शशांक / खंड 1 / भाग-16 / राखाल बंदोपाध्याय / रामचन्द्र शुक्ल

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मन्त्रागुप्ति

पाटलिपुत्र के प्राचीन राजप्रासाद के चारों ओर गहरी खाईं थी। वह गंगा के जल से सदा भरी रहती थी। घोर ग्रीष्म के समय में भी खाईं में जल रहता था। इस समय वर्षा काल में खाईं मुँह तक भरी हुई है, पर और ऋतुओं में वह बहुत दूर तक जंगल से ढकी रहती थी। जिस नाली से होकर गंगा का पानी खाईं में आता था, वह कभी साफ न होने के कारण बालू से पट गई है। जब वर्षाकाल में गंगा का जल बढ़ता है तब उस नाली से ऊपर होकर खाईं में उलट पड़ता है। परिखा के ऊपर का प्राकार भी जगह जगह से गिर गया है। प्रासाद के चारों ओर जो परकोटा था वह पत्थर का था, पर नगर काठ का था। मरम्मत न होने से नगर के चारों ओर की दीवार प्राय: टूट फूट गई है। काठ के भारी भारी पटरों के हट जाने से बीच की मिट्टी गिर गिरकर खाईं को भर रही है। दीवार के ऊपर पेड़ पौधो का जंगल लग रहा है। नगरवाले दिन को भी उधर जाने से डरते हैं।

जिस दिन सबेरे यशोधावल ने सम्राट के पास जाकर राजकाज चलाने की इच्छा प्रकट की थी, उसी दिन सूर्य्योदय के पहले प्राचीन प्रासाद के प्रकार के ऊपर तीन भिक्खु बैठे बातचीत कर रहे थे। दूर पर एक और भिक्खु एक पेड़ के नीचे अंधेरे में खड़ा था। पेड़ पौधो के जंगल में बहुत से भिक्खु इधर उधार छिपे हुए पहरे का काम करते थे। जो तीन भिक्खु बातचीत कर रहे थे, उनमें से दो को तो हमारे पाठक जानते हैं, तीसरा व्यक्ति कपोतिक संघाराम का महास्थविर बुद्ध्घोष था। बन्धागुप्त, शक्रसेन और बुद्ध्घोष उत्तारापथ के बौद्ध्संघ के प्रधान नेता थे।

बुद्ध्घोष कह रहे थे “भगवान् बुद्धका नाम लेकर अब तक हम लोग बौद्ध्संघ की उन्नति का प्रयत्न निर्विघ्न करते आए हैं। पर अब इतने दिनों पर फिर बाधा का रंग ढंग दिखाई देता है। यशोधावलदेव रोहिताश्वगढ़ छोड़कर पाटलिपुत्र आ रहे हैं, यह संवाद उनके आने के पहले ही हम लोगों को मिल जाना चाहिए था। करुष1 देश के संघस्थविर कान में तेल डाले बैठे हैं। वे संघ के इतने बड़े और प्रबल शत्रु का कुछ भी पता नहीं रखते”।

1. करुषदेश = वर्तमान आरा या शाहाबाद का जिला।

शक्र -महास्थविर! इसमें करुष देश के संघस्थविरों का उतना दोष नहीं है। पुत्र के मरने पर यशोधावल पागल हो गए थे और पागलों की तरह ही दुर्ग में अपने दिन काटते थे। अस्सी वर्ष के ऊपर का बुङ्ढा फिर जवान होगा, इस बात का किसी को भरोसा न था; इसी से वे लोग निश्चिन्त हो बैठे थे।

बुद्ध-वज्राचार्य्य! सैकड़ों वर्ष तक बौद्ध्संघ की जो दुरवस्था रही वह किसी प्रकार इधर दूर हुई। अब जब अच्छे दिनों का उदय दिखाई पड़ रहा है तब असावधान रहना मूर्खों का काम है। जिन लोगों पर विश्व का कल्याण अवलम्बित है उन लोगों के योग्य यह कार्य नहीं हुआ। करुष देश के संघस्थविरों के अपराध का विचार तो पीछे होगा। अब इस समय जो विपत्ति सिर पर है उससे उध्दार का उपाय निकालना है। यशोधावल आया है, राजसभा में बैठा है और इस समय सम्राट के पास ही प्रासाद में रहता है। यदि पहले से कुछ संवाद मिला होता तो इस बात का कोई न कोई उपाय किया गया होता कि वह सम्राट के यहाँ तक न पहुँचने पावे। यशोधावल कोई ऐसा वैसा शत्रु नहीं है, यह तो आप लोग जानते ही हैं। किसी सामान्य बात के लिए पाटलिपुत्र नहीं आया है, इतना तो निश्चय समझिए और जब वह आ गया है तब वह साम्राज्य की ऐसी अव्यवस्था देख चुपचाप न बैठेगा, यह भी निश्चितहै। सम्राट और यशोधावल के बीच क्या-क्या परामर्श हुआ है, इसके जानने का भी हमारे पास कोई उपाय नहीं है। इस समय हम लोगों को बहुत ही सावधान रहना पड़ेगा, नहीं तो सर्वनाश हुआ समझिए। यशोधावल किस प्रकार नगर में आया, कुछ सुनाहै?

शक्र -मैंने अपनी ऑंखों देखा है। शशांक को मारने के लिए मैं प्रासाद के चारों ओर फिर रहा था। उसे भय दिखाने के लिए मैं गंगाद्वार पर खड़ा होकर भविष्य सुना रहा था; इसी बीच में मैंने देखा कि एक छोटी सी नाव आकर घाट पर लगी। उस पर से एक वृद्धऔर एक युवक उतरा। उनके निकट आते ही मैंने यशोधावल को पहचान लिया, पर उसने मुझे नहीं पहचाना। मैं विपद् देखकर एक पेड़ पर चढ़ गया और किसी प्रकार अपनी रक्षा कर सका।

बुद्ध-उसके अनन्तर क्या क्या हुआ कुछ पता किया?

बन्धु -प्रासाद में नियुक्त गुप्तचरों ने संवाद दिया है। गंगाद्वार पर शशांक के साथ यशोधावल का परिचय हुआ। कुमार के साथ ही साथ वह गंगाद्वार से ही होकर सभामण्डप में गया। यशोधावल अभी जीवित है, पहले तो सम्राट को इस बात पर विश्वास ही नहीं हुआ। जब यशोधावल ने सभामण्डप में प्रवेश किया तब सम्राट स्वयं वेदी से नीचे उतर आए और उन्होंने उसे गले से लगा लिया। सभा में जाकर वृद्धयशोधावल ने यह कहा कि मैं अपनी पौत्री के लिए अन्न की भिक्षा माँगने आया हूँ।

बुध्दा -ठीक है। सम्राट के साथ उसकी और क्या क्या बातचीत हुई, कुछ सुना है?

शक्र -कुछ भी नहीं। वह सम्राट के साथ अन्त:पुर तक जाता है, पट्टमहादेवी के घर मंस भोजन करता है इससे विष देने का भी कोई उपाय नहीं हो सकता। यशोधावल के आने पर एक बार मन्त्रणा सभा हुई थी, पर वहाँ क्या क्या हुआ, कोई कुछ भी नहीं कह सकता। उस समय स्वयं विनयसेन पहरे पर था।

बुद्ध-प्रासाद में रहनेवाले गुप्तचरों की संख्या दूनी कर दो और आज से जिन भिक्खुओं पर पूरा विश्वास हो, उन्हें छोड़ और किसी को इस काम में मत लेना।

बन्धु -अब आगे मन्त्रणा का क्या उपाय होगा? मैं देखता हूँ कि मुझे बंगदेश लौट जाना पड़ेगा।

बुद्ध-क्यों?

बन्धु -मैं ही यशोधावल के पुत्र की हत्या करने वाला हूँ, इस बात का पता उसे बिना लगे न रहेगा। मन्दिर के भीतर निरस्त्र पाकर बकरे की तरह मैंने उसके पुत्र को काटा है। जहाँ यह बात उसने सुनी कि वह न जाने क्या क्या कर डालेगा। यशोधावल कैसा विकट मनुष्य है, इसका धयान करो। उसकी प्रति हिंसा अत्यन्त भयंकर है। महास्थविर! अब तो मैं पाटलिपुत्र में नहीं ठहर सकता। मैं बंगदेश की ओर चला जाता हूँ। वहाँ रहकर जो काम होगा, निश्चिन्त होकर कर सकूँगा।

बुद्ध-संघस्थविर! क्या पागल हुए हो? भला इस विपत्ति के समय में तुम पाटलिपुत्र छोड़कर चले जाओगे? तुम अपने इस क्षणिक जीवन के लोभ में संघ का बना बनाया काम बिगाड़ोगे? यह कभी हो नहीं सकता। यदि मरना ही है तो संघ के कार्य के लिए मरो। तुम्हारे पहले न जाने कितने महास्थविर, न जाने कितने भिक्खु संघ के लिए प्राण दे चुके हैं। उन्होंने संघ की सेवा में अपने प्राण दिए, तभी संघ का अस्तित्व अब तक बना हुआ है। पहले तो कभी मृत्यु के भय ने तुम्हें नहीं घेरा था। इस समय तुम इतने व्याकुल क्यों हो रहे हो?

बन्धु-महास्थविर! साधारण मृत्यु से तो बन्धुगुप्त कभी डरनेवाला नहीं यह बात तो आप भी जानते हैं। पर यशोधावल के हाथ से जो मृत्यु होगी-बाप रे बाप!-वह अत्यन्त भीषण होगी, अत्यन्त यन्त्रणामय होगी। उसकी अपेक्षा तो हजार बार कुठार पर कण्ठ रखकर मरना अच्छा है। बंगदेश से मैं निश्चिन्त होकर संघ की सेवा कर सकूँगा। दूत और पत्र के द्वारा मन्त्रणा में योग देता रहूँगा।

बुद्ध-ऐसा नहीं हो सकता; बन्धुगुप्त! यह बात मेरी समझ में नहीं आती। हाँ, यदि इस विपत्ति के समय में तुम संघ को छोड़ देना चाहते हो तो चले जाओ।

बन्धुगुप्त सिर नीचा किए बैठे रहे। फिर धीरे धीरे बोले “महास्थविर! आपका इसमें कोई दोष नहीं है। हम सब भाग्यचक्र में बँधे हैं। यह सब मेरे अदृष्ट का फल है। अच्छा, तो मैं न जाऊँगा।”

धीरे धीरे पूर्व दिशा में ईंगुर की सी ललाई फैल चली। एक भिक्खु ने आकर कण्ठ से एक प्रकार का शब्द निकाला और कहा “देव! अब इस स्थान पर ठहरना ठीक नहीं है। सूर्योदय के साथ ही रास्ते में लोग इधर उधर चलने लगे हैं”।

तीन के तीनों उठ पड़े और तीन ओर को चले। चलते समय बुद्ध्घोष ने कहा “संघ स्थिविर! घबराना नहीं। मैं स्वयं जाकर इसका प्रबन्धा करता हूँ कि यशोधावल तुम्हारे पास तक न पहुँच सके। अब से उस पुराने मन्दिर के भुइँहरे (भूगर्भस्थगृह) को छोड़ और कहीं मन्त्रणा सभा न होगी”। बुद्ध्घोष के चले जाने पर शुक्रसेन ने हँसते हँसते कहा “स्थविर! तुम तो भाग्यचक्र को कुछ नहीं समझते थे न?” बन्धुगुप्त ने कोई उत्तर न दिया।