपी सेंसर की कैंची चल जाती है तभी उसे प्रकाशनार्थ भेजा जाता है... वह अपनी बात खुलकर नहीं लिख पाती। उसके मन में बचपन से ही कूट-कूटकर यह बात भरी जाती है कि औरत की इज्जत उसका पति है... सो वह अपनी इज्जत बड़े जतन से संभालती रहती है। एक भी कदम ग़लत उठा कि जलावतन की नौबत।

इन सभी लेखिकाओं ने अपने लेखन पर लगे पारिवारिक प्रतिबंधों का जो वर्णन किया उससे यह स्पष्ट होता है कि भले ही युग बदलता रहे औरत को पुरुष अपनी लगाम में ही कसे रखना चाहता है। सदियों से न तो वह खुलकर जी पाई है और न लिख पाई है।

पंजाबी की वरिष्ठ लेखिका अजीत कौर ने जिस हिम्मत से अपनी दास्तां बगैर नाम छुपाए बयाँ की है उसे पढ़कर मन पीड़ा से भर जाता है। अपनी आत्मकथा कूड़ा-कबाड़ा में वे लिखती हैं कि उनके पति राज का हुक्म था कि कहानियां-कहानियाँ लिखना महज पागलपन है, फिजूल बकवास है। शरीफ घरों की औरतें कहानियाँ नहीं लिखतीं, यह सब यहाँ नहीं चलेगा, यह शरीफों का घर है। वरिष्ठ लेखिका इस्मत चुगताई को भी अपने लेखन के लिए कानूनी दांव-पेंच में घसीटा गया। जीवन का कड़वा यथार्थ लिखने वाली इस्मत आपा महीनों कोर्ट-कचहरी की खाक छानती रहीं।

छायावाद के चार स्तंभों में से एक स्तंभ मानी जाने वाली महादेवी वर्मा एक समय उस दौर से भी गुजरी जब वे अपनी सहेली सुभद्रा कुमारी चौहान के संग कविताएँ लिखती थीं। दोनों अपनी-अपनी कविताएँ कॉपी में लिखकर कॉपी छिपाकर रख देती थीं। सुभद्रा कुमारी चौहान को तो अपने पति से सहयोग मिला लेकिन महादेवी वर्मा को अपने घर परिवार और लेखन में से एक को चुनने की आज्ञा दी गई। महादेवी वर्मा लेखन को चुनकर ताउम्र गिलहरी, बिल्ली, कुत्ता, हिरन और गाय को अपने अकेलेपन का साथी बनाती रही। वह उनके लिखे संस्मरणों से प्रगट होता है।

भारत से इतर देशों में भी औरतों के कलम थामते ही पुरुषों की दुनिया में खलबली मच जाती है। खौफ का साया मंडराने लगता है उनके आसपास। सुदूर तुर्की में वहाँ की नारीवादी लेखिका कोल्सा कुरिस्ट के संग जा अमानवीय व्यवहार हुआ, रूह कांप जाती है और रोंगटे खड़े कर देने वाला क्षण भी पनाह मांगने लगता है। कोल्सा कुरिस्ट अत्यंत प्रभावशाली, मेधावी, लेखिका जुलाई 1998 से गायब थी और 22 जनवरी, 2000 को बेजबोल्ला नामक अतिवादी संगठन के क्रोन्या नामक स्थान से उसकी लाश बरामद की गई। कोन्सा कुरिस्ट का अपराध था-वह साहस जिसकी वजह से उसने अपनी बुद्धिमत्ता से विभिन्न विवादों के विषय में अपनी राय व्यक्त की थी। वह कहती थी कि इस्लाम ने तो औरतों के हकों की हिमायत की है, सिर्फ़ बाद में आने वाले धार्मिक कठमुल्लाओं ने उसे जंजीरों में जकड़ रखा है। यह कि अपनी बात लोगों तक पहुँचाने के लिए उसके पास कलम की ताकत थी। टीवी का छोटा परदा था, पत्रिकाएँ और अखबार थे और इतना सारा मसाला एक औरत की ताकत बन जाए, उसे नारीवादी सिद्ध करने के लिए काफी था। उसकी यह ताकत डर का कारण बन गई और लोग इस निहत्थी औरत से डरने लगे। न जाने कब क्या कहर ढा दे ये अपनी कलम से। न जाने किसकी बखिया उधेड़ दे, न जाने किसको सरेआम नंगा कर दे।

औरत है, कुछ भी कर सकती है। इतिहास गवाह है नूरजहाँ ने किया, रजिया सुल्तान ने किया, आधुनिक काल में तसलीमा नसरीन ने किया। डोरोथी ने किया, भंवरी देवी ने किया और तो और फूलन देवी जैसी बेपढ़ी लिखी गंवारन ने किया। डरने की बात तो है ही, भले ही तमाम आधुनिक हथियारों से लैस राष्ट्र हो या वेद मंत्र, श्लोक, सबद, सूक्तियों, वचनों और आयातों से लैस राष्ट्र हो, जब औरत कलम हाथ में लेती है तो थर्रा जाता है पुरुष समाज। याज्ञवल्वय हथियार उठा लेते हैं गार्गी को खामोश करने के लिए और जॉन आॅफ आॅर्क के सरेआम जिंदा जला दी जाती है। कोल्सा कुरिस्ट को भी तड़पा-तड़पाकर मार डाला गया। कोन्सा कुरिस्ट की मौत कोई अपवाद नहीं है। धर्म की आड़ में जो विभिन्न संगठन समाज में कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं वे सारे के सारे अपने पवित्र ग्रंथों में औरत को वही स्थान देते हैं जो उशके लिए सदियों से तय किया गया है। वे नहीं चाहते कि औरत अपने वजूद की लड़ाई लड़े। खुरच-खुरच कर मिटा दिया जाता है उसकी उफलब्धियों को और सुरक्षित रखा जाता है कोन्सा कुरिस्ट को देने वाली यातनाओं की दृश्यों का फ़िल्म कैसेट ताकि आने वाली पीढ़ी की औरत नस्ल ऐसी हिमाकत न करे बल्कि सबक ले उससे।

बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन पिछले कई वर्षों से अपनी जान बचाती कभी इस देश तो कभी उस देश भटक रही है। उसकी लिखी किताब लज्जा में उसने लिखा है कि बांग्लादेश में गरीब हिन्दू अल्पसंख्यकों से कैसे पेश आया जा रहा है। इसे पढ़कर बांग्लादेश की तत्कालीन सरकार तड़प उठी। न सिर्फ़ सरकार बल्कि बांग्लादेश के उग्रवादी इस बात पर शर्मिन्दा हुए कि एक मुस्लिम बांग्लादेशी महिला ने दुनिया को बताया कि उसके मजहबी साथी हिन्दुओं पर क्या जुल्म कर रहे हैं। इस पर कठमुल्लाओं ने फतवा जारी किया कि तसलीमा को जिंदा रहने का हक नहीं है क्योंकि इसने बांग्लादेशी मुसलमानों के हिन्दुओं पर किए गए अत्याचारों का कच्चा चिट्ठा खोल दिया है। इन जेहादियों के इसारे पर सरकार ने लज्जा जब्त कर ली और तसलीमा को देश निकाला का अभिशाप आज तक झेलना पड़ रहा है।

वह जिस देश में भी पनाह लेती है वहीं उसे धमकियाँ मिलने लगती हैं। उसकी दूसरी किताब जो कि उसकी आत्मकथा है, द्विखंडिता नाम से जब प्रकाशित हुई तो उसे पश्चिम बंगाल ने जब्त कर लिया। इस किताब में उन बातों का खुलासा हुआ है जो उशकी ज़िन्दगी में घटित हुई हैं। उन सब बातों ने किस तरह उसकी ज़िन्दगी को झंझोड़ा है। जिसका असर आज तक कायम है। तसलीमा कि गलती ये है कि वह सारी घटनाओं को उशी सच्चाई से बयान करती हैं। उसकी यही सच्चाई कट्टरपंथियों का सिरदर्द है। तसलीमा पर यह भी आरोप है कि उसके कोलकाता के कई विख्यात लेखकों से शारीरिक सम्बंध रहे कि वह औरत मर्द यहाँ तक कि अपने पति के साथ संभोग का वर्णन करने में भी नहीं हिचकिचाती कि वह धार्मिक कट्टरता के खिलाफ हैं।

बांग्लादेश की अदालतों में इस्लाम की भावना को आहत करने और ईश निंदा सम्बंधी कई मामले लंबित हैं। तसलीमा बेझिझक लिखती है कि हमारे रवायती समाज में हमारे मर्द औरतों के जिस्म और उनके दिमाग के मालिक बन रहे हैं। इस तरह की सोसाइटी में औरतों के चरित्र को औरत एक निराले ढंग से समझा जाता है। वस्तुस्थिति यह है कि औरत हजारों वर्षों से इन खयालात का शिकार होती रही है। एक मर्द को तो इस बात की इजाजत है कि वह दर्जनों औरतों से सम्बंध बना ले और घमंड से इसका जिक्र करे लेकिन यदि कोई औरत अपने दोस्तों का, अपनी दोस्ती का जिक्र करे तो उशे तरह-तरह की गालियों के साथ याद किया जाता है। जब भी किसी औरत ने समाज में मर्दों के अधिपत्य के खिलाफ जुबान खोलने की जुर्रत की है और अपनी आजादी की बात की है तो उशे पतिता करार दे दिया गया।

पाकिस्तान की शायरा परवीन शाकिर को पाकिस्तान ने बागी लेखिका के विशेषण से नवाजा है। परवीन शाकिर एक ऐसे समाज से सम्बंध रखती थीं जहाँ महिला स्वतंत्रता को बुरी नजर से देखा जाता है। इसे महिलाओं पर जुल्म की जगह पूर्व की संस्कृति व सभ्यता का हिस्सा माना जाता है। यहाँ महिलाओं को उर्दू शायरी और लेखन का सामाजिक अधिकार नहीं मिला है। यही कारण है कि उर्दू शायरी में महिलाओं का योगदान नहीं के बराबर है। लेकिन बीसवीं सदी के परिवर्तनकारी समय ने महिलाओं को हौसला दिया और कई महिला लेखिकाओं, शायरों में परवीन शाकिर का नाम अपनी अलग पहचान बना पाया। लेकिन इसके लिए परवीन को भारी कीमत चुकानी पड़ी। संवेदनशील परवीन आर्मी में उच्च पदस्थ अपने पति के ज्यादातर बाहर रहने के कारण तनहा अपने वियोग को शायरी में डुबो रही थी, लेकिन उसकी ससुराल को यह कतई पसंद न था कि उनकी बहू कलम उठाए, शेरो-शायरी करे। समाज में हम मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे, वाली सोच से आए दिन परवीन को अपमानित किया जाता था। धीरे-धीरे इस बात को लेकर घर में तनाव और झगड़े होने लगे। उसके पति ने परवीन के लेखन पर सख्त पाबंदी लगा दी। परवीन के लिए हर सुबह नया दर्द और हर शाम झगड़ों का कहर लिए आती। नतीजा तलाक। परवीन के लिए पति के मुख से निकला तिहरा तलाक उसके टूटने का मंजर न था बल्कि उसके हुनर को चुनौती थी। उसकी शायरी में एक बागी शायरा रुख उभरने लगा। उदासीनता, महरुमी और बगावत की दास्तान का बयान है उसके शेर...

कुछ तो तेरे मौसम ही मुझे रास कम आए

और कुछ मेरी मिट्टी में बगावत ही बहुत थी।

औरत होने के जुर्म की सजायाफ्ता परवीन एक सड़क हादसे में बहुत ही कम उम्र में चल बसीं... हालत से समझौता करना उसके बस में न था। वह एक सैनिक की तरह अपना युद्ध लड़ती रही और शहीद हुई। परवीन ने मर्द की दुनिया से उपेक्षित, तिरस्कृत हो अपना सारा दर्द शायरी में उंडेल दिया।

भारतीय मूल की अमरीकी महिला इसरा नोमानी एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और अपने चुटीले लेखन के लिए प्रख्यात हैं। उसकी लिखी किताब तांत्रिका में हिन्दू धर्म और बौद्ध धर्म में सेक्स को लेकर अनैतिक बातें दर्ज हैं। इसरा ने साधु, संतों, भिक्षुओं और लामाओं के साथ भेंट करके सभी जानकारियाँ हासिल कीं और इनके बीच सेक्स घटनाओं का चटखारेदार वर्णन किया है। उसने लिखा है कि वह हिन्दू धर्म अपनाना चाहती थी पर इस अनुभव के बाद उसके विचार बदल गए। बाद में इसरा ने अफगानिस्तान युद्ध की रिपोर्टिंग भी की। उसी दौरान उशकी मुलाकात यहूदी पत्रकार डेनियल पर्ल से हुई जिसकी बाद में सिर कलम करके हत्या कर दी गई। वह पर्ल के बच्चे की बिन ब्याही माँ बन गई। उसकी किताब तांत्रिका पर लामाओं द्वारा उठे बवंडर ने उसे चेताया कि औरत की स्थिति समाज में किस दर्जे की है। वह खुलकर न तो अपनी बात कह पाती है, न लिख पाती है। तमाम विरोधों के बावजूद और अपने प्रेमी डेनियल पर्ल की हत्या के बाद उसने खुद को मुक्त महिला समाज के अभियान में झोंक दिया। उसने अपनी अगली किताब मक्का में खड़ी अकेली औरत में औरतों और मर्दों को एक साथ नमाज अदा करने और उसकी इमामत यानी नेतृत्व महिला को करने देने की बात उठाई। उसने मर्दों से औरतों के गले मिलने को और बिन ब्याही माँ बनने को जायज कहा। आज इसरा के मुक्त महिला समाज के अभियान में सैकड़ों महिलाएँ आ जुटी हैं।

अठारहवीं सदी की अंग्रेज लेखिका मेरी वोल्टसन क्राफ्ट की स्त्री विमर्श पर लिखी पुस्तक स्त्री अधिकारों का औचित्य साधन (अ विंडिकेशन आॅफ दि राइट्स आॅफ वूमेन) के प्रकाशन ने न केवल इंग्लैंड बल्कि फ्रांस, अमेरिका समेत पूरे यूरोप में खलबली मचा दी थी। आज तक किसी की हिम्मत नहीं हुई थी इस तरह स्त्री विरोधी बातों को लिखने की बल्कि मेरी वोल्टसन ने तो नारियों के अधिकार की बाइबिल ही लिख डाली। जाहिर है कि उन्हें पुरुषों के व्याग्य बाण और समाज की तएकी आलोचना सहनी पड़ी।

आज उर्दू लेखिका रुकैया सखावत से लेकर पाकिस्तानी नवोदित लेखिका तक का सौ वर्षों का सफ़र भी औरत में कोई बदलाव नहीं ला पाया। वह जहाँ थी वहीं आज भी खड़ी है। आज भी उसकी लड़ाई अपने हक, अपने व्यक्तित्व की पहचान को लेकर है। पाकिस्तानी लेखिकाओं ने यह लड़ाई जारी रखी है अपनी कलम के जोर से। वह यह लिखने में नहीं हिचकिचाती कि पाकिस्तान में शरीयत का पालन करने वाले मौलवियों ने हर बार धर्म की हिफाजत के बहाने औरत को पैर की जूती समझा। मर्द की खेती माना। अब अपनी खेती को वे चाहें जैसा रखें, हरा-भरा रखें, बंजर रखें। न तो औरत को बोलने का हक है, न मर्द के काले सफेद कारनामों पर निगाह रखने का हक है। न अपने अधिकारों के लिए लड़ने का। जब उर्दू लेखिकाओं की कलम उठी तो तलवार बनकर उठी।

औरत का शताब्दियों का इतिहास अपनी फफूंदी तोड़ बाहर निकला और तमाम तारएकें आज की तारएकों में तब्दील हो, उशी के लिए आवाज उठाने लगीं जिन्हें उनकी परदादियाँ, परनानियाँ भुगतते-भुगतते चल बसी थीं। लिहाजा मर्द समाज डर गया। उसने ऐसी किताबों पर सेंसरशिप लगा दी। उसे धर्म पर सीधी मार घोषित कर दिया। फिर भी कलम नहीं रुकी। वह इतिहास अपनी हर दरारों से औरत के शोषण, अत्याचार, कठमुल्लाओं के फतवे, धार्मिक ज्यादतियाँ और कुरान पाक की आयतों का सहारा लेकर औरत पर हुए जुल्मों-सितम की स्याह तस्वीरें दिखा रहा था। कैसे रुकती कलम। इन तमाम स्याह तस्वीरों में उनका वर्तमान भी तो स्पष्ट झलक रहा था।

दरअसल गौर से देखा जाए तो जो आग पाकिस्तानी लेखिकाओं में है वह हिन्दी लेखिकाओं में नहीं जबकि दोनों तरफ है आग बराबर लगी हुई... भारत में भी औरत ने धर्म के नाम पर बहुत अत्याचार सहे। बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा दुर्दशा, वृंदावन और काशी में वहाँ के पंडों, मठाधीशों द्वारा यौन शोषण, सामंतवादी प्रथा द्वारा शोषण, रखैल, नाजायज औलाद की माँ आदि... आदि पर हिन्दी की लेखिका ने जब कलम थामी तो खुद को समेटकर, अपने खोल में सुरक्षित रहते हुए... खुलकर लिखने से परहेज करते हुए जबकि उर्दू की लेखिकाएँ बगावत पर उतर आर्इं। उनका लेखन मर्द, मौलवी और मजहब से टकराने वाला एक खूंखार शस्त्र बन गया। जितनी उन पर बंदिशें लगाई गई थीं, जितना ढंक-मूंद कर दमघोंटू माहौल में उन्हें रखा गया था... उनके अंदर की चिंगारी उतनी ही तेज शोला बनकर भड़क उठी। वे पर्दानशीन लेखिकाएँ चाहें पाकिस्तान की फहमीदा रियाज हो, जाहिदा हिना हो या किश्वर नाहीद हो या बांग्लादेश की रुकैया, तसलीमा नसरीन हो, बगावत की आग को लेखन में उतार... परदे को परे कर सिगरेट के छल्ले उगलती कठमुल्लाओं, मौलवियों की नाक में दम किए हैं। तहमीना दुर्रानी ने अपनी आत्मकथा मेरे आका में अपने राजनीतिक पति मुस्तफा खर की काली करतूतों का पर्दाफाश किया है। उसने न केवल सारे व्यक्तियों के नाम भी ज्यों के त्यों लिखे हैं बल्कि अपने साथ मुस्तफा कि हैवानियत का कच्चा चिट्ठा, मारपीट, प्रताड़ना, उशके मनोबल को तोड़ने के लिए दी जाने वाली खौफनाक यातना, जेल में उसके साथ संभोग आदि का ऐसा खुलकर वर्णन किया है कि रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

इतना तो मानना पड़ेगा कि उर्दू लेखिकाओं में सच कहने का साहस है। मर्दाना समाज से टक्कर लेने की हिम्मत है। उनकी आत्मकथाएँ सीधी-सीधी पुरुष सत्ता से टक्कर लेती हैं। आपसी रिश्तों में टकराव, तलाक, तलाकशुदा औरत के मानसिक धरातल का चित्रण, शादी की मंडी में बार-बार नकारी जाना, विवाहेतर सम्बंध, नारी मनोविज्ञान एवं सामाजिक संदर्भों की विषमताएँ... ज्यादातर यही लेखन के विषय रहे हैं। स्त्री विमर्श, नारी मुक्ति और आत्मकथाओं ने कुछ लेखिकाओं को अफने जीवन के परदे उघाड़ने का साहस अवश्य दिया है। बरसों खामोश रहकर वरिष्ठ लेखिका मन्नू भंडारी ने अपनी आत्मस्मरणात्मक पुस्तक एक कहानी यह भी में अपने जीवन के कुछ पहलुओं को कलम के जरिए गुजर जाने दिया है। एक ख्याति प्राप्त लेखक की पत्नी होने का रोमांच, एहसास तब खंडित होता है जब जिद्दी, अहंकारी, महत्त्वाकांक्षी, धोखेबाज पति के अनेक प्रेम प्रसंगों के बीच अपने लिए कोना तलाशती लेखिका कि सादगी, आदमीयत और रचना संकल्प अंतत: तलाक के मोड पर आ ही जाता है। फिर भी मन्नू भंडारी जी ने पति के हर पहलू को लिखने में परहेज किया है लेकिन प्रभा खेतना ने छिन्नमस्ता में खुलकर पितृसत्तात्मक समाज पर चोट की है। इ आत्मकथात्मक उपन्यास में लेखिका ने प्रिया के रूप में यह स्वीकार किया है कि उसके ही सगे भाई ने उसका लगातार यौन शोषण किया और वह भी संयुक्त कट्टर मारवाड़ी घराने में रहते हुए।

मैत्रेयी पुष्पा, अलका सरावगी देह गर्षण, यौनांगों के स्पर्श परिवार के रिश्तों में ही पनपते यौन सम्बंधों को ही लिख पाई जबकि तेलुगु लेखिका वोल्गा ने स्त्री के अंगों में पुरुष विलासिता कि वीभत्सता को खोजा और यह स्वीकार किया कि लड़की माने चोटी डालना, फूल लगाना, सुसज्जित रहना और औरत माने आँख का पानी, औरत माने गर्भ की थैली, दो ओवरीज। अब जमाना आ गया है कि वर पक्ष की इच्छा के अनुसार वधुओं को अवयव बदलना होगा। औरत वह रचना है जिसके अंग-प्रत्यंग पुरुष की कामक्रीड़ा के लिए बनाए गए हैं यानी पुरुष सत्ता पर स्वीकृति की मोहर कि जिसमें औरत मात्र वस्तु है, भोग्या है।

कृष्णा सोबती ने भी औरत की पीड़ा को खूब उकेरा, पर ऐसा लगता है जैसे उनका लेखन पुरुष द्वेष से उपजा हो। जबकि समाज में हर व्यक्ति एक जैसा नहीं होता।

मराठी लेखिकाओं की आत्मकथाएँ भी पितृसत्ता में जकड़ी औरत का आइना है। जहाँ एक ओर दलित औरत की पीड़ा है तो वहीं बेड़िया समाज एवं कोल्हाटी समाज में स्त्रियों के यौन शोषण का लंबा सिलसिला है जिसे सहती, मरती, खपती औरत उस डोर पर चलने को विवश है जिसके दोनों सिरे खूंखार भेड़ियों के हाथ में हैं। मुखौटा उतरते ही असलियत सामने आ जाती है।

विश्व विख्यात फ्रेंच लेखिका सीमोन द बोउवार ने खुद भी आजाद जीवन जिया और अपनी चर्चित पुस्तक दि सेकेंड सेक्स में औरत के तमाम उन रूपों से नकाब हटाए जो पूरे विश्व में लगभग एक जैसे हैं। यह पुस्तक जब प्रकाशित हुई तो पुरुष समाज में खलबली मच गई और सभी को एहसास हुआ क्या यही हमारी नियति है? नारी पत्नी, प्रेमिका, मां, बेटी, रखैल, वेश्या या दासी। आधी दुनिया कि इस तस्वीर में जड़े तमाम स्त्री रूपों की ओर उठा बस एक ही सवाल कि क्या नारी की अपनी कोई पहचान है? सीमोन लिखती है कि इतनी प्रतिभासंपन्न होकर भी आज तक कोई लेखिका शेक्सपीयर नहीं बनी, दान्ते नहीं बनी। यह तथ्य एक सतहीपन का द्योतक है। संस्कृति भले ही कुछ विशिष्ट जनों के संरक्षण में ही पनपती थी। किन्तु महान प्रतिभाएँ हमेशा सामान्य जनों से ही उपजती हैं। महिला लेखक के विरुद्ध सारी परिस्थितियाँ हैं। ए रूम आॅवन्स ओन में वर्जीनिया वुल्फ, शेक्सपीयर की भरपूर ज़िन्दगी से उसकी बहन की तुलना करती हैं जो अत्यंत सीमित और संकुचित जीवन में बंद थी। यह तो अठारहवी सदी में एफरा वेन जैसी लेखिका थी जो कलम के ऊफर पूर्ण रूप से निर्भर रह सकी। ज्यादातर लेखिकाओं के पास वह भौतिक स्वतंत्रता नहीं थी जो आंतरिक स्वतंत्रता को विकसित करने में सहायक हो सके। वर्जीनिया वुल्फ कहती हैं, इंग्लैंड में प्राय: लेखिकाओं के प्रति विद्वेष का भाव रखा जाता था।

फ्रांस में लेखिकाओं की स्थिति इंग्लैंड से बेहतर थी। वहाँ उन्हें वैचारिक स्वतंत्रता तो थी पर उनके लेखन को सामाजिक सम्मान नहीं मिला था। उनका लिखना तिरस्कृत था।

आज जब स्त्री ने लिखने की स्वतंत्रता पाई है तो उसके भीतर का सदियों से दबा दर्द उछालें, मारकर बाहर निकल आया है। उसकी लिखी आत्मकथाएँ और स्त्री विमर्श की किताबों ने बुद्धिजीवियों की नींदें उड़ा दी हैं।

बात तमाम देशों और तमाम भाषाओं में लिखी लेखिकाओं के लेखन के लंबे सफ़र की है। इस सफ़र में उन्होंने क्या-क्या सहा या क्या-क्या वे सह रही हैं, यह एक अलग दास्तान है लेकिन इनका औरत होने का जुर्म साझा है और इसी साझे जुर्म की उन्होंने सजाएँ भी एक जैसी पाई हैं। आज की लेखिका (औरत) उस सजा से इंकार करती है। वह जो लड़ाई लड़ना चाहती है उसकी कीमत चुकाने का उसमें साहस है। लेखिकाओं ने इस लड़ाई में अपनी कलम को औजार बनाया है और सामना कर रही हैं एक सशक्त विरोधी समाज का जो औरत के हक को नकारता है। सारा शगुफ्ता लिखती हैं-

वह अपने जिस्म के तने से अपने गिरे पत्ते उठाती है / और रोज अपनी बंद मुट्ठी में सिसक के रह जाती है / वह सोचती है / कि इंसान होने से बेहतर तो वह गंदुम का पेड़ होती / तो कोई परिन्दा चहचहाता / तो वह अफने मौसम देखती / लेकिन वह सिर्फ़ मिट्टी है, सिर्फ़ मिट्टी / वह अपने बदन से रोज खिलौने बनाती है / और खिलौने से ज़्यादा टूट जाती है / वह कुंआरी है / लेकिन जिल्लत लगान सहती है / वह हमारी है / लेकिन हम भी उसे अपनी दीवारों में चिन के रखते हैं। / कि हमारे घर ईंटों से भी छोटे हैं।

जिस कशमकश और जद्दोजहद से जूझकर औरत कलम थामती है वहीं हाल मीडिया में उसकी भूमिका का है। मीडिया में उसकी जिस तरह की छवि प्रस्तुत की जा रही है उसमें समूचा आकर्षण उसकी देहयष्टि पर केन्द्रित रहता है, उसके आंतरिक सौंदर्य पर मीडिया का ध्यान कम ही जाता है, इसलिए जो स्त्री मीडिया के एक बड़े भाग में दिखाई देती है वह वस्तुमात्र है।