शव-परीक्षण / अन्तोन चेख़व / अनिल जनविजय

Gadya Kosh से
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जाड़ों के दिन थे। कार्यकारी न्यायिक जाँच अधिकारी लीज़िन और डाक्टर स्तरचेंका एक बीमा एजेण्ट की लाश का शव-परीक्षण करने के लिए सीरन्या गाँव की तरफ़ जा रहे थे। वे बीच राह में ही थे कि अचानक बर्फ़ का तूफ़ान आ गया। तूफ़ान में फँसकर वे रास्ता भटक गए और फिर बड़ी देर तक तक अपनी राह ढूँढ़ते रहे। ठीक रास्ता ढूँढ़ने में कई घण्टे गुज़र गए। इसलिए वे दोपहर से पहले अपने ठिकाने पर पहुँचने की जगह सिर्फ़ शाम को ही अपनी मंज़िल पर पहुँचे। जब तक वे सीरन्या गाँव में पहुँचे, तब तक अन्धेरा हो गया था। रात बिताने के लिए वे गाँव से कुछ ही दूर बनी सराय में पहुँचे। इसी सराय में ही वह लाश भी पड़ी हुई थी, जिसका उन्हें पोस्टमार्टम करना था। यह लाश एक बीमा एजेण्ट की थी, जो तीन दिन पहले ही किसी काम से सीरन्या आया था।

इस बीमा एजेण्ट का नाम लिसनीत्सकी था। सराय में आकर लिसनीत्सकी ने सराय के सेवक से चाय पीने के लिए गर्म पानी का समोवार मँगाया था, लेकिन समोवार के आने से पहले ही उसने ख़ुद को गोली मार ली थी। यह देखकर उस समय सराय में उपस्थित सब लोग हक्के-बक्के रह गये थे। मरने से पहले लिसनीत्स्की ने मेज़ पर कुछ तश्तरियों में खाने-पीने का सामान सजा दिया था। बस, यही बात लोगों को खटक रही थी। इसी वजह से लोगों को यह शक हो रहा था कि उसकी हत्या की गई है और शव परीक्षण करने की ज़रूरत है।

सराय में पहुँचकर डाक्टर और जाँच अधिकारी ने अपने जूतों और कपड़ों पर पड़ी बर्फ़ झाड़ी। उस इलाके का ग्रामसेवक उनके पास ही खड़ा था, जिसका नाम लशअदीन था और जो उनकी सहायता करने के लिए वहाँ आया हुआ था। उसने अपने हाथ में टीन का एक लैम्प पकड़ रखा था और उन्हें रोशनी दिखा रहा था। चारों तरफ़ मिट्टी के तेल की बदबू फैली हुई थी।

— तुम कौन हो? — डाक्टर ने उससे पूछा।

— ग्रामशेवक।

वह अपने हस्ताक्षर करके हमेशा उनके नीचे ऐसे ही लिखा भी करता था — ’ग्रामशेवक’।

— अच्छा। गवाह कहाँ हैं?

— शायद चाय की दुकान पर गए हुए हैं।

सराय में दाईं तरफ़ एक साफ़ कमरा था जो मेहमानख़ाना कहलाता था। और बाईं तरफ़ एक गन्दा-सा कमरा था, जिसमें जाड़ों में बड़ा आतिशदान जलता रहता था और सराय में काम करने वाले सेवकों के सोने के लिये कुछ ताक बने हुए थे। डाक्टर और जाँच अधिकारी मेहमानख़ाने में चले गए। उनके पीछे-पीछे सिर के ऊपर लैम्प उठाए हुए ग्रामसेवक भी था। यहीं मेहमानख़ाने में एक बड़ी मेज़ के पास मृतक की लाश पड़ी हुई थी जो सफ़ेद कपड़े से ढकी हुई थी। लैम्प की हल्की रोशनी में सफ़ेद चादर के अलावा वहाँ रखे रबड़ के नए जूते भी दिखाई दे रहे थे। और इन सबको मिलाकर मेहमानख़ाने का वातावरण भयानक लग रहा था।

कमरे में शान्ति छाई हुई थी। अन्धेरे में दीवारें काली लग रही थी। मेज़ पर वह समोवार रखा हुआ था, जिसमें सराय का सेवक बीमा एजेण्ट के लिए गर्म पानी लाया था। समोवार न जाने कब का ठण्डा पड़ चुका था। उसके चारों तरफ़ वे तश्तरियाँ रखी हुई थीं जिनमें खाने-पीने का सामान सजा हुआ था।

— गाँव की सराय में आकर ख़ुद को गोली मार लेना कितनी बेतुकी बात है — डाक्टर ने कहा — भई, तुम अपने सिर में गोली मारना चाहते हो तो अपने घर की खत्ती में चले जाओ और वहाँ गोली मार लो।

डाक्टर अपनी गर्म टोपी, फ़रकोट और गमबूट पहने-पहने ही वहाँ बैठ गया। उसके साथ आया जाँच अधिकारी लीज़िन भी उसके सामने बैठ गया।

— ये पागल और चिड़चिड़े लोग आम तौर पर स्वार्थी होते हैं, — डाक्टर ने ग़ुस्से में कहा — अगर कोई चिड़चिड़ा आदमी आपके साथ आपके कमरे में है तो वो अक्सर अपने अख़बार के पन्नों को खड़खड़ाता है। वह आपके सामने ही अपने बीवी से झगड़ा करने लगता है, बिना आपका ख़याल किए ही। और उसके मन में अगर गोली चलाने की बात आती है तो वह किसी गाँव की सराय में जाकर ख़ुद को गोली मार लेता है ताकि दूसरों को ज़्यादा से ज़्यादा दिक्कत हो। इस तरह के लोग हर हालत में सिर्फ़ अपने बारे में ही सोचते हैं, सिर्फ़ अपने बारे में। बड़े-बूढ़े हमारे इस चिड़चिड़े ज़माने को ज़रा भी पसन्द नहीं करते।

— बूढ़ों को क्या पसन्द है, क्या नहीं, इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है? — जाँच अधिकारी ने जम्हाई लेते हुए कहा — अब आप बूढ़ों को यह बताइए कि पहले जो लोग आत्महत्या करते थे और अब जो लोग आत्महत्या करते हैं, उनमें क्या फर्क है? पहले जो ईमानदार आदमी ख़ुदकुशी करता था वह ख़ज़ाने से गबन करता था और आज जो आदमी ख़ुदकुशी करता है वह ज़िन्दगी से थक चुका होता है। दोनों में से कौन बेहतर है? भई, यह ठीक है कि आप अपनी ज़िन्दगी से थक गए हैं मगर सराय में ख़ुदकुशी करने की क्या ज़रूरत है?

— कितनी दुख की बात है — ग्रामसेवक ने कहा — लोग बहुत परेशान हैं। सारे गाँव के बच्चे रो रहे हैं। औरतें अपनी खत्तियों में घुसते हुए डर रही हैं। वे घबरा रही हैं कि अन्धेरे में कहीं साहब का भूत न आ जाए। चलिए, हम मान लेते हैं कि औरतें बेवक़ूफ़ होती हैं, लेकिन गाँव के ज़्यादातर आदमी भी तो डर रहे हैं। वे अकेले इस सराय के पास से नहीं गुज़र रहे।

डाक्टर स्तरचेंका और जाँच अधिकारी लीज़िन दोनों चुपचाप बैठे हुए थे और कुछ सोच रहे थे। स्तरचेंका अधेड़ उम्र का आदमी था। लीज़िन बेहद गोरे रंग का था और सिर्फ़ दो साल पहले ही उसने अपनी पढ़ाई ख़त्म की थी। लेकिन आज भी वह किसी छात्र की तरह ही लगता था।

उन दोनों को इस बात पर अफ़सोस हो रहा था कि वे तूफ़ान की वजह से देर से सराय में पहुँचे थे और अब उन्हें सुबह तक यहाँ रुकना पड़ेगा और सारी रात इस लाश के साथ ही गुज़ारनी होगी। अभी सिर्फ़ शाम के छह बजे थे। पहले तो उनको यह लम्बी शाम बितानी होगी, फिर उसके बाद लम्बी रात आएगी और उन्हें यहाँ घण्टों बोर होना पड़ेगा। यहाँ रात में सोने के लिए बिस्तर तक नहीं है और चारों तरफ़ तिलचट्टे घूमते दिखाई पड़ रहे हैं। फिर सुबह तक ठण्ड भी काफ़ी बढ़ जाएगी और अब यह सब परेशानी उन्हें झेलनी ही पड़ेगी।

उस समय बाहर बर्फ़ का तेज़ तूफ़ान चल रहा था।

वे दोनों सोच रहे थे कि उन्होंने किस ज़िन्दगी की कामना की थी और उनको ये क्या ज़िन्दगी मिली है। जबकि उन्हीं की उम्र के जो दूसरे लोग हैं, वे बड़े आराम से शहरों में रहते हैं और मस्ती से घूमते हैं। वे ख़राब मौसम को लेकर परेशान नहीं होते। वे अगर नाटक देखने जाना चाहते हैं तो तैयार होते हैं और चले जाते हैं। या फिर अपने घर की बैठक में बैठे कोई किताब पढ़ते रहते हैं। अगर उन लोगों ने पुलिस की नौकरी न की होती तो शायद वे भी इस समय पित्चिरबूर्ग में नेव्स्की रोड पर घूम रहे होते या मसक्वा में पित्रोफ़्का स्ट्रीट में मस्ती कर रहे होते, जहाँ कोई मोहक और लुभावना गीत बज रहा होता और वे किसी शानदार रेस्टोरेण्ट में जाकर बैठने का प्लान बना रहे होते।

शू‌ंऽऽऽ ... शूंऽऽऽऽ ... । बाहर तूफ़ान चल रहा था और सराय की दीवार पर बार-बार कोई चीज़ टकरा रही थी, जिसकी भौण्डी आवाज़ भीतर तक आ रही थी।

— आप जो चाहें, वो करें, लेकिन मैं यहाँ रुकना नहीं चाहता — स्तरचेंका ने कुर्सी से उठते हुए कहा — अभी तो सिर्फ़ छह बजे हैं। मैं कहीं घूम आता हूँ। थोड़ी दूर पर ताउनिस साहब का घर हैं । सिरन्या से सिर्फ़ तीन किलोमीटर दूर है वह जगह। उनके यहाँ चला जाता हूँ। शाम वहीं बिताऊँगा । लशअदीन ! जाओ, ज़रा स्लेजगाड़ी वाले को बता दो कि वह घोड़ों को अभी नहीं खोले।

यह कहकर स्तरचेंका ने लीज़िन से पूछा — तोऽऽआप क्या करेंगे?

— मालूम नहीं। पहले तो कुछ देर तक लेटने का मन है, फिर शायद सो जाऊँगा।

स्तरचेंका कमरे से बाहर चला गया। थोड़ी देर तक उसकी आवाज़ आती रही। वह गाड़ीवाले से बातें कर रहा था। फिर उसकी गाड़ी चली गई।

इसके बाद सराय का मालिक वहाँ आया और उसने लीज़िन से कहा — जनाब, आपको यहाँ रात नहीं बितानी चाहिए। वहाँ सराय के दूसरे हिस्से में चले जाइए। वह जगह हालाँकि बहुत साफ़-सुथरी नहीं है, मगर एक रात तो बिता ही सकते हैं। मैं अभी जाकर गर्म समोवार भिजवाता हूँ। इसके बाद आपका बिस्तर लगवा दूँगा।

थोड़ी देर बाद जाँच अधिकारी चाय पी रहा था और ग्रामसेवक लशअदीन दरवाज़े के पास खड़ा होकर उसे बातें कर रहा था। लशअदीन की उम्र साठ साल से ज़्यादा लग रही थी। वह नाटे क़द का, पतला-दुबला और गोरे रंग का आदमी था। उसके चेहरे पर हमेशा मुस्कान खिली रहती थी। उसकी आँखों में कीच भरी हुई थी। उसके सारे दाँत गिर चुके थे और उसका मुँह पोपला था। इसलिए जब वह बोलता था तो ऐसा लगता था मानो वह लेमनचूस चूस रहा हो । उसके पैरों में जाड़ों में पहने जानेवाले घरेलू किरमिच के जूते थे। वह हमेशा अपने हाथ में लाठी पकड़े रहता था।

जाँच अधिकारी अभी जवान था और बूढ़े को उस पर दया आ रही थी। शायद इसलिए वह उसे तुम कहकर बुला रहा था।

— गाँव के मुखिया ने मुझसे कहा था कि जैसे ही जाँच अधिकारी आएँ, मैं उन्हें ख़बर कर दूँ । इसलिए अब मुझे उनके पास जाना होगा। उनका घर यहाँ से क़रीब तीन-चार मील दूर है, तूफ़ान चल रहा है। बर्फ़ भी कम नहीं गिर रही है। आधी रात से पहले पहुँचूँगा या नहीं। देखिए तो तूफ़ान कैसे गरज रहा है ...।

— नहीं, मुखिया की कोई ज़रूरत नहीं है, — लीजिन ने कहा — उसका यहाँ, भला, क्या काम है?

लीजिन बड़े ध्यान से बूढ़े की तरफ़ देख रहा था। उसने बूढ़े से पूछा — बाबा, यह बताओ, तुम कितने साल से यह काम कर रहे हो?

— कितने बरस से? बस, यही समझो कि तीस साल से ज़्यादा समय हो चुका है। फ़ौज से वापिस लौटने के पाँच साल बाद ही मैं ग्रामशेवक बन गया था। अब तुम ख़ुद ही हिसाब लगा लो। उस दिन से आज तक काम कर रहा हूँ। सबके लिए त्योहार होते हैं, पर मैं दूसरों की सेवा में लगा रहता हूँ। लोग ईस्टर मना रहे होते हैं, एक दूसरे को ईसा के फिर से पैदा होने की बधाई दे रहे होते हैं और मैं अपने थैले के साथ उनकी सेवा में यहाँ-वहाँ घूम रहा होता हूँ। कभी बैंक जाता हूँ, कभी डाकख़ाने में, कभी मुखिया के घर तो कभी पंचायत में। कभी ज़मींदारों के पास तो कभी काश्तकारों के पास, मुझे सभी लोगों से मिलना-जुलना पड़ता है। कभी किसी को कोई पैकेट देना है तो कभी किसी को कोई सूचना देनी हूँ। कभी कोई फ़ार्म पहुँचाना है तो कभी उनका भरा हुआ फ़ार्म उनसे वापिस लेना है। कभी-कभी कोई जानकारी इकट्ठी करता हूँ। साहब, आजकल तो ऐसे फ़ार्म हैं जिन में अलग-अलग रंगों में यह लिखा होता है कि किस खेत में कितनी बुवाई की गई है और कितनी फ़सल काटी गई है। किसानों के पास कितनी राई बाक़ी पड़ी है, कितने मन जई, कितना फूस बाक़ी है। पहले मुझे उनको यह फ़ार्म देना पड़ता है और इसके बाद उनसे भरा हुआ फ़ार्म वापिस लेना होता है। जैसे, अभी मुझे मुखिया के पास जाना ही होगा और यह बताना होगा कि साहब का शव-परीक्षण करने की कोई ज़रूरत नहीं है, इससे कोई फ़ायदा नहीं होगा, बेकार में अपने हाथ गन्दे करने का क्या फ़ायदा ? यह ठीक है कि जनाब आए हैं क्योंकि क़ानूनन आपका यहाँ आना ज़रूरी था और क़ानून का पालन तो करना ही पड़ता है। मैं तीस साल से क़ानूनों का पालन कर रहा हूँ। गर्मी में कोई दिक़्क़त नहीं होती, ज़मीन सूखी होती है और गर्म होती है। लेकिन सर्दियों में बहुत दिक़्क़त होती है। कई बार तो मैं ठण्ड से अकड़कर मरते-मरते बचा। एक बार ... एक बार तो डूब भी गया था। तरह-तरह की परेशानियों से गुज़रा हूँ। कुछ बदमाशों ने एक बार जंगल में मेरा बैग छीन लिया था, मेरी पिटाई भी हुई और मुझे मुक़दमा भी झेलना पड़ा।

— अरे, मुक़दमा, किसलिए?

— धोखेबाज़ी का मुक़दमा।

— धोखेबाज़ी? क्या तुम धोखेबाज़ हो?

— एक बार ग्रिगोरिफ ने ठेकेदार को कुछ तख़्ते बेच दिए थे ... यानी बेईमानी उसने की थी। पर मुझे भी इस मामले में फँसा दिया गया। उसने मुझे वोदका ख़रीदने के लिये रेस्टोरेण्ट में भेजा था। हालाँकि उसने मुझे पचास ग्राम भी वोदका पीने के लिए नहीं दी। लेकिन मुसीबत आती है तो ऐसे ही आती है। मुझे भी चोर और धोखेबाज़ बता दिया गया, जिस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। हम दोनों पर ही मुक़दमा चला था। उसे सज़ा मिली और भगवान की कृपा से मैं बच गया। क़ानून के अनुसार मैं सच्चा निकला। काज़ी ने फ़ैसला सुनाया था। पूरे क़ायदे के साथ। आख़िर अदालत का फ़ैसला था वो । मैं आपको बता दूँ, जनाब-ए- आली ! कि हमारा काम उन लोगों के लिए बहुत मुश्किल है, जिनको इस काम की आदत नहीं है। भगवान न करे, उनको यह काम करना पड़े। मौत की तरह मुश्किल है यह काम। पर हमारे लिए तो बच्चों का खेल है। बल्कि कभी-कभी तो ऐसा होता है कि जब काम नहीं होता तो बैठे-बैठे ही पैर थक जाते हैं। वैसे भी घर में बैठा रहना मुसीबत ही है। जब मैं घर पर होता हूँ तो पंचायत के किरानी की भी बेगार करनी पड़ती है। कभी उसका आतिशदान जलाना पड़ता है, कभी उसके लिये पानी लाना पड़ता है तो कभी उसके जूते साफ़ करने पड़ते हैं।

— अच्छा, यह बताओ तुम्हारी तनख़्वाह कितनी है? — लीजिन ने पूछा।

— साल भर में पूरे ८४ रूबल मिलते हैं।

— शायद ऊपर की भी कुछ कमाई होगी? इसके बिना तो काम नहीं चलता।

— अरे, ऊपर की कमाई क्या है? आजकल साहब लोग चाय के लिए भी पैसे कभी-कभी ही देते हैं। साहब लोग अब सख़्त हो गए हैं। तुम उनके लिए फ़ाइल लेकर आते हो और वे नाराज़ हो जाते हैं। तुम उनके सामने टोपी उतारते हो और वे नाराज़ हो जाते हैं। कभी- कभी तो मुझे टोक भी देते हैं कि तुम उस दरवाज़े से अन्दर क्यों नहीं आए जिस से मुझे उनके पास जाना चाहिए था। कभी वे कहते हैं — तुम शराबी-कबाबी हो, कभी कहते हैं — तुम प्याज़ की तरह महकते हो, उल्लू, गधे के बच्चे। हाँ, ऐसे लोग भी हैं जो दयालु हैं। लेकिन उनसे क्या मिलता है? वे सिर्फ़ हमारे ऊपर हंसते हैं और हमारा नाम बिगाड़कर बुलाते हैं। जैसे अल्तूख़िन साहब को ही लीजिए। लगता है, समझदार आदमी हैं, लेकिन ऐसा दहाड़ते हैं कि ख़ुद उनकी समझ में नहीं आता कि वे क्या कह रहे हैं। मेरा नाम भी बिगाड़ दिया था — यह कहकर ग्रामसेवक ने धीमी आवाज़ में कोई शब्द कहा। लेकिन उसकी आवाज़ इतनी धीमी थी कि लीज़िन की यह समझ में नहीं आया कि उसने क्या कहा है।

— क्या? क्या कहते थे? — लीज़िन ने पूछा — ज़रा, दोहराओ तो।

— सरकार ! — ग्रामसेवक ने ज़ोर से कहा — पिछले क़रीब छह साल से वे मुझे ऐसे ही बुलाते हैं। कहते हैं, राम राम सरकार। लेकिन मैं नाराज़ नहीं होता, जो है, ठीक है। कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई अफ़सरानी वोदका का एक गिलास मुझे पकडा देती है और साथ में दो कचौड़ियाँ। तो मैं उसकी सेहत के लिये वह जाम पी लेता हूँ। ज़्यादातर तो मुझे किसान ही पीने के लिए देते हैं। वे बहुत दयालु होते हैं, ख़ुदा से डरते हैं। कोई रोटी देता है, कोई सब्ज़ी खाने के लिए देता है। और कोई-कोई वोदका भी दे देता है। अब देखिए, जब गवाह चाय पीने के लिए गए तो उन्होंने मुझे भी कुछ पैसे दे दिए और मुझ से कहा कि मैं उनके घोड़ों का ध्यान रखूँ। यह अजनबी जगह है और वे घोड़ों को अकेले छोड़ना नहीं चाहते। कल उन्होंने न सिर्फ पैसे दिए थे, बल्कि शराब भी पिलाई थी।

— और तुम्हें डर नहीं लगता?

— डर तो लगता है, साहब ! लेकिन क्या करूँ? मेरा काम ही ऐसा है। पिछली गर्मियों में एक मुजरिम को शहर ले जा रहा था तो उसने रास्ते में ही मेरी गर्दन पकड़ ली थी। चारों तरफ़ खेत ही खेत थे। मैं क्या करता? यहाँ यही हालत है। इन लिसनीत्सकी साहब को, जिन्होंने ख़ुद को गोली मार ली है, मैं उनके बचपन से जानता हूँ। उनके माँ बाप को भी जानता था। मैं निदशोतवा गाँव का रहनेवाला हूँ और लिसनीत्सकी साहब का परिवार हमारे गाँव से पन्द्रह-सोलह किलोमीटर दूर रहता था। हमारे खेतों की मेड़ से मेड़ मिली हुई थी। हम एक दूसरे के पड़ोसी थे। लिसनीत्सकी साहब के पिताजी और माँ को भी मैं अच्छी तरह जानता था। उनकी एक बहन भी थी। वह ख़ुदा में विश्वास रखती थी और बड़ी दयालु थी। भगवान उसकी आत्मा को शान्ति दे। उसकी हमेशा बड़ी याद आती है। उसने शादी नहीं की थी, और मरने से पहले अपनी वसीयत में उसने सारी जायदाद साधुओं के मठ को दान कर दी थी। सौ हैक्टेयर ज़मीन थी। इसके अलावा क़रीब दो सौ हैक्टेयर ज़मीन उसने हम गाँव के किसानों को दे दी थी लेकिन उसके भाई ने यानी लिसनीत्स्की साहब के पिताजी ने उस वसीयत के काग़ज़ अलाव में जला दिए और सारी ज़मीन अपने पास रख ली। बड़े लिसनीत्स्की साहब सोच रहे थे कि अब उस ज़मीन पर वे खेती करेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

ग्रामसेवक ने एक गहरी सांस ली और आगे सुनाने लगा।

— दुनिया में झूठ ज़्यादा दिन नहीं टिकता है। बड़े लिसनित्स्की साहब भी क़रीब बीस साल तक अपने में नहीं थे। उन्हें गिरजे से भी निकाल दिया गया था यानी किसी ने उनके मरने पर उनकी आत्मा की शान्ति के लिये प्रार्थना भी नहीं की। बहुत मोटे थे वे। उनका पेट फट गया, बस्स । बाद में उनके बेटे सिर्योजा से सारी सम्पत्ति सरकार ने ज़ब्त कर ली क्योंकि उसके बाप के ऊपर बहुत ज़्यादा उधार हो गया था । ख़ैर, जो हुआ सो हुआ। पढ़ाई लिखाई तो उसने की नहीं थी इसलिए उसके चाचा ने उसे अपने यहाँ काम पर रख लिया। उसका चाचा गाँव की पंचायत का मुखिया था। उसने उसे बीमा एजेण्ट बना दिया। सिर्योजा जवान था, लेकिन बहुत घमण्डी था। वह शान से रहना चाहता था। किसानों से बात करना वह अपनी शान के ख़िलाफ़ समझता था। बग्घी में बैठकर वह किसानों से बोलता भी नहीं था। सिर्फ़ नीचे ज़मीन की ओर ताकता रहता था। कोई उसके कान के पास मुँह लगाकर ज़ोर से पुकारता ’सेर्गेय सेर्गेइच’ तो वह चौंककर उस आदमी की तरफ देखकर ज़ोर से कहता ’आ‌ऽऽ...’ और फिर ज़मीन की तरफ़ ताकने लगता। अब उसने आत्महत्या कर ली है। जनाब-ए-आली ! यह सब ठीक नहीं है, मेरी समझ में नहीं आता कि भगवान की इस दुनिया में हो क्या रहा है? यदि कहा जाए तुम्हारा पिता अमीर हैं और तुम ग़रीब हो तो नाराज़गी पैदा होती है। लेकिन तुम्हें ग़रीबी में ज़िन्दगी बिताने की भी आदत डालनी चाहिए। कभी मैं भी अच्छे ढंग से रहता था। मेरे पास भी दो घोड़े थे, तीन गायें थीं और क़रीब बीस भेड़ें थीं। लेकिन समय गुज़रने के साथ-साथ मेरे पास सिर्फ़ एक थैला रह गया। और यह थैला भी मेरा नहीं है, सरकारी है। और अब निदशोतवा गाँव में मेरा घर ही सबसे ख़राब हालत में है। ऐसा तो होता ही है ज़िन्दगी में। कभी राम के पास चार कोचवान थे और अब वह खुद कोचवान है। कभी श्याम के पास चार मज़दूर थे और अब वह खुद मज़दूर है।

— अच्छा तुम्हारी यह हालत कैसे हुई? — जाँच अधिकारी ने पूछा।

— मेरे बेटे बहुत शराब पीने लगे। इतनी पीते हैं कि बताया नहीं जा सकता।

लीज़िन सोच रहा था कि वह देर-सवेर मसक्वा चला जाएगा और यह बूढ़ा इसी ज़मीन पर यहाँ घूमता फिरेगा। ज़िन्दगी में उसे तरह-तरह के चीथड़ा लोगों से मुलाक़ात करनी पड़ेगी, उन गन्दे-सन्दे और ग़रीब लोगों से, जो अपनी ज़िन्दगी में कुछ न कर पाए, जिन्होंने सिर्फ़ पाँच कोपेक ही अपनी ज़िन्दगी में कमाए, लेकिन जिनके दिल में यह गहरा विश्वास जमा हुआ है कि झूठ के बल पर ज़िन्दा नहीं रहा जा सकता है।

लशअदीन की बात सुनते-सुनते लीज़िन थक गया था, इसलिए उसने बिस्तर बिछाने के लिए फूस लाने को कहा। हालाँकि सराय में लोहे का पलंग भी था, जिसपर एक कम्बल भी पड़ा हुआ था। उस पलंग को यहाँ लाया जा सकता था। लेकिन उस पलंग के पास पहले ही तीन दिन से एक लाश पड़ी हुई थी। उस आदमी की लाश जो मौत से पहले उसी पलंग पर लेटा हुआ था। लीज़िन को उस पलंग पर सोना ठीक नहीं लग रहा था।

— अभी सिर्फ़ साढ़े सात ही बजे हैं — घड़ी पर एक नज़र डालकर लीज़िन ने सोचा — कितनी बुरी बात है।

वह सोना नहीं चाहता था, लेकिन कोई काम न होने की वजह से समय काटने के लिए वह बिस्तर पर लेट गया। लशअदीन बरतन उठाए हुए सराय में इधर-उधर घूम रहा था और भारी सांस लेते हुए तरह-तरह की आवाज़ें निकाल रहा था। वह कुछ देर मेज़ का चक्कर लगाता रहा, फिर उसने लालटेन उठाई और वह बाहर चला गया। पीछे से उसके सफ़ेद बालों पर नज़र डालते हुए लीजिन ने सोचा — किसी नाटक में काम करने वाले जादूगर की तरह लग रहा है यह आदमी।

बाहर दिन छिप गया था और अन्धेरा हो गया था। खिड़की के बाहर बर्फ़ की सफ़ेदी झलक रही थी। ऐसा लग रहा था कि मानो चान्द बादलों से निकल आया हो।

शूं ऽऽऽ... — तूफ़ान गा रहा था — शूं ऽऽऽ...।

ऐसा लग रहा था कि जैसे सराय की परछत्ती पर कोई औरत रो रही हो — बापूऽऽऽ... ! मेरे बापूऽऽऽ... !

अचानक सराय की दीवार पर किसी चीज़ की चोट सुनाई दी। धप्प ! एक बार फिर से धप्प की आवाज़ आई। जाँच अधिकारी कान लगाकर सुनने लगा। यह किसी औरत के रोने की आवाज़ नहीं थी, बल्कि तेज़ हवा चलने की आवाज़ आ रही थी। ठण्ड बढ़ती रही थी। इसलिए लीज़िन ने अपने कम्बल के ऊपर अपना ओवरकोट भी डाल लिया। शरीर को थोड़ी गर्मी मिलने पर वह फिर से विचारों में डूब गया।

अब वह सोच रहा था कि उसने इस तरह की ज़िन्दगी कभी नहीं चाही थी कि वह किसी सराय में लेटा हुआ हो और बाहर तूफ़ान चल रहा हो। उसे किसी बूढ़े आदमी से बात करके समय काटना पड़ रहा हो और उसके बराबर वाले कमरे में एक लाश पड़ी हुई हो। ये सब बातें उस जीवन से बहुत दूर थीं, जो जीवन वह जीना चाहता था। ये सब बातें ज़रा भी दिलचस्प नहीं थीं। अगर यह आदमी मसक्वा में मरा होता या मसक्वा के आसपास के किसी इलाक़े में उसने आत्महत्या की होती और उसे इस मामले की जाँच करनी पड़ी होती तो यह उसके लिए बहुत दिलचस्प और महत्त्वपूर्ण मामला होता। तब उसे शायद लाश के पास सोने से डर लगता। लेकिन यहाँ मसक्वा से हज़ारों किलोमीटर दूर ऐसा लग रहा था जैसे यह एक दूसरा ही जीवन हो, बल्कि जीवन नहीं हो, आस पास लोग नहीं हों और समय यहाँ बेकार गुज़र रहा हो। लशदिन तो कहता है कि यह सब याद नहीं रह जाएगा। समय बीतने के साथ-साथ वह सब भूल जाएगा। जब लीज़िन सीरन्या से निकल जाएगा, सीरन्या छोड़ देगा तो उसे कुछ भी याद नहीं रहेगा।

असली जीवन तो मसक्वा में है, पित्चिरबूर्ग में है और यहाँ इन बड़े शहरों से दूर जैसे जेल है कोई। जब आपके मन में कोई सपना होता है, जब आप कोई भूमिका निभाना चाहते हैं, लोकप्रिय होना चाहते हैं, सरकारी वकील या जाँच अधिकारी होना चाहते हैं, कुलीन और भद्र लोगों के बीच अपना नाम लिखना चाहते हैं तो आपको सिर्फ़ मसक्वा याद आता है। मसक्वा का जीवन असली जीवन है। यहाँ, भला, क्या रखा है? वही उबाऊ जीवन, जिसके तुम आदी हो जाते हो और फिर ज़िन्दगी से एक ही उम्मीद करते हो कि यह ज़िन्दगी किसी भी तरह बीत जाए।

लीज़िन अपने विचारों में डूबकर मसक्वा पहुँच चुका था और इस समय वह मसक्वा की सड़कों पर घूम रहा था। वह मसक्वा की अपनी जान-पहचान की जगहों पर आ-जा रहा था। वह अपने दोस्तों और सहयोगियों से मिल रहा था। वह सोच रहा था कि अभी तो वह सिर्फ छब्बीस साल का है और अगर पाँच-दस साल बाद भी वह मसक्वा पहुँच जाता है, तब भी देर नहीं होगी। भरा-पूरा जीवन उसके सामने खड़ा होगा। वह नीन्द में डूबता जा रहा था और उसके विचार उलझने लगे थे। उसे मसक्वा की अदालत के लम्बे-लम्बे गलियारे दिखाई देने लगे थे। वह ख़ुद को अपनी बहनों के सामने भाषण देते हुए देख रहा था और बैण्ड कीआवाज़ सुनाई दे रही थी जैसे वह कोई धुन बजा रहा हो – शूं ऽऽऽ ... शूंऽऽऽ ... । अचानक बीच में उसे ढोल-सा बजने की आवाज़ फिर सुनाई देने लगी — ढम-ढम-ढम-ढम !

उसे अचानक याद आया कि एक बार पंचायत भवन में जब वह क्लर्क से बात कर रहा था तो उसने कोई आदमी देखा था। उस पतले-दुबले, पीले चेहरे वाले आदमी की आँखें और बाल काले थे। उसकी आँखें अजीब सी लग रही थीं, जैसे वह खाना खाने के बाद देर तक सोता रहा हो, जिससे उसके चेहरे का छवि बिगड़ गई थी। उसने बड़े-बड़े ऐसे गमबूट पहने रखे थे, जो उसके पैरों में ढीले-ढाले दिखाई दे रहे थे। पंचायत के क्लर्क ने उस आदमी से उसका परिचय कराते हुए कहा था — जी, यही हमारी पंचायत के बीमा एजेण्ट हैं।

शायद वो लिसनीत्सकी ही था। यह वही लिसनीत्सकी था। लीजिन अन्दाज़ लगा रहा था। उसे लिसनीत्सकी की धीमी आवाज़ और चाल-ढाल याद आ गई। उसे लगा कि अब जैसे वह उसके आसपास ही घूम रहा है। अचानक वह डर से सिहर उठा। उसके माथे पर पसीना आ गया। उसने चिन्तित स्वर में ज़ोर से पूछा — यहाँ कौन है?

— ग्रामशेवक।

— तुम अभी तक यहीं हो? क्या कर रहे हो?

— मैं, जनाब, यह पूछना चाहता हूँ कि आपने कहा है कि गाँव के मुखिया को बुलाने की कोई ज़रूरत नहीं है। मैं डर रहा हूँ कि कहीं वे मुझ पर नाराज़ न होने लगें। वे आना चाहते थे। उन्हें बुला लाऊँ क्या?

— अरे, जाओ भई ! तुम क्यों मेरा दिमाग़ खराब कर रहे हो? — लीजिन ने आजिज़ आकर कहा और अपने सिर पर कम्बल ओढ़ लिया।

— जनाब ! वे नाराज़ न हो जाएँ। लेकिन ठीक है, मैं जाता हूँ, जनाब ! आप आराम से सोएँ।

लशअदीन बाहर चला गया। बाहर कुछ लोग हंस रहे थे और धीमे स्वरों में बात कर रहे थे।

गवाह शायद वापिस लोट आए हैं — जाँच अधिकारी ने सोचा — कल इन ग़रीबों को थोड़ा पहले छोड़ दूँगे। जैसे ही सुबह होगी, हम पोस्टमार्टम का काम शुरू कर देंगे। वह फिर से सोने ही लगा था कि अचानक फिर किसी के क़दमों की आहट आने लगी। लेकिन कोई धीमे क़दमों से नहीं चल रहा था बल्कि ऐसा लग रहा था कि कुछ लोग शोर करते हुए भाग-दौड़ कर रहे हों। तरह तरह की आवाज़ें आ रही थीं। तभी जैसे किसी ने जैसे भक्क से माचिस की तीली जलाई हो। डाक्टर स्तरचेंका तीली पर तीली जला रहा था और थोड़ी नाराज़गी से जल्दी जल्दी उससे पूछ रहा था — आप सो रहे हैं? आप सो रहे हैं क्या?

स्तरचेंका ऊपर से नीचे तक बर्फ़ से ढका हुआ था, जैसे ठण्ड उससे ही निकलकर बाहर आ रही हो — आप सो रहे हैं क्या? अरे, उठिए, उठिए, ज़मींदार ताउनिस के घर चलना है। उन्होंने अपनी स्लेज भिजवाई है आपके लिए। चलिए, चलते हैं। वहाँ कम से कम ढंग का खाना तो मिल जाएगा और आदमियों की तरह सो भी सकेंगे। देखिए न, मैं ख़ुद आपको लेने आया हूँ। बढ़िया घोड़े हैं। हम बीस मिनट में उनके घर पहुँच जाएँगे।

— अभी क्या समय हुआ है?

— सवा दस बजे हैं।

लीज़िन ने नीन्द में उठकर गमबूट चढ़ाए , पोस्तीन पहनी, मफ़लर लगाया, ऊपर से टोपी पहनी और सराय से बाहर निकल आया। ठण्ड ज़्यादा नहीं थी, लेकिन हवा बहुत ठण्डी थी। हवा की वजह से बर्फ़ बादलों की तरह उड़ रही थी। ऐसा लगता था जैसे बादल डरकर भाग रहे हों। सराय के प्रवेशद्वार के छप्पर के पास और चारीदीवारी के पास बर्फ़ के ऊँचे-ऊँचे ढेर लगे हुए थे। डाक्टर और जाँच अधिकारी स्लेज में बैठ गए। स्लेज में जुते घोड़ों को हाँकनेवाले बर्फ़ से ढके कोचवान ने पीछे से आकर स्लेज के पर्दे बन्द कर दिए, जिसकी वजह से हवा आनी बन्द हो गई और स्लेज में थोड़ी सी गर्मी पैदा हो गई।

— चलो भई, चलो !

स्लेज गाँव के रास्ते पर आगे बढ़ी। जाँच अधिकारी को घोड़ों के पैरों की सरपट आवाज़ सुनकर एक गीत याद हो आया — बर्फ़ ढँकी मेड़ें उभर आई हैं। गाँव में चारों तरफ़ बसे हर घर में लालटेनें जली हुई थीं, जिन्हें देखकर ऐसा लग रहा था कि कोई बड़ा त्योहार आनेवाला है। सभी किसान जगे हुए थे क्योंकि उन्हें डर था कि रात को उनके यहाँ आत्महत्या करने वाले साहब का भूत आ सकता है। कोचवान उदास था और चुप था। शायद वह सराय के पास देर तक खड़ा रहकर ऊब चुका था और वह अभी भी भूतों के बारे में सोच रहा था।

स्तरचेंका ने अचानक कहा — जब ज़मींदार साहब को यह पता लगा कि आप सराय में अकेले रात बिता रहे हैं तो वे और उनके घर के सब लोग मुझ पर नाराज़ होने लगे कि मैं आपको अपने साथ लेकर क्यों नहीं आया।

गाँव से बाहर निकलते हुए कोचवान अचानक चीख़कर बोला – बचके, बचके। अरे भई, देख के चलो।

सड़क के किनारे घुटनों-घुटनों तक बर्फ़ में धँसे एक आदमी की आकृति दिखाई दी, जो उनकी तीन घोड़ोंवाली स्लेज को देख रहा था। जाँच अधिकारी को उसकी लाठी और उसके बग़ल में बैग दिखाई दिया। उसे लगा कि यह लशअदीन था। उसे यहाँ तक लगा कि वह मुस्करा रहा था। लेकिन वह सिर्फ़ एक क्षण के लिए दिखाई दिया था और फिर ग़ायब हो गया।

स्लेज जंगल के किनारे-किनारे फिसलती रही, फिर वह जंगल की एक लीक पर आगे बढ़ने लगी। पुराने चीड़ के पेड़ों, नए भोजवृक्षों और ऊँचे बलूत के पेड़ों के पास से गुज़रते हुए स्लेज आगे ही आगे बढ़ती जा रही थी। तभी हाल ही में काटे गए पेड़ों के ढेर दिखाई देने लगे। अचानक सारा वातावरण बदल गया और चारों तरफ़ बर्फ़ के ढेर लगे हुए दिखाई देने लगा। कोचवान ने बताया कि उनकी स्लेज जंगल में से गुज़र रही हैं लेकिन जाँच अधिकारी को घोड़ों के सरपट दौड़ने की आवाज़ के अलावा और कोई आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी। उसे अपनी पीठ पर तेज़ हवा महसूस हो रही थी। अचानक घोड़े रुक गए।

— अरे, क्या हुआ, भई? — नाराज़ होकर स्तरचेंका ने पूछा।

कोचवान चुपचाप अपनी सीट से उतरा और स्लेज की चारों तरफ चक्कर काटने लगा।

बर्फ़ के ऊँचे-ऊँचे ढेरों में वह लड़खड़ाते हुए चल रहा था और स्लेज की चारों तरफ अपना घेरा बढ़ाता जा रहा था और इस तरह स्लेज से लगातार दूर होता जा रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे वह नाच रहा हो। थोड़ी देर में वह अपनी जगह पर लौट आया और स्लेज दाईं तरफ मोड़ने की कोशिश करने लगा।

— मियां रास्ता भटक गए क्या? स्तरचेंका ने पूछा।

— नहीं, नहीं।

तभी एक गांव दिखाई देने लगा। गांव में एक भी बत्ती नहीं जल रही थी। स्लेज फिर जंगल से होकर गुज़रने लगी। इसके बाद फिर से खेत और मैदान आ गए। स्लेज़ फिर से रास्ता भटक गई थी। कोचवान फिर से अपनी सीट से उतरा और स्लेज के चारों ओर जैसे नाचने लगा। तीन घोड़ोंवाली स्लेज यानी त्रोइका फिर से बर्फ़ पर फिसलने लगी। घोड़े बुरी तरह से हाँफने लगे थे और पसीने से भीग गए थे। अब स्लेज जिस जगह पर पहुँच गई थी वहाँ तेज़ हवा चल रही थी, जिसकी वजह से पेड़ों के हिलने-डुलने का शोर सुनाई दे रहा था। यह शोर सुनकर मन में डर पैदा हो रहा था। कुछ भी दिखाई देना बन्द हो गया था।

अचानक घोड़े बड़ी तेज़ी से एक दिशा में भागने लगे। तेज़ चमकती रोशनियाँ दिखाई देने लगीं, जो आँखों को चुभ रही थीं। एक बंगले की खिड़कियों से रोशनी छलक रही थी। कुत्तों के भौंकने की आवाज़ें सुनाई देने लगीं। तभी कुछ और लोगों की आवाज़ें सुनाई दीं। ऐसा लगा कि स्लेज अपनी मंज़िल पर पहुँच गई थी। जब तक इन लोगों ने बंगले में घुसकर दहलीज़ में अपने भारी भरकम कोट और जूते उतारे, ऊपर की मंज़िल से एक फ्रांसीसी गीत की धुन सुनाई देने लगी। बच्चों के उछलने-कूदने की आवाज़ें आ रही थीं। घर में घुसने पर गरमी का एहसास होने लगा था। लगता था कि किसी पुराने जागीरदार के बंगले में पहुंच गए हैं। आम तौर पर इस तरह के बंगलों पर इस बात का कोई असर नहीं होता कि बाहर मौसम कैसा है। ये बंगले हमेशा गर्म रहते हैं, साफ़-सुथरे होते हैं और बेहद आरामदेह होते हैं।

— वाह, वाह, पहुँच गए — यह कहते हुए जागीरदार ताउनिस बाहर निकल आए थे। मोटी गर्दनवाले और बड़ी तोन्दवाले जागीरदार ने जांच अधिकारी से हाथ मिलाते हुए कहा — आइए, आइए, तशरीफ़ लाइए। आपसे मिलकर बहुत ख़ुशी हुई। वैसे भी आप और मैं, हम दोनों हमपेशा हैं। कभी मैं भी सरकारी वक़ील था। हालांकि मैंने सिर्फ दो साल वहाँ काम किया और दो साल बाद मैं वह नौकरी छोड़कर यहाँ गांव में चला आया। और यहीं रहते-रहते बूढ़ा हो गया। सीधे-सीधे कहें तो अब बूढ़ा शेर हूँ। ख़ैर, चलिए, चलिए, भीतर चलिए।

जागीरदार ताउनिस धीमी आवाज़ में बोलने की कोशिश कर रहे थे। मेहमानों के साथ वे ऊपर की मंज़िल में पहुँचे।

— मैं तो छड़म-छड़ा हूँ। मेरी बीवी कब की मर चुकी है। और ये मेरी बेटियाँ हैं। इनसे मिलिए।

इतना कहकर उन्होंने पीछे की ओर मुड़कर तेज़ आवाज़ में कहा — वहाँ ज़रा इग्नात को बता देना कि सुबह आठ बजे तक चाय लगा दे।

ऊपर हाल में उनकी चार बेटियाँ बैठी हुई थीं। चारों लड़कियाँ ख़ूबसूरत और जवान थीं। चारों ने सलेटी रंग की अलग-अलग डिजाइन की पोशाकें पहन रखी थीं। हालाँकि चारों के बालों का स्टाइल एक जैसा ही था। इसके अलावा उनकी एक चचेरी बहन भी अपने बच्चों के साथ वहाँ बैठी हुई थी। यह औरत भी जवान और दिलचस्प थी। स्तरचेंका उनसे पहले ही परिचित था, इसलिए उसने कोई गीत सुनने की इच्छा जाहिर की। दो लड़कियाँ देर तक यह कहती रहीं कि उन्हें गाना नहीं आता है और उनके पास गानोंवाली डायरी भी नहीं है। लेकिन उनकी चचेरी बहन प्यानो के पीछे जा बैठी और उसने प्यानो की चाबियों का ढक्कन उठाकर प्यानो बजाते हुए काँपती हुई आवाज़ में ’हुक्म की बेगम’ के दो गीत सुनाए। इसके बाद वह फिर से उसी फ्रांसीसी गीत की धुन बजाने लगी, जो वह पहले भी लगातार बजा रही थी। बच्चे पैरों से उस धुन की आवाज में थप-थप कर रहे थे। स्तरचेंका भी नाचने की मूड में आ गया था और उछल-कूद करने लगा। सब उसकी तरफ देखकर हंसने लगे।

जाँच अधिकारी ज़ोर-ज़ोर से हंस रहा था। वह कद्रील नृत्य कर रहा था और लड़कियों को लुभाने की कोशिश कर रहा था। वह सोच रहा था — यह कैसा सपना देख रहा हूँ ? कहाँ मैं उस सराय के अन्धेरे कमरे में फूस पर पड़ा हुआ था और तिलचट्टों के सरसराने की आवाज़ सुन रहा था। वहाँ चारों तरफ बेकसी-सी छाई हुई थी। गवाहों के बोलने की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। तेज़ हवा और तूफ़ान चल रहा था। फिर यहाँ आते हुए रास्ते में भटकने का डर पैदा हो गया था और कहाँ यह रोशन कमरे, प्यानो की आवाज़, खूबसूरत लड़कियाँ, गोलमटोल बच्चे और हंसी-ख़ुशी से भरा माहौल। ऐसा लग रहा है जैसे मैं कोई सपना देख रहा हूँ, सिर्फ़ तीन मील की दूरी है, सिर्फ़ एक घण्टे का सफ़र किया और सब कुछ बदल गया। एक नई दुनिया दिखाई देने लगी।

लेकिन उसके दिमाग में जो उथल-पुथल मची हुई थी, उसकी वजह से वह इस बदले हुए माहौल का पूरा मज़ा नहीं ले पा रहा था। वह सोच रहा था कि यह ज़िन्दगी नहीं, ज़िन्दगी की टुकड़े हैं। इन टुकड़ों को देखकर ज़िन्दगी के बारे में कोई फ़ैसला नहीं लिया जा सकता है। उसे लड़कियों पर दया आ रही थी जो शहर से दूर यहाँ एकान्त में पड़ी हुई हैं और जिनका सारा जीवन यहीं देहात में पड़े-पड़े बीत जाएगा। सभ्यता से दूर इस तरह एकान्त में पड़े रहने का ही यह परिणाम होता है कि लोग ज़िन्दगी से ऊबकर आत्महत्या करने लगते हैं। इन आत्महत्याओं का कारण ऊब के अलावा और क्या हो सकता है? आख़िर इन आत्महत्याऔं का मतलब क्या है? उसका मानना था कि यदि यहाँ शहर से दूर उसे आसपास की ज़िन्दगी का मतलब समझ में नहीं आ रहा है या उसे यहाँ कोई ज़िन्दगी दिखाई नहीं दे रही है तो इसका मतलब यह है कि यहाँ कोई ज़िन्दगी है ही नहीं।

इसके बाद लड़कियों की चचेरी बहन के बच्चे विदा लेकर सोने चले गए और वहाँ खाना लगा दिया गया। खाना खाते हुए सराय में आत्महत्या करने वाले शख़्स लिसनीत्स्की का ज़िक्र चल निकला। स्तरचेंका कहने लगा — उसने अपनी बीवी और बच्चे को छोड़ दिया था। अगर मेरे बस में होता तो मैं ऐसे लोगों के लिए शादी करने पर ही रोक लगा देता ,जो अपने मन को काबू में रख नहीं सकते हैं और बात-बात पर भड़क उठते हैं। ऐसे लोगों को अपने जैसे ही बच्चे पैदा करने का कोई हक़ नहीं होना चाहिए। पागल बच्चे पैदा करके क्या होगा? यह तो जुर्म है, अपराध है।

जागीरदार ताउनिस ने उसकी बात सुनकर गहरी सांस भरते हुए और सिर हिलाते हुए कहा — कितना बदक़िस्मत था वह नौजवान ! अपनी जान लेने से पहले उसे कितने लम्बे समय तक दुख झेलना पड़ा होगा ! अभी उम्र ही क्या थी ? इस तरह की हालत किसी की भी हो सकती है। कितनी डरावनी बात है यह। इसे सहन करना आसान नहीं है।

सब लड़कियाँ बड़े ध्यान से जागीरदार ताउनिस पर नजर गड़ाए उनकी बात सुन रही थीं। लीज़िन को लगा कि उसे भी कुछ कहना चाहिए। लेकिन वह यह नहीं सोच पाया कि क्या कहा जाए। उसने सिर्फ इतना ही कहा — अरे, ये आत्महत्याएँ न हों तो अच्छा है।

उसे सोने के लिए गर्म कमरा मिला था और उसका बिस्तर काफ़ी नर्म था। बिस्तर पर एक पतली साफ़ और धुली हुई चादर बिछी हुई थी और उसका बदन कम्बल से ढका हुआ था। लेकिन उसे ज़रा भी आराम महसूस नहीं हुआ। शायद इसका कारण यह था कि बराबर वाले कमरे में जागीरदार साहब और डाक्टर देर तक बातें करते रहे थे और आतिशदान की चिमनी में तूफ़ान की तेज़ हवा गूँज रही थी। वैसे ही जैसे सराय में गूँज रही थी और शूं ऽऽऽऽ ... की आवाज़ करते हुए चीख़ रही थी।

जागीरदार साहब की बीवी दो साल पहले गुज़र गई थी, लेकिन वे उसे अभी तक बड़ी शिद्दत से याद किया करते थे। वे कोई भी बात करते तो उनकी मरहूम बीवी का ज़िक्र आ ही जाता था। हाँ, अब उनमें सरकारी वक़ील वाला कोई रौब-दाब नहीं रह गया था।

लीज़िन ऊँघता हुआ और पड़ोस के कमरे से आ रही आवाज़ें सुनता हुआ सोच रहा था — क्या सचमुच कभी मेरे साथ भी ऐसा ही हो जाएगा... ऐसी बेचारगी से भरी आवाज़?

जाँच अधिकारी को नीन्द ठीक से नहीं आई। कमरे में बेहद गर्मी थी, आराम भी नहीं था और उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह जागीरदार के घर में साफ़ बिस्तर पर नहीं सो रहा हो, बल्कि गांव की सराय में फूस पर पड़ा हुआ हो और गवाहों की फुसफुसाहट की आवाज़ें उसके कानों में आ रही हो। उसे लग रहा था कि मृतक लिसनीत्स्की उसके कहीं आस-पास ही है, उससे बस दस-पन्द्रह क़दम दूर। उसे बार -बार याद आ रहा था कि वह बीमा एजेण्ट, कालेबालों वाला और फीके चेहरे वाला वह आदमी अपने गन्दे और ऊँची ऐड़ी वाले जूतों में कैसे पंचायत के क्लर्क के कमरे में आया था। बाद में जैसे ग्रामसेवक ने उसका परिचय कराते हुए कहा — ये हमारे बीमा एजेण्ट हैं। उनीन्दा सा वह सपने में देख रहा था कि कैसे ग्रामसेवक और बीमा एजेण्ट, दोनों ही एक-दूसरे को सहारा देते हुए तूफ़ान में आगे बढ़ रहे थे और भंवर उनके सिरों पर चक्कर काट रहा था तथा उन्हें अपने साथ उड़ा ले जाने की कोशिश कर रहा था। वे दोनों गा रहे थे — हम चलें, हम चलें, हम चलें ...।

बूढ़ा ग्रामसेवक किसी नाटक में काम करनेवाले जादूगर ही तरह लग रहा था। दोनों ऐसे ही गा रहे थे जैसे किसी नाटक में गा रहे हों — हम चलें, हम चलें, हम चलें …। तुम्हें गर्मी लग रही है, तुम रोशनी में हो और हम यहाँ ठण्ड में मर रहे हैं, सड़ रहे हैं। हम बर्फ़ में पड़े हैं, न कोई सुख हमें है और न शान्ति। जीवन है कितना भारी, मुश्किल यह ज़िन्दगी सारी, तुम्हारी और हमारी। हम चलें, हम चलें, हम चलें …।

अचानक लीजिन की नीन्द खुल गई। वह बिस्तर पर बैठा हुआ था। कितना ख़राब सपना था ! वह बीमा एजेण्ट और ग्रामसेवक साथ-साथ क्यों दिखाई दिए? यह क्या गड़बड़ है और अब जब उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था तो उसे लग रहा था कि बीमा एजेण्ट और ग्रामसेवक में कोई न कोई समानता ज़रूर है। शायद दोनों का जीवन एक जैसा ही है। हालाँकि दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़े अगल-बगल नहीं चल रहे हैं, लेकिन दोनों के बीच में कोई अनजान रिश्ता ज़रूर है। यही नहीं, वे जागीरदार के साथ भी जुड़े हुए हैं। सब कुछ एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। इस ज़िन्दगी में कुछ भी अचानक नहीं होता। यहाँ तक कि रेगिस्तान में भी कुछ अचानक नहीं होता। जैसे सबकी रुह एक ही हो, सब की मंज़िलें एक ही हों। और इस सब को समझने के लिए, इस सब को जानने पहचानने के लिए शायद सोचना कम चाहिए, विचारना कम चाहिए, बल्कि इस ज़िन्दगी में घुसकर उसे उलट-पलटकर देखना आना चाहिए, ऐसा करना सबको नहीं आता। आत्महत्या करनेवाला, वह इनसान और वह ग्रामसेवक, वह बूढ़ा किसान जो हर रोज़ एक आदमी से दूसरे आदमी के पास जाता है, ये अचानक घटी घटनाएँ उस जीवन का हिस्सा हैं जिसे तुम बेतरतीब जीवन कहते हो। ये सब चीज़ें एक ही व्यवस्था का, एक ही तंत्र का हिस्सा हैं जो बहुत समझदार और अजीब है, उन लोगों के लिए, जो अपनी ज़िन्दगी को इस तंत्र का हिस्सा मानते हैं और उसे भली-भाँति जानते हैं।

लीज़िन यही सब सोच रहा था। वह अक्सर इसके बारे में सोचता था। परन्तु सिर्फ़ आज ही यह बात उसे पूरी तरह से और साफ़-साफ़ समझ में आई थी। वह फिर सोने के लिए लेट गया और उसे फिर से उस गीत की आवाज़ें सुनाई देने लगीं — हम चलें, हम चलें, हम चलें …। इस भारी और कड़वे जीवन से मिलने को गले, छोड़ रहे हम यह जीवन, खाओ पीओ और मस्त रहो मन, सोचने की यह बात नहीं, क्यों दुख आता है ... मरते हम यहीं, क्यों हम सुख से नहीं रह पाते, तुम जैसे हम नहीं बन पाते।

पहले भी इस तरह की बातें उसके मन में पैदा होती थीं, लेकिन आज जो बात उसके मन में आई, वह जैसे उसके दिल की परतों के पीछे धुन्धले मौसम में कहीं छुपी हुई थी और आज उसके मन में जैसे रोशनी से जल उठी। और उसे महसूस हुआ कि मर्दों का यह दुख और आत्महत्याएँ जैसे उसके ही ईमान का हिस्सा हों। वह यह नहीं सोच पाता कि अपने उद्देश्य को समर्पित ये लोग कैसा अन्धेरे भरा और भारी जीवन जी रहे हैं। यह सब कितना भयानक है। अपने लिए हंसी-ख़ुशी से भरा जीवन खोजने और ऐसे ही जीवन के सपने देखने का मतलब यह है कि और नए से नए लोग आत्महत्या करें। वे मेहनत और चिन्ताओं के बीच मरें या फिर कमज़ोर और अनाथ लोग बेचारगी में अपना जीवन गुज़ारें और हम उनके बारे में सिर्फ़ खाना खाते हुए कुछ थोड़ा-बहुत विचारें। और अचानक फिर उसके कानों में गूँजने लगता है वह गीत — हम चलें, हम चलें, हम चलें ...। जैसे कोई उसकी कनपटी पर हथौड़े मार रहा हो।

बहुत सुबह ही उसकी नींद खुल गई। उसके कमरे में जागीरदार साहब ज़ोर-ज़ोर से डाक्टर से कह रहे थे — अब आप नहीं लौट पाएँगे। देखिए तो बाहर कैसा मौसम है, चाहे तो कोचवान से पूछ लीजिए। मौसम बेहद ख़राब है और इस मौसम में लौटना बेहद मुश्किल होगा।

डाक्टर विनती भरी आवाज़ में कह रहा था — अरे, बस 3 किलोमीटर ही तो जाना है।

— चाहे आधा किलोमीटर जाना हो, पर नहीं जा पाएंगे। बाहर देखिए, मौसम कितना ख़राब है, एकदम नरक जैसा मौसम हो गया है। कहीं रास्ता भटक गए तो लेने के देने पड़ जाएँगे? इसलिए मैं आपको जाने नहीं दूँगा।

आतिशदान जलाने के लिए वहाँ आए नौकर ने अपने मालिक की आवाज़ में आवाज़ मिलाते हुए कहा — शाम तक मौसम ठीक हो जाना चाहिए।

और बराबर वाले कमरे में डाक्टर ख़राब मौसम पर बात करने लगा कि कैसे यह मौसम रूसी आदमी के चरित्र को प्रभावित करता है, जो लोगों का कहीं भी आना-जाना हराम कर देता है और उनके बौद्धिक विकास को रोकता है। लीज़िन उदासी के साथ डाक्टर की ये बातें सुन रहा था और खिड़की के बाहर पड़े बर्फ़ के ढेरों को देख रहा था। तेज़ हवा में उड़ती सफ़ेद बर्फ़ की वजह से बुराक़ सफ़ेदी के अलावा और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ रहा था। लीज़िन की नज़र तेज़ हवा में झूलते पेड़ों पर पड़ी जो हवा के ज़ोर से कभी दाईं ओर तो कभी बाईं ओर झुक रहे थे। तेज़ हवा के शोर सुनकर वह सोच रहा था — भला, यहाँ नैतिकता की क्या बात की जा सकती है? बर्फ़ की आन्धी के अलावा बात करने को रह ही क्या गया है।

दोपहर में खाना खाकर सब लोग बेकार में ही उस विशाल हवेली में इधर-उधर भटकने लगे। लोग बार-बार खिड़कियों से बाहर झाँक रहे थे। बर्फ़ के भंवर को देखते हुए लीज़िन सोच रहा था — वहाँ लिसनीत्स्की पड़ा हुआ है और गवाह हमारा इन्तज़ार कर रहे हैं।

घर में सब लोग ख़राब मौसम की ही बात कर रहे थे कि पिछले दो दिन से बर्फ़ की आन्धी चल रही है और आम तौर पर ऐसा नहीं होता है। शाम को 6 बजे सबने फिर से खाना खाया और फिर ताश खेलने बैठ गए। फिर नाचना-गाना होने लगा। रात को एक बार फिर खाना-पीना हुआ और सब लोग सोने के लिए लैट गए। इस तरह एक दिन और गुज़र गया।

सुबह होने से पहले रात में ही तूफ़ान शान्त हो चुका था। सुबह उठकर खिड़की से बाहर झाँका तो ईवा के नंगे पेड़ दिखाई पड़े, जिनकी नंगी और कमज़ोर टहनियों के चारों तरफ़ धुन्ध ही धुन्ध फैली हुई थी, मानो मौसम को अब अपनी बदमाशियों पर शर्म आ रही हो कि कितनी बेशर्मी के साथ वह पिछले दो दिनों तक उन्माद करता रहा। स्लेज में घोड़े जोत दिए गए थे और वे सुबह पाँच बजे से ही बाहर दरवाज़े के पास खड़े हुए थे। जब दिन निकल आया तो डाक्टर और जाँच अधिकारी ने अपने-अपने ओवरकोट और गमबूट पहने और घर के मालिक से विदा लेकर बाहर चले आए।

घर के फाटक पर कोचवान के पास ही ग्रामसेवक लशअदीन खड़ा हुआ था। उसके सिर पर टोपी नहीं थी। भारी पाले की वजह से उसका चेहरा लाल हो गया था। वह शायद दौड़ता हुआ जाँच अधिकारी और डॉक्टर को लेने आया था क्योंकि वह बुरी तरह से पसीने में भीगा हुआ था। बर्फ़ की परत से ढका वह अपने पुराने चमड़े के बैग के साथ वहाँ खड़ा हुआ था।

मेहमानों को विदा करने के लिए बाहर आए अस्तबल के साईस ने ग्रामसेवक को देखकर सख़्त आवाज़ में कहा — ऐ बूड्ढे, यहाँ क्यों खड़ा है? चल भाग यहाँ से।

लशअदीन ने मुस्कराते हुए जाँच अधिकारी और डाक्टर से कहा — जनाब, लोग वहाँ परेशान हो रहे हैं। कुछ लोग तो रोने भी लगे हैं। सब ये सोच रहे हैं कि आप लोग वापिस शहर लौट गए हैं। हमारे ऊपर दया कीजिए, सरकार, हम …।

डाक्टर और जाँच अधिकारी ने चुपचाप उसकी बात सुन ली और बिना कुछ कहे स्लेज में बैठ गए और सीरन्या के लिए रवाना हो गए। 1899

मूल रूसी नाम -- पो जिलाम स्लूझबी По делам службы